'शिक्षा' की चर्चा चलते ही जनसामान्य भी हमारी शिक्षानीति की आलोचना करने
लगता है, शिक्षानीति को बदलने की बात करने लगता है; भले ही वह यह नहीं
जानता है कि उसे क्यों बदलना चाहिये, उसमें क्या ख़ामी है तथा वह कैसी होनी
चाहिये। हिन्दी-व्यंग्यकार श्रीलाल शुक्ल ने 'राग दरबारी' में लिखा है कि
"हमारी शिक्षानीति की हालत सड़क पर पड़ी उस कुतिया के समान हो चुकी है, जिसे
कोई भी ठोकर मारकर चला जाता है।
हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि अंग्रेज़ों ने इस देश में योजनापूर्वक लम्बे समय तक इस बात का प्रयास किया कि इस देश का राष्ट्रीय समाज अपने इतिहास, संस्कृति तथा सभ्यता को पूरी तरह भुला दे। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने शिक्षा की एक योजना बनाई। इस योजना के मूलपुरुष ने कहा था कि भारत में काले अंग्रेज़ों का निर्माण करना है। इसी प्रकार की स्वत्व-शून्य शिक्षा की रचना हमारे देश में चलती रही। अंग्रेज़ की इस कूटनीति को, तत्समय के हमारे विज्ञजनों ने पहचाना था। इसीलिए स्वतन्त्रता के संघर्ष के दौरान अंग्रेज़ी शिक्षा का विरोध भी होता रहा था और तत्फलस्वरूप पराधीनता के उस काल में भी स्वत्व तथा स्वाभिमान का आवेश था। 'राष्ट्रीय शिक्षा' के नाम से कतिपय प्रयत्नों का भी प्रारम्भ हुआ था। परन्तु परकीय शासन समाप्त होते ही, यह स्वत्व की प्रेरणा विलुप्त हो गई। हमारा जीवन, परानुकरण के दुश्चक्र में फँस गया। अपनी 'स्वता' का विस्मरण ही नहीं हुआ, अपितु हम उसका निषेध तक करने लगे। आहार-विहार, भाषा-भूषा, चारित्र्य, कर्त्तव्यबोध, वैचारिक भूमिका आदि किसी भी दिशा में देखेंगे तो हम पाएँगे कि यहाँ विवेकशून्य अन्धानुकरण मात्र चल रहा है।
निजता के विस्मरण और विदेशियों की अन्धी नक़ल के फेर में पड़कर हम अपने जीवन के मूलगामी सिद्धान्तों को भी भुलाते जा रहे हैं। इसीलिए शिक्षा का वास्तविक अर्थ समझने में भी असमर्थ हो रहे हैं। आजकल बड़े-बड़े लोगों के श्रीमुख से सुनने को मिल जाएगा कि शिक्षा रोज़गारोन्मुखी होनी चाहिये। ऐसा कहा जाता है कि शिक्षा के द्वारा मनुष्य अपनी आवश्यकताएँ पूरी करता है। पैसा कमाता है। इसका अर्थ यह हुआ कि शिक्षा मनुष्य को पैसा कमाने के योग्य बनाती है। बात सही भी है। शिक्षा का यह अर्थ भी है ही। शिक्षा को अर्थ की साधिका माना ही जाता रहा है - 'अर्थकरी च विद्या।' परन्तु यह अर्थ शिक्षा का अत्यन्त निकृष्ट अर्थ है। लोकयात्रा के निर्वाह के लिए निस्सन्देह धन का अपना महत्त्व है। हमारा गार्हस्थ्य कभी भी दारिद्र्य का उपासक नहीं रहा है। वेद का ऋषि भी समृद्धि की कामना करता है - 'वयं स्याम पतयो रयीणाम्।'
अपने छात्र को भी गुरु यही उपदेश देता रहा है कि गृहस्थ में जाकर समृद्धि के अर्जन में प्रमाद मत करना - 'भूत्यै न प्रमदितव्यम्।' किन्तु धन कदापि साध्य या चरम जीवन-लक्ष्य नहीं है। हमारी परम्परा में कभी भी धन को शिक्षा का उद्दिष्ट नहीं माना गया। पर अब तो 'रोजगार' ही शिक्षा का हासिल है। और आजकल तो रोज़गार क्या, 'नौकरी' को ही शिक्षा का परम प्राप्तव्य मान लिया गया है। हमें यदि तैत्तिरीयोपनिषद् की शिक्षावल्ली के दीक्षान्त-भाषण में संशोधन का अधिकार मिल जाए तो हम 'मातृदेवो भव' और 'पितृदेवो भव' से भी पहले 'वृत्तिदेवो भव'(नौकरी को अपना देवता - माईबाप मानो) का उपदेश जोड़ दें। शिक्षितों में नौकरी के लिए ऐसी दीवानगी पहले शायद ही कभी देखी गई हो। बहुत पीछे जाने की आवश्यकता नहीं, मैनें ही अपने बाल्यकाल में ऐसे अनेक लोगों को देखा है जो नौकरी को (सरकारी नौकरी को भी) हेय समझते थे। 'उत्तम कृषि, मध्यम व्यापार, अधम चाकरी' वाला जुमला तो सर्वश्रुत ही है। यह भी कहा जाता था कि -
'नौकरी न कीजिये घास खोद खाइये।
और खोदें आसपास आप दूर जाइये।।'
किसी हिन्दी-कवि को तो यहाँ तक कहना पड़ गया कि –
'शिक्षे ! तुम्हारा नाश हो, तुम नौकरी के हित बनी !'
शिक्षा का वास्तविक अर्थ तो है मनुष्य को जीवन के अन्तिम लक्ष्य की ओर उन्मुख करना है - 'सा विद्या या विमुक्तये।' सर्वविध बन्धनों से क्रमिक मुक्ति, तापत्रय से छुटकारा, संसार-जाल और उसके पाशों से आज़ादी, अल्टीमेट लिबर्टी शिक्षा से ही साध्य है - Education is that which liberates. जिसके द्वारा मनुष्य उत्तरोत्तर अपनी सर्वाङ्गीण उन्नति करता हुआ जीवन के तुरीय लक्ष्य को प्राप्त कर सके, वही सच्ची शिक्षा है। इस लक्ष्य-प्राप्ति के लिए आवश्यक है कि मनुष्य में अनेक प्रकार के सद्गुण विकसित हों। ये सद्गुण सहसा नहीं आते। इन गुणों के संस्कार बाल्यकाल से ही जीवन में करते रहने की आवश्यकता होती है। सच्चाई से रहना, दूसरों के लिए घृणा-द्वेषादि का भाव न रखना, अतिथि-सत्कार करना, दान का बखान न करना, भलाई करके मौन रहना, उपकार का कभी विस्मरण न करना, मनसा-वाचा-कर्मणा पवित्र रहना, काम-कञ्चन के व्यामोह से सर्वथा दूर रहना, अन्तःकरण को इस प्रकार विशाल बनाना कि सम्पूर्ण विश्व ही मेरा परिवार है, प्राणिमात्र के प्रति दया का भाव, समाज और राष्ट्र के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने का भाव आदि का संस्कार बहुत आवश्यक है।
हमारे यहाँ तो शिक्षा-विषयक विमर्श की सुदीर्घ परम्परा रही ही है; बाहर की ओर भी देखें तो एक दृष्टान्त तुरन्त स्मृति-पथ में आ रहा है। अब्राहम लिंकन दुनिया के चिन्तनशील और अन्तर्दृष्टिसम्पन्न व्यक्तियों में से एक हैं। उनकी पारगामी दृष्टि स्मृति के झरोखे से बाहर पहुँची और उन्होनें शिक्षा का सही-सही अर्थ समझाया। उन्होनें अपने पुत्र को केवल स्मृति का संग्रहालय बनाना ठीक नहीं समझा। उन्होनें चाहा कि मेरा पुत्र स्मृति-सम्पन्न होने के साथ-साथ बुद्धिमान् और प्रज्ञावान् भी बने। उन्होनें स्वपुत्र की शिक्षा के सम्बन्ध में उसके शिक्षक को एक पत्र लिखा। शताधिक वर्ष पूर्व लिखा गया वह लिंकन-पत्र शिक्षा की वास्तविक पद्धति का एक महत्त्वाधायी ऐतिहासिक दस्तावेज़ कहा जा सकता है। वह पत्र कुछ इस प्रकार है –
हे शिक्षक !
मैं जानता हूँ और मानता हूँ
कि न तो हर आदमी सही होता है
और न ही होता है सच्चा;
किन्तु तुम्हें सिखाना होगा कि
कौन बुरा है और कौन अच्छा।
दुष्ट व्यक्तियों के साथ-साथ आदर्श प्रणेता भी होते हैं,
स्वार्थी राजनीतिज्ञों के साथ समर्पित नेता भी होते हैं;
दुश्मनों के साथ - साथ मित्र भी होते हैं,
हर विरूपता के साथ सुन्दर चित्र भी होते हैं।
समय भले ही लग जाय,पर
यदि सिखा सको तो उसे सिखाना
कि पाये हुए पाँच से अधिक मूल्यवान है
स्वयं एक कमाना।
पाई हुई हार को कैसे झेले, उसे यह भी सिखाना
और साथ ही सिखाना,जीत की खुशियाँ मनाना।
यदि हो सके तो ईर्ष्या या द्वेष से परे हटाना
और जीवन में छिपी मौन मुस्कान का पाठ पठाना।
जितनी जल्दी हो सके उसे जानने देना
कि दूसरों को आतंकित करने वाला स्वयं कमज़ोर होता है
वह भयभीत व चिंतित है
क्योंकि उसके मन में स्वयं चोर छिपा होता है।
उसे दिखा सको तो दिखाना-
किताबों में छिपा ख़ज़ाना।
और उसे वक्त देना चिन्तन के लिये....
कि आकाश के परे उड़ते पंछियों का आह्लाद,
सूर्य के प्रकाश में मधुमक्खियों का निनाद,
हरी-भरी पहाड़ियों से झाँकते फूलों का संवाद,
कितना विलक्षण होता है अविस्मरणीय...अगाध !
उसे यह भी सिखाना-
धोखे से सफ़लता पाने से असफ़ल होना सम्माननीय है
और अपने विचारों पर भरोसा रखना अधिक विश्वसनीय है !
चाहे अन्य सभी उसे ग़लत ठहरायें
परन्तु स्वयं पर अपनी आस्था बनी रहे यह भी विचारणीय है।
उसे यह भी सिखाना कि वह सदय के साथ सदय हो,
किन्तु कठोर के साथ हो कठोर !
और लकीर का फ़कीर बनकर,
उस भीड़ के पीछे न भागे जो करती हो निरर्थक शोर !
उसे सिखाना
कि वह सबकी सुनते हुए अपने मन की भी सुन सके,
हर तथ्य को सत्य की कसौटी पर कसकर गुन सके।
यदि सिखा सको तो सिखाना कि वह दुःख में भी मुस्कुरा सके,
घनी वेदना से आहत हो, पर खुशी के गीत गा सके।
उसे यह भी सिखाना कि आँसू बहते हों तो बहने दो,
इसमें कोई शर्म नहीं...कोई कुछ भी कहता हो कहने दो।
उसे सिखाना-
वह सनकियों को कनखियों से हँसकर टाल सके,
पर अत्यधिक मृदुभाषिता का ख्याल न पाल सके।
वह अपने बाहुबल व बुद्धिबल का अधिकतम मोल पहचान पाए
परन्तु अपने हृदय व आत्मा की बोली कभी न लगवाए।
वह भीड़ के शोर में भी अपने कान बन्द कर सके
और स्वयं की अन्तरात्मा की यही आवाज़ सुन सके;
सच के लिये लड़ सके और सच के लिये अड़ सके।
उसे सहानुभूति से समझाना
पर प्यार के अतिरेक से मत बहलाना।
क्योंकि तप-तप कर ही लोहा खरा बनता है
ताप पाकर ही सोना निखरता है।
उसे साहस देना ताकि वह वक्त पड़ने पर अधीर बने
सहनशील बनाना ताकि वह वीर बने।
उसे सिखाना कि वह स्वयं पर असीम विश्वास करे,
ताकि समस्त मानव जाति पर भरोसा व आस धरे।
यह एक बड़ा-सा लम्बा-चौड़ा अनुरोध है
पर तुम कर सकते हो, इसका तुम्हें बोध है?
मेरे और तुम्हारे... दोनों के साथ उसका रिश्ता है;
सच मानो, मेरा बेटा एक प्यारा-सा नन्हा सा फ़रिश्ता है।
( अन्यदीय भावानुवाद साभार उद्धृत)
परन्तु इस सम्बन्ध में क्या आज की शिक्षा की स्थिति सन्तोषजनक है ?दिखाई देता है कि चारों तरफ विपरीत भाव व्याप्त है। सभी लोग चारित्र्य-संकट की बात करते हैं। चरित्र-निर्माण का तरीक़ा क्या है ? चारित्र्य का प्रारम्भ तो ऊपर से होता है, समाज के श्रेष्ठ पुरुषों से आरम्भ होकर नीचे की ओर जाता है -
'यद् यदाचरति श्रेष्ठः तत्तदेवेतरो जनः।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।'
किन्तु आज समाज का साधनसम्पन्न श्रेष्ठवर्ग, शिक्षा का केन्द्रबिन्दु शिक्षक आदि तो चारित्रिक दृढ़ता का कोई विचार ही नहीं करते हैं। इसलिए छात्र को सच्चरित्र-सम्पन्न बनाने का कार्य और भी दुष्कर हो जाता है। हम विचार करें तो पाएँगे कि आज की शिक्षा-व्यवस्था के अन्तर्गत छात्र-वर्ग में अपने राष्ट्र-जीवन का कोई अभिमान नहीं है। हम इस सम्बन्ध में पर्याप्त ज्ञान देने की व्यवस्था ही नहीं करते। छात्रों को हम राष्ट्र-गौरव के विविध पहलुओं से ज्ञानवान् और स्वाभिमानी नहीं बनाते। इसी कारण आज के विद्यार्थियों में कोई आत्मबोध विकसित होता ही नहीं। उन्हें स्वराष्ट्र-जीवन की कोई जानकारी ही नहीं। राष्ट्र-पुरुषों की महनीय जीवनियाँ उन्हें ज्ञात नहीं। धर्म और संस्कृति के श्रेष्ठ उद्गाताओं का, उनके द्वारा निर्मित प्रेरणाओं का उन्हें परिचय नहीं है।
वर्तमान शिक्षा मात्र सूचनात्मक है - इन्फॉरमेटिव है; संस्कारात्मक - फॉरमेटिव नहीं। उसका ज़ोर इसी बात पर है कि देश का युवक येन केन प्रकारेण डिग्रीधारी हो जाए। हमारे युवकों का समग्र व्यक्तित्व उभर कर आए, इस ओर उसका ध्यान नहीं है। आज शिक्षा के माध्यम से जीवन-स्तर को उन्नत करने की जब बात की जाती है तो उसका सम्बन्ध मात्र जड़ वस्तुओं से होता है। आवश्यकताओं को बढ़ाना, माँगो की पूर्ति करना, निम्नस्तरीय दुष्ट वासनाओं को पूर्ण करते हुए मनुष्यान्तर्गत पशु को पुष्ट करना - यही उस जीवनस्तर-सुधार का अर्थ है। मनुष्य का मानसिक एवम् आध्यात्मिक विकास करने से उसका कोई सम्बन्ध नहीं है। यथा-तथा अर्थार्जन और अन्धाधुन्ध उपभोग; यही जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य बन गया है। शिक्षा से तो मानव की अन्तर्निहित क्षमताओं का प्रकटीकरण होना चाहिये। सूचनाओं को मस्तिष्क में ठूँसना शिक्षा का लक्ष्य नहीं है। मानव-मस्तिष्क को कबाड़ी का गोदाम बनाना शिक्षा का लक्ष्य नहीं है।
शिक्षा-लक्ष्य तो मनुष्य-निर्माण है। शिक्षा-नीति को लेकर अद्यावधि गठित आयोगों व समितियों का भी निष्कर्ष यही है। शिक्षा से आज वैज्ञानिक, इञ्जिनीयर, डॉक्टर आदि तो देश में खूब बन रहे हैं, बनते रहेंगे; परन्तु मनुष्य नहीं बन रहे। मनुष्य बनाना ही कठिन कार्य है। शिक्षा ऐसी चाहिये जो आदमी को इन्सान बना सके। निश्चय ही यह कार्य दुष्कर है -
'बस-कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना।
आदमी को भी मयस्सर नहीं इन्साँ होना।।'
इस विषय का अधिक विस्तार न करते हुए इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि आज की शिक्षा-प्रणाली पर पुनरपि एक बार विचार तो करना होगा (नव-शिक्षानीति-निर्मिति की प्रक्रिया चल भी रही है)। मुख्यतः बालकों को धर्म ( मज़हब नहीं) व अध्यात्म के आधारभूत तत्त्व अवश्यमेव पढ़ाए जाने चाहिएँ तथा जिन्होंने उन उच्च तत्त्वों को अपने जीवन में - अपने आचरण में उतारा और प्रचारित किया; ऐसे महापुरुषों के जीवन-चरित उन्हें पढाए जाने चाहिएँ। साथ ही अपनी राष्ट्रीय विरासत के भव्यतम पहलुओं को उनके सम्मुख रखना चाहिये।भारतीय संस्कृति की प्राणभूता भाषा संस्कृत का भी अध्ययन अनिवार्य-रूपेण करवाना चाहिए। प्राथमिक योग-शिक्षा के द्वारा उन्हें मनःसंयम का शास्त्र अवश्य सिखाना चाहिए, जो कि संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा 'अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस' की घोषणा के पश्चात् अब सर्वथा समयोचित व सुकर कार्य हो गया है। और यदि यह सब न हुआ तो फिर अरविन्द-विवेकानन्द-गाँधी-लिंकन जैसे वैश्विक मनीषियों की शिक्षा की कल्पना साकार नहीं हो सकती। शिक्षा की सार्थकता सिद्ध करने के लिए एक बार पुनः गम्भीर शैक्षिक विमर्श की आवश्यकता को स्वीकार करना ही पड़ेगा - 'नाऽन्यः पन्थाः विद्यतेऽयनाय !'
।।जय हिंदुत्व।। ।।जय श्रीराम।। ।।जय महाकाल।। ।।जय श्रीकृष्ण।।
हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि अंग्रेज़ों ने इस देश में योजनापूर्वक लम्बे समय तक इस बात का प्रयास किया कि इस देश का राष्ट्रीय समाज अपने इतिहास, संस्कृति तथा सभ्यता को पूरी तरह भुला दे। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने शिक्षा की एक योजना बनाई। इस योजना के मूलपुरुष ने कहा था कि भारत में काले अंग्रेज़ों का निर्माण करना है। इसी प्रकार की स्वत्व-शून्य शिक्षा की रचना हमारे देश में चलती रही। अंग्रेज़ की इस कूटनीति को, तत्समय के हमारे विज्ञजनों ने पहचाना था। इसीलिए स्वतन्त्रता के संघर्ष के दौरान अंग्रेज़ी शिक्षा का विरोध भी होता रहा था और तत्फलस्वरूप पराधीनता के उस काल में भी स्वत्व तथा स्वाभिमान का आवेश था। 'राष्ट्रीय शिक्षा' के नाम से कतिपय प्रयत्नों का भी प्रारम्भ हुआ था। परन्तु परकीय शासन समाप्त होते ही, यह स्वत्व की प्रेरणा विलुप्त हो गई। हमारा जीवन, परानुकरण के दुश्चक्र में फँस गया। अपनी 'स्वता' का विस्मरण ही नहीं हुआ, अपितु हम उसका निषेध तक करने लगे। आहार-विहार, भाषा-भूषा, चारित्र्य, कर्त्तव्यबोध, वैचारिक भूमिका आदि किसी भी दिशा में देखेंगे तो हम पाएँगे कि यहाँ विवेकशून्य अन्धानुकरण मात्र चल रहा है।
निजता के विस्मरण और विदेशियों की अन्धी नक़ल के फेर में पड़कर हम अपने जीवन के मूलगामी सिद्धान्तों को भी भुलाते जा रहे हैं। इसीलिए शिक्षा का वास्तविक अर्थ समझने में भी असमर्थ हो रहे हैं। आजकल बड़े-बड़े लोगों के श्रीमुख से सुनने को मिल जाएगा कि शिक्षा रोज़गारोन्मुखी होनी चाहिये। ऐसा कहा जाता है कि शिक्षा के द्वारा मनुष्य अपनी आवश्यकताएँ पूरी करता है। पैसा कमाता है। इसका अर्थ यह हुआ कि शिक्षा मनुष्य को पैसा कमाने के योग्य बनाती है। बात सही भी है। शिक्षा का यह अर्थ भी है ही। शिक्षा को अर्थ की साधिका माना ही जाता रहा है - 'अर्थकरी च विद्या।' परन्तु यह अर्थ शिक्षा का अत्यन्त निकृष्ट अर्थ है। लोकयात्रा के निर्वाह के लिए निस्सन्देह धन का अपना महत्त्व है। हमारा गार्हस्थ्य कभी भी दारिद्र्य का उपासक नहीं रहा है। वेद का ऋषि भी समृद्धि की कामना करता है - 'वयं स्याम पतयो रयीणाम्।'
अपने छात्र को भी गुरु यही उपदेश देता रहा है कि गृहस्थ में जाकर समृद्धि के अर्जन में प्रमाद मत करना - 'भूत्यै न प्रमदितव्यम्।' किन्तु धन कदापि साध्य या चरम जीवन-लक्ष्य नहीं है। हमारी परम्परा में कभी भी धन को शिक्षा का उद्दिष्ट नहीं माना गया। पर अब तो 'रोजगार' ही शिक्षा का हासिल है। और आजकल तो रोज़गार क्या, 'नौकरी' को ही शिक्षा का परम प्राप्तव्य मान लिया गया है। हमें यदि तैत्तिरीयोपनिषद् की शिक्षावल्ली के दीक्षान्त-भाषण में संशोधन का अधिकार मिल जाए तो हम 'मातृदेवो भव' और 'पितृदेवो भव' से भी पहले 'वृत्तिदेवो भव'(नौकरी को अपना देवता - माईबाप मानो) का उपदेश जोड़ दें। शिक्षितों में नौकरी के लिए ऐसी दीवानगी पहले शायद ही कभी देखी गई हो। बहुत पीछे जाने की आवश्यकता नहीं, मैनें ही अपने बाल्यकाल में ऐसे अनेक लोगों को देखा है जो नौकरी को (सरकारी नौकरी को भी) हेय समझते थे। 'उत्तम कृषि, मध्यम व्यापार, अधम चाकरी' वाला जुमला तो सर्वश्रुत ही है। यह भी कहा जाता था कि -
'नौकरी न कीजिये घास खोद खाइये।
और खोदें आसपास आप दूर जाइये।।'
किसी हिन्दी-कवि को तो यहाँ तक कहना पड़ गया कि –
'शिक्षे ! तुम्हारा नाश हो, तुम नौकरी के हित बनी !'
शिक्षा का वास्तविक अर्थ तो है मनुष्य को जीवन के अन्तिम लक्ष्य की ओर उन्मुख करना है - 'सा विद्या या विमुक्तये।' सर्वविध बन्धनों से क्रमिक मुक्ति, तापत्रय से छुटकारा, संसार-जाल और उसके पाशों से आज़ादी, अल्टीमेट लिबर्टी शिक्षा से ही साध्य है - Education is that which liberates. जिसके द्वारा मनुष्य उत्तरोत्तर अपनी सर्वाङ्गीण उन्नति करता हुआ जीवन के तुरीय लक्ष्य को प्राप्त कर सके, वही सच्ची शिक्षा है। इस लक्ष्य-प्राप्ति के लिए आवश्यक है कि मनुष्य में अनेक प्रकार के सद्गुण विकसित हों। ये सद्गुण सहसा नहीं आते। इन गुणों के संस्कार बाल्यकाल से ही जीवन में करते रहने की आवश्यकता होती है। सच्चाई से रहना, दूसरों के लिए घृणा-द्वेषादि का भाव न रखना, अतिथि-सत्कार करना, दान का बखान न करना, भलाई करके मौन रहना, उपकार का कभी विस्मरण न करना, मनसा-वाचा-कर्मणा पवित्र रहना, काम-कञ्चन के व्यामोह से सर्वथा दूर रहना, अन्तःकरण को इस प्रकार विशाल बनाना कि सम्पूर्ण विश्व ही मेरा परिवार है, प्राणिमात्र के प्रति दया का भाव, समाज और राष्ट्र के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने का भाव आदि का संस्कार बहुत आवश्यक है।
हमारे यहाँ तो शिक्षा-विषयक विमर्श की सुदीर्घ परम्परा रही ही है; बाहर की ओर भी देखें तो एक दृष्टान्त तुरन्त स्मृति-पथ में आ रहा है। अब्राहम लिंकन दुनिया के चिन्तनशील और अन्तर्दृष्टिसम्पन्न व्यक्तियों में से एक हैं। उनकी पारगामी दृष्टि स्मृति के झरोखे से बाहर पहुँची और उन्होनें शिक्षा का सही-सही अर्थ समझाया। उन्होनें अपने पुत्र को केवल स्मृति का संग्रहालय बनाना ठीक नहीं समझा। उन्होनें चाहा कि मेरा पुत्र स्मृति-सम्पन्न होने के साथ-साथ बुद्धिमान् और प्रज्ञावान् भी बने। उन्होनें स्वपुत्र की शिक्षा के सम्बन्ध में उसके शिक्षक को एक पत्र लिखा। शताधिक वर्ष पूर्व लिखा गया वह लिंकन-पत्र शिक्षा की वास्तविक पद्धति का एक महत्त्वाधायी ऐतिहासिक दस्तावेज़ कहा जा सकता है। वह पत्र कुछ इस प्रकार है –
हे शिक्षक !
मैं जानता हूँ और मानता हूँ
कि न तो हर आदमी सही होता है
और न ही होता है सच्चा;
किन्तु तुम्हें सिखाना होगा कि
कौन बुरा है और कौन अच्छा।
दुष्ट व्यक्तियों के साथ-साथ आदर्श प्रणेता भी होते हैं,
स्वार्थी राजनीतिज्ञों के साथ समर्पित नेता भी होते हैं;
दुश्मनों के साथ - साथ मित्र भी होते हैं,
हर विरूपता के साथ सुन्दर चित्र भी होते हैं।
समय भले ही लग जाय,पर
यदि सिखा सको तो उसे सिखाना
कि पाये हुए पाँच से अधिक मूल्यवान है
स्वयं एक कमाना।
पाई हुई हार को कैसे झेले, उसे यह भी सिखाना
और साथ ही सिखाना,जीत की खुशियाँ मनाना।
यदि हो सके तो ईर्ष्या या द्वेष से परे हटाना
और जीवन में छिपी मौन मुस्कान का पाठ पठाना।
जितनी जल्दी हो सके उसे जानने देना
कि दूसरों को आतंकित करने वाला स्वयं कमज़ोर होता है
वह भयभीत व चिंतित है
क्योंकि उसके मन में स्वयं चोर छिपा होता है।
उसे दिखा सको तो दिखाना-
किताबों में छिपा ख़ज़ाना।
और उसे वक्त देना चिन्तन के लिये....
कि आकाश के परे उड़ते पंछियों का आह्लाद,
सूर्य के प्रकाश में मधुमक्खियों का निनाद,
हरी-भरी पहाड़ियों से झाँकते फूलों का संवाद,
कितना विलक्षण होता है अविस्मरणीय...अगाध !
उसे यह भी सिखाना-
धोखे से सफ़लता पाने से असफ़ल होना सम्माननीय है
और अपने विचारों पर भरोसा रखना अधिक विश्वसनीय है !
चाहे अन्य सभी उसे ग़लत ठहरायें
परन्तु स्वयं पर अपनी आस्था बनी रहे यह भी विचारणीय है।
उसे यह भी सिखाना कि वह सदय के साथ सदय हो,
किन्तु कठोर के साथ हो कठोर !
और लकीर का फ़कीर बनकर,
उस भीड़ के पीछे न भागे जो करती हो निरर्थक शोर !
उसे सिखाना
कि वह सबकी सुनते हुए अपने मन की भी सुन सके,
हर तथ्य को सत्य की कसौटी पर कसकर गुन सके।
यदि सिखा सको तो सिखाना कि वह दुःख में भी मुस्कुरा सके,
घनी वेदना से आहत हो, पर खुशी के गीत गा सके।
उसे यह भी सिखाना कि आँसू बहते हों तो बहने दो,
इसमें कोई शर्म नहीं...कोई कुछ भी कहता हो कहने दो।
उसे सिखाना-
वह सनकियों को कनखियों से हँसकर टाल सके,
पर अत्यधिक मृदुभाषिता का ख्याल न पाल सके।
वह अपने बाहुबल व बुद्धिबल का अधिकतम मोल पहचान पाए
परन्तु अपने हृदय व आत्मा की बोली कभी न लगवाए।
वह भीड़ के शोर में भी अपने कान बन्द कर सके
और स्वयं की अन्तरात्मा की यही आवाज़ सुन सके;
सच के लिये लड़ सके और सच के लिये अड़ सके।
उसे सहानुभूति से समझाना
पर प्यार के अतिरेक से मत बहलाना।
क्योंकि तप-तप कर ही लोहा खरा बनता है
ताप पाकर ही सोना निखरता है।
उसे साहस देना ताकि वह वक्त पड़ने पर अधीर बने
सहनशील बनाना ताकि वह वीर बने।
उसे सिखाना कि वह स्वयं पर असीम विश्वास करे,
ताकि समस्त मानव जाति पर भरोसा व आस धरे।
यह एक बड़ा-सा लम्बा-चौड़ा अनुरोध है
पर तुम कर सकते हो, इसका तुम्हें बोध है?
मेरे और तुम्हारे... दोनों के साथ उसका रिश्ता है;
सच मानो, मेरा बेटा एक प्यारा-सा नन्हा सा फ़रिश्ता है।
( अन्यदीय भावानुवाद साभार उद्धृत)
परन्तु इस सम्बन्ध में क्या आज की शिक्षा की स्थिति सन्तोषजनक है ?दिखाई देता है कि चारों तरफ विपरीत भाव व्याप्त है। सभी लोग चारित्र्य-संकट की बात करते हैं। चरित्र-निर्माण का तरीक़ा क्या है ? चारित्र्य का प्रारम्भ तो ऊपर से होता है, समाज के श्रेष्ठ पुरुषों से आरम्भ होकर नीचे की ओर जाता है -
'यद् यदाचरति श्रेष्ठः तत्तदेवेतरो जनः।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।'
किन्तु आज समाज का साधनसम्पन्न श्रेष्ठवर्ग, शिक्षा का केन्द्रबिन्दु शिक्षक आदि तो चारित्रिक दृढ़ता का कोई विचार ही नहीं करते हैं। इसलिए छात्र को सच्चरित्र-सम्पन्न बनाने का कार्य और भी दुष्कर हो जाता है। हम विचार करें तो पाएँगे कि आज की शिक्षा-व्यवस्था के अन्तर्गत छात्र-वर्ग में अपने राष्ट्र-जीवन का कोई अभिमान नहीं है। हम इस सम्बन्ध में पर्याप्त ज्ञान देने की व्यवस्था ही नहीं करते। छात्रों को हम राष्ट्र-गौरव के विविध पहलुओं से ज्ञानवान् और स्वाभिमानी नहीं बनाते। इसी कारण आज के विद्यार्थियों में कोई आत्मबोध विकसित होता ही नहीं। उन्हें स्वराष्ट्र-जीवन की कोई जानकारी ही नहीं। राष्ट्र-पुरुषों की महनीय जीवनियाँ उन्हें ज्ञात नहीं। धर्म और संस्कृति के श्रेष्ठ उद्गाताओं का, उनके द्वारा निर्मित प्रेरणाओं का उन्हें परिचय नहीं है।
वर्तमान शिक्षा मात्र सूचनात्मक है - इन्फॉरमेटिव है; संस्कारात्मक - फॉरमेटिव नहीं। उसका ज़ोर इसी बात पर है कि देश का युवक येन केन प्रकारेण डिग्रीधारी हो जाए। हमारे युवकों का समग्र व्यक्तित्व उभर कर आए, इस ओर उसका ध्यान नहीं है। आज शिक्षा के माध्यम से जीवन-स्तर को उन्नत करने की जब बात की जाती है तो उसका सम्बन्ध मात्र जड़ वस्तुओं से होता है। आवश्यकताओं को बढ़ाना, माँगो की पूर्ति करना, निम्नस्तरीय दुष्ट वासनाओं को पूर्ण करते हुए मनुष्यान्तर्गत पशु को पुष्ट करना - यही उस जीवनस्तर-सुधार का अर्थ है। मनुष्य का मानसिक एवम् आध्यात्मिक विकास करने से उसका कोई सम्बन्ध नहीं है। यथा-तथा अर्थार्जन और अन्धाधुन्ध उपभोग; यही जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य बन गया है। शिक्षा से तो मानव की अन्तर्निहित क्षमताओं का प्रकटीकरण होना चाहिये। सूचनाओं को मस्तिष्क में ठूँसना शिक्षा का लक्ष्य नहीं है। मानव-मस्तिष्क को कबाड़ी का गोदाम बनाना शिक्षा का लक्ष्य नहीं है।
शिक्षा-लक्ष्य तो मनुष्य-निर्माण है। शिक्षा-नीति को लेकर अद्यावधि गठित आयोगों व समितियों का भी निष्कर्ष यही है। शिक्षा से आज वैज्ञानिक, इञ्जिनीयर, डॉक्टर आदि तो देश में खूब बन रहे हैं, बनते रहेंगे; परन्तु मनुष्य नहीं बन रहे। मनुष्य बनाना ही कठिन कार्य है। शिक्षा ऐसी चाहिये जो आदमी को इन्सान बना सके। निश्चय ही यह कार्य दुष्कर है -
'बस-कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना।
आदमी को भी मयस्सर नहीं इन्साँ होना।।'
इस विषय का अधिक विस्तार न करते हुए इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि आज की शिक्षा-प्रणाली पर पुनरपि एक बार विचार तो करना होगा (नव-शिक्षानीति-निर्मिति की प्रक्रिया चल भी रही है)। मुख्यतः बालकों को धर्म ( मज़हब नहीं) व अध्यात्म के आधारभूत तत्त्व अवश्यमेव पढ़ाए जाने चाहिएँ तथा जिन्होंने उन उच्च तत्त्वों को अपने जीवन में - अपने आचरण में उतारा और प्रचारित किया; ऐसे महापुरुषों के जीवन-चरित उन्हें पढाए जाने चाहिएँ। साथ ही अपनी राष्ट्रीय विरासत के भव्यतम पहलुओं को उनके सम्मुख रखना चाहिये।भारतीय संस्कृति की प्राणभूता भाषा संस्कृत का भी अध्ययन अनिवार्य-रूपेण करवाना चाहिए। प्राथमिक योग-शिक्षा के द्वारा उन्हें मनःसंयम का शास्त्र अवश्य सिखाना चाहिए, जो कि संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा 'अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस' की घोषणा के पश्चात् अब सर्वथा समयोचित व सुकर कार्य हो गया है। और यदि यह सब न हुआ तो फिर अरविन्द-विवेकानन्द-गाँधी-लिंकन जैसे वैश्विक मनीषियों की शिक्षा की कल्पना साकार नहीं हो सकती। शिक्षा की सार्थकता सिद्ध करने के लिए एक बार पुनः गम्भीर शैक्षिक विमर्श की आवश्यकता को स्वीकार करना ही पड़ेगा - 'नाऽन्यः पन्थाः विद्यतेऽयनाय !'
।।जय हिंदुत्व।। ।।जय श्रीराम।। ।।जय महाकाल।। ।।जय श्रीकृष्ण।।
अति सुंदर।।। प्रभावी भाषा एवं विषय वस्तु।।। साधुवाद
ReplyDeleteअति सुंदर।।। प्रभावी भाषा एवं विषय वस्तु।।। साधुवाद
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ReplyDeleteयह मेरा लेख है जो अन्यत्र प्रकाशित भी है !
ReplyDeleteसही कह रहा हूँ सिद्धार्थ जी? 😊