भारत की संस्कृति विश्व संस्कृति है। यह करोड़ों वर्ष से मानवता का
दिग्दर्शन करती आयी है। संस्कृतियाँ कभी अनेक नहीं होती, अपितु संस्कृति
सदा एक ही होती है। चूँकि संस्कृति धर्म-प्रेरित होती है। जैसे मनुष्य का
धर्म मानवता एक है, उसी प्रकार उसकी संस्कृति भी सदा एक (मानव संस्कृति) ही
रहती है। सभ्यता सभ्य समाज का निर्माण करती है। जबकि संस्कृति और भी
उत्कृष्ट सुसंस्कृत समाज का निर्माण करती है। सभ्यताओं के नाम पर जो संघर्ष
हमें इतिहास में पढ़ाया जाता है व सभ्यताओं का नही अपितु असभ्यताओं का
संघर्ष है। क्योंकि सभ्य मानव कभी लड़ता नही है। सभ्यता के नाम पर असभ्यता
ने यहाँ जमकर रक्तपात कराया। इन दानवता पूर्ण कृत्यों को देखकर धर्म भी
रोया और संस्कृति भी रोयी। लेकिन मानव ने इनके रोने की ओर कोई ध्यान नहीं
दिया। यही कारण है कि यहाँ पर नित्य झगड़े होते हैं। उस समय मानवता के साथ
जिस प्रकार हम बलात्कार करते हैं और स्वयं को जिस प्रकार हम खेमेबन्दियों
में विभक्त कर लेते हैं, उसे देखकर मानव पर और उसके विवेक पर दया आती है।
संस्कृति हममें मानवीय मूल्यों को अधिरोपित करती है। वह हमारे क्षुद्र
स्वभाव को समाप्त कर हमें मानव के प्रति जुडऩे के लिए प्रेरित करती है।
जबकि साम्प्रदायिकता अपना-अपना अस्तित्व अलग बनाये रखकर हमें एक-दूसरे से
दूरी बनाने के लिए प्रेरित करती है। इस प्रकार एक का परिणाम विकास है तो
दूसरी का विनाश है। संस्कृति विकास की उस दशा को प्राप्त करना चाहती है जो
मानव जीवन का अभीष्ट है। यानि सुसंस्कृत विकास के द्वारा परम धाम ईश्वर की
प्राप्ति। जबकि साम्प्रदायिकता उपभोक्तावादी मानव समाज का निर्माण करती है,
जिसमें भौतिक ऐश्वर्यों से सम्पन्न होकर भी सब एक-दूसरे से लड़ते हैं,
झगड़ते हैं और एक दिन भौतिक विकास विनाश में बदल जाता है। इस प्रकार सभ्यता
मानवता की कब्र तैयार करती है। जबकि संस्कृति मानवता को विकसित, उल्लसित
और मुखरित करती है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात हमें एक सुसंस्कृत और
धर्म प्रेमी भारतीय समाज का निर्माण करना अभीष्ट था। किन्तु हमने यहाँ
मज़हबी और जातीय गुटों, वर्गों और सम्प्रदायों को बढ़ावा देना आरम्भ कर
दिया, जिससे यहाँ आरक्षण का नया रोग लग गया। भारत के प्राचीन इतिहास को यदि
हम देखें तो राजा अपने राज्य में निर्धन वर्ग पर विशेष कृपा दिखाते हुए
उन्हें विशेष सुविधाएँ और आर्थिक सहायता प्रदान किया करते थे। उनका
दृष्टिकोण इस विषय में सदा स्पष्ट रहता था।उनकी सोच में कोई वर्ग,
सम्प्रदाय अथवा जाति नहीं होती थी अपितु एक ही शब्द होता था- निर्धन। जिसके
आर्थिक संसाधन इतने अल्प हैं कि उनके भीतर रहकर वह अपना गुजारा नहीं कर
सकता। उन्हें राजा विशेष अनुदान दिया करता था। आधुनिक विश्व में बैंकिग
व्यवस्था की खोज का मूलाधार भी यही है कि दुष्ट लोगों के शिंकजे से बचकर
निर्धन लोग राजा से कर्ज लें। फिर उसे धीरे-धीरे चुकता कर दें। किन्तु
व्यवहार में यह बैंकिग व्यवस्था उतनी सफल नहीं हो पायी जितनी होनी चाहिए
थी। कारण यह है कि शिक्षा संस्कार प्रदान करने वाली नहीं रही है। वह मानव
को मानव के काम आने का नहीं अपितु मानव से अपना काम निकालने का गुण सिखाती
है। अपना उल्लू सीधा करने की शिक्षा वर्तमान शिक्षा व्यवस्था हमें दे रही
है। फलत: बैंकिग व्यवस्था का लाभ निर्धन नहीं अपितु धनिक ही उठा रहा है।
इससे समाज में जातीय द्वेष बढ़ रहा है। मानव, मानव से दूर होता जा रहा है।
हमारे आधुनिक समाज में ‘आरक्षण-युद्घ च् लड़ा जा रहा है। कुछ लोग आरक्षण के
समर्थन में और कुछ विरोध में उतर आये हैं। निर्धन व्यक्ति तमाशा देख रहा
है। उसे पता नहीं है कि ये क्या हो रहा है? पेड़ की छाँव के नीचे बैठा वह
निरीह आँखों से तमाशा देख रहा है। आरक्षण-समर्थक और आरक्षण-विरोधी दोनों
उसे एक से ही जान पड़ते हैं। नेताओं के लिए निर्धनता की परिभाषा बड़ी
हास्यास्पद हो गयी है। अब एक जाति पूरी की पूरी निर्धन मान ली गयी है, जबकि
दूसरी पूरी की पूरी धनवान मान ली गयी है। पंडित के घर जन्म लेना अब अभिशाप
हो गया है। ऐसा तर्क आरक्षण विरोधी दे रहे हैं। उनका मानना है कि निर्धनता
सभी वर्गों में है। उसे एक ही जाति तक सीमित करके देखना अनुचित है। जबकि
आरक्षण-समर्थकों का कहना है कि सदियों से हमारी होती आयी उपेक्षा को अब हम
और अधिक सहन नहीं करेंगे। अन्याय, मन और शोषण अब समाप्त होना चाहिए।एक
छात्रा नीरज शर्मा का कहना है कि प्रतिभा और बोद्धिक स्तर पर मुझसे पिछड़ा
हुआ छात्रा जब बगल से उठकर आगे जाए तो दिल पर जो गुजरती है उसे बताया नहीं
जा सकता। नीरज के कथन में बल है, किन्तु मूर्खों के राज में बात का वजन
तोलने के उपकरण नहीं हुआ करते हैं। यही स्थिति हमारे राजनीतिज्ञों की है।
वे ना तो अपनी नीतियों का वजन तोल रहे हैं और न ही कार्यों का। फलस्वरूप
छात्रों ने अपने भविष्य की लड़ाई स्वयं लडऩा तय कर लिया है। जब राजा अन्धा
होता है तो जनता इसी प्रकार किया करती है। किन्तु किसी देश का युवा वर्ग इस
प्रकार आन्दोलित हो उठे तो उसे सहज भाव नहीं लेना चाहिए। युवा वर्ग किसी
भी देश का भविष्य होता है। यदि भविष्य आन्दोलित है, आव्रफोषित है, तो इस पर
सोचना ही चाहिए।भारत में जो जातियाँ अगड़ी मान ली गयी हैं उनमें बहुत से
परिवार अभी निर्धन हैं। इतने निर्धन कि उनकी निर्धनता को देखकर संभवत:
निर्धनता भी लज्जित हो जाये। भारत की आधे से अधिक जनता अभी निर्धनता से जूझ
रही है। उस निर्धनता से जूझती जनता का सर्वेक्षण करा लिया जाये कि उसमें
सभी जातियों और मजहबों के लोग हैं या किसी विशेष जाति या मजहब के ही लोग
हैं। निर्धनता का भी धर्म और जाति बनाकर हमारे नेताओं ने जो स्थिति
उपहासास्पद ढंग से भारत में उत्पन्न की है, उससे उनके मानसिक दीवालियेपन का
भांडा फूटता है। हमारे यहाँ जो व्यक्ति आरक्षण का लाभ पाकर एक बार एम.पी.
बन जाता है, या कोई अधिकारी बन जाता है, उसके पश्चात् उसकी स्थिति आर्थिक
रूप से इतनी सुदृढ़ हो जाती है कि रातों रात उसमें गुणात्मक परिवर्तन आ
जाता है। इसके पश्चात् ये लोग अपने बेटे बेटियों या परिवार के लोगों को
लाभान्वित करने की युक्ति खोजने में लग जाते हैं। जिससे स्थिति ये हो गयी
है कि आरक्षण की पंक्ति में लगा आरक्षण लाभार्थी भी आज आरक्षण लाभ से वंचित
होता जा रहा है। वे लोग आरक्षण को अपने लिए आरक्षित बना चुके हैं जो इसके
माध्यम से एक बार उपर आ चुके हैं। इस प्रकार आरक्षण व्यवस्था की भी चोरी हो
गयी है। असल लाभार्थी इससे वंचित कर दिया गया है। फलस्वरूप निर्धन इसके
उपरान्त भी निर्धन है। वह आज भी दलित है। यदि निष्पक्ष सर्वे किया जाए तो
ज्ञात होगा कि आज का दलित वह दलित है जिसे लाभ प्राप्त दलित ही दल रहा है।
इस व्यवस्था के विरुद्घ कोई आवाज नहीं उठ रही है। घूसखोर, रिश्वतखोर और
काले धन के स्वामी तथा कथित दलित आज राज्य की विधन सभा और देश की संसद में
पहुँच रहे हैं। आरक्षण व्यवस्था का वास्तविक पात्रा व्यक्ति पात्रता की
पंक्ति में खड़ा ही दम तोड़ रहा है। जो व्यक्ति उन्नति करें ही जो उस
उन्नति से वंचित हैं उनकी उन्नति में सहायक भी बनें।आरक्षण तो किसी के अवसर
छीन रहा है और किसी को दे रहा है। ऐसी उन्नति उन्नति नहीं है। क्योंकि
किसी से किसी का टुकड़ा छीनकर दूसरे का पेट भर देना अन्याय है। किसी की तेज
रफ्रतार को धीमी करके पीछे रहने वाले दूसरे व्यक्ति को आगे निकाल देना भी
किसी के साथ अन्याय है। हाँ, यदि किसी की प्रतिभा साध्नों के अभाव में
विकसित नहीं हो पा रही है तो उसे उस की प्रतिभा के विकास के लिए समुचित
अवसर उपलब्ध् कराना न्याय संगत है। यही संरक्षणवाद है। जो भारतीय संस्कृति
का मूल वाक्य है, मूल आधर है।
No comments:
Post a Comment