Tuesday, June 16, 2015

प्राचीन भारत में रसायन की परम्परा : आश्चर्यचकित करती हैं भारतीय भट्ठियां

सैद्धांतिक रसायन शास्त्र का मूलाधार परमाणुओं की प्रकृति का सही ज्ञान एवं उनमें परस्पर बंधता का गुण है। परमाणु संबंधी आधुनिक मान्यता के आदि पुरुष डाल्टन माने जाते हैं। परंतु उनसे बहुत पहले ईसा से ६०० वर्ष पूर्व ही कणाद मुनि ने परमाणुओं के संबंध में जिन धारणाओं का प्रतिपादन किया, उनसे आश्चर्यजनक रूप से डाल्टन की संकल्पना मेल खाती है। कणाद ने न केवल परमाणुओं को तत्वों की ऐसी लघुतम अविभाज्य इकाई माना जिनमें इस तत्व के समस्त गुण उपस्थित होते हैं बल्कि ऐसी इकाई को ‘परमाणु‘ नाम भी उन्होंने ही दिया तथा यह भी कहा कि परमाणु स्वतंत्र नहीं रह सकते। कणाद की धारणाकणाद की परमाणु संबंधी यह धारणा उनके वैशेषिक सूत्र में निहित है। कणाद आगे यह भी कहते हैं कि एक प्रकार के दो परमाणु संयुक्त होकर ‘द्विणुक‘ का निर्माण कर सकते हैं। यह द्विणुक ही आज के रसायनज्ञों का ‘वायनरी मालिक्यूल‘ लगता है। उन्होंने यह भी कहा कि भिन्न भिन्न पदार्थों के परमाणु भी आपस में संयुक्त हो सकते हैं। यहां निश्चित रूप से कणाद रासायनिक बंधता की ओर इंगित कर रहे हैं। वैशेषिक सूत्र में परमाणुओं को सतत गतिशील भी माना गया है तथा द्रव्य के संरक्षण (कन्सर्वेशन आफ मैटर) की भी बात कही गई है। ये बातें भी आधुनिक मान्यताओं के संगत हैं।रासायनिक बंधता को और अधिक स्पष्ट करते हुए जैन दर्शन में कहा गया है कि कुछ परमाणुओं में स्निग्धता और कुछ में ‘रुक्षता‘ के गुण होते हैं तथा ऐसी भिन्न प्रकृति वाले परमाणु आपस में सहजता से संयुक्त हो सकते हैं जबकि समान प्रकृति के परमाणुओं में सामान्यत: संयोग की प्रवृत्ति नहीं होती। ऐसा आभास होता है कि जैसे आयनी बंधता की व्याख्या की जा रही है।प्रायोगिक रसायन में काम आने वाले उपकरणों पर भी प्राचीन भारतीय रसायन शास्त्र में विस्तार से चर्चा हुई है। रासायनिक प्रयोगों एवं औषधि विरचन के लिए रसायनज्ञ ३२ कोटि के उपकरणों का प्रयोग अपनी प्रयोगशाला में करते थे, जिनकी सहायता से आसवन, संघनन, ऊर्ध्वपातन, द्रवण आदि सभी प्रकार की क्रियाएं संपादित की जा सकती थीं। इनमें से बहुतों का व्यवहार आज भी औषधि विरचन के लिए वैद्य कर रहे हैं। प्रयोगशालाओं के लेआउट का भी वर्णन रसरत्न समुच्चय में मिलता है। ग्रंथों में अनेक प्रकार की कुंडियों, भठ्ठियों, धौंकानियों एवं क्रूसिबिलों के विशद विवरण उपलब्ध हैं। इनकी भिन्नता धातुकर्म अथवा रासायनिक प्रयोगों के लिए उपयुक्त ताप प्रदान करने की उनकी क्षमता के कारण थी। रसरत्न समुच्चय में महागजपुट, गजपुट, वराहपुट, कुक्कुटपुट एवं कपोतपुट भठ्ठियों का वर्णन है, जो केवल प्रयुक्त उपलों की संख्या और उनकी व्यवस्था के आधार पर ७५०० से ९००० तक का भिन्न-भिन्न ताप उत्पन्न करने में समर्थ थीं। उदाहरणार्थ, महागजपुट के लिए २०००, परंतु निम्नतम ताप उत्पन्न करने वाली कपोतपुट के लिए केवल ८ उपलों की आवश्यकता पड़ती थी। इनके द्वारा उत्पन्न तापों की भिन्नता आधुनिक तकनीकी द्वारा सिद्ध हो चुकी है। ९००० से भी अधिक ताप के लिए वाग्भट्ट ने चार भठ्ठियों का वर्णन किया है- अंगारकोष्ठी, पातालकोष्ठी, गोरकोष्ठी एवं मूषकोष्ठी। पातालकोष्ठी का वर्णन लोहे के धातुकर्म में प्रयुक्त होने वाली आधुनिक ‘पिट फर्नेस‘ से अत्यधिक साम्य रखता है। धातु प्रगलन के लिए भट्ठियों से उच्च ताप प्राप्त करने के लिए भारद्वाज मुनि के वृहद्‌ विमान शास्त्र में ५३२ प्रकार की धौंकनियों का वर्णन किया गया है। इसी ग्रंथ में ४०७ प्रकार की क्रूसिबिलों की भी चर्चा की गई है। इनमें से कुछ के नाम हैं- पंचास्यक, त्रुटि, शुंडालक आदि। सोमदेव के रसेंद्र चूड़ामणि में पारद-रसायन के संदर्भ में जिस ऊर्घ्वपातन यंत्र तथा कोष्ठिका यंत्र का वर्णन है, उसका आविष्कार किसी नंदी नामक व्यक्ति ने किया था। धातुकर्म कौशलरसायन के क्षेत्र में विश्व में प्राचीन भारत की प्रसिद्धि मुख्यत: अपने धातुकर्म कौशल के लिए रही है। मध्यकाल में भारत का इस्पात यूरोप, चीन और मध्यपूर्व के देशों तक पहुंचा। इतिहास में दमिश्क की जिन अपूर्व तलवारों की प्रसिद्धि है वे दक्षिण भारत के इस्पात से ही बनाई जाती थीं। आज से १५०० वर्ष पूर्व निर्मित और आज भी जंग से सर्वथा मुक्त दिल्ली के महरौली का स्तंभ भारतीय धातुकर्म की श्रेष्ठता का प्रतीक है। यही बात व्रिटिश म्यूजियम में रखे बिहार से प्राप्त चौथी शताब्दी की तांबे से बनी बुद्ध की २.१ मीटर ऊंची मूर्ति के बारे में भी कही जा सकती है। भारत में अत्यंत शुद्ध जस्ता एवं पीतल के उत्पादन भी प्रमाणित हैं।कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र‘ में क़ड्ढ, क्द्व, ॠढ़, ॠद्व, घ्ड (लोहा, तांबा, रजत, स्वर्ण, सीसा) एवं च्द (टिन) धातुओं के अयस्कों की सटीक पहचान उपलब्ध है। लोहे के लिए रक्ताभ भूरे हेमेटाइट (सिंधुद्रव) एवं कौवे के अंडे के रंग वाले मैग्नेटाइट (बैक्रुंटक) तांबे के लिए कॉपर पाइराइटिज, मैलाकाइट, एज्यूराइट एवं नेटिव कॉपर, रजत के लिए नेटिव सिल्वर, स्वर्ण के लिए नेटिव गोल्ड, सीसा के लिए रजत अथवा स्वर्ण मिश्रित गैलेना एवं बंग के लिए कैसेटिराइट अयस्कों की उनके रंगों के आधार पर पहचान वर्णित है। संस्कृत साहित्य में पारद के सिनाबार तथा जस्त के कैलामाइन अयस्कों का समुचित वर्णन उपलब्ध है। अर्थशास्त्र में ही अनेकों अयस्कों में मिश्रित कार्बनिक अशुद्धियों से मुक्ति की क्रिया भी वर्णित है। इसके लिए उच्च ताप पर गर्म कर विघटित करने का विधान है। अकार्बनिक अशुद्धियों से मुक्ति के लिए रसरत्न समुच्चय में अयस्क के साथ बाह्य पदार्थ, फ्लक्स को मिलाकर और इस मिश्रण को गर्म कर उन्हें धातुमल के रूप में अलग कर देने का विधान है। धातु विरचन के सभी उत्खनन स्थलों पर ये फ्लक्स प्राप्त हुए हैं। उदाहरणार्थ, सिलिका के निष्कासन के लिए चूना पत्थर का प्रयोग आम बात थी ताकि कैल्सियम सिलिकेट पृथक हो सके। ये सभी बातें आज के धातुकर्म विज्ञान से असंगत हैं। सामान्य धातुओं में लोहे का गलनांक सर्वाधिक है- १५०००। हमारे वैज्ञानिक पूर्वज इस उच्च ताप को उत्पन्न करने में सफल रहे थे। बताया ही जा चुका है कि इसके लिए प्रयुक्त पातालकोष्ठी भठ्ठी आज की पिट फर्नेस से मिलती-जुलती थी। अन्य तीन भठ्ठियों-अंगारकोष्ठी, मूषकोष्ठी एवं गारकोष्ठी के उपयोग की भी अनुशंसा वाग्भट्ट ने की है। वाग्भट्ट ने ही लौह धातुकर्म के लिए भर्जन एवं निस्पातन क्रियाओं का भी सांगोपांग वर्णन किया है। लौह अयस्क के निस्पातन के लिए हिंगुल (गंधक एवं पारद) का उपयोग किया जाता था तथा भर्जन के लिए छिछली भठ्ठियों की अनुशंसा की गई है, जो पूर्णत: वैज्ञानिक है। इन प्रक्रियाओं में आक्सीकृत आर्सेनिक, गंधक, कार्बन आदि मुक्त हो जाते थे तथा फेरस आक्साइड, फेरिक में परिवर्तित हो जाता था। सुखद आश्चर्य की बात है कि रसरत्न समुच्चय में छह प्रकार के कार्बीनीकृत इस्पातों का उल्लेख है। बृहत्त संहिता में लोहे के कार्बोनीकरण की विधि सम्पूर्ण रूप से वर्णित है। इतिहास-सम्मत तथ्ययह इतिहास सम्मत तथ्य है कि विश्व में तांबे का धातुकर्म सर्वप्रथम भारत में ही प्रारंभ हुआ। मेहरगण के उत्खनन में तांबे के ८००० वर्ष पुराने नमूने मिले हैं। उत्खनन में ही अयस्कों से तांबा प्राप्त करने वाली भठ्ठियों के भी अवशेष मिले हैं तथा फ्लक्स के प्रयोग से लौह को आयरन सिलिकेट के रूप में अलग करने के प्रमाण भी प्राप्त हुए हैं।नागार्जुन के रस रत्नाकर में अयस्क सिनाबार से पारद को प्राप्त करने की आसवन विधि वर्णित है। ऐसी ही विधि रसरत्न समुच्चय तथा सुश्रुत एवं चरक संहिताओं में भी दी गई है तथा आसवन के लिए ढेंकी यंत्र की अनुशंसा की गई है। स्मरणीय है कि इस विधि का आधुनिक विधि से आश्चर्यजनक साम्य है। चरक ने पारद के शोधन की १०८ विधियां लिखी हैं।गोविंद भागवत्पाद ने अपने रस हृदयतंत्र में पारद को सीसा एवं वंग से पृथक करने की विधि लिखी है। रसार्णवम में वंग के धातुकर्म का वर्णन करते हुए सीसा के धातुकर्म का भी उल्लेख किया गया है। सीसा को अयस्क से प्राप्त करने के लिए हाथी की हड्डियों तथा वंग के लिए भैंसे की हड्डियों के प्रयोग का विधान दिया गया है। स्पष्टत: हड्डियों का कैल्सियम फ्लक्स के रूप में कार्य करते हुए अशुद्धियों को कैल्सियम सिलिकेट धातुमल के रूप में पृथक कर देता था। आज भी आधारभूत प्रक्रिया यही है यद्यपि कैल्सियम को जैविक श्रोत के रूप में न प्रयोग कर अकार्बनिक यौगिक के रूप में मिलाया जाता है। कैसेटिराइट के आक्सीकृत वंग अयस्क के अपचयन के लिए विशिष्ट वनस्पतियों की अनुशंसा की गई है, जो कार्बन के श्रोत का कार्य करती थीं। अद्भुत मिश्र धातुजस्त एवं अन्य धातु, जो प्राचीन भारत में अपनी अद्भुत मिश्र धातु निर्माण क्षमता के कारण अत्यंत महत्वपूर्ण थी, इन्हें कैलेमाइन अयस्क से प्राप्त किया जाता था। इसके धातुकर्म की भठ्ठियां, जो राजस्थान में प्राप्त हुई हैं, वे ईसा पूर्व ३००० से २००० वर्ष पूर्व तक की हैं। धातुकर्म में मुख्य पद आसवन का ही है जो आधुनिक समय में भी प्रासांगिक है। रसरत्न समुच्चय में संपूर्ण विधि वर्णित है। स्मरणीय है कि १५९७ में लिबावियस नामक व्यक्ति इसे भारत से लेकर यूरोप पहुंचा। १७४३ में विलियम चैंपियन नामक अंग्रेज ने कैलामाइन अयस्क आधारित धातुकर्म के आविष्कार का दावा करते हुए इसके पेटेंट के लिए प्रार्थना पत्र दिया। परंतु कलई खुल गई और पता चला कि वह समस्त तकनीकी भारत में राजस्थान की जवार खानों से लेकर गया था। इसके लिए उसकी अत्यधिक भर्त्सना की गई।नागार्जुन के रस रत्नाकर में रजत के धातुकर्म का वर्णन तो विस्मयकारी है। नेटिव सिल्वर (अशुद्ध रजत) को सीसा और भस्म के साथ मिलाकर लोहे की कुंडी में पिघलाइये, शुद्ध रजत प्राप्त हो जाएगा। गैलेना अयस्क, जो रजत और सीसे का एक प्रकार का एलाय है, को तो बिना बाहर से सीसा मिलाए ही गलाये जाने का विधान है। यह विधि आज की क्यूफ्लेशन विधि से आश्चर्यजनक साम्य रखती है। अंतर केवल इतना है कि आज की विधि में क्यूपेल (कुंडी) के अंदर किसी संरंध्र पदार्थ का लेप किया जाता है जबकि प्राचीन काल में बाहर से मिलाई गई भस्म यही कार्य करती थी। दृष्टव्य है कि कौटिल्य के काल में लोहे की कुंडी के स्थान पर खोपड़ी के प्रयोग का वर्णन है। यहां यह खोपड़ी भी संरंध्र पदार्थ का ही कार्य करती थी, जिसमें सीसा अवशोषित हो जाता होगा।कौटिल्य ने लिखा है कि स्वर्ण को नेटिव रूप में नदियों के जल अथवा चट्टानों से प्राप्त किया जा सकता है। ऐसी चट्टानें पीताभ अथवा हल्के पीत-गुलाबी रंग की होती हैं और इन्हें तोड़ने पर नीली धरियां दृश्य हो जाती हैं। यह अत्यंत सटीक वर्णन है। अत्यंत शुद्ध धातु की प्राप्ति के लिए जैविक पदार्थों के साथ गर्म करने का विधान है। सीसे के साथ मिलाकर भी शुद्ध करने की अनुशंसा है जो आज की पद्धति में कोई स्थान नहीं रखती।

No comments:

Post a Comment