कम्बोडिया
के अंगकोर वाट मंदिर की तीर्थ यात्रा के लिये अनेकों श्रद्धालु म्यांमार
के रंगून के रास्ते से जाते थे । नेपाल में पशुपति नाथ मंदिर की यात्रा तो
अभी तक चलती है । लेकिन धीरे धीरे दक्षिण एशिया के देशों पर इस्लामी सेनाओं
के आक्रमण प्रारम्भ हुये और इस पूरे क्षेत्र में इस प्रकार की लम्बी तीर्थ
यात्राएँ निरापद नहीं रहीं । कालान्तर में भारत के अनेक हिस्सों पर
अंग्रेज़ों और अन्य यूरोपीय जातियों का क़ब्ज़ा हो गया । इसी प्रकार दक्षिण
पूर्व एशिया केअनेक देशों म्यांमार, थाईलैंड, सिंगापुर , मलेशिया , लाओस,
वियतनाम और कम्बोडिया इत्यादि पर ब्रिटिश, डच, फ्रांस, इत्यादि देशों का
आधिपत्य हो गया । इन यूरोपीय शासकोंने अपने लाभ के लिये दक्षिण पूर्वी
एशिया के इन देशों में भारत से सस्ते मज़दूर तो भेजने शुरु कर दियेलेकिन आम
लोगों का आवागमन रुक गया । ऐसे वातावरण में तीर्थ यात्राओं का रुकना
स्वाभाविक ही था । उसके बाद तो नये शासकीय नियमों के कारण एक दूसरे के
क्षेत्र में आने जाने के लिये वीज़ा इत्यादि के प्रावधान दुनिया भर के
देशों में होने लगे । विदेशी साम्राज्यवादियों की चपेट में आ गये इस पूरे
क्षेत्र में तीर्थ यात्राएँ एक प्रकार से बन्द ही हो गईं ।पूरे एशिया ,
ख़ास कर दक्षिण पूर्व एशिया में अपने समय का सबसे बड़ा तीर्थ स्थल , #विष्णु
को समर्पित कम्बोडिया का अंगकोर मंदिर , जिसमेंकेवल भारत से ही नहीं बल्कि
इस क्षेत्र में पड़ने वाले सभी देशों के तीर्थ यात्री पहुँचते थे , काल के
प्रवाह में ऐसा अदृश्य हुआ कि उसका नाम ही लोग भूल गये । अंगकोर मंदिर
दुनिया का सबसे बड़ा मंदिर है । जिस मंदिर में कभी मंत्रोच्चार होता था,
शंख ध्वनि गूंजा करती थी , वही मंदिर धीरे धीरे जंगलों की घनी छायामें
विलुप्त हो गया । लेकिन इतिहास का एक चक्र पूरा हुआ तो मंदिर एक बार फिर
विश्व पटल पर उभरने लगा , परन्तु तब तक भारत से कम्बोडिया जाने के सभी स्थल
मार्ग अवरूद्ध हो चुके थे । परिस्थितियाँ बदल गईं थीं । साधारण
तीर्थयात्रियों की बात तो दूर साधु संतों के लिये भी अंगकोर के दर्शन करना
संभव नहीं रहा । भारत से कम्बोडिया के जिस स्थल मार्ग पर कभी भगवाधारी साधु
महात्मा विष्णु सहस्रनामा का जाप करते हुये अंगकोर का दर्शन करने हेतु
जाते प्रायः मिलजाते थे , उन मार्गों पर सन्नाटा छा गया । कम्बोडिया पर
क़ब्ज़ा करने केबाद कम्युनिस्टों ने तो अंगकोर मंदिर को ही अपनी लड़ाई का
केन्द्र बना दिया । स्थितियाँ सामान्य हो जाने पर भारत सरकार के पुरातत्व
विभाग ने लाखों रुपया ख़र्च करके मंदिर के मूल स्थापत्य को संरक्षित करने
का प्रयास किया था ।अटल विहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री काल में
मेकांग-गंगा परिकल्पना के नाम से एक बार फिर भारत और दक्षिण पूर्व एशिया के
लोगों में पुराने सांस्कृतिक सम्बंधों को हरा भरा करने का प्रयासहुआ था ।
तब आशा बंधी थी कि शायद सैकड़ों वर्षों बाद फिर अंगकोर मंदिर की तीर्थ
यात्रा प्रारम्भ हो सके ।अंगकोर मंदिर की तीर्थ यात्रा का सबसे सुगम स्थल
मार्ग मणिपुर के मोरेह नगर से प्रारम्भ होता है । मोरेह से पहले विष्णुपुर
नामक ग्राम आता है , जिसमें भगवान विष्णु का अति प्राचीन मंदिर स्थित है ।
इस मंदिर में पूजा अर्चना के बाद यह यात्रा शुरु होती है । मोरेह भारत का
अंतिम ग्राम है जो म्यांमार की सीमा पर स्थित है । कभी इसी रास्ते से होकर
साधु सन्यासी अंगकोर की तीर्थ यात्रा पर निकलते थे । मोरेह से मांडले की
दूरी ३७५ मील है और यह सड़क मार्ग अब यातायात के लिये उपलब्ध है । मांडले
से रंगून होते हुये थाईलैंड के माई सेत तक का सड़क मार्ग भी उपलब्ध है ।
माई सेत से कम्बोडिया के अंगकोर तीर्थ स्थान तक सहज ही में जाया जा सकता है
। सड़ककी हालत चाहे उतनी अच्छी नहीं है । लेकिन इतना निश्चित है कि यदि
प्रयास किया जाये तो भारत से म्यांमार व थाईलैंड होते हुये कम्बोडिया में
अंगकोर मंदिर तक की यह तीर्थ यात्रा सैकड़ों वर्ष बाद फिर से प्रारम्भ की
जा सकती है ।कम्बोडिया में लोगों का विश्वास है कि जो पुण्य सभी तीर्थ
स्थलों के दर्शनों से मिलता है वही पुण्य अकेले अंगकोर मंदिर के दर्शन से
ही मिल जाता है । अटल विहारी वाजपेयी के शासन काल में जिस उत्साह व तेज़ी
से इस परिकल्पना पर कार्य प्रारम्भ हुआ था , उतनी तेज़ी बाद में नहीं रही।
इस स्थल मार्ग के खुल जाने से जहाँ एक ओर इस क्षेत्र के सभी देशों के लोगों
में परस्पर सम्पर्क बढ़ेगा वहीं पूरे क्षेत्र ख़ास कर पूर्वोत्तर भारत की
अर्थव्यवस्था को भी बल मिलेगी । यह स्थल मार्ग पूर्वोत्तर भारत और
म्यांमार, थाईदेश, लाओस, वियतनाम और कम्बोडियाजैसे सभी देशों की आर्थिक व
सांस्कृतिक गतिविधियों को सकारात्मक दृष्टि से प्रभावित करेगा ।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जिस प्रकार भारत के निकटतम पड़ोसी देशों को
वरीयता की श्रेणी में रखा है , उससे लगता है दक्षिण पूर्व एशिया भी उनकी
प्राथमिकताओं में रहेगा । इस से भी यह संभावना बढ़ती हैं कि भविष्य में
अंगकोर तीर्थ यात्रा की बहाली हो सकती है ।लेकिन मुख्य प्रश्न है कि इस
यात्राकी शुरुआत कौन करेगा ? शताब्दियों से बन्द पड़ी तीर्थयात्राओं और
परम्पराओं को बहाल करना भी अति जीवटका काम है । इस का एक तरीक़ा तो यह हो
सकता है कि भारत सरकार ने कैलाश मानसरोवर की तीर्थ यात्रा का ज़िम्मा जिस
प्रकार आधिकारिक तौर पर स्वयं संभाला हुआ है और हर साल आधिकारिक तौर पर ही
इस यात्रा का आयोजन होता है , उसी प्रकार अंगकोर तीर्थ यात्रा का आयोजन भी
भारत सरकार कम्बोडिया सरकार के साथ मिल कर करे । इस प्रकार के प्रकल्प में
इन देशों के रास्ते में पड़ने वाले सड़क मार्गों का निर्माण भी आपसी सहयोग
से किया जा सकता है । एक दूसरा विकल्प भी हो सकता है कि कुछ सामाजिक
संस्थाएँ आपस में मिल कर इसतीर्थ यात्रा की शुरुआत कर सकती हैं। विश्व
हिन्दू परिषद इस में मुख्य भूमिका निभा सकती है । हिमालय परिवार के संरक्षक
और संस्थापक इन्द्रेश कुमार भी इस प्रकल्प को संभाल सकते हैं । लद्दाख में
सिन्धुदर्शन यात्रा का वे अनेक सालों से सफलता पूर्वक आयोजन कर रहे हैं ।
जम्मू कश्मीर में वर्षों से बन्द पड़ी अनेक तीर्थ यात्राओं को उन्होंने
पुनः प्रारम्भ भी करवाया है । अरुणाचल प्रदेश में परशुराम कुंड की तीर्थ
यात्रा में उनके प्रयासों से ही गति आई है । दो साल पहले उन्होंने तवांग
तीर्थ यात्रा प्रारम्भ करवाई है । यह ठीक है कि अंगकोर तीर्थ यात्रा का
प्रकल्प इन सब से विशाल है लेकिन इन्द्रेश जी के विज़न को देखते हुये कहा
जा सकता है कि वे इसे निबाह सकते हैं । इसके अतिरिक्त एक अन्य विकल्प पर भी
विचार हो सकता है । भारत, म्यांमार, थाईलैंड,और कम्बोडिया की सरकारें मिल
कर अंगकोर तीर्थयात्रा बोर्ड का गठन करें और वह बोर्ड इस तीर्थ यात्रा की
व्यवस्था करे । लेकिन इस प्रकार के बोर्ड के गठन की पहल भारत सरकार को ही
करनी होगी ।लेकिन एक बात निश्चित है कि मणिपुर में मोरेह से म्यांमार के
मांडले तकजिस राजमार्ग का निर्माण हो रहा है उसने निकट भविष्य में अंगकोर
तीर्थ यात्रा के पुनः प्रारम्भ हो सकने की संभावनाओं को प्रशस्त कर दिया है
।
।।जय हिंदुत्व।। ।।जय श्रीराम।। ।।जय महाकाल।। ।।जय श्रीकृष्ण।।
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