Tuesday, June 16, 2015

क्या गंगा जल की पवित्रता का वैज्ञानिक आधार है?......




भारत में बोतल बंद पानी के दिन बहुत बाद में आए हैं। पहले लोग अपने साथ पानी की बोतल लेकर नहीं चलते थे। लेकिन लगभग हर हिंदू परिवार में पानी का एक कलश या कोई दूसरा बर्तन जरूर होता था जिसमें पानी भरा होता था। गंगा का पानी।
पीढ़ियां गुजर गईं ये देखते-देखते कि हमारे घरों में गंगा का पानी रखा हुआ है- किसी पूजा के लिए, चरणामृत में मिलाने के लिए, मृत्यु नजदीक होने पर दो बूंद मुंह में डालने के लिए जिससे कि आत्मा सीधे स्वर्ग में जाए।
मिथक कथाओं में, वेद, पुराण, रामायण, महाभारत सब धार्मिक ग्रंथों में गंगा की महिमा का वर्णन है। कई इतिहासकार बताते हैं कि सम्राट अकबर स्वयं तो गंगा जल का सेवन करते ही थे, मेहमानों को भी गंगा जल पिलाते थे।
इतिहासकार लिखते हैं कि अंग्रेज जब कलकत्ता से वापस इंग्लैंड जाते थे, तो पीने के लिए जहाज में गंगा का पानी ले जाते थे, क्योंकि वह सड़ता नहीं था। इसके विपरीत अंग्रेज जो पानी अपने देश से लाते थे वह रास्ते में ही सड़ जाता था।
करीब सवा सौ साल पहले आगरा में तैनात ब्रिटिश डॉक्टर एमई हॉकिन ने वैज्ञानिक परीक्षण से सिद्ध किया था कि हैजे का बैक्टीरिया गंगा के पानी में डालने पर कुछ ही देर में मर गया।
दिलचस्प ये है कि इस समय भी वैज्ञानिक पाते हैं कि गंगा में बैक्टीरिया को मारने की क्षमता है।
'कोलाई बैक्टीरिया को मारने की क्षमता'
लखनऊ के नेशनल बोटैनिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट एनबीआरआई के निदेशक डॉक्टर चंद्र शेखर नौटियाल ने एक अनुसंधान में प्रमाणित किया है कि गंगा के पानी में बीमारी पैदा करने वाले ई-कोलाई बैक्टीरिया को मारने की क्षमता बरकरार है।
डॉक्टर नौटियाल ने यह परीक्षण ऋषिकेश और गंगोत्री के गंगा जल में किया था, जहां प्रदूषण ना के बराबर है। उन्होंने परीक्षण के लिए तीन तरह का गंगा जल लिया था। एक ताजा, दूसरा आठ साल पुराना और तीसरा सोलह साल पुराना।
उन्होंने तीनों तरह के गंगा जल में ई-कोलाई बैक्टीरिया डाला। डॉ. नौटियाल ने पाया कि ताजे गंगा पानी में बैक्टीरिया तीन दिन जीवित रहा, आठ दिन पुराने पानी में एक एक हफ्ते और सोलह साल पुराने पानी में 15 दिन। यानी तीनों तरह के गंगा जल में ई-कोलाई बैक्टीरिया जीवित नहीं रह पाया।
डॉ. नौटियाल बताते हैं, 'गंगा के पानी में ऐसा कुछ है जो कि बीमारी पैदा करने वाले जीवाणुओं को मार देता है। उसको नियंत्रित करता है।' हालांकि उन्होंने पाया कि गर्म करने से पानी की प्रतिरोधक क्षमता कुछ कम हो जाती है।
वैज्ञानिक कहते हैं कि गंगा के पानी में बैक्टीरिया को खाने वाले बैक्टीरियोफाज वायरस होते हैं। ये वायरस बैक्टीरिया की तादाद बढ़ते ही सक्रिय होते हैं और बैक्टीरिया को मारने के बाद फिर छिप जाते हैं।
अपने अनुसंधान को और आगे बढ़ाने के लिए डॉक्टर नौटियाल ने गंगा के पानी को बहुत महीन झिल्ली से पास किया। इतनी महीन झिल्ली से गुजारने से वायरस भी अलग हो जाते हैं। लेकिन उसके बाद भी गंगा के पानी में बैक्टीरिया को मारने की क्षमता थी।
डॉक्टर नौटियाल इस प्रयोग से बहुत आशांवित हैं। उन्हें उम्मीद है कि आगे चलकर यदि गंगा के पानी से इस चमत्कारिक तत्व को अलग कर लिया जाए तो बीमारी पैदा करने वाले उन जीवाणुओं को नियंत्रित किया जा सकता है, जिन पर अब एंटी बायोटिक दवाओं का असर नहीं होता।
कहां से आती है क्षमता?
मगर सबसे महत्वपूर्ण सवाल इस बात की पहचान करना है कि गंगा के पानी में रोगाणुओं को मारने की यह अद्भुत क्षमता कहां से आती है? डॉक्टर नौटियाल का कहना है कि गंगा जल में यह शक्ति गंगोत्री और हिमालय से आती है।
वे बताते हैं, 'गंगा जब हिमालय से आती है तो कई तरह की मिट्टी, कई तरह के खनिज, कई तरह की जड़ी बूटियों से मिलती मिलाती है। कुल मिलाकर कुछ ऐसा मिश्रण बनता जिसे हम अभी नहीं समझ पाए हैं।'
वहीं दूसरी ओर एक लंबे अरसे से गंगा पर शोध करने वाले आईआईटी रुड़की में पर्यावरण विज्ञान के रिटायर्ड प्रोफेसर देवेंद्र स्वरुप भार्गव का कहना है कि गंगा को साफ रखने वाला यह तत्व गंगा की तलहटी में ही सब जगह मौजूद है।
प्रोफेसर भार्गव का तर्क है, 'गंगोत्री से आने वाला अधिकांश जल हरिद्वार से नहरों में डाल दिया जाता है। नरोरा के बाद गंगा में मुख्यतः भूगर्भ से रिचार्ज हुआ और दूसरी नदियों का पानी आता है। इसके बावजूद बनारस तक का गंगा पानी सड़ता नहीं। इसका मतलब कि नदी की तलहटी में ही गंगा को साफ करने वाला विलक्षण तत्व मौजूद है।'
डॉक्टर भार्गव कहते हैं कि गंगा के पानी में वातावरण से ऑक्सीजन सोखने की अद्भुत क्षमता है। डॉ. भार्गव का कहना है कि दूसरी नदियों के मुकाबले गंगा में सड़ने वाली गंदगी को हजम करने की क्षमता 15 से 20 गुना ज्यादा है।
वे कहते हैं कि दूसरी नदी जो गंदगी 15-20 किलोमीटर में साफ कर पाती है।

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