सभी प्रारंभिक सभ्यताओं में भौतिक विज्ञानों का अध्ययन न तो परिभाषित था और
न ही ज्ञान की अन्य शाखाओं से प्रथक था। प्रारंभ में जो नवीनशिल्प और
कार्य व्यवहारतः विकसित हुए जिनमें वैज्ञानिक सिद्धांतों के प्रयोग की
जरूरत थी परंतु उनसे अलग हटकर विज्ञान के सिद्धांतों का स्वतंत्रा अध्ययन
करने के प्रयास नहीं के बराबर हुए। अधिकांश मामलों में जो तकनीकी अनुसंधान
हुए उनमें निहित वैज्ञानिक सिद्धांतों की कोई जानकारी नहीं थी और ये
अनुसंधान अटकलपच्चू विधि और पूर्व अनुभव के जरिए हुए। कभी-कभी विज्ञान के
प्रति एक अस्पष्ट जागरूकता आती थी मगर तकनीक के व्यवहारिक पक्ष और उनकी
व्यवहारिक सफलता पर ही ध्यान अधिक केंद्रित था न कि इस बात पर कि कैसे और
क्यों कभी सफलता मिलती थी और कभी क्यों नहीं मिलती थी ?
भारत में रसायन के प्रारंभिक प्रयोग, औषधि, धातुकर्म, निर्माणशिल्प जैसे सीमेंट और रंगों के उत्पादन, वस्त्रा उत्पादन और रंगाई के संदर्भ में हुए। रासायनिक प्रक्रियाओं को समझने के दौरान पदार्थ के मूल तत्वों की व्याख्या करने में भी रुचि उत्पन्न हुई कि वे किन वस्तुओं के मेल से बने और किस प्रकार उनके आपसी मेल से नई वस्तुयें बनती थीं। समुद्री ज्वार, वृष्टिपात, सूर्य का स्वरूप, चंद्रमा और तारों के निर्माण, मौसम में परिवर्तन, ऋतुओं की रूपरेखा और कृषि आदि के संदर्भ में प्राकृतिक घटनाओं का अध्ययन हुआ। उदाहरणार्थ - वैदिक साहित्य में वर्णित है कि किस प्रकार सूर्य के ताप से समुद्र और सागरों से जल का वाष्पीकरण और संघनन होकर बादलों का निर्माण और वर्षा होती है। स्पष्ट है कि इनसे भौतिक प्रक्रियाओं और प्राकृतिक शक्तियों के बारे में उन सिद्धांतों तक पहुंचा जा सका जिनका रसायन और भौतिकी के क्षेत्रा में विशिष्ट शीर्षकों के अंतर्गत अध्ययन किया जाता है।
दर्शन और भौतिक विज्ञान
यह कहना कठिन है कि पहले सिद्धांत आया या उसका उपयोग। स्पष्टतः दोनों में एक द्वंदात्मक संबंध है और दोनों में से किसी की भी अवहेलना करने से विज्ञान की इति हो जाती है। धार्मिक विश्वास, विशेषतः धार्मिक निषेध और रहस्यात्मक या जादुई घटनाओं के लिए प्रतिपादित अबौद्धिक सिद्धांत या गलत अंधविश्वासों के प्रति लगाव प्रायः विज्ञान की प्रगति में गंभीर रूप से बाधक हो सकते हैं और भौतिक घटनाओं के क्यों और कैसे की खोज में महत्वपूर्ण योगदान करने से रोक सकते हैं।
वे समाज जिनका विश्वास था कि प्रकृति के रहस्यों को केवल देवता ही जान सकते हैं अतएव मनुष्य द्वारा ब्रहमांड के रहस्यों की गुत्थी सुलझाने का प्रयास निरर्थक है, स्पष्ट है कि वे समाज विज्ञान की दुनिया में कोई उल्लेखनीय प्रगति करने में असमर्थ रहे हैं। उन समाजों में भी जहां विश्व की वास्तविक घटनाओं को वैज्ञानिक तरीके से समझने के मार्ग में कोई धार्मिक निषेध नहीं था, पुरोहितों की सत्ता और प्रभाव वैज्ञानिक प्रगति के मार्ग में अवरोध बन सकती थी। उदाहरणार्थ ऐसे समाज में जहां अभीष्ट लक्ष्य प्राप्त करने के लिए केवल कर्मकाण्डीय गतिविधियां पर्याप्त समझी जाती हों, स्वाभाविक है कि प्रकृति के गुणों और नियमों के बारे में गंभीर गंवेषणा करने की गुंजाइश ही नहीं रह जाती।
प्राचीन भारत लगभग पहले प्रकार के दुर्भाग्य - विज्ञान का धर्म द्वारा विरोध से पीड़ित नहीं था परंतु दूसरे प्रकार की त्राुटि - कर्मकाण्डों और अंधविश्वासों के प्रसार से ग्रस्त था। इस प्रकार भारत में विज्ञान का प्रसार अनिवार्य रूप से पुरोहितों के वर्चस्व को चुनौती देता था और कर्मकाण्डों और बलिप्रथा के प्रसार के रास्ते में बाधक था। कम से कम यह तर्क प्रस्तुत करना जरूरी था कि अभीष्ट फल प्राप्ति के लिए कर्मकाण्ड अपर्याप्त थे और यह कि मानव की नियति को आकार देने के लिए विश्व का विवेक सम्मत निरीक्षण कुछ हद तक आवश्यक था। इसलिए यह कोई संयोग नहीं था कि विज्ञान और तकनीक का विकास, भारत में विवेकवादी दर्शन के विकास के समानान्तर हुआ। देखिएः ’’प्राचीन भारत में दार्शनिक विचार और वैज्ञानिक तरीकों का विकास’’।
प्राचीनतम वैज्ञानिक ग्रंथों, जैसे कि विशेषिक में, जो 6 वीं सदी ई.पू. या संभवतः और पहले की रचना है - देेखिएः ’’उपनिषादिक तत्व मीमांसा से वैज्ञानिक यथार्थवादः दार्शनिक विकास’’ - में विभिन्न प्रकार के पौधों और प्राकृतिक वस्तुओं के भौतिक गुणों को लिपिबद्ध करने का प्रारंभिक प्रयास किया गया। प्राकृतिक घटनाओं का निरीक्षण करके उनका वर्गीकरण और संक्षेप में उनका वर्णन करने का भी प्रयास किया गया। उसके बाद पदार्थ की संरचना और उनके भौतिक व्यवहार के बारे में सिद्धांत प्रतिपादित किया गया और उनके लिए सूत्रा विकसित किए गए। इस प्रकार यद्यपि भारत में भौतिकी और रसायन के प्राचीनतम प्रयोग - जैसा कि अन्य प्राचीन समाजों में भी हुआ, विज्ञान की इन शाखाओं के सैद्धांतिक ज्ञान या जानकारी के अभाव में ही हुए। इन प्रारंभिक विवेक सम्मत ग्रंथों में वैज्ञानिक गवेषणा और वैज्ञानिक दस्तावेजीकरण के तत्व विद्यमान थे। यद्यपि ये कदम प्रारंभिक और काम चलाउ थे, फिर भी, भौतिकी, रसायन, उद्भिज विज्ञान, जीव विज्ञान और अन्य भौतिक विज्ञानांे में आज के स्तर के ज्ञान तक मानवता को पहुंचने के लिए बहुत ही आवश्यक थे।
भारत में रसायन के प्रारंभिक प्रयोग, औषधि, धातुकर्म, निर्माणशिल्प जैसे सीमेंट और रंगों के उत्पादन, वस्त्रा उत्पादन और रंगाई के संदर्भ में हुए। रासायनिक प्रक्रियाओं को समझने के दौरान पदार्थ के मूल तत्वों की व्याख्या करने में भी रुचि उत्पन्न हुई कि वे किन वस्तुओं के मेल से बने और किस प्रकार उनके आपसी मेल से नई वस्तुयें बनती थीं। समुद्री ज्वार, वृष्टिपात, सूर्य का स्वरूप, चंद्रमा और तारों के निर्माण, मौसम में परिवर्तन, ऋतुओं की रूपरेखा और कृषि आदि के संदर्भ में प्राकृतिक घटनाओं का अध्ययन हुआ। उदाहरणार्थ - वैदिक साहित्य में वर्णित है कि किस प्रकार सूर्य के ताप से समुद्र और सागरों से जल का वाष्पीकरण और संघनन होकर बादलों का निर्माण और वर्षा होती है। स्पष्ट है कि इनसे भौतिक प्रक्रियाओं और प्राकृतिक शक्तियों के बारे में उन सिद्धांतों तक पहुंचा जा सका जिनका रसायन और भौतिकी के क्षेत्रा में विशिष्ट शीर्षकों के अंतर्गत अध्ययन किया जाता है।
दर्शन और भौतिक विज्ञान
यह कहना कठिन है कि पहले सिद्धांत आया या उसका उपयोग। स्पष्टतः दोनों में एक द्वंदात्मक संबंध है और दोनों में से किसी की भी अवहेलना करने से विज्ञान की इति हो जाती है। धार्मिक विश्वास, विशेषतः धार्मिक निषेध और रहस्यात्मक या जादुई घटनाओं के लिए प्रतिपादित अबौद्धिक सिद्धांत या गलत अंधविश्वासों के प्रति लगाव प्रायः विज्ञान की प्रगति में गंभीर रूप से बाधक हो सकते हैं और भौतिक घटनाओं के क्यों और कैसे की खोज में महत्वपूर्ण योगदान करने से रोक सकते हैं।
वे समाज जिनका विश्वास था कि प्रकृति के रहस्यों को केवल देवता ही जान सकते हैं अतएव मनुष्य द्वारा ब्रहमांड के रहस्यों की गुत्थी सुलझाने का प्रयास निरर्थक है, स्पष्ट है कि वे समाज विज्ञान की दुनिया में कोई उल्लेखनीय प्रगति करने में असमर्थ रहे हैं। उन समाजों में भी जहां विश्व की वास्तविक घटनाओं को वैज्ञानिक तरीके से समझने के मार्ग में कोई धार्मिक निषेध नहीं था, पुरोहितों की सत्ता और प्रभाव वैज्ञानिक प्रगति के मार्ग में अवरोध बन सकती थी। उदाहरणार्थ ऐसे समाज में जहां अभीष्ट लक्ष्य प्राप्त करने के लिए केवल कर्मकाण्डीय गतिविधियां पर्याप्त समझी जाती हों, स्वाभाविक है कि प्रकृति के गुणों और नियमों के बारे में गंभीर गंवेषणा करने की गुंजाइश ही नहीं रह जाती।
प्राचीन भारत लगभग पहले प्रकार के दुर्भाग्य - विज्ञान का धर्म द्वारा विरोध से पीड़ित नहीं था परंतु दूसरे प्रकार की त्राुटि - कर्मकाण्डों और अंधविश्वासों के प्रसार से ग्रस्त था। इस प्रकार भारत में विज्ञान का प्रसार अनिवार्य रूप से पुरोहितों के वर्चस्व को चुनौती देता था और कर्मकाण्डों और बलिप्रथा के प्रसार के रास्ते में बाधक था। कम से कम यह तर्क प्रस्तुत करना जरूरी था कि अभीष्ट फल प्राप्ति के लिए कर्मकाण्ड अपर्याप्त थे और यह कि मानव की नियति को आकार देने के लिए विश्व का विवेक सम्मत निरीक्षण कुछ हद तक आवश्यक था। इसलिए यह कोई संयोग नहीं था कि विज्ञान और तकनीक का विकास, भारत में विवेकवादी दर्शन के विकास के समानान्तर हुआ। देखिएः ’’प्राचीन भारत में दार्शनिक विचार और वैज्ञानिक तरीकों का विकास’’।
प्राचीनतम वैज्ञानिक ग्रंथों, जैसे कि विशेषिक में, जो 6 वीं सदी ई.पू. या संभवतः और पहले की रचना है - देेखिएः ’’उपनिषादिक तत्व मीमांसा से वैज्ञानिक यथार्थवादः दार्शनिक विकास’’ - में विभिन्न प्रकार के पौधों और प्राकृतिक वस्तुओं के भौतिक गुणों को लिपिबद्ध करने का प्रारंभिक प्रयास किया गया। प्राकृतिक घटनाओं का निरीक्षण करके उनका वर्गीकरण और संक्षेप में उनका वर्णन करने का भी प्रयास किया गया। उसके बाद पदार्थ की संरचना और उनके भौतिक व्यवहार के बारे में सिद्धांत प्रतिपादित किया गया और उनके लिए सूत्रा विकसित किए गए। इस प्रकार यद्यपि भारत में भौतिकी और रसायन के प्राचीनतम प्रयोग - जैसा कि अन्य प्राचीन समाजों में भी हुआ, विज्ञान की इन शाखाओं के सैद्धांतिक ज्ञान या जानकारी के अभाव में ही हुए। इन प्रारंभिक विवेक सम्मत ग्रंथों में वैज्ञानिक गवेषणा और वैज्ञानिक दस्तावेजीकरण के तत्व विद्यमान थे। यद्यपि ये कदम प्रारंभिक और काम चलाउ थे, फिर भी, भौतिकी, रसायन, उद्भिज विज्ञान, जीव विज्ञान और अन्य भौतिक विज्ञानांे में आज के स्तर के ज्ञान तक मानवता को पहुंचने के लिए बहुत ही आवश्यक थे।
कणभौतिकी
यद्यपि कणभौतिकी आधुनिक भौतिकी की सर्वाधिक विकसित और सर्वाधिक जटिल शाखाओं में से एक है, प्राचीनतम परमाणु सिद्धांत कम से कम 2500 वर्ष पुराना है। भारत में दर्शन की लगभग हर विवेकसम्मत विचारधारा में चाहे वह हिंदू, जैन या बौद्ध हो, मूलकणों की प्रकृति के संबंध में कुछ न कुछ आख्यान है और इन विभिन्न विचारधाराओं ने इस विचार को प्रसारित किया कि पदार्थ परमाणुओं द्वारा संरचित है जो अविभाज्य और अनश्वर है। देखिएः ’’उपनिषादिक तत्व मीमांसा से वैज्ञानिक यथार्थवादः दार्शनिक विकास’’। परवर्ती दार्शनिकों ने इस विचारधारा को और आगे बढ़ाते हुए प्रतिपादित किया कि परमाणु केवल जोड़े में ही नहीं वरन् तिकड़ी में भी संयुक्त हो सकते थे और यह कि युग्म और तिकड़ी में उनकी पास-पास सजावट ही प्रकृति में प्राप्त वस्तुओं के विभिन्न भौतिक गुणों के लिए जिम्मेवार थी। जैनों ने यह भी प्रतिपादित किया कि परमाणुओं के संयोजन के लिए संयुक्त होने वाले परमाणुओं में विशिष्ट गुणों की आवश्यकता है तथा आवश्यकता है अलग से एक उत्प्रेरक परमाणु की। इस प्रकार प्रारंभिक परमाणु सिद्धांत पदार्थ के अणु सिद्धांत में परिवर्तित हो गए। यद्यपि इन सिद्धांतों के कई वर्णन वैज्ञानिक यथार्थ की कसौटी पर आज खरे नहीं उतरते तथापि इन सूत्रों में बहुत कुछ ऐसा है जो अपने समय से काफी आगे है और परिमार्जित है।
/यद्यपि यह महज एक संयोग हो सकता है, लेकिन जैनों का आणविक सिद्धांत भैषज या धातुकर्म जैसे अन्य क्षेत्रों में हुई व्यवहारिक उन्नतियों के समानान्तर हुआ। धातुओं में उप्प्रेरकों के महत्वपूर्ण योग में देखा गया और सावधानी से लिपिबद्ध हुआ। भारतीय भैषज ग्रंथों में प्रतिपादित किया गया कि मानव शरीर में समुचित पाचन के लिए और औषधियों तथा काढ़ों के सफल अवशोषण के लिए भी उत्प्रेरक वस्तुओं की आवश्यकता है। भैषज विज्ञान और शल्य उपयोगों के संदर्भ में अम्लों और क्षारों के निर्माण हेतु उत्प्रेरक वस्तुओं की जरूरत को रेखांकित किया गया, ठीक वैसे ही जैसे कि धातुकर्म की प्रक्रियाओं और पक्के रंग वाले रोगनों के निर्माण में उपयुक्त उत्प्रेरकों के योगदान को। /आज उत्प्रेरकों की मदद से होने वाली प्रक्रियाओं के बारे में हम बहुत कुछ जानते हैं; विविध प्रकार के खनिजों, विटामिनों और एंजाइमों की पहचान कर ली गई है जो हमारे शरीर के अंदर होने वाली महत्वपूर्ण रासायनिक प्रक्रियाओं की श्रंृखला में उत्प्रेरकों के रूप में महत्वपूर्ण योगदान उसी प्रकार करते हैं जैसे कि अन्य भौतिक प्रक्रियाओं में उत्प्रेरक यौगिक करते हैं।/
उष्मा द्वारा होने वाले रासायनिक परिवर्तनों की व्याख्या करने के लिए भी परमाणु तथा अणु सिद्धांतों का उपयोग किया गया यद्यपि ऐसा अनुमानतः किया गया। प्रशस्तपाद ने प्रस्तावित किया कि तेजस /उष्मा/ अवयव अणु-व्यूहों को प्रभावित करता है जिससे रासायनिक परिवर्तन होते हैं। इस प्रक्रिया की विस्तृत व्याख्या के लिए दो प्रतिस्पर्धी सिद्धांत प्रस्तुत हुए जिसका प्रयोग मृदभाण्डों को अग्नि द्वारा पकाने / रंगने की प्रक्रिया की व्याख्या में किया गयाः पीलुपाकवाद सिद्धांत जिसका प्रस्ताव वैशेषिकों ने रखा मानता था कि उष्मा के प्रयोग से परमाणु की व्यूह रचना बदल जाती है जिससे नए अणुओं और भिन्न रंग का निर्माण होता है। पीठारपादवाद सिद्धांत जिसे न्यायदर्शन के अनुयायियों ने विकसित किया इससे असहमत होते हुए कहता था कि आणुविक परिवर्तन अथवा नई संरचना होती अवश्य है परंतु बिना प्रारंभिक अणुओं के मूल-परमाणुओं में विघटित हुए, क्योंकि यदि ऐसा होता तो मृदभाण्ड भी विघटित हो जाता; परंतु मृदभाण्ड तो समूचा रहता है, केवल रंग में ही परिवर्तन होता है।
गतिज उर्जा की एक अवचेतनात्मक समझ प्रशस्तपाद और न्याय-वैशेषिकों के ग्रंथों में मिलती है जिसके अनुसार सारे परमाणु निरंतर गतिशील अवस्था में रहते हैं। ऐसी आणविक-परमाणविक गतियां, चाहे वह घूर्णन हो या वृत्ताकार गति या हारमोनिक गति, के वर्णन के लिए उन्होंने परिस्पंद की परिकल्पना प्रस्तुत की।
प्रकाश और ध्वनि
प्रारंभिक भारतीय विवेकवादियों ने प्रकाश और ध्वनि के स्वभाव के बारे में सिद्धांत प्रस्तुत करने की कोशिश की। प्राचीन यूनानियों की भांति प्राचीन भारतीय दार्शनिक भी आंख को प्रकाश का स्त्रोत् मानते थे और यह गलतफहमी पहली सदी तक कायम रही जब तक सुश्रुत ने यह प्रतिपादित नहीं कर दिया कि किसी बाहरी स्त्रोत से आने वाला प्रकाश हमारे चक्षु-पटल पर पड़कर हमारे चारों ओर के विश्व को प्रकाशित करता है। 5 वीं सदी में आर्यभट ने भी इसकी पुष्टि की। अन्य मामलों में, प्रारंभिक दार्शनिकों की बातें बहुत सटीक थीं। चक्रपाणि ने बताया कि ध्वनि और प्रकाश दोनों की गति लहरों के रूप में होती है परंतु प्रकाश की गति अपेक्षाकृत बहुत तीव्र होती है। अन्य लोगों ने, जैसे कि मीमांसकों ने कल्पना की कि प्रकाश बहुत सूक्ष्म कणों से बना है /आजकल उसे फोटान कहते हैं/ जो निरंतर गतिमान रहते हैं और मूल-स्त्रोत से उनका निरंतर विकिरण और डिफ्यूजन होता रहता है।
ध्वनि का लहर जैसा स्वभाव प्रशस्तपाद द्वारा भी वर्णित किया गया है। उन्होंने परिकल्पित किया कि जिस प्रकार पानी में लहरों की गति होती है वैसे ही ध्वनि हवा में बढ़ते हुए वृत्तों के रूप में चलती है। ध्वनि का परावर्तन अपने ढंग का ही होता है जिसे प्रतिध्वनि कहा जाता है। संगीत की श्रुतियों के बारे में कहा गया है कि इनका कारण कंपन का परिणाम और बारंबारता है। स्वर के बारे में विश्वास किया जाता था कि यह श्रुति /मूल स्वर/ और कुछ अनुरनन /आंशिक स्वरों या हारमोनिक्स/ के संयोग से बनते हैं। कुछ परिकल्पनाओं यथा जाति व्यक्तोखि तादात्म्यस् /स्वर के प्रकार और जातियां/ परिणाम /मूलभूत बारंबारता का परिवर्तन/, व्यंजना /ओवरटोन का प्रदर्शन, विवतर््न /ध्वनि का परावर्तन/ और कार्यकारण भाव /ध्वनि का कारण और प्रभाव/ के आधार पर संगीत सिद्धांत की व्याख्या की गई।
6 वीं सदी में वाराहमिहिर ने परावर्तन की व्याख्या करते हुए बताया कि प्रकाश के कण किसी वस्तु पर पड़कर वापिस छिटक जाते हैं जिसे किरण विघट्टन या मूच्र्छना कहा जाता हैः यही प्रकाश का परावर्तन है। वात्स्यायन ने इस घटना को रश्मि परावर्तन का नाम दिया। इस धारणा को अंगीकार करके छाया बनने और वस्तुओं की अपारदर्शिता की व्याख्या की गई। आवर्तन के बारे में यह कहा गया कि इसका कारण अर्धपारदर्शी और पारदर्शी वस्तुओं के अंतः स्थानों को भेदने की प्रकाश की क्षमता है और उद्दोतकार ने इसकी तुलना उन द्रव्यों से की जो छिद्रयुक्त वस्तुओं से गुजरते हैं - तत्रा परिस्पंदः तिर्यग्गमनम् परिश्रवः पातयति।
/अल हयाथम् ने जो बसरा में जन्मा था और जिसने 10 वीं सदी में काहिरा को अपना कार्यक्षेत्रा बनाया था संभवतः आर्यभट की रचनाओं से परिचित था। उसने आप्टिक्स के बारे में एक और अधिक उन्नत सिद्धांत प्रस्तुत करते हुए प्रकाश किरणों की मदद से चित्रा द्वारा परावर्तन और आवर्तन की अभिकल्पनाओं की व्याख्या की। आवर्तन के नियमों की व्याख्या के लिए तथा प्रकाश किरणें विभिन्न पदार्थाें में अलग अलग गति से चलतीं हैं जिसके कारण आवर्तन की घटना होती है इस बात को समझाने के लिए वह विशेष तौर पर जाना जाता है।/
ज्योतिर्विज्ञान और भौतिकी
ठीक जैसे गणित के अध्ययन को ज्योतिर्विज्ञान के अध्ययन से बल मिला वैसे ही भौतिकी के अध्ययन को भी मिला। जैसा कि गणित वाले लेख में बताया गया है, आर्यभट ने 5 वीं सदी से 6 वीं सदी में ग्रहों की गति के क्षेत्रा में गवेषणा का मार्ग प्रशस्त किया। इससे आकाश और काल-मापक इकाईयों की परिभाषा और गुरूत्वाकर्षण, गति और वेग की अवधारणाओं की बेहतर समझ का विकास हुआ।
/उदाहरणार्थ यतिबृषभ की कृति तिलोयपन्नति में, जो 6 वीं सदी में रची गई थी, काल और दूरी माप के लिए विभिन्न इकाईयों का वर्णन है और असीम काल की माप के लिए भी एक प्रणाली का वर्णन है। इससे भी महत्वपूर्ण है वाचस्पति मिश्र द्वारा लगभग 840 ई. के आसपास ठोस ज्यामिति / त्रिविमीय अक्षीय ज्यामिति की अभिकल्पना, जिसका अविष्कार दे कार्तस ने 1644 ई. में किया था। न्याय शुचि निबंध में वे लिखते हैं कि आकाश में किसी भी कण की स्थिति की एक दूसरे कण की स्थिति के संदर्भ में तीन काल्पनिक अक्षों के सहारे गणना की जा सकती है।/
ज्योतिर्विज्ञान के अध्ययन से काल और आकाश की बहुत बड़ी और बहुत छोटी इकाईयों की रचना में काफी रुचि जागृत हुई। एक सौर दिन 1944000 क्षणांे के बराबर होता है, यह न्याय-वैशेषिकों का कथन था। इस प्रकार एक क्षण 0.044 सेकिंड के बराबर हुआ। काल के न्यूनतम माप त्राुटि को परिभाषित किया गया जो 2.9623 गुणा 10 वर्ग 4 के बराबर थी। शिल्पशास्त्रा में लम्बाई की न्यूनतम माप परमाणु मानी गई है जो 1 बटा 349525 इंच के बराबर है। यह माप न्याय-वैशेषिक की न्यूनतम मुटाई - त्रासरेणु से मेल खाती है - जो अंधेरे कमरे में चमकने वाली धूप के पुंज की सूक्ष्मतम कण के बराबर है। 6 वीं सदी के आसपास वाराहमिहिर ने अभिकल्पित किया था कि 86 त्रासरेणु मिलकर एक अंगुलि अर्थात् 3/4 इंच के बराबर हैं। उसने यह भी बताया कि 64 त्रासरेणु मिलकर बाल की मोटाई के बराबर हैं।/
गति के नियम
यद्यपि वैशेषिकों ने विभिन्न प्रकार की गतियों का वर्गीकरण करने का प्रयास किया, 7 वीं सदी में प्रशस्तपाद ने इस विषय पर अध्ययन को काफी आगे बढ़ाया। उसकी दी गई कई परिभाषाओं से प्रतीत होता है कि उसकी कुछ अभिकल्पनायें ग्रहों की गति से उपजी हैं। रैखिक गति के अतिरिक्त प्रशस्तपाद ने वक्रीय गति - गमन, परिक्रमा वाली गति - भ्रमण और कंपन गति का भी वर्णन किया है। उसने गुरूत्वशक्ति या द्रव्यों के बहाव के फलस्वरूप होने वाली गति तथा किसी बाहय् क्रिया के फलस्वरूप होने वाली गति में अंतर भी बताया है।
वह लचीलापन या संवेग के फलस्वरूप होने वाली गति से या बाहय् बल की प्रतिक्रिया के कारण होने वाली गति से भी परिचित था। उसने यह भी नोट किया कि कुछ प्रकार की क्रियाओं से एक जैसी गति होती है, कुछ प्रकार की क्रियाओं से विपरीत दिशा में गति होती है और कभी-कभी कोई गति नहीं होती तथा इन विभिन्नताओं का कारण है परस्पर क्रिया प्रतिक्रिया करने वाली वस्तुओं के अंदर निहित गुण।
प्रशस्तपाद ने यह भी पाया कि किसी भी एक काल में एक कण में एक ही गति हो सकती है /यद्यपि एक वस्तु उदाहरणार्थ कंपायमान पत्रा /ब्लोइंग लीफ/ जिसमें कणों की बड़ी संख्या होती है, में होने वाली गति अधिक जटिल प्रकार की होगी क्योंकि विभिन्न कण अलग-अलग प्रकार से गति कर रहे होंगे। यह एक महत्वपूर्ण अवधारणा थी जिससे आगे चलकर गति के नियमों को गणित के सूत्रों में बांधने में मदद मिली।
10 वीं सदी में श्रीधर ने प्रशस्तपाद के निरीक्षणों की पुष्टि की और उसने जो कुछ निरीक्षण के बाद लिखा था उसका विस्तार किया। 12 वीं सदी में भास्कराचार्य ने अपनी कृतियों, सिद्धांत शिरोमणि और गणिताध्याय में गणितीकरण की दिशा में पहला महत्वपूर्ण कदम उठाया और औसत वेग की माप इस प्रकार की अ त्र े ध् ज /जहां अ त्र औसत वेग, े त्र चली गई कुल दूरी और ज त्र समय।/
अपने समय के हिसाब से, प्रशस्तपाद के कार्य और बाद में, श्रीधर और भास्कराचार्य द्वारा उनकी व्याख्या को बहुत महत्वपूर्ण मानना चाहिए था। मगर, भारतीय ग्रंथों की एक बड़ी कमजोरी थी कि बाद में उनका गणितीकरण और अवधारणाओं की व्याख्या का आगे प्रयास न करना। उदाहरणार्थ गति के कई प्रकार के लिए अज्ञात कारणों को जिम्मेवार माना गया। परंतु इन समस्याओं को हल करने की कोई कोशिश आगे नहीं हुई और न यह अनुभव किया गया कि गति के विभिन्न प्रकारों के पीछे अदृश्य कारणों के लिए सामान्य तौर पर कोई अवधारणा प्रस्तुत करने की जरूरत है, विधिक तौर पर उन्हें परिभाषित करने और एक मौलिक तरीके से उन्हें प्रगट करने की आवश्यकता है, जैसा कि कुछ सदियों बाद न्यूटन ने एक गणितीय सू़त्रा के माध्यम से किया।
प्रयोग बनाम सहजज्ञान
वास्तव में, गति के अध्ययन में अगला बड़ा कदम इंग्लेंड में उठना था, जहां वैज्ञानिक गवेषणा के लिए रोजर बेकन, 13 वीं सदी, जैसे लोगों ने जमीन तैयार की थी। उसने शिक्षा प्राप्ति के रास्ते में रोड़े गिनाये - सत्ता के प्रति /आवश्यकता से अधिक/ सम्मान, अभ्यस्तता का बल, आध्यात्मविद्या संबंधी दुराग्रह और ज्ञान की गलत अवधारणा। एक सदी बाद आक्सफोर्ड के मर्टन विद्वानों ने त्वारित गति की अवधारणा विकसित की। यह अवधारणा बल को समझने के लिए सूत्रा की, बल त्र संहति ग त्वरण अग्रदूत थी। इन विद्वानों ने एक छड़ में उष्मा की मात्रा के मापने के लिए और उसे गणित की भाषा में प्रकट करने के लिए आदिम मगर महत्वपूर्ण कदम उठाये। ब्रिटिश तथा यूरोपीय विज्ञान की एक महत्वपूर्ण कसौटी सिद्धांत और अभ्यास /प्रयोग/ का समीकरण था जबकि भारतीय वैज्ञानिक ज्योतिर्विज्ञान के सिवाय अन्य क्षेत्रों की गवेषणा करने में सहजज्ञान पर भरोसा करते थे।
उदाहरण के लिए ठीक 16 वीं सदी तक भारतीय वैज्ञानिकों ने उपयोगी वैज्ञानिक निरीक्षणों को दर्ज करना जारी रखा परंतु गंभीरता से उन्हें गणितीय रूप से प्रकट करने की चेष्टा नहीं की, न अपने निरीक्षणों से प्राप्त फलों के भौतिक या रासायनिक कारणों को गहराई से खोजने की चेष्टा की। 10 वीं-11 वीं सदी में भोज ने तथा बाद में शंकर मिश्र ने चुम्बकत्व का संदर्भ दिया। 10 वीं-11 वीं सदी में उदयन ने सारे रासायनिक परिवर्तनों का उर्जा स्त्रोत सौर उष्मा को माना और गुब्बारों की चर्चा करते हुए हवा में भार होने की चर्चा अपनी कृति किरणावली में की है। 13 वीं सदी में वल्लभाचार्य ने अपनी कृति न्यायलीलावती में किसी डूबती वस्तु के प्रति जल द्वारा प्रतिरोध लगाने की ओर इशारा किया है मगर इसके आगे कोई सैद्धांतिक चर्चा नहीं की। 15 वी -16 वीं सदी में शंकर मिश्र ने स्थिर-वैद्युतिक आकर्षण के तथ्य का अवलोकन किया जब उन्होंने देखा कि घास और तिनके किस प्रकार अंबर द्वारा आकर्षित होते हैं। मगर उन्होंने इसका कारण अदृष्ट बताया। उन्होंने गतिज उर्जा की अवधारणा में भी कुछ हलचलें दर्ज कीं और अपने उपस्कर नामक ग्रंथ में उष्मा के गुणांे पर चर्चा की और क्वथन प्रक्रिया को वाष्पीकरण क्रिया से संबंधित बताने का प्रयास किया। शंकर मिश्र ने उसी पुस्तक में केश नली में द्रव की गति के उदाहरण दिए - जैसे किसी पौधे में जड़ से तने तक रस का आरोह और छिद्रमय पात्रों के भेदन की द्रवों की क्षमता। उन्होंने पृष्ठ तनाव के बारे में भी लिखा और जल के अणुओं की संसक्ति और जल के स्वयं चिकनापन का कारण उसके गाढ़ेपन को बताया।
सामाजिक पृष्ठभूमि
फिर भी, ज्योतिर्विज्ञान के विपरीत, जिसमें बहुत से भारतीय वैज्ञानिक जोर शोर से व्यस्त थे और अधिकाधिक परिशुद्धता के साथ काम करने की ओर लगे थे, अन्य क्षेत्रों में कोई ऐसी बाध्यता महसूस नहीं करते थे। भारतीय ज्योतिषी उपयोगी गणितीय सूत्रा विकसित करने और ब्रहमांड के रहस्य की गुत्थियों की अधिकाधिक गहराई से छानबीन करने को बाध्य थे परंतु वैज्ञानिक गवेषणा के अन्य क्षेत्रों में भारतीय वैज्ञानिक मात्रा सहजविवेक और सामान्य निरीक्षणों से ही संतुष्ट हो गए तथा उन्होंने काफी हद तक अस्पष्टता और अशुद्धियों को सहन कर लिया, ऐसा प्रतीत होता है। इस प्रतीयमान असंगति का उत्तर संभवतया उस समय की सामाजिक पृष्टभूमि में निहित था। ज्योतिर्विज्ञान के अध्ययन को अंशतः व्यवहारिक कारणों से बढ़ावा मिला जैसे मानसून के सटीक अनुमान की जरूरत और वृष्टिपात के मानचित्रा का ज्ञान। बल्कि इससे भी अधिक, शायद अच्छे फलित ज्योतिषियों की बढ़ती हुई मांग। फलित ज्योतिष के चार्ट के प्रति राजसी और व्यापारीवर्ग दोनों में पागलपन की हद तक लगाव था जिसके कारण ज्योतिर्विज्ञान के शिक्षार्थी बुद्धि जीवियों को काफी हद तक राजकीय संरक्षण मिला। यह रक्षण रसायनज्ञों को भी उपलब्ध था जो जीवन अमृत की खोज का प्रयास कर रहे थे। लेकिन आधुनिक वैज्ञानिक अनुसंधान के प्रति समर्थन जिस प्रकार 14 वीं सदी में आक्सफोर्ड में आकार ले रहा था, उसका यहां सर्वदा अभाव था।
15 वीं-16 वीं सदी में इटली में इससे अधिक भिन्न स्थिति नहीं थी। लियोनार्डो दा विंसी, 1452-1519, खास तौर पर निराश था क्योंकि उसके कई अविष्कारों में पर्याप्त रुचि जागृत नहीं हो पाई और जो साधन संपन्न थे वे खरी वैज्ञानिक गतिविधियों को नीम हकीमी और ढोंगी गतिविधियों से अलग कर के पहचान नहीं पाये। लेकिन दा विंसी को पूरा विश्वास था कि अंत में वैज्ञानिक सत्य के प्रति निष्ठा की ही जीत होगी। ’’क्योंकि प्रकृति, ऐसा लगता है उनसे बदला लेती है जो चमत्कार दिखलाते हैं और उनकी उपलब्धियां उनसे कम होती हैं जो अपेक्षाकृत मौन रहते हैं। और जो एक ही दिन में अमीर बन जाना चाहते हैं लम्बे समय तक निपट गरीबी में जीवन बितायेंगे, जैसा कि कीमियागरों, सोना चांदी बनाने की कोशिश करने वालों, उन इंजीनियरों जो निष्क्रिय जल को स्वतः स्फूर्त गति के साथ जीवांत बनाना चाहते हैं और उन महामूर्खों, जादू टोना करने वालों और मृतात्माओं से संपर्क करने वालों के साथ होता आया है और सदा होता रहेगा।’’
यद्यपि राजा भोज की रचना सोमरंगण सूत्राधार जो लगभग 1100 ई. के आसपास रची गई थी, कई उपयोगी यांत्रिक अविष्कारों का वर्णन करती है और उत्तोलक और घिरनियों के उपयोग का वर्णन भारत और मध्य पूर्व के कई अन्य उर्दू, फारसी और अरबी पुस्तकों में आया है, फिर भी यांत्रिकी, विभिन्न प्रकार के उत्तोलकों, केंटीलीवर, घिरनियों और गेयरों के संयुक्त रूप से अध्ययन, विभिन्न प्रकार के गैजेट, पुल और उड्यन के अध्ययनों पर दा विंसी के नोट्स सही मायने में पथ प्रदर्शक जैसे थे और अपने पूर्वकाल की किसी भी सिविल या यांत्रिक इंजीनियरिंग की पुस्तक की अपेक्षा अधिक जटिल और विस्तृत थे।
यद्यपि दा विंसी के कार्यकाल में उसके कार्यों की विशेष सराहना नहीं हुई, उस समय पश्चिमी यूरोप विज्ञान और तकनीकी के प्रति अपने दृष्टिकोण में एक अविस्मरणीय परिवर्तन के दौर में था। एक सदी बाद, आधुनिक वैज्ञानिक युग के प्रति संवेग महत्वपूर्ण गति से होना था और अंत में यूरोपीय पुनरुत्थान ने एक ऐसे वातावरण का निर्माण किया जहां दा विंसी और फ्रेंसिस बेकन के विचार जो इंग्लेंड में 15 वीं-16 वीं सदी में हुआ और जिसने विज्ञान में प्रायोगिक विधि के महत्व पर जोर दिया था, पल्लवित और पुष्पित हो पाये। लेकिन उसी समय भारत में आधुनिक विज्ञान की प्रगति में रोड़ा अटकाने वाले कई कारक मौजूद थे। यूरोप की तुलना में भारत की जलवायु मृदु थी और उस समय की जनसंख्या के अनुसार, उत्पादन जरूरत के अनुसार पर्याप्त माना जाता था। चाहे मुगलशासन हो या क्षेत्राीय शासन, वे अपने कोष का बड़ा अंश ललित कलाओं के प्रश्रय, शान शौकत और सौंदर्य से पूर्ण सजावटी वस्तुओं के उत्पादन पर खर्च करते थे। विज्ञान और तकनीकी की ओर ध्यान कम था। हां, युद्ध के औजारों में सुधार इसका अपवाद था।
धर्म का, चाहे कुरान हो या ब्राहमणवादी, बढ़ता हुआ प्रभाव भी नकारात्मक योगदान कर रहा था। एक तरफ कुरान का दावा था कि संसार के समस्त ज्ञान का उसमें वर्णन है, दूसरी ओर सनातनी ब्राहमणवाद ने मानसिक और भौतिक संसार के बीच में एक स्पष्ट सीमारेखा खींच दी और इस प्रकार वैज्ञानिकों को भावात्मक निरीक्षण, और सहज बोध से आगे, व्यवहारिक प्रयोग, सक्रिय सिद्धांतीकरण और गणितीकरण की ओर बढ़ने से रोका। यद्यपि अकबर और जहांगीर का विज्ञान के प्रति दुराव नहीं था और जहांगीर ने उद्भिज विज्ञान और प्राणिशास्त्रा की पुस्तकों में सक्रिय रुचि दिखाई, परंतु घटनात्मक वृत्तांतों से पता लगता है कि औरंगजेब का विज्ञानों के प्रति रुख संशयवादी था। यद्यपि क्षेत्राीय शासनों और उनके बाहर भी कुछ हद तक विज्ञान को संरक्षण उपलब्ध था, कीमिया, फलित ज्योतिष, शकुन-अपशकुन का अध्ययन, अंक ज्योतिष और कई अन्य अर्द्ध विवेकवादी या अविवेकवादी परम्पराओं की ओर लोग ज्यादा ध्यान देते थे और इस प्रकार शुद्ध वैज्ञानिक खोजों से विरत थे।
दूसरी ओर, यूरोपीय वैज्ञानिकों ने पूर्वी देशों /एशिया/ की सर्वोत्तम कृतियों पर ध्यान केंद्रित किया - विदेशी दस्तावेजों का समुचित श्रम के साथ अध्ययन किया। उन्होंने उन कृतियों को ज्यों का त्यों स्वीकार नहीं किया बल्कि परिणामों की सत्यता की जांच स्वयं के बनाये हुए उपकरणों और वैज्ञानिक मापन के औजारों से की। किसी समय प्राचीन भारत में भी ऐसा ही होता था किंतु कालांतर में अंदरूनी और बाहय् कारणों से भारत का वैज्ञानिक जोश क्षीण हो गया। इस प्रकार यूरोप न केवल भारत व पूर्व के ज्ञान को हासिल करने में समर्थ रहा बल्कि जल्दी ही उससे आगे निकलने में भी सफल रहा।
आजादी के बाद भारतीय वैज्ञानिकों को ज्ञान की इस खाई को संकरा करने का अवसर मिला है और कुछ क्षेत्रों में बहुत अच्छा काम हुआ है। फिर भी, जनसाधारण के लिए विज्ञान की शिक्षा की गुणवत्ता में अभी भी बहुत सुधार की जरूरत है। एक तरफ भारत में भौतिक वैज्ञानों का अध्ययन क्रियात्मक प्रदर्शनों और अधिकाधिक प्रयोगों के साथ होने की जरूरत है जैसा कि पश्चिम में साधारणतः होता है। कई मामलों में वैज्ञानिक तथ्यों का प्रदर्शन करने और उपकरणों का सुधार या आधुनिकीकरण करने की आवश्यकता है। दूसरी तरफ सहजज्ञान वाले मार्ग जो प्राचीन और मध्यकालीन भारतीय विज्ञान की कसौटी रहा, की और अधिक सराहना करने की जरूरत है। कुछ प्रारंभिक सूत्राीकरणों की वैचारिक चारुता और सदृश्य उदाहरणों के माध्यम से जानकारी देना - ये भी कुछ चीजें हैं जो भारतीय परंपरा से सीखी जा सकती हैं।
यह भी ध्यान देने योग्य है कि शिक्षाशास्त्रा के अनुसार, पश्चिमी मानक पुस्तकें हमेशा उपयोगी नहीं होतीं। प्रायः औसत विद्यार्थी को भौतिकी और रसायन पढ़ाना बहुत ही दुरूह हो जाता है। अधिकांश पाठ्य पुस्तकों में दुर्बोधता का अतिरेक है और अपेक्षाकृत अल्पवय छात्रों पर अनावश्यक सैद्धांतिक जटिलता थोप दी जाती है। इसके विपरीत भारतीय प्रणाली प्राकृतिक तथ्यों के अवलोकन पर जोर देती है और हर क्षेत्रा को समझने के लिए ज्ञानशास्त्राीय मार्ग का सहारा लेती है। ये तौर तरीके प्रारंभिक और मध्यवर्ती विद्यार्थियों के लिए ज्ञान को हृदयंगम करने के लिए काफी सरल हैं। एक बार विद्यार्थी ने आधारभूत वस्तुओं को समझ लिया और वैज्ञानिक तथ्यों को आत्मसात् करने का एक अच्छे सहजानुभूत रास्ते का विकास कर लिया तो उसके बाद जटिलतायें और गणितीय दुरूहताओं की बारी आ सकती है और भौतिक विज्ञानों का संसार मात्रा कुछ लोगों की अपेक्षा, जो आज विज्ञान की इन शाखाओं के अध्ययन में आने वाली जटिलताओं और कठनाईयों पर पार पा सकते हैं, अधिक लोगों के लिए खुल जाएगा।
संदर्भः
1.दा पाजीटिव साइंसेज आॅफ दा ऐंसियेंट हिंदूज - ब्रजेंद्रनाथ सील,
2.कंसाइज़ हिस्ट्र्ी आॅफ साइंस इन इंडिया - बोस, सेन, सुबारायप्पा; इंडियन नेशनल साइंस एकाडेमी,
3.स्टडीज़ इन दा हिस्ट्र्ी आॅफ साइंस इन इंडिया - देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय द्वारा संपादित चयनिका,
4.काॅजे़शन इन इंडियन फिलासफी - महेशचंद्र भारतीय, विमल प्रकाशन, गाजियाबाद।
संबंधित पृष्ठः
भारत में गणित का इतिहास,
भारत में में तकनीकी खोजें और उनके उपयोग,
प्राचीन भारत में दार्शनिक विचार और वैज्ञानिक तरीकों का विकास,
उपनिषादिक तत्व मीमांसा से वैज्ञानिक यथार्थवादः दार्शनिक विकास।
यद्यपि कणभौतिकी आधुनिक भौतिकी की सर्वाधिक विकसित और सर्वाधिक जटिल शाखाओं में से एक है, प्राचीनतम परमाणु सिद्धांत कम से कम 2500 वर्ष पुराना है। भारत में दर्शन की लगभग हर विवेकसम्मत विचारधारा में चाहे वह हिंदू, जैन या बौद्ध हो, मूलकणों की प्रकृति के संबंध में कुछ न कुछ आख्यान है और इन विभिन्न विचारधाराओं ने इस विचार को प्रसारित किया कि पदार्थ परमाणुओं द्वारा संरचित है जो अविभाज्य और अनश्वर है। देखिएः ’’उपनिषादिक तत्व मीमांसा से वैज्ञानिक यथार्थवादः दार्शनिक विकास’’। परवर्ती दार्शनिकों ने इस विचारधारा को और आगे बढ़ाते हुए प्रतिपादित किया कि परमाणु केवल जोड़े में ही नहीं वरन् तिकड़ी में भी संयुक्त हो सकते थे और यह कि युग्म और तिकड़ी में उनकी पास-पास सजावट ही प्रकृति में प्राप्त वस्तुओं के विभिन्न भौतिक गुणों के लिए जिम्मेवार थी। जैनों ने यह भी प्रतिपादित किया कि परमाणुओं के संयोजन के लिए संयुक्त होने वाले परमाणुओं में विशिष्ट गुणों की आवश्यकता है तथा आवश्यकता है अलग से एक उत्प्रेरक परमाणु की। इस प्रकार प्रारंभिक परमाणु सिद्धांत पदार्थ के अणु सिद्धांत में परिवर्तित हो गए। यद्यपि इन सिद्धांतों के कई वर्णन वैज्ञानिक यथार्थ की कसौटी पर आज खरे नहीं उतरते तथापि इन सूत्रों में बहुत कुछ ऐसा है जो अपने समय से काफी आगे है और परिमार्जित है।
/यद्यपि यह महज एक संयोग हो सकता है, लेकिन जैनों का आणविक सिद्धांत भैषज या धातुकर्म जैसे अन्य क्षेत्रों में हुई व्यवहारिक उन्नतियों के समानान्तर हुआ। धातुओं में उप्प्रेरकों के महत्वपूर्ण योग में देखा गया और सावधानी से लिपिबद्ध हुआ। भारतीय भैषज ग्रंथों में प्रतिपादित किया गया कि मानव शरीर में समुचित पाचन के लिए और औषधियों तथा काढ़ों के सफल अवशोषण के लिए भी उत्प्रेरक वस्तुओं की आवश्यकता है। भैषज विज्ञान और शल्य उपयोगों के संदर्भ में अम्लों और क्षारों के निर्माण हेतु उत्प्रेरक वस्तुओं की जरूरत को रेखांकित किया गया, ठीक वैसे ही जैसे कि धातुकर्म की प्रक्रियाओं और पक्के रंग वाले रोगनों के निर्माण में उपयुक्त उत्प्रेरकों के योगदान को। /आज उत्प्रेरकों की मदद से होने वाली प्रक्रियाओं के बारे में हम बहुत कुछ जानते हैं; विविध प्रकार के खनिजों, विटामिनों और एंजाइमों की पहचान कर ली गई है जो हमारे शरीर के अंदर होने वाली महत्वपूर्ण रासायनिक प्रक्रियाओं की श्रंृखला में उत्प्रेरकों के रूप में महत्वपूर्ण योगदान उसी प्रकार करते हैं जैसे कि अन्य भौतिक प्रक्रियाओं में उत्प्रेरक यौगिक करते हैं।/
उष्मा द्वारा होने वाले रासायनिक परिवर्तनों की व्याख्या करने के लिए भी परमाणु तथा अणु सिद्धांतों का उपयोग किया गया यद्यपि ऐसा अनुमानतः किया गया। प्रशस्तपाद ने प्रस्तावित किया कि तेजस /उष्मा/ अवयव अणु-व्यूहों को प्रभावित करता है जिससे रासायनिक परिवर्तन होते हैं। इस प्रक्रिया की विस्तृत व्याख्या के लिए दो प्रतिस्पर्धी सिद्धांत प्रस्तुत हुए जिसका प्रयोग मृदभाण्डों को अग्नि द्वारा पकाने / रंगने की प्रक्रिया की व्याख्या में किया गयाः पीलुपाकवाद सिद्धांत जिसका प्रस्ताव वैशेषिकों ने रखा मानता था कि उष्मा के प्रयोग से परमाणु की व्यूह रचना बदल जाती है जिससे नए अणुओं और भिन्न रंग का निर्माण होता है। पीठारपादवाद सिद्धांत जिसे न्यायदर्शन के अनुयायियों ने विकसित किया इससे असहमत होते हुए कहता था कि आणुविक परिवर्तन अथवा नई संरचना होती अवश्य है परंतु बिना प्रारंभिक अणुओं के मूल-परमाणुओं में विघटित हुए, क्योंकि यदि ऐसा होता तो मृदभाण्ड भी विघटित हो जाता; परंतु मृदभाण्ड तो समूचा रहता है, केवल रंग में ही परिवर्तन होता है।
गतिज उर्जा की एक अवचेतनात्मक समझ प्रशस्तपाद और न्याय-वैशेषिकों के ग्रंथों में मिलती है जिसके अनुसार सारे परमाणु निरंतर गतिशील अवस्था में रहते हैं। ऐसी आणविक-परमाणविक गतियां, चाहे वह घूर्णन हो या वृत्ताकार गति या हारमोनिक गति, के वर्णन के लिए उन्होंने परिस्पंद की परिकल्पना प्रस्तुत की।
प्रकाश और ध्वनि
प्रारंभिक भारतीय विवेकवादियों ने प्रकाश और ध्वनि के स्वभाव के बारे में सिद्धांत प्रस्तुत करने की कोशिश की। प्राचीन यूनानियों की भांति प्राचीन भारतीय दार्शनिक भी आंख को प्रकाश का स्त्रोत् मानते थे और यह गलतफहमी पहली सदी तक कायम रही जब तक सुश्रुत ने यह प्रतिपादित नहीं कर दिया कि किसी बाहरी स्त्रोत से आने वाला प्रकाश हमारे चक्षु-पटल पर पड़कर हमारे चारों ओर के विश्व को प्रकाशित करता है। 5 वीं सदी में आर्यभट ने भी इसकी पुष्टि की। अन्य मामलों में, प्रारंभिक दार्शनिकों की बातें बहुत सटीक थीं। चक्रपाणि ने बताया कि ध्वनि और प्रकाश दोनों की गति लहरों के रूप में होती है परंतु प्रकाश की गति अपेक्षाकृत बहुत तीव्र होती है। अन्य लोगों ने, जैसे कि मीमांसकों ने कल्पना की कि प्रकाश बहुत सूक्ष्म कणों से बना है /आजकल उसे फोटान कहते हैं/ जो निरंतर गतिमान रहते हैं और मूल-स्त्रोत से उनका निरंतर विकिरण और डिफ्यूजन होता रहता है।
ध्वनि का लहर जैसा स्वभाव प्रशस्तपाद द्वारा भी वर्णित किया गया है। उन्होंने परिकल्पित किया कि जिस प्रकार पानी में लहरों की गति होती है वैसे ही ध्वनि हवा में बढ़ते हुए वृत्तों के रूप में चलती है। ध्वनि का परावर्तन अपने ढंग का ही होता है जिसे प्रतिध्वनि कहा जाता है। संगीत की श्रुतियों के बारे में कहा गया है कि इनका कारण कंपन का परिणाम और बारंबारता है। स्वर के बारे में विश्वास किया जाता था कि यह श्रुति /मूल स्वर/ और कुछ अनुरनन /आंशिक स्वरों या हारमोनिक्स/ के संयोग से बनते हैं। कुछ परिकल्पनाओं यथा जाति व्यक्तोखि तादात्म्यस् /स्वर के प्रकार और जातियां/ परिणाम /मूलभूत बारंबारता का परिवर्तन/, व्यंजना /ओवरटोन का प्रदर्शन, विवतर््न /ध्वनि का परावर्तन/ और कार्यकारण भाव /ध्वनि का कारण और प्रभाव/ के आधार पर संगीत सिद्धांत की व्याख्या की गई।
6 वीं सदी में वाराहमिहिर ने परावर्तन की व्याख्या करते हुए बताया कि प्रकाश के कण किसी वस्तु पर पड़कर वापिस छिटक जाते हैं जिसे किरण विघट्टन या मूच्र्छना कहा जाता हैः यही प्रकाश का परावर्तन है। वात्स्यायन ने इस घटना को रश्मि परावर्तन का नाम दिया। इस धारणा को अंगीकार करके छाया बनने और वस्तुओं की अपारदर्शिता की व्याख्या की गई। आवर्तन के बारे में यह कहा गया कि इसका कारण अर्धपारदर्शी और पारदर्शी वस्तुओं के अंतः स्थानों को भेदने की प्रकाश की क्षमता है और उद्दोतकार ने इसकी तुलना उन द्रव्यों से की जो छिद्रयुक्त वस्तुओं से गुजरते हैं - तत्रा परिस्पंदः तिर्यग्गमनम् परिश्रवः पातयति।
/अल हयाथम् ने जो बसरा में जन्मा था और जिसने 10 वीं सदी में काहिरा को अपना कार्यक्षेत्रा बनाया था संभवतः आर्यभट की रचनाओं से परिचित था। उसने आप्टिक्स के बारे में एक और अधिक उन्नत सिद्धांत प्रस्तुत करते हुए प्रकाश किरणों की मदद से चित्रा द्वारा परावर्तन और आवर्तन की अभिकल्पनाओं की व्याख्या की। आवर्तन के नियमों की व्याख्या के लिए तथा प्रकाश किरणें विभिन्न पदार्थाें में अलग अलग गति से चलतीं हैं जिसके कारण आवर्तन की घटना होती है इस बात को समझाने के लिए वह विशेष तौर पर जाना जाता है।/
ज्योतिर्विज्ञान और भौतिकी
ठीक जैसे गणित के अध्ययन को ज्योतिर्विज्ञान के अध्ययन से बल मिला वैसे ही भौतिकी के अध्ययन को भी मिला। जैसा कि गणित वाले लेख में बताया गया है, आर्यभट ने 5 वीं सदी से 6 वीं सदी में ग्रहों की गति के क्षेत्रा में गवेषणा का मार्ग प्रशस्त किया। इससे आकाश और काल-मापक इकाईयों की परिभाषा और गुरूत्वाकर्षण, गति और वेग की अवधारणाओं की बेहतर समझ का विकास हुआ।
/उदाहरणार्थ यतिबृषभ की कृति तिलोयपन्नति में, जो 6 वीं सदी में रची गई थी, काल और दूरी माप के लिए विभिन्न इकाईयों का वर्णन है और असीम काल की माप के लिए भी एक प्रणाली का वर्णन है। इससे भी महत्वपूर्ण है वाचस्पति मिश्र द्वारा लगभग 840 ई. के आसपास ठोस ज्यामिति / त्रिविमीय अक्षीय ज्यामिति की अभिकल्पना, जिसका अविष्कार दे कार्तस ने 1644 ई. में किया था। न्याय शुचि निबंध में वे लिखते हैं कि आकाश में किसी भी कण की स्थिति की एक दूसरे कण की स्थिति के संदर्भ में तीन काल्पनिक अक्षों के सहारे गणना की जा सकती है।/
ज्योतिर्विज्ञान के अध्ययन से काल और आकाश की बहुत बड़ी और बहुत छोटी इकाईयों की रचना में काफी रुचि जागृत हुई। एक सौर दिन 1944000 क्षणांे के बराबर होता है, यह न्याय-वैशेषिकों का कथन था। इस प्रकार एक क्षण 0.044 सेकिंड के बराबर हुआ। काल के न्यूनतम माप त्राुटि को परिभाषित किया गया जो 2.9623 गुणा 10 वर्ग 4 के बराबर थी। शिल्पशास्त्रा में लम्बाई की न्यूनतम माप परमाणु मानी गई है जो 1 बटा 349525 इंच के बराबर है। यह माप न्याय-वैशेषिक की न्यूनतम मुटाई - त्रासरेणु से मेल खाती है - जो अंधेरे कमरे में चमकने वाली धूप के पुंज की सूक्ष्मतम कण के बराबर है। 6 वीं सदी के आसपास वाराहमिहिर ने अभिकल्पित किया था कि 86 त्रासरेणु मिलकर एक अंगुलि अर्थात् 3/4 इंच के बराबर हैं। उसने यह भी बताया कि 64 त्रासरेणु मिलकर बाल की मोटाई के बराबर हैं।/
गति के नियम
यद्यपि वैशेषिकों ने विभिन्न प्रकार की गतियों का वर्गीकरण करने का प्रयास किया, 7 वीं सदी में प्रशस्तपाद ने इस विषय पर अध्ययन को काफी आगे बढ़ाया। उसकी दी गई कई परिभाषाओं से प्रतीत होता है कि उसकी कुछ अभिकल्पनायें ग्रहों की गति से उपजी हैं। रैखिक गति के अतिरिक्त प्रशस्तपाद ने वक्रीय गति - गमन, परिक्रमा वाली गति - भ्रमण और कंपन गति का भी वर्णन किया है। उसने गुरूत्वशक्ति या द्रव्यों के बहाव के फलस्वरूप होने वाली गति तथा किसी बाहय् क्रिया के फलस्वरूप होने वाली गति में अंतर भी बताया है।
वह लचीलापन या संवेग के फलस्वरूप होने वाली गति से या बाहय् बल की प्रतिक्रिया के कारण होने वाली गति से भी परिचित था। उसने यह भी नोट किया कि कुछ प्रकार की क्रियाओं से एक जैसी गति होती है, कुछ प्रकार की क्रियाओं से विपरीत दिशा में गति होती है और कभी-कभी कोई गति नहीं होती तथा इन विभिन्नताओं का कारण है परस्पर क्रिया प्रतिक्रिया करने वाली वस्तुओं के अंदर निहित गुण।
प्रशस्तपाद ने यह भी पाया कि किसी भी एक काल में एक कण में एक ही गति हो सकती है /यद्यपि एक वस्तु उदाहरणार्थ कंपायमान पत्रा /ब्लोइंग लीफ/ जिसमें कणों की बड़ी संख्या होती है, में होने वाली गति अधिक जटिल प्रकार की होगी क्योंकि विभिन्न कण अलग-अलग प्रकार से गति कर रहे होंगे। यह एक महत्वपूर्ण अवधारणा थी जिससे आगे चलकर गति के नियमों को गणित के सूत्रों में बांधने में मदद मिली।
10 वीं सदी में श्रीधर ने प्रशस्तपाद के निरीक्षणों की पुष्टि की और उसने जो कुछ निरीक्षण के बाद लिखा था उसका विस्तार किया। 12 वीं सदी में भास्कराचार्य ने अपनी कृतियों, सिद्धांत शिरोमणि और गणिताध्याय में गणितीकरण की दिशा में पहला महत्वपूर्ण कदम उठाया और औसत वेग की माप इस प्रकार की अ त्र े ध् ज /जहां अ त्र औसत वेग, े त्र चली गई कुल दूरी और ज त्र समय।/
अपने समय के हिसाब से, प्रशस्तपाद के कार्य और बाद में, श्रीधर और भास्कराचार्य द्वारा उनकी व्याख्या को बहुत महत्वपूर्ण मानना चाहिए था। मगर, भारतीय ग्रंथों की एक बड़ी कमजोरी थी कि बाद में उनका गणितीकरण और अवधारणाओं की व्याख्या का आगे प्रयास न करना। उदाहरणार्थ गति के कई प्रकार के लिए अज्ञात कारणों को जिम्मेवार माना गया। परंतु इन समस्याओं को हल करने की कोई कोशिश आगे नहीं हुई और न यह अनुभव किया गया कि गति के विभिन्न प्रकारों के पीछे अदृश्य कारणों के लिए सामान्य तौर पर कोई अवधारणा प्रस्तुत करने की जरूरत है, विधिक तौर पर उन्हें परिभाषित करने और एक मौलिक तरीके से उन्हें प्रगट करने की आवश्यकता है, जैसा कि कुछ सदियों बाद न्यूटन ने एक गणितीय सू़त्रा के माध्यम से किया।
प्रयोग बनाम सहजज्ञान
वास्तव में, गति के अध्ययन में अगला बड़ा कदम इंग्लेंड में उठना था, जहां वैज्ञानिक गवेषणा के लिए रोजर बेकन, 13 वीं सदी, जैसे लोगों ने जमीन तैयार की थी। उसने शिक्षा प्राप्ति के रास्ते में रोड़े गिनाये - सत्ता के प्रति /आवश्यकता से अधिक/ सम्मान, अभ्यस्तता का बल, आध्यात्मविद्या संबंधी दुराग्रह और ज्ञान की गलत अवधारणा। एक सदी बाद आक्सफोर्ड के मर्टन विद्वानों ने त्वारित गति की अवधारणा विकसित की। यह अवधारणा बल को समझने के लिए सूत्रा की, बल त्र संहति ग त्वरण अग्रदूत थी। इन विद्वानों ने एक छड़ में उष्मा की मात्रा के मापने के लिए और उसे गणित की भाषा में प्रकट करने के लिए आदिम मगर महत्वपूर्ण कदम उठाये। ब्रिटिश तथा यूरोपीय विज्ञान की एक महत्वपूर्ण कसौटी सिद्धांत और अभ्यास /प्रयोग/ का समीकरण था जबकि भारतीय वैज्ञानिक ज्योतिर्विज्ञान के सिवाय अन्य क्षेत्रों की गवेषणा करने में सहजज्ञान पर भरोसा करते थे।
उदाहरण के लिए ठीक 16 वीं सदी तक भारतीय वैज्ञानिकों ने उपयोगी वैज्ञानिक निरीक्षणों को दर्ज करना जारी रखा परंतु गंभीरता से उन्हें गणितीय रूप से प्रकट करने की चेष्टा नहीं की, न अपने निरीक्षणों से प्राप्त फलों के भौतिक या रासायनिक कारणों को गहराई से खोजने की चेष्टा की। 10 वीं-11 वीं सदी में भोज ने तथा बाद में शंकर मिश्र ने चुम्बकत्व का संदर्भ दिया। 10 वीं-11 वीं सदी में उदयन ने सारे रासायनिक परिवर्तनों का उर्जा स्त्रोत सौर उष्मा को माना और गुब्बारों की चर्चा करते हुए हवा में भार होने की चर्चा अपनी कृति किरणावली में की है। 13 वीं सदी में वल्लभाचार्य ने अपनी कृति न्यायलीलावती में किसी डूबती वस्तु के प्रति जल द्वारा प्रतिरोध लगाने की ओर इशारा किया है मगर इसके आगे कोई सैद्धांतिक चर्चा नहीं की। 15 वी -16 वीं सदी में शंकर मिश्र ने स्थिर-वैद्युतिक आकर्षण के तथ्य का अवलोकन किया जब उन्होंने देखा कि घास और तिनके किस प्रकार अंबर द्वारा आकर्षित होते हैं। मगर उन्होंने इसका कारण अदृष्ट बताया। उन्होंने गतिज उर्जा की अवधारणा में भी कुछ हलचलें दर्ज कीं और अपने उपस्कर नामक ग्रंथ में उष्मा के गुणांे पर चर्चा की और क्वथन प्रक्रिया को वाष्पीकरण क्रिया से संबंधित बताने का प्रयास किया। शंकर मिश्र ने उसी पुस्तक में केश नली में द्रव की गति के उदाहरण दिए - जैसे किसी पौधे में जड़ से तने तक रस का आरोह और छिद्रमय पात्रों के भेदन की द्रवों की क्षमता। उन्होंने पृष्ठ तनाव के बारे में भी लिखा और जल के अणुओं की संसक्ति और जल के स्वयं चिकनापन का कारण उसके गाढ़ेपन को बताया।
सामाजिक पृष्ठभूमि
फिर भी, ज्योतिर्विज्ञान के विपरीत, जिसमें बहुत से भारतीय वैज्ञानिक जोर शोर से व्यस्त थे और अधिकाधिक परिशुद्धता के साथ काम करने की ओर लगे थे, अन्य क्षेत्रों में कोई ऐसी बाध्यता महसूस नहीं करते थे। भारतीय ज्योतिषी उपयोगी गणितीय सूत्रा विकसित करने और ब्रहमांड के रहस्य की गुत्थियों की अधिकाधिक गहराई से छानबीन करने को बाध्य थे परंतु वैज्ञानिक गवेषणा के अन्य क्षेत्रों में भारतीय वैज्ञानिक मात्रा सहजविवेक और सामान्य निरीक्षणों से ही संतुष्ट हो गए तथा उन्होंने काफी हद तक अस्पष्टता और अशुद्धियों को सहन कर लिया, ऐसा प्रतीत होता है। इस प्रतीयमान असंगति का उत्तर संभवतया उस समय की सामाजिक पृष्टभूमि में निहित था। ज्योतिर्विज्ञान के अध्ययन को अंशतः व्यवहारिक कारणों से बढ़ावा मिला जैसे मानसून के सटीक अनुमान की जरूरत और वृष्टिपात के मानचित्रा का ज्ञान। बल्कि इससे भी अधिक, शायद अच्छे फलित ज्योतिषियों की बढ़ती हुई मांग। फलित ज्योतिष के चार्ट के प्रति राजसी और व्यापारीवर्ग दोनों में पागलपन की हद तक लगाव था जिसके कारण ज्योतिर्विज्ञान के शिक्षार्थी बुद्धि जीवियों को काफी हद तक राजकीय संरक्षण मिला। यह रक्षण रसायनज्ञों को भी उपलब्ध था जो जीवन अमृत की खोज का प्रयास कर रहे थे। लेकिन आधुनिक वैज्ञानिक अनुसंधान के प्रति समर्थन जिस प्रकार 14 वीं सदी में आक्सफोर्ड में आकार ले रहा था, उसका यहां सर्वदा अभाव था।
15 वीं-16 वीं सदी में इटली में इससे अधिक भिन्न स्थिति नहीं थी। लियोनार्डो दा विंसी, 1452-1519, खास तौर पर निराश था क्योंकि उसके कई अविष्कारों में पर्याप्त रुचि जागृत नहीं हो पाई और जो साधन संपन्न थे वे खरी वैज्ञानिक गतिविधियों को नीम हकीमी और ढोंगी गतिविधियों से अलग कर के पहचान नहीं पाये। लेकिन दा विंसी को पूरा विश्वास था कि अंत में वैज्ञानिक सत्य के प्रति निष्ठा की ही जीत होगी। ’’क्योंकि प्रकृति, ऐसा लगता है उनसे बदला लेती है जो चमत्कार दिखलाते हैं और उनकी उपलब्धियां उनसे कम होती हैं जो अपेक्षाकृत मौन रहते हैं। और जो एक ही दिन में अमीर बन जाना चाहते हैं लम्बे समय तक निपट गरीबी में जीवन बितायेंगे, जैसा कि कीमियागरों, सोना चांदी बनाने की कोशिश करने वालों, उन इंजीनियरों जो निष्क्रिय जल को स्वतः स्फूर्त गति के साथ जीवांत बनाना चाहते हैं और उन महामूर्खों, जादू टोना करने वालों और मृतात्माओं से संपर्क करने वालों के साथ होता आया है और सदा होता रहेगा।’’
यद्यपि राजा भोज की रचना सोमरंगण सूत्राधार जो लगभग 1100 ई. के आसपास रची गई थी, कई उपयोगी यांत्रिक अविष्कारों का वर्णन करती है और उत्तोलक और घिरनियों के उपयोग का वर्णन भारत और मध्य पूर्व के कई अन्य उर्दू, फारसी और अरबी पुस्तकों में आया है, फिर भी यांत्रिकी, विभिन्न प्रकार के उत्तोलकों, केंटीलीवर, घिरनियों और गेयरों के संयुक्त रूप से अध्ययन, विभिन्न प्रकार के गैजेट, पुल और उड्यन के अध्ययनों पर दा विंसी के नोट्स सही मायने में पथ प्रदर्शक जैसे थे और अपने पूर्वकाल की किसी भी सिविल या यांत्रिक इंजीनियरिंग की पुस्तक की अपेक्षा अधिक जटिल और विस्तृत थे।
यद्यपि दा विंसी के कार्यकाल में उसके कार्यों की विशेष सराहना नहीं हुई, उस समय पश्चिमी यूरोप विज्ञान और तकनीकी के प्रति अपने दृष्टिकोण में एक अविस्मरणीय परिवर्तन के दौर में था। एक सदी बाद, आधुनिक वैज्ञानिक युग के प्रति संवेग महत्वपूर्ण गति से होना था और अंत में यूरोपीय पुनरुत्थान ने एक ऐसे वातावरण का निर्माण किया जहां दा विंसी और फ्रेंसिस बेकन के विचार जो इंग्लेंड में 15 वीं-16 वीं सदी में हुआ और जिसने विज्ञान में प्रायोगिक विधि के महत्व पर जोर दिया था, पल्लवित और पुष्पित हो पाये। लेकिन उसी समय भारत में आधुनिक विज्ञान की प्रगति में रोड़ा अटकाने वाले कई कारक मौजूद थे। यूरोप की तुलना में भारत की जलवायु मृदु थी और उस समय की जनसंख्या के अनुसार, उत्पादन जरूरत के अनुसार पर्याप्त माना जाता था। चाहे मुगलशासन हो या क्षेत्राीय शासन, वे अपने कोष का बड़ा अंश ललित कलाओं के प्रश्रय, शान शौकत और सौंदर्य से पूर्ण सजावटी वस्तुओं के उत्पादन पर खर्च करते थे। विज्ञान और तकनीकी की ओर ध्यान कम था। हां, युद्ध के औजारों में सुधार इसका अपवाद था।
धर्म का, चाहे कुरान हो या ब्राहमणवादी, बढ़ता हुआ प्रभाव भी नकारात्मक योगदान कर रहा था। एक तरफ कुरान का दावा था कि संसार के समस्त ज्ञान का उसमें वर्णन है, दूसरी ओर सनातनी ब्राहमणवाद ने मानसिक और भौतिक संसार के बीच में एक स्पष्ट सीमारेखा खींच दी और इस प्रकार वैज्ञानिकों को भावात्मक निरीक्षण, और सहज बोध से आगे, व्यवहारिक प्रयोग, सक्रिय सिद्धांतीकरण और गणितीकरण की ओर बढ़ने से रोका। यद्यपि अकबर और जहांगीर का विज्ञान के प्रति दुराव नहीं था और जहांगीर ने उद्भिज विज्ञान और प्राणिशास्त्रा की पुस्तकों में सक्रिय रुचि दिखाई, परंतु घटनात्मक वृत्तांतों से पता लगता है कि औरंगजेब का विज्ञानों के प्रति रुख संशयवादी था। यद्यपि क्षेत्राीय शासनों और उनके बाहर भी कुछ हद तक विज्ञान को संरक्षण उपलब्ध था, कीमिया, फलित ज्योतिष, शकुन-अपशकुन का अध्ययन, अंक ज्योतिष और कई अन्य अर्द्ध विवेकवादी या अविवेकवादी परम्पराओं की ओर लोग ज्यादा ध्यान देते थे और इस प्रकार शुद्ध वैज्ञानिक खोजों से विरत थे।
दूसरी ओर, यूरोपीय वैज्ञानिकों ने पूर्वी देशों /एशिया/ की सर्वोत्तम कृतियों पर ध्यान केंद्रित किया - विदेशी दस्तावेजों का समुचित श्रम के साथ अध्ययन किया। उन्होंने उन कृतियों को ज्यों का त्यों स्वीकार नहीं किया बल्कि परिणामों की सत्यता की जांच स्वयं के बनाये हुए उपकरणों और वैज्ञानिक मापन के औजारों से की। किसी समय प्राचीन भारत में भी ऐसा ही होता था किंतु कालांतर में अंदरूनी और बाहय् कारणों से भारत का वैज्ञानिक जोश क्षीण हो गया। इस प्रकार यूरोप न केवल भारत व पूर्व के ज्ञान को हासिल करने में समर्थ रहा बल्कि जल्दी ही उससे आगे निकलने में भी सफल रहा।
आजादी के बाद भारतीय वैज्ञानिकों को ज्ञान की इस खाई को संकरा करने का अवसर मिला है और कुछ क्षेत्रों में बहुत अच्छा काम हुआ है। फिर भी, जनसाधारण के लिए विज्ञान की शिक्षा की गुणवत्ता में अभी भी बहुत सुधार की जरूरत है। एक तरफ भारत में भौतिक वैज्ञानों का अध्ययन क्रियात्मक प्रदर्शनों और अधिकाधिक प्रयोगों के साथ होने की जरूरत है जैसा कि पश्चिम में साधारणतः होता है। कई मामलों में वैज्ञानिक तथ्यों का प्रदर्शन करने और उपकरणों का सुधार या आधुनिकीकरण करने की आवश्यकता है। दूसरी तरफ सहजज्ञान वाले मार्ग जो प्राचीन और मध्यकालीन भारतीय विज्ञान की कसौटी रहा, की और अधिक सराहना करने की जरूरत है। कुछ प्रारंभिक सूत्राीकरणों की वैचारिक चारुता और सदृश्य उदाहरणों के माध्यम से जानकारी देना - ये भी कुछ चीजें हैं जो भारतीय परंपरा से सीखी जा सकती हैं।
यह भी ध्यान देने योग्य है कि शिक्षाशास्त्रा के अनुसार, पश्चिमी मानक पुस्तकें हमेशा उपयोगी नहीं होतीं। प्रायः औसत विद्यार्थी को भौतिकी और रसायन पढ़ाना बहुत ही दुरूह हो जाता है। अधिकांश पाठ्य पुस्तकों में दुर्बोधता का अतिरेक है और अपेक्षाकृत अल्पवय छात्रों पर अनावश्यक सैद्धांतिक जटिलता थोप दी जाती है। इसके विपरीत भारतीय प्रणाली प्राकृतिक तथ्यों के अवलोकन पर जोर देती है और हर क्षेत्रा को समझने के लिए ज्ञानशास्त्राीय मार्ग का सहारा लेती है। ये तौर तरीके प्रारंभिक और मध्यवर्ती विद्यार्थियों के लिए ज्ञान को हृदयंगम करने के लिए काफी सरल हैं। एक बार विद्यार्थी ने आधारभूत वस्तुओं को समझ लिया और वैज्ञानिक तथ्यों को आत्मसात् करने का एक अच्छे सहजानुभूत रास्ते का विकास कर लिया तो उसके बाद जटिलतायें और गणितीय दुरूहताओं की बारी आ सकती है और भौतिक विज्ञानों का संसार मात्रा कुछ लोगों की अपेक्षा, जो आज विज्ञान की इन शाखाओं के अध्ययन में आने वाली जटिलताओं और कठनाईयों पर पार पा सकते हैं, अधिक लोगों के लिए खुल जाएगा।
संदर्भः
1.दा पाजीटिव साइंसेज आॅफ दा ऐंसियेंट हिंदूज - ब्रजेंद्रनाथ सील,
2.कंसाइज़ हिस्ट्र्ी आॅफ साइंस इन इंडिया - बोस, सेन, सुबारायप्पा; इंडियन नेशनल साइंस एकाडेमी,
3.स्टडीज़ इन दा हिस्ट्र्ी आॅफ साइंस इन इंडिया - देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय द्वारा संपादित चयनिका,
4.काॅजे़शन इन इंडियन फिलासफी - महेशचंद्र भारतीय, विमल प्रकाशन, गाजियाबाद।
संबंधित पृष्ठः
भारत में गणित का इतिहास,
भारत में में तकनीकी खोजें और उनके उपयोग,
प्राचीन भारत में दार्शनिक विचार और वैज्ञानिक तरीकों का विकास,
उपनिषादिक तत्व मीमांसा से वैज्ञानिक यथार्थवादः दार्शनिक विकास।
।।जय हिंदुत्व।। ।।जय श्रीराम।। ।।जय महाकाल।। ।।जय श्रीकृष्ण।।
No comments:
Post a Comment