जब जवान पुत्र पिता से आज्ञा नहीं उसे सुचना देता है कि वो नव वर्ष के
आयोजन में शिरकत करने जा रहा है तो पिता निर्लिप्त सा सुनकर हाँ के रूप में
गर्दन घुमा देता है जबकि पुत्र को उसकी हाँ या ना से कुछ फर्क नहीं
पड़ता,जाते जाते पिता के लौटने सम्बन्धी प्रश्न पर जब कुछ तयशुदा जबाब नहीं
मिलता,तो फिर एक मजबूरी की स्वीकारोक्ति।रात के एक बजे तक बड़ी मुश्किल से इन्तजार
बर्दाश्त से बाहर हो जाता है,प्रत्येक आहट पर पुत्र के आगमन की आशा लिये
जब दरवाजे पर कोई खटखटाहट नहीं तो फिर एक चिन्तायुक्त
स्वीकारोक्ति,दिलोदिमाग में किसी अनहोनी के डर से छटपटाहट,लेकिन कहने की
स्थिति किसी से नहीं,सब निश्चिंत से,मौजमस्ती मनाने में मशगुल।सभी
पार्टीयों में अल्कोहल उपलब्धता का अतिरिक्त भय,क्या बेटा नववर्ष के नाम पर
नशा कर के आयेगा,क्या परिवार की प्रतिष्ठा बच पायेगी,लेकिन डर,भय,की चर्चा
किससे?घर में चक्कर काटते काटते सिर्फ उलजलुल विचार।एकाएक दरवाजे की घंटी
बजते ही डरते डरते दरवाजा खोला और पुत्र के सही सलामत घर वापसी पर पिता का
नववर्ष का कार्यक्रम सफल हुआ।
No comments:
Post a Comment