Thursday, August 13, 2015

ध्वनि तथा वाणी विज्ञान : सात सुर (SOUND ENGINEERING AND MUSIC)

 ध्वनि तथा वाणी विज्ञान : सात सुर (SOUND ENGINEERING AND MUSIC)




सृष्टि की उत्पत्ति की प्रक्रिया नाद के साथ हुई। जब प्रथम महास्फोट (बिग बैंग) हुआ, तब आदि नाद उत्पन्न हुआ। उस मूल ध्वनि को जिसका प्रतीक ‘ॐ‘ है, नादव्रह्म कहा जाता है। पांतजलि योगसूत्र में पातंजलि मुनि ने इसका वर्णन ‘तस्य वाचक प्रणव:‘ की अभिव्यक्ति ॐ के रूप में है, ऐसा कहा है। माण्डूक्योपनिषद्‌ में कहा है- 

ओमित्येतदक्षरमिदम्‌ सर्वं तस्योपव्याख्यानं
भूतं भवद्भविष्यदिपि सर्वमोड्‌◌ंकार एवं
यच्यान्यत्‌ त्रिकालातीतं तदप्योङ्कार एव॥

माण्डूक्योपनिषद्‌-१॥ 

अर्थात्‌ ॐ अक्षर अविनाशी स्वरूप है। यह संम्पूर्ण जगत का ही उपव्याख्यान है। जो हो चुका है, जो है तथा जो होने वाला है, यह सबका सब जगत ओंकार ही है तथा जो ऊपर कहे हुए तीनों कालों से अतीत अन्य तत्व है, वह भी ओंकार ही है। 

वाणी का स्वरूप
हमारे यहां वाणी विज्ञान का बहुत गहराई से विचार किया गया। ऋग्वेद में एक ऋचा आती है- 

चत्वारि वाक्‌ परिमिता पदानि
तानि विदुर्व्राह्मणा ये मनीषिण:
गुहा त्रीणि निहिता नेङ्गयन्ति
तुरीयं वाचो मनुष्या वदन्ति॥

ऋग्वेद १-१६४-४५ 

अर्थात्‌ वाणी के चार पाद होते हैं, जिन्हें विद्वान मनीषी जानते हैं। इनमें से तीन शरीर के अंदर होने से गुप्त हैं परन्तु चौथे को अनुभव कर सकते हैं। इसकी विस्तृत व्याख्या करते हुए पाणिनी कहते हैं, वाणी के चार पाद या रूप हैं-

१. परा, २. पश्यन्ती, ३. मध्यमा, ४. वैखरी 

वाणी की उत्पत्ति
वाणी कहां से उत्पन्न होती है, इसकी गहराई में जाकर अनुभूति की गई है। इस आधार पर पाणिनी कहते हैं, आत्मा वह मूल आधार है जहां से ध्वनि उत्पन्न होती है। वह इसका पहला रूप है। यह अनुभूति का विषय है। किसी यंत्र के द्वारा सुनाई नहीं देती। ध्वनि के इस रूप को परा कहा गया।

आगे जब आत्मा, बुद्धि तथा अर्थ की सहायता से मन: पटल पर कर्ता, कर्म या क्रिया का चित्र देखता है, वाणी का यह रूप पश्यन्ती कहलाता है, जिसे आजकल घ्त्ड़द्यदृद्धत्ठ्ठथ्‌ कहते हैं। हम जो कुछ बोलते हैं, पहले उसका चित्र हमारे मन में बनता है। इस कारण दूसरा चरण पश्यन्ती है।

इसके आगे मन व शरीर की ऊर्जा को प्रेरित कर न सुनाई देने वाला ध्वनि का बुद्बुद् उत्पन्न करता है। वह बुद्बुद् ऊपर उठता है तथा छाती से नि:श्वास की सहायता से कण्ठ तक आता है। वाणी के इस रूप को मध्यमा कहा जाता है। ये तीनों रूप सुनाई नहीं देते हैं। इसके आगे यह बुद्बुद् कंठ के ऊपर पांच स्पर्श स्थानों की सहायता से सर्वस्वर, व्यंजन, युग्माक्षर और मात्रा द्वारा भिन्न-भिन्न रूप में वाणी के रूप में अभिव्यक्त होता है। यही सुनाई देने वाली वाणी वैखरी कहलाती है और इस वैखरी वाणी से ही सम्पूर्ण ज्ञान, विज्ञान, जीवन व्यवहार तथा बोलचाल की अभिव्यक्ति संभव है। 

वाणी की अभिव्यक्ति
यहां हम देखते हैं कि कितनी सूक्ष्मता से उन्होंने मुख से निकलने वाली वाणी का निरीक्षण किया तथा क से ज्ञ तक वर्ण किस अंग की सहायता से निकलते हैं, इसका उन्होंने जो विश्लेषण किया वह इतना विज्ञान सम्मत है कि उसके अतिरिक्त अन्य ढंग से आप वह ध्वनि निकाल ही नहीं सकते हैं।

क, ख, ग, घ, ङ- कंठव्य कहे गए, क्योंकि इनके उच्चारण के समय ध्वनि कंठ से निकलती है।

च, छ, ज, झ,ञ- तालव्य कहे गए, क्योंकि इनके उच्चारण के समय जीभ लालू से लगती है।

ट, ठ, ड, ढ , ण- मूर्धन्य कहे गए, क्योंकि इनका उच्चारण जीभ के मूर्धा से लगने पर ही सम्भव है।

त, थ, द, ध, न- दंतीय कहे गए, क्योंकि इनके उच्चारण के समय जीभ दांतों से लगती है।

प, फ, ब, भ, म,- ओष्ठ्य कहे गए, क्योंकि इनका उच्चारण ओठों के मिलने पर ही होता है। 

स्वर विज्ञान
सभी वर्ण, संयुक्ताक्षर, मात्रा आदि के उच्चारण का मूल ‘स्वर‘ हैं। अत: उसका भी गहराई से अध्ययन तथा अनुभव किया गया। इसके निष्कर्ष के रूप में प्रतिपादित किया गया कि स्वर तीन प्रकार के हैं। 

उदात्त-उच्च स्वर
अनुदात्त-नीचे का स्वर
स्वरित- मध्यम स्वर 

इनका और सूक्ष्म विश्लेषण किया गया, जो संगीत शास्त्र का आधार बना। संगीत शास्त्र में सात स्वर माने गए जिन्हें सा रे ग म प ध नि के प्रतीक चिन्हों से जाना जाता है। इन सात स्वरों का मूल तीन स्वरों में विभाजन किया गया। 

उच्चैर्निषाद, गांधारौ नीचै ऋर्षभधैवतौ।
शेषास्तु स्वरिता ज्ञेया:, षड्ज मध्यमपंचमा:॥ 

अर्थात्‌ निषाद तथा गांधार (नि ग) स्वर उदात्त हैं। ऋषभ और धैवत (रे, ध) अनुदात्त। षड्ज, मध्यम और पंचम (सा, म, प) ये स्वरित हैं।

इन सातों स्वरों के विभिन्न प्रकार के समायोजन से विभिन्न रागों के रूप बने और उन रागों के गायन में उत्पन्न विभिन्न ध्वनि तरंगों का परिणाम मानव, पशु प्रकृति सब पर पड़ता है। इसका भी बहुत सूक्ष्म निरीक्षण हमारे यहां किया गया है।

विशिष्ट मंत्रों के विशिष्ट ढंग से उच्चारण से वायुमण्डल में विशेष प्रकार के कंपन उत्पन्न होते हैं, जिनका विशेष परिणाम होता है। यह मंत्रविज्ञान का आधार है। इसकी अनुभूति वेद मंत्रों के श्रवण या मंदिर के गुंबज के नीचे मंत्रपाठ के समय अनुभव में आती है।

हमारे यहां विभिन्न रागों के गायन व परिणाम के अनेक उल्लेख प्राचीनकाल से मिलते हैं। सुबह, शाम, हर्ष, शोक, उत्साह, करुणा-भिन्न-भिन्न प्रसंगों के भिन्न-भिन्न राग हैं। दीपक से दीपक जलना और मेघ मल्हार से वर्षा होना आदि उल्लेख मिलते हैं। वर्तमान में भी कुछ उदाहरण मिलते हैं। 

कुछ अनुभव
(१) प्रसिद्ध संगीतज्ञ पं. ओंकार नाथ ठाकुर १९३३ में फ्लोरेन्स (इटली) में आयोजित अखिल विश्व संगीत सम्मेलन में भाग लेने गए। उस समय मुसोलिनी वहां का तानाशाह था। उस प्रवास में मुसोलिनी से मुलाकात के समय पंडित जी ने भारतीय रागों के महत्व के बारे में बताया। इस पर मुसोलिनी ने कहा, मुझे कुछ दिनों से नींद नहीं आ रही है। यदि आपके संगीत में कुछ विशेषता हो, तो बताइये। इस पर पं. ओंकार नाथ ठाकुर ने तानपूरा लिया और राग ‘पूरिया‘ (कोमल धैवत का) गाने लगे। कुछ समय के अंदर मुसोलिनी को प्रगाढ़ निद्रा आ गई। बाद में उसने भारतीय संगीत की भूरि-भूरि प्रशंसा की तथा रॉयल एकेडमी ऑफ म्यूजिक के प्राचार्य को पंडित जी के संगीत के स्वर एवं लिपि को रिकार्ड करने का आदेश दिया।

२. आजकल पाश्चात्य जीवन मूल्य, आचार तथा व्यवहार का प्रभाव पड़ने के साथ युवा पीढ़ी में पाश्चात्य पॉप म्यूजिक का भी आकर्षण बढ़ रहा है। पॉप म्यूजिक आन्तरिक व्यक्तित्व को कुंठित और निम्न भावनाओं को बढ़ाने का कारण बनता है, जबकि भारतीय संगीत जीवन में संतुलन तथा उदात्त भावनाओं को विकसित करने का माध्यम है। इसे निम्न अनुभव प्रयोग स्पष्ट कर सकते हैं।

पांडिचेरी स्थित श्री अरविंद आश्रम में श्रीमां ने एक प्रयोग किया। एक मैदान में दो स्थानों पर एक ही प्रकार के बीज बोये गये तथा उनमें से एक के आगे पॉप म्यूजिक बजाया गया तथा दूसरे के आगे भारतीय संगीत। समय के साथ अंकुर फूटा और पौधा बढ़ने लगा। परन्तु आश्चर्य यह था कि जहां पॉप म्यूजिक बजता था, वह पौधा असंतुलित तथा उसके पत्ते कटे-फटे थे। जहां भारतीय संगीत बजता था, वह पौधा संतुलित तथा उसके पत्ते पूर्ण आकार के और विकसित थे। यह देखकर श्रीमां ने कहा, दोनों संगीतों का प्रभाव मानव के आन्तरिक व्यक्तित्व पर भी उसी प्रकार पड़ता है जिस प्रकार इन पौधों पर पड़ा दिखाई देता है।

(३) हम लोग संगीत सुनते हैं तो एक बात का सूक्ष्मता से निरीक्षण करें, इससे पाश्चात्य तथा भारतीय संगीत की प्रकृति तथा परिणाम का सूक्ष्मता से ज्ञान हो सकता है। जब कभी किसी संगीत सभा में पं. भीमसेन जोशी, पं. जसराज या अन्य किसी का गायन होता है और उस शास्त्रीय गायन में जब श्रोता उससे एकाकार हो जाते हैं तो उनका मन उसमें मस्त हो जाता है, तब प्राप्त आनन्द की अनुभूति में वे सिर हिलाते हैं। दूसरी ओर जब पाश्चात्य संगीत बजता है, कोई माइकेल जैक्सन, मैडोना का चीखते-चिल्लाते स्वरों के आरोह-अवरोह चालू होते हैं तो उसके साथ ही श्रोता के पैर थिरकने लगते हैं। अत: ध्यान में आता है कि भारतीय संगीत मानव की नाभि के ऊपर की भावनाएं विकसित करता है और पाश्चात्य पॉप म्यूजिक नाभि के नीचे की भावनाएं बढ़ाता है जो मानव के आन्तरिक व्यक्तित्व को विखंडित कर देता है।

ध्वनि कम्पन (च्दृद्वदड्ड ज्त्डद्धठ्ठद्यत्दृद) किसी घंटी पर प्रहार करते हैं तो उसकी ध्वनि देर तक सुनाई देती है। इसकी प्रक्रिया क्या है? इसकी व्याख्या में वात्स्यायन तथा उद्योतकर कहते हैं कि आघात में कुछ ध्वनि परमाणु अपनी जगह छोड़कर और संस्कार जिसे कम्प संतान-संस्कार कहते हैं, से एक प्रकार का कम्पन पैदा होता है और वायु के सहारे वह आगे बढ़ता है तथा मन्द तथा मन्दतर इस रूप में अविच्छिन्न रूप से सुनाई देता है। इसकी उत्पत्ति का कारण स्पन्दन है।

प्रतिध्वनि : विज्ञान भिक्षु अपने प्रवचन भाष्य अध्याय १ सूत्र ७ में कहते हैं कि प्रतिध्वनि (कड़ण्दृ) क्या है? इसकी व्याख्या में कहा गया कि जैसे पानी या दर्पण में चित्र दिखता है, वह प्रतिबिम्ब है। इसी प्रकार ध्वनि टकराकर पुन: सुनाई देती है, वह प्रतिध्वनि है। जैसे जल या दर्पण का बिम्ब वास्तविक चित्र नहीं है, उसी प्रकार प्रतिध्वनि भी वास्तविक ध्वनि नहीं है। 

रूपवत्त्वं च न सामान्य त: प्रतिबिम्ब प्रयोजकं
शब्दास्यापि प्रतिध्वनि रूप प्रतिबिम्ब दर्शनात्‌॥
विज्ञान भिक्षु, प्रवचन भाष्य अ. १ सूत्र-४७ 

घ्त्ड़ण्‌ क्ष्दद्यड्ढदद्मत्द्यन्र्‌ ठ्ठदड्ड च्र्त्थ्र्डद्धड्ढ-वाचस्पति मिश्र के अनुसार ‘शब्दस्य असाधारण धर्म:‘- शब्द के अनेक असाधारण गुण होते हैं। गंगेश उपाध्याय जी ने ‘तत्व चिंतामणि‘ में कहा- ‘वायोरेव मन्दतर तमादिक्रमेण मन्दादि शब्दात्पत्ति।‘ वायु की सहायता से मन्द-तीव्र शब्द उत्पन्न होते हैं।

वाचस्पति, जैमिनी, उदयन आदि आचार्यों ने बहुत विस्तारपूर्वक अपने ग्रंथों में ध्वनि की उत्पत्ति, कम्पन, प्रतिध्वनि, उसकी तीव्रता, मन्दता, उनके परिणाम आदि का हजारों वर्ष पूर्व किया जो विश्लेषण है, वह आज भी चमत्कृत करता है।


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ध्वनि शास्त्र पर आधारित भारतीय लिपि

१८वीं -१९वीं सदी के अनेक पाश्चात्य संशोधकों ने यह भ्रमपूर्ण धारणा फैलाने का प्रयत्न किया कि भारत के प्राचीन ऋषि लेखन कला से अनभिज्ञ थे तथा ईसा से ३००-४०० वर्ष पूर्व भारत में विकसित व्राह्मी लिपि का मूल भारत से बाहर था। इस संदर्भ में डा. ओरफ्र्ीड व म्युएलर ने प्रतिपादित किया कि भारत को लेखन विद्या ग्रीकों से मिली। सर विलियम जोन्स ने कहा कि भारतीय व्राह्मी लिपि सेमेटिक लिपि से उत्पन्न हुई। प्रो. बेवर ने यह तथ्य स्थापित करने का प्रयत्न किया कि व्राह्मी का मूल फोनेशियन लिपि है। डा. डेव्हिड डिरिंजर ने अनुमान किया कि अरेमिक लिपि से व्राह्मी उत्पन्न हुई। मैक्समूलर ने संस्कृत साहित्य का इतिहास लिखते समय लिपि के विकास के संदर्भ में अपना यह मत प्रतिपादित किया कि लिखने की कला भारत में ईसा से ४०० वर्ष पूर्व अस्तित्व में आई। दुर्भाग्य से बाद के समय में भारतीय विद्वानों ने भी पाश्चात्य संशोधकों के स्वर में स्वर मिलाते हुए उन्हीं निष्कर्षों का प्रतिपादन किया। इस सारी प्रक्रिया में अपने देश की परम्परा व ग्रंथों में लिपि के विकास की गाथा जानने का विशेष प्रयत्न नहीं हुआ। 

देखें कि वास्तविकता क्या है?
प्रसिद्ध पुरातत्ववेता और लिपि विशेषज्ञ अ.ब. वालावलकर तथा लिपिकार लक्ष्मण श्रीधर वाकणकर ने अपने संशोधन से यह सिद्ध किया कि भारतीय लिपि का उद्गम भारत में ही हुआ है तथा ध्वन्यात्मक आधार पर लेखन परम्परा वेद काल से विद्यमान थी, जिसकी पुष्टि अनेक पुरातत्वीय साक्ष्यों से भी होती है।

एक आदर्श ध्वन्यात्मक लेखन की बाधाओं का वर्णन एरिक गिल अपने टाइपोग्राफी (च्र्न्र्द्रदृढ़द्धठ्ठद्रण्न्र्) पर लिखे निबंध में कहते हैं कि किसी समय कोई अक्षर किसी ध्वनि का पर्यायवाची रहा होगा, परन्तु रोमन लिपि के अध्ययन से अमुक अक्षर हमेशा व हर जगह अमुक ध्वनि का पर्याय है, यह तथ्य ध्यान में नहीं आता। उदाहरण के तौर पर दृद्वढ़ण्‌- ये चार अक्षर ७ भिन्न-भिन्न प्रकार व भिन्न-भिन्न ध्वनि से उच्चारित होते हैं- ‘ओड, अफ, ऑफ, आऊ, औ, ऊ, ऑ‘। यह लिखने के बाद अपने निष्कर्ष के रूप में गिल कहते हैं कि मेरा स्पष्ट विचार है, ‘हमारे रोमन अक्षर ध्वनि का लेखन, मुद्रण ठीक प्रकार से करते हैं, यह कहना मूर्खतापूर्ण होगा।‘

दूसरी ओर भारत में ध्वन्यात्मक लेखन परंपरा युगों से रही है। इसके कुछ प्रमाण हमारे प्राचीन वाङ्मय में प्राप्त होते हैं-

१. यजु तैत्तरीय संहिता में एक कथा आती है कि देवताओं के सामने एक समस्या थी कि वाणी बोली जाने के बाद अदृश्य हो जाती है। अत: इस निराकार वाणी को साकार कैसे करें? अत: वे इन्द्र के पास गए और कहा ‘वाचंव्या कुर्वीत‘ अर्थात्‌ वाणी को आकार प्रदान करो। तब इन्द्र ने कहा मुझे वायु का सहयोग लेना पड़ेगा। देवताओं ने इसे मान्य किया और इन्द्र ने वाणी को आकार दिया। वाणी को आकार देना यानी लेखन विद्या। यही इन्द्र वायव्य व्याकरण के नाम से प्रसिद्ध है। इसका प्रचलन दक्षिण भारत में अधिक हैं-

२. अथर्ववेद में गणक ऋषिकृत सूक्त गणपति अथर्वशीर्ष की निम्न पंक्तियां लेखन विद्या की उत्पत्ति का स्पष्ट प्रमाण देती हैं-

गणादिं पूर्वमुच्चार्य वर्णादिं तदनन्तरम्‌। अनुस्वार: परतर:। अर्धेन्दुलसितम्‌। तोरण रुद्धम्‌। एतत्तवमनुस्वरूपम्‌। गकार: पूर्वरूपम्‌। अकारो मध्यरूपम्‌ अनुस्वारश्र्चान्त्यरूपम्‌। बिन्दुरुत्तररूपम। नाद: संधानम्‌। संहिता संधि:। सैषा गणेश विद्या।

अर्थात्‌ पहले ध्वनि के गण का उच्चारण करना फिर उसी क्रम में वर्ण (रंग की सहायता से) बाद में लिखना तत्पश्चात्‌ अक्षर पर अनुस्वार देना, वह अर्ध चंद्रयुक्त हो। इस प्रकार हे गणेश आपका स्वरूप, चित्र इस प्रकार होगा ग्‌ यानी व्यंजन तथा बीच का स्वर का भाग यानी आकार रूपदंड तथा अंत मुक्त अनुस्वार। इसका नाद व संधिरूप उच्चारण करना यही गणेश विद्या है, जिसे गणपति जानते हैं।

३. ध्वनि सूत्रों को देने वाले भगवाने शिव थे। भिन्न-भिन्न वेद की शाखाएं बोलने वालों की मृत्यु के कारण लुप्त होने लगीं। अत: उसे बचाने की प्रार्थना लेकर सनकादि सिद्ध दक्षिण में चिदम्बरम्‌ में भगवान शिव के पास गए। उनकी प्रार्थना सुनकर भगवान शिव ने अपने स्वर्गिक नृत्य के अन्तराल में अपने डमरू को नौ और पांच अर्थात्‌ चौदह बार बजाया। उसी से १४ ध्वनि सूत्र निकले, जो माहेश्वर सूत्र कहलाये। इसका वर्णन करते हुए कहा गया है- 

नृत्तावसाने नटराजराजो
ननाद ढक्कां नवपंचवारम्‌।
उद्धर्तुकाम: सनकादिसिद्धान्‌ एतद्विमर्षे शिवसूत्रजालम्‌।
कौशिक सूत्र-१ 

चौदह माहेश्वर सूत्रों का उल्लेख पाणिनी निम्न प्रकार से करते हैं। (१) अ इ उ ण्‌ (२) ऋ लृ क्‌ (३) ए ओ ङ्‌ (४) ऐ औ च्‌ (५) ह य व र ट्‌ (६) ल ण्‌ (७) ञ म ङ ण न म्‌ (८) झ भ ञ्‌ (९) ध ठ घ ष्‌ (१०) ज ब ग ड द श्‌ (११) ख फ छ ठ थ च ट त्र य्‌ (१२) क प य्‌ (१३) श ष स र्‌ (१४) ह ल्‌ 

४. वेदों के स्मरण व उनकी शुद्धता बनी रहे इस हेतु विभिन्न ऋषियों ने जटा, माला, शिखा, रेखा, दण्ड, रथ, ध्वज, तथा घन पाठ की जटिल पद्धतियां विकसित कीं, जो बिना लिखे सुरक्षित रखना कठिन था।

५. महाभारतकार व्यास मुनि जब महाभारत लिखने का विचार कर रहे थे तब उनके सामने समस्या थी कि इसे लिखे कौन, तब उन्होंने उसके समाधान हेतु गणेशजी का स्मरण किया- ‘काव्यस्य लेखनार्थाय गणेशं स्मर्यताम्‌ मुने‘। जब गणेश जी आए तो व्यास मुनि ने उनसे कहा ‘लेखको भारतस्यास्य भव गणनायक:, अर्थात्‌ ‘आप भारत ग्रंथ के लेखक बनें।‘ इसका अर्थ है गणपति उस समय के मूर्धन्य लिपिकार थे।

पाणिनी ने ऋग्वेद्‌ शिक्षा में विवेचन किया है कि वाणी अपने चार पदों में से चौथे पद वैखरी में आती है, तब मनुष्य के शरीर के पंच अंग के सहारे ध्वनि उत्पन्न होती है। इस आधार पर स्वर व व्यजंनों का सम्बंध जिस अंग में आता है उसका वर्गीकरण निम्न प्रकार है-

१. कंठ्य-श्वास कंठ से निकलता है तब तो ध्वनि निकलती है उसके अर्न्तगत निम्न अक्षर आते हैं- अ,आ, क, ख, ग, घ, ङ, ह और विसर्ग।

२. तालव्य- कंठ से थोड़ा ऊपर दांतों के निकट कठोर तालु पर से जब श्वास निकलती है तो वह ध्वनि इ,ई,च,छ,ज,झ,ञ,य और श के द्वारा अभिव्यक्त होती है।

३. मूर्धन्य-जीभ थोड़ी पीछे लेकर कोमल तालु में लगाकर ध्वनि निकालने पर वह निम्न अक्षरों में व्यक्त होती है-ऋ,ट,ठ.ड,द,ण,ष।

४. दंत्य-जीभ दांतों से लगती है तब जिन अक्षरों का उच्चारण होता है वह हैं लृ,ल,त,थ,द,ध,न,स।

५. ओष्ठ्य-दोनों ओठों के सहारे जिन अक्षरों का उच्चारण होता है वह हैं- उ,ऊ,प,फ,ब,भ, म, और व। 

इनके अतिरिक्त ए,ऐ,ओ,औ,अं,अ: यह मिश्रित स्वर हैं।
उपर्युक्त ध्वनि शास्त्र के आधार पर लिपि विकसित हुई और काल के प्रवाह में लिपियां बदलती रहीं, पर उनका आधार ध्वनि शास्त्र का मूलभूत सिद्धान्त ही रहा। प्रख्यात पुरातत्वविद्‌ वालावलकर जी ने प्राचीन मुद्राओं में प्राप्त लिपियों का अध्ययन कर प्रमाणित किया कि मूल रूप में माहेश्वरी लिपि थी जो वैदिक लिपि रही। इसी से आगे चलकर व्राह्मी तथा नागरी आदि लिपियां विकसित हुएं। प्रख्यात लिपिकार वाकणकर द्वारा निर्मित तालिका में हम इसे देख सकते हैं। 

पुरातत्वीय प्रमाण
लिपि के विकास एवं पुरातत्वीय प्रमाणों पर आधारित वालावलकर एवं वाकणकर के संशोधनों एवं प्रतिपादनों का उल्लेख करते हुए डा. मुरली मनोहर जोशी ने अपने लेख ‘लिपि विधाता गणेश‘ में जो विचार व्यक्त किए हैं वे यह सिद्ध करते हैं कि प्राचीन काल से लिपि की कला का भारत में अस्तित्व था और वह पूर्णतया ध्वनि शास्त्र पर आधारित था, जो विश्व की अन्य लिपियों में नहीं दिखाई देता है। डा. जोशी के शब्दों में-

‘व्रिटिश म्यूजियम में एक सील (क्र. ३१-११-३६६/१०६७-४७३६७-१८८१) रखी है जिसकी अनुकृति नीचे चित्र में प्रदर्शित है। ईसापूर्व छठी शताब्दी की इस सील में बेबीलोनी कीलाक्षर लिपि एवं व्राह्मी लिपि दोनों एक साथ विद्यमान हैं। कीलाक्षरों को तो १९३६ में ही पढ़ लिया गया था किन्तु बीच की एक पंक्ति को कोई अज्ञात लिपि मानकर यों ही छोड़ दिया गया था। पुरालेखविद्‌ वालावलकर ने ही इस अज्ञात लिपि को पढ़कर यूरोपीय विद्वानों की मान्यता कि भारत ने लिपि कहीं बाहर से उधार ली, झुठला दी। उनके अनुसार यह सील अशोक पूर्व माहेश्वरी लिपि में लिखी संस्कृत का साक्ष्य प्रस्तुत करती है। इस पंक्ति का पाठ है- ‘अवखेज्ञराख नु औहर्मनुभ्य: ददतु‘ जो कीलाक्षरों में लिखे अनुबंध की संस्कृत में की गयी संपुष्टि है-इस साक्ष्य से मैक्डोनल एवं ब्यूहलर की स्थापनाएं कि भारत ने ईसा पूर्व पांचवी शताब्दी में लिपि बाहर से उधार ली थी, निस्सार सिद्ध हो जाती है। इसी तरह एक अन्य महत्वपूर्ण साक्ष्य है पेरिस के लूण्रे म्यूजियम में ईसा पूर्व (३०००-२४००) की एक पेलेस्टाइन में उत्खनन के समय सार्गन राजा के यहां से उपलब्ध हुई सील है। इस सील चित्र को देखकर जॉन मार्शल ने कहा था कि इस सील के पुरातत्वीय परिणाम बेहद चौंकाने वाले हैं। इस सील के सिंधु घाटी सील के साथ साम्य ने यूरोपीय विद्वानों की भारतीय लिपि के बाहरी उद्गम सम्बंधी स्थापनाओं पर अनेक प्रश्नचिन्ह लगा दिए। अब कम-से-कम हमारे मनीषियों द्वारा लिपि बाहर से उधार लेने का शोर मचाया जाना तो मंद पड़ ही गया है। लेकिन भारतीय लिपि की प्राचीनता सम्बंधी प्रश्नों पर अभी भी अंग्रेजीदां प्राच्यविद्‌ चुप्पी लगाए हैं।‘ 

वैदिक ओंकार
‘इसी क्रम में छठी शताब्दी ईसा पूर्व के सोहगरा ताम्र अभिलेख (चित्र-४) पर भी दृष्टिपात करना आवश्यक है। इसकी प्रथम पंक्ति में वही चित्र बना हुआ है जिसे वालावलकर की तालिका में वैदिक ओंकार बताया गया है। चित्र-५,६ व ७ को भी देखिए। ये सब सिक्कों के चित्र हैं, जिनमें वैदिक ओंकार तथा स्वास्तिक जैसे आध्यात्मिक प्रतीक अंकित हैं। प्रश्न यह है कि वैदिक ओंकार की आकृति ऐसी क्यों मान ली जाए। ज्ञानेश्वरी में ओंकार रचना का वर्णन करते हुए लिखा है- 

अ- कार चरणयुगल। उ-कार उदर विशाल।
म-कार महामंडल। मस्तका-कारे॥११॥
हे तिन्ही एकवटले। तेच शब्दव्रह्म कवत्तल।
ते मियां गुरुकृपा नमिले। आदि बीज ॥२०॥ 

‘शब्द व्रह्म या एकाक्षर व्रह्म, प्रण की आकृति का ज्ञानेश्वरी में किया गया वर्णन महत्व का है। वर्तमान देवनागरी में लिखे जाने वाले ॐ से इस वर्णन का मेल स्पष्ट नहीं होता। किन्तु वालावलकर के वैदिक ओंकार से अवश्य इसका साम्य है। यदि माहेश्वरी सूत्रों के अर्धेंदु सिद्धांत पर गौर किया जाए तो यह गुत्थी सुलझ जाती है। दाएं चित्र देखिए-सबसे नीचे दो अर्धेंदु हैं जो ‘अ‘ के प्रतीक हैं; उसके ऊपर फिर एक अर्धेंदु खण्ड है जो ‘उ‘ को व्यक्त करता है, सबसे ऊपर एक वृत्त एवं अर्धेंदु बिंदु है जो ‘म‘ को प्रदर्शित करता है। इस प्रकार ज्ञानेश्वरी का ओंकार, गीता एवं उपनिषदों का एकाक्षर व्रह्म या प्रणव जो भी कहिए; वह माहेश्वरी सूत्रों के अर्धेंदु सिद्धांत के अनुसार निश्चित आकारों को, जो निश्चित ध्वनियों के प्रतीक हैं, जिन्हें क्रमानुसार जोड़ने से बनी एक निश्चित आकृति है। देवनागरी के ॐ में भी यही सिद्धांत परिलक्षित होता है। यदि वैदिक ओंकार को ऊपर चित्र की भांति नब्बे अंश से घड़ी की सुई की दिशा में घुमा दें, देवनागरी आकृति से अदभुत साम्य हो जाता है। एक दृष्टि से वैदिक ओंकार के देवनागरी ॐ में रूपांतरण तक की यात्रा भारतीय लिपि के विकास की कहानी है। इसे ऋग्वेद से लेकर पद्मपुराण तक खोजा जा सकता है।

।।जय हिंदुत्व।। ।।जय श्रीराम।। ।।जय महाकाल।। ।।जय श्रीकृष्ण।।

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