राष्ट्रीय पुनर्जागरण के साथ-साथ हिंदुत्व का पुनर्जागरण बहुत जरूरती है। डॉ सुब्रहमनियन स्वामी ने ''हिंदुत्व व राष्ट्रीय पुनरुत्थान''
नामक एक जबरदस्त किताब लिखी है और आज के समय हर हिंदू को 24 घंटे इस
पुस्तक को अपने पास रखना ही चाहिए, पढ़ना चाहिए और किसी को भी उपहार में
केवल यही पुस्तक देना चाहिए। भारत व हिंदुत्व की पूरी यात्रा, संकट और समाधान
आपको केवल 255 पेज में समझ में आ जाएगी। प्रभात प्रकाशन से है, प्लीज हर
हिंदू इसे खरीदे यदि वास्तव में आगे बढने की दिशा चाहता है।
डॉ स्वामी ने जाति व्यवस्था को हिंदू समाज की सबसे बड़ी कमजोरियों में शामिल करते हुए लिखा है, '' भगवान ने गुण व धर्म के आधार पर वर्ण का निर्माण किया, लेकिन कालांतर में यही विकृत होकर जन्म आधारित जाति बन गई, जिसे हम धर्म की गंभीर विकृति व भ्रष्ट रूप मानते हैं। गीता में भगवान कृष्ण की कर्म आधारित परिभाषा के अनुसार डॉ अंबेडकर तो ब्राहमण थे, भले ही वह जन्म से न हों। गुण-कर्म से उन्होंने बौद्धिक नेतृत्व प्रदान किया तथा धन लोभ से वह दूर रहे। इसके बावजूद हम उन्हें अनुसूचित जाति में शामिल मानते हैं। उनको तो 'महर्षि अंबेडकर' कहा जाना चाहिए।
आगे स्वामी लिखते हैं, '' हमें डॉ एम.वी. नाडकर्णी का ऋणि होना चाहिए, क्योंकि उन्होंने एक गहन अध्ययन ' कास्ट सिस्टम इनसिट्रिंक टू हिंदुइज्म'(अर्थात क्या जाति व्यवस्था हिंदुत्व में अंतर्निहित है) में यह निर्विवाद रूप से सिद्ध किया है कि हमें इस मिथ को सदैव के लिए नष्ट कर देना चाहिए कि जाति व्यवस्था हिंदुत्व में अंतर्निहित है। डॉ नाडकर्णी कहते हैं कि जाति व्यवस्था चरमरा रही है, क्योंकि इसके कारण स्वयं महत्व खो चुके हैं। जाति व्यवस्था की प्रासंगिकता, भूमिका, उपयोग व औचित्य सभी समाप्त हो रहे हैं।''
डॉ सुबहमनियन स्वामी के मुताबिक, '' जाति व्यवस्था का उददेश्य ब्राहमणों की श्रेष्ठता स्थापित करना कतई नहीं था (खुद को कर्म की जगह जन्मजात ब्राहमण मानने यह जान लें कि स्वामी स्वयं कर्म साथ साथ जन्म से भी ब्राहमण ही हैं)। यह (ब्राहमण की श्रेष्ठता) जन्म आधारित नहीं थी। ब्राहमण श्रद्धा व सम्मान के पात्र इसलिए हुए क्योंकि वे शिक्षा व धर्म के प्रति समर्पित थे तथा सादा जीवन व्यतीत करते थे। किंतु ऋषि बनने के लिए ब्राहमण परिवार में जन्म लेना अनिवार्य नहीं था। वाल्मीकि, वेदव्यास, विश्वमित्र एवं कालिदान में से कोई भी ब्राहण परिवार में नहीं जन्मा था (जन्म आधारित जाति को मानने वाले इन उदाहरणों को ध्यान में रखें)।''
''ब्राहमण कानून के ऊपर भी नहीं थे। रावण जो एक महान ब्राहमण बुद्धिमान था, को भी सीता के अपहरण की कीमत चुनानी पड़ी थी। जाति का वर्गीकरण मात्र गुण व कर्म पर ही आधारित था, जैसा कि श्रीकृष्ण ने गीता के अध्यया-4 के श्लोक-13 में 'चुतुर्वण्यम माया श्रष्टम गुण-कर्म विभागध:' एवं 'उत्तरगीता' में अर्जुन को संबोधित करते हुए कहा था।''
स्वामी आगे लिखते हैं, '' हाल के वर्षों में डीएनए पर हुए शोध से भी जाति आधारित नस्लीय अंतर सिद्ध नहीं हो पाया है। ऐसे में हम इस व्यवस्था (अर्थात जन्मगत जाति की व्यवस्था) को कैसे स्वीकार करें, जो अपना महत्व खो रही है तथा संपूर्ण हिंदू-एकता में बाधा बनी हुई है। मैं भारत के सभी धर्मगुरुओं एवं धर्माचार्यों से आग्रह करता हूं कि जाति व्यवस्था की समाप्ति हेतु मार्ग प्रशस्त करें ताकि हिंदुत्व का पुनरुत्थान संभव हो सके। यदि वर्ण व्यवस्था को मानना मजबूरी हो तो इसे पूर्ण रूप से गुण-कर्म पर ही आधारित माना जाना चाहिए।''
साभार: डॉ सुब्रहमनियन स्वामी कृत ''हिंदुत्व व राष्ट्रीय पुनरुत्थान''
डॉ स्वामी ने जाति व्यवस्था को हिंदू समाज की सबसे बड़ी कमजोरियों में शामिल करते हुए लिखा है, '' भगवान ने गुण व धर्म के आधार पर वर्ण का निर्माण किया, लेकिन कालांतर में यही विकृत होकर जन्म आधारित जाति बन गई, जिसे हम धर्म की गंभीर विकृति व भ्रष्ट रूप मानते हैं। गीता में भगवान कृष्ण की कर्म आधारित परिभाषा के अनुसार डॉ अंबेडकर तो ब्राहमण थे, भले ही वह जन्म से न हों। गुण-कर्म से उन्होंने बौद्धिक नेतृत्व प्रदान किया तथा धन लोभ से वह दूर रहे। इसके बावजूद हम उन्हें अनुसूचित जाति में शामिल मानते हैं। उनको तो 'महर्षि अंबेडकर' कहा जाना चाहिए।
आगे स्वामी लिखते हैं, '' हमें डॉ एम.वी. नाडकर्णी का ऋणि होना चाहिए, क्योंकि उन्होंने एक गहन अध्ययन ' कास्ट सिस्टम इनसिट्रिंक टू हिंदुइज्म'(अर्थात क्या जाति व्यवस्था हिंदुत्व में अंतर्निहित है) में यह निर्विवाद रूप से सिद्ध किया है कि हमें इस मिथ को सदैव के लिए नष्ट कर देना चाहिए कि जाति व्यवस्था हिंदुत्व में अंतर्निहित है। डॉ नाडकर्णी कहते हैं कि जाति व्यवस्था चरमरा रही है, क्योंकि इसके कारण स्वयं महत्व खो चुके हैं। जाति व्यवस्था की प्रासंगिकता, भूमिका, उपयोग व औचित्य सभी समाप्त हो रहे हैं।''
डॉ सुबहमनियन स्वामी के मुताबिक, '' जाति व्यवस्था का उददेश्य ब्राहमणों की श्रेष्ठता स्थापित करना कतई नहीं था (खुद को कर्म की जगह जन्मजात ब्राहमण मानने यह जान लें कि स्वामी स्वयं कर्म साथ साथ जन्म से भी ब्राहमण ही हैं)। यह (ब्राहमण की श्रेष्ठता) जन्म आधारित नहीं थी। ब्राहमण श्रद्धा व सम्मान के पात्र इसलिए हुए क्योंकि वे शिक्षा व धर्म के प्रति समर्पित थे तथा सादा जीवन व्यतीत करते थे। किंतु ऋषि बनने के लिए ब्राहमण परिवार में जन्म लेना अनिवार्य नहीं था। वाल्मीकि, वेदव्यास, विश्वमित्र एवं कालिदान में से कोई भी ब्राहण परिवार में नहीं जन्मा था (जन्म आधारित जाति को मानने वाले इन उदाहरणों को ध्यान में रखें)।''
''ब्राहमण कानून के ऊपर भी नहीं थे। रावण जो एक महान ब्राहमण बुद्धिमान था, को भी सीता के अपहरण की कीमत चुनानी पड़ी थी। जाति का वर्गीकरण मात्र गुण व कर्म पर ही आधारित था, जैसा कि श्रीकृष्ण ने गीता के अध्यया-4 के श्लोक-13 में 'चुतुर्वण्यम माया श्रष्टम गुण-कर्म विभागध:' एवं 'उत्तरगीता' में अर्जुन को संबोधित करते हुए कहा था।''
स्वामी आगे लिखते हैं, '' हाल के वर्षों में डीएनए पर हुए शोध से भी जाति आधारित नस्लीय अंतर सिद्ध नहीं हो पाया है। ऐसे में हम इस व्यवस्था (अर्थात जन्मगत जाति की व्यवस्था) को कैसे स्वीकार करें, जो अपना महत्व खो रही है तथा संपूर्ण हिंदू-एकता में बाधा बनी हुई है। मैं भारत के सभी धर्मगुरुओं एवं धर्माचार्यों से आग्रह करता हूं कि जाति व्यवस्था की समाप्ति हेतु मार्ग प्रशस्त करें ताकि हिंदुत्व का पुनरुत्थान संभव हो सके। यदि वर्ण व्यवस्था को मानना मजबूरी हो तो इसे पूर्ण रूप से गुण-कर्म पर ही आधारित माना जाना चाहिए।''
साभार: डॉ सुब्रहमनियन स्वामी कृत ''हिंदुत्व व राष्ट्रीय पुनरुत्थान''
No comments:
Post a Comment