Thursday, June 25, 2015

कान्हा की प्रथम माखन चोरी लीला

मैया यशोदा ने अपने लाड़ले लला के लिये भाँति भाँति के स्वादिष्ट पकवान बनायें हैं और वह उन मेवा व पकवानों को खाने के लिये बार बार अपने लाड़ले लला से आग्रह कर रही हैं। कान्हा को उन पकवानों में तनिक भी रूचि नहीं, वह मैया से कहते हैं-
" मैया जिन मेवा व पकवानों को तू मुझे खिलाने की बात कर रही है वे मुंझे तनिक भी नहीं भाते। मैया मेरे मन को तो बस माखन भाता है।"
द्वार के पीछे खड़ी बृज की एक गोपी कान्हा और मैया की बातें सुन रही है। कान्हा को माखन रूचि कर लगने की बात सुन कर गोपी के मन में सहसा एक इच्छा जागृत हुई-
"कभी मैं भी अपने घर में इन्हें माखन खाता हुआ देखू। ये नन्हें कान्हा मेरे घर आयें,मटके के पास बैठ कर चुपचाप माखन खायें और मैं छुप कर उस आनन्ददायक क्षण का रसास्वादन करूँ।"
श्री कृष्ण तो अंतर्यामी हैं, गोपी के मन में जागृत हुआ भाव उनसे कैसे छुपा रह जाता? उन्होनें तुरंत गोपी के मन में निहित उसकी आंतरिक अभिलाषा जान ली और उसे पूर्ण करने का निश्चय किया। अभी तक नन्हें कान्हा ने घर में ही माखन चुरा चुरा कर खाया था। घर ले बाहर अभी उन्होंने चोरी नहीं की थी, किंतु उस गोपी के मन की बात जान कर, अब वह घर से बाहर भी माखन चोरी के लिये तत्पर हो गये।
अगले दिन नन्हें कान्हा ने अपनी प्रथम माखन चोरी की, बृज की उसी गोपी के घर। उन्होंने अपने मन में विचार किया कि मैंने बृजवासियों को आनन्द देने के लिये ही गोकुल में अवतार लिया है।अत: इन सबको जिस कार्य में,जिस भाव से आनन्द मिलता है वही मैं इन सबको दूँगा। ये बृज जन मेरे अपने हैं। मेरे स्नेह,मेरे प्रेम,मेरी प्रेत्येक क्रिया से आनन्द प्राप्त करना इनका अधिकार है। इसी भावना से ओतप्रोत कान्हा ने अपनी माखन-चोरी लीला का शुभारम्भ, बृज की उस चिर-अभिलाषित गोपी के यहाँ से किया।
अपनी प्रथम माखन चोरी के समय कान्हा बहुत छोटे हैं। वह चुपचाप दबे पाँव पहुँच गये उस गोपी के घर, द्वार पर कोई नहीं है,इधर-उधर देखा और छिप कर घर के भीतर चले गये। जब गोपी ने कान्हा को आते देखा तो जानबूझकर छिप गई। कान्हा माखन के मटके के पास आकर बैठ गये और हाथ से माखन निकालने का प्रयास करने लगे। एक हाथ से माखन निकाल कहे हैं और साथ साथ चौकन्नी निगाहों से इधर उधर भी देखते जा रहे हैं। तन पर, प्रत्येक अंग में विभिन्न प्रकार के रत्नमय आभूषण दैदिप्यमान हो रहे है।
तभी सहसा अपने सामने के मणिस्तम्भ में अपना ही प्रतिबिम्ब आभूषणों की आलौकिक दीप्ती से जगमगाता हुआ दिखाई दे गया। उसे दूसरा बालक समझ कर अपने साथ उसे भी ख़ूब माखन खिलाते हैं। मणिस्तम्भ से फिसल कर जब माखन नीचें गिर जाता है तो दूसरे बालक को डाँटते हैं-
"यह क्या ढंग है ? खाना नहीं आता ? इतना मीठा माखन है गिरा क्यों रहे हो? तुम्हें खिला कर मुझे बड़ा सुख मिल रहा है,तुम्हें कैसा लग रहा है?"
इस अदुभत सौंदर्यमयी बाल लीला को देख कर छिपी हुई गोपी मुग्ध हुई जा रही है। रोकते रोकते भी उसकी हँसी फूट पड़ी। हँसी का स्वर सुन अटपटाये से,ऊपर से नीचे तक माखन से लिपटे कान्हा, अपने नन्हें नन्हें पैरों से,आभूषणों की खनखनाहट के बीच द्रुत गति से भाग गये। इस दिव्य-लीला का अवलोकन कर मुग्ध गोपी अपनी सुध-बुध ही भूल गई।
प्रफुल्लित हृदय गोपी अपने आपे में नहीं है, वह स्वयं को भूल चुकी है। रोम रोम पुलकित है, कंठ गदगद हो रहा है, कृष्णमयी इधर से उधर बौराई सी फिर रही है। उसकी सखियाँ समझ नहीं पा रहीं हैं कि उसकी ऐसी दशा क्यों है? सब चकित और विस्मित हैं। एक सखि उससे पूछती है-
"तूने ऐसा क्या पा लिया? ऐसी कौन सी मूल्यवान मणि तुझे प्राप्त हो गई है जो तेरी ऐसी दशा हो गई?"
गोपी कुछ नहीं कह पाती, मौन, निशब्द ,बस फूली फूली फिर रही है। सखियों के लाख पूछने पर उसके मुँह से बस एक दो अस्फुट स्वर निकलते हैं-
"मुझे वो दिव्य आलोकिक सुख मिल गया जो तुम्हें नहीं मिला है।"
उधर कान्हा अपने मन में सोच रहे हैं कि गोपी को मेरी माखन चोरी से कितना सुख मिला है, आनन्द मिला है? मैया यशोदा को मुझे बड़ा भोला भाला और अति सूधौ समझती है, वह तो लेशमात्र भी इस पर विश्वास नहीं करेंगीं, तो मैया के विश्वास को जस का तस रख, चुपचाप माखन चोरी कर करके गोपियों को क्यों न आनन्द दूँ और क्यों न गोपियों से आन्नद लूँ ? और प्रारम्भ हो जाती है नटखट कान्हा की माखन चोरी की प्रसिद्ध लीला।
(-- डॉ० मँजु गुप्ता)
।।जय हिंदुत्व।। ।।जय श्रीराम।। ।।जय महाकाल।।

No comments:

Post a Comment