Thursday, August 13, 2015

वेदों में कृषि विज्ञान (Agriculture साइंस इन इंडिया ) का महत्व |

 वेदों में कृषि विज्ञान (Agriculture साइंस इन इंडिया ) का महत्व |




विश्व के प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद में कृषि का गौरवपूर्ण उल्लेख मिलता है ।
अक्षैर्मा दीव्यः कृषिमित्‌ कृषस्व वित्ते रमस्व बहुमन्यमानः । ऋग्वेद-३४-१३।
अर्थात जुआ मत खेलो, कृषि करो और सम्मान के साथ धन पाओ
कृषि सम्पत्ति और मेधा प्रदान करती है और कृषि ही मानव जीवन का आधार है ।
मानव सभ्यता की ओर बढ़ा, तभी से कृषि प्रारंभ हुई और भारत में कृषि एक विज्ञान के रूप में विकसित हुई । इसके इतिहास का संक्षिप्त वर्णन A concise History of Science in India नामक पुस्तक में किया गया है ।
वैदिक काल में ही बीज वपन, कटाई आदि क्रियाएं , हल, हँसिया, चलनी आदि उपकरण तथा गेहूँ, धान, जौ आदि अनेक धान्यों का उत्पादन होता था । चक्रीय परती के द्वारा मिट्टी की उर्वरता को बढ़ाने की परम्परा के निर्माण का श्रेय उस समय के कृषकों को जाता है । यूरोपीय वनस्पति विज्ञान के जनक रोम्सबर्ग के अनुसार इस पद्धति को पश्चिम ने बाद के दिनों में अपनाया ।
मौर्य राजाओं के काल में कौटिल्य अर्थशास्त्र में कृषि, कृषि उत्पाद आदि को बढ़ावा देने हेतु कृषि अधिकारी की नियुक्ति का उल्लेख मिलता है ।
कृषि हेतु सिचाई की व्यवस्था विकसित की गयी । यूनानी यात्री मेगस्थनीज लिखता है, मुख्य नाले और उसकी शाखाओं में जल के समान वितरण को निश्चित करने के लिए व नदी और कुंओं के निरीक्षण के लिए राजा द्वारा अधिकारियों की नियुक्ति की जाती थी ।
कृषि के संदर्भ में नारदस्मृति, विष्णु धर्मोत्तर, अग्नि पुराण आदि में उल्लेख मिलता है । कृषिपरायण कृषि के संदर्भ में एक संदर्भ ग्रंथ बन गया । इस ग्रंथ में कुछ विशेष बातें कृषि के संदर्भ में कही गयी हैं ।
जोताई - इसमें कितने क्षेत्र की जोताई करना, उस हेतु हल, उसके अंग आदि का वर्णन है । इसी प्रकार जोतने वाले बैल, उनका रंग, प्रकृति तथा कृषि कार्य करवाते समय उने प्रति मानवीय दृष्टिकोण रखने का वर्णन इस ग्रंथ में मिलता है ।
वर्षा के बारे में भविष्यवाणी - प्रकृति का सूक्ष्म निरीक्षण, ग्रहों की गति तथा प्रकृति में होने वाले परिवर्तनों का गहरा अभ्यास प्राचीन काल के व्यक्तियों ने किया था और उस आधार पर वे भविष्यवाणियाँ करते थे ।
जिस वर्ष सूर्य अधिपति होगा, उस वर्ष में वर्षा कम होगी और मानवों को कष्ट सहना होगा । जिस वर्ष चन्द्रमा अधिपति होगा, उस वर्ष अच्छी वर्षा और वनस्पति की वृद्धि होगी । लोग स्वस्थ रहेंगे । उसी प्रकार बुध, बृहस्पति और शुक्र वर्षाधिपति होने पर भी स्थिति ठीक रहेगी । परन्तु जिस वर्ष शनि वर्षाधिपति होगा, हर जगह विपत्ति होगी ।
जोतने का समय - नक्षत्र तथा काल के निरीक्षण के आधार पर जोताई के लिए कौन सा समय उपयुक्त रहेगा, उसका निर्धारण उन्होंने किया ।
बीजवपन - उत्तम बीज संग्रह हेतु पराशर ऋषि गर्ग ऋषि का मत प्रकट करते हैं कि गीज को माघ ( जनवरी - फरवरी ) या फाल्गुन ( फरवरी मार्च ) माह में संग्रहीता करके धूप में सुखाना चाहिए तथा तथा उन बीजों को बाद में अच्छी जगह सुरक्षित रखना चाहिए ।
वर्षा मापन - " कृषि पाराशर " में वर्षा को मापने का वर्णन भी मिलता है अथ जलाढक निर्णयः
शतयोजनविस्तीर्णं त्रिंशद्योजनमुच्छि्रतम्‌ ।
अढकस्य भवेन्मानं मुनिभिः परिकीर्तितक्‌ ॥
अर्थात - पूर्व में ऋषियों ने वर्षा को मापने का पैमाना तय किया है । अढकक याने सौ योजन विस्तीर्ण तथा ३०० योजन ऊँचाई में वर्षा के पानी की मात्रा ।
योजन अर्थात्‌‌ - १ अंगुली की चौड़ाई
१ द्रोण = ४ अढक = ६.४ से. मी.
आजकल वर्षा मापन भी इतना ही आता है ।
कौटिलय के अर्थशास्त्र में द्रोण आधार पर वर्षा मापने का उल्लेख तथा देश में कहाँ कहाँ कितनी वर्षा होती है, इसका उल्लेख भी मिलता है ।
उपरोपण ( ग्राफ्टिंग ) - वराहमिहिर अपनी वृहत्‌ संहिता में उपरोपण की दो विधियाँ बताते हैं ।
( १ ) जड़ से पेड़ में काटना और दूसरे को तने ( trunk ) से काटकर सन्निविष्ट ( insert ) करना ।
( २ ) Inserting the cutting of tree into the stem of another जहाँ दोनों जुडे़गे वहाँ मिट्टी और गोबर से उनको बंदकर आच्छादित करना ।
इसी के वराहमिहिर किस मौसम में किस प्रकार के पौधे की उपरोपण करना चाहिए, इसका भी उल्लेख करते हैं । वे कहते हैं ।
इसी के वराहमिहिर किस मौसम में किस प्रकार के पौधे की उपरोपण करना चाहिए, इसका भी उल्लेख करते हैं । वे कहते हैं ।
शिशिर ऋतु ( दिसम्बर - जनवरी ) --------- जिनकी शाखांए बहुत हैं उनका उपरोपण करना चाहिए
शरद ऋतु ( अगस्त - सितम्बर )
वराहमिहिर किस मौसम में कितना पानी प्रतिरोपण किए पौधों को देना चाहिए, इसका उल्लेख करते हुए कहते हैं कि " गरमी में प्रतिरोपण किए गए पौधे को प्रतिदिन सुबह तथा शाम को पानी दिया जाए । शीत ऋतु में एक दिन छोड़कर तथा वर्षा काम में जब जब मिट्टी सूखी हो । "इस प्रकार हम देखते हैं कि प्राचीन काल से भारत में कृषि एक विज्ञान के रूप में विकसित हुआ । जिसके कारण हजारों वर्ष बीतने के बाद भी हमारे यहाँ भूमि की उर्वरा शक्ति अक्षुण्ण बनी रही, जबकि कुछ दशाब्दियों में ही अमेरिका में लाखों हेक्टेयर भूमि बंजर हो गयी है ।
भारतीय कृषि पद्धति की विशेषता एवं इसके उपकरणों का जो प्रशंसापूर्ण उल्लेख अंगेजों द्वारा किया गया , उसका उद्धरण धर्मपाल जी की पुस्तक " इण्डियन साइंस एण्ड टैक्नोलॉजी उन दी एटीन्थ सेन्चुरी " मे दिया गया है । उस समय भारत कृषि के सुविकसित साधनों में दुनिया में अग्रणी था । कृषि क्षेत्र में पंक्ति में बोने के तरीके को इस क्षेत्र में बहुत उपयोगी और उपयोगी अनुसंधान माना जाता है । आस्ट्रिया में पहले पहल इसका प्रयोग सन्‌ १६६२ में हुआ था तथा इंग्लैण्ड में १७३० में हुआ हालाकि इसका व्यापक प्रचार प्रसार वहाँ इसके ५० वर्ष बाद हो पाया । पर मेजर जनरल अलेक्झेंडर वाकर के अनुसार पंक्ति में बोने का प्रयोग भारत में अत्यंत प्राचीन काल से ही होता आया है । थामॅमस हाल्काट ने १७९७ में इंग्लैण्ड के कृषि बोर्ड को लिखे एक पत्र में बताया कि, भारत इसका प्रयोग प्राचीन काल से ही होता रहा है । उसने बोर्ड को पंक्तियुक्त हलों के तीन सेट लन्दन भेजे ताकि इन हलों की नकल अंग्रेज कर सकें, क्योंकि ये अंग्रेजी हलों की अपेक्षा अधिक उपयोंगी और सस्ते थें ।
सर वाकर लिखते हैं " भारत में शायद विश्व के किसी भी देश से अधिक किस्मों का अनाज बोया जाता है और तरत - तरह की पौष्टिक जड़ों वाली फसलों का भी यहाँ प्रचलन है । वाकर की समझ में नहीं आया कि हम भारत को क्या दे सकते हैं क्योंकि जो खाद्यान्न हमारे यहाँ हैं, वे तो यहाँ हैं ही, और भी अनेक प्रकार के अन्न यहाँ हैं । "

ऐसा नहीं है वेदों में सिर्फ पूजा पाठ ही था ............................वेद पढ़िए और जानिये भारत के स्वर्णिम अतीत और विज्ञान को |

।।जय हिंदुत्व।। ।।जय श्रीराम।। ।।जय महाकाल।। ।।जय श्रीकृष्ण।।

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