एक अफसर की धर्मपत्नी को अपने पिता के अन्त्येष्टि संस्कार में भाग लेने के लिये बुलाया गया। वे गई भी। पिता के आकस्मिक निधन से उनकी मानसिक स्थिति असंतुलित-सी हो गई थी । अन्त्येष्टि समाप्त हुई तो वे अपनी कार से लौट पड़ी, किन्तु दुःख और थकावट में वह इतनी शिथिल हो गई थीं कि कार चलाते-चलाते ही उन्हें नींद आ गई। अर्द्धनिद्रित अवस्था में उन्हें एक्सीलेटर की स्थिति का ध्यान नहीं दिया, पैर से उसे तेजी से दाब रहीं थीं । कार 60 किमी प्रति घंटा की चाल से दौड़ने लगी।
अचानक उन्हें अपने पिता की आवाज सुनाई दी- राधा राधा । कार रोको, कार रोको। चौंककर राधा ने आँखें खोल दीं। होश संभाला तो पाया कि कार एक भयंकर मोड़ को पार कर रही थी और दुर्घटना होने में कुछ सेकेंड से अधिक की देरी नहीं थी।
पिता का निधन हो चुका था, फिर वह आवाज कहाँ से आई? ठीक ऐसे समय ही क्यों आई, जब उसकी आवश्यकता हुयी। इस सम्बन्ध में राधा ने मुझसे बहुत बार विचार किया और मनोवैज्ञानिक डाक्टरों से भी । मनोविज्ञान जानने वालों ने बताया कि वह घटना तो उनके अंतर्मन में पिता की बार-बार स्मृति के कारण हुआ। मस्तिष्क में कई दिन से पिता की स्मृति छा रही थी, इसलिये अर्द्धचेतन अवस्था में पिता की ही आवाज का भ्रम हुआ होगा । पर प्रश्न यह है वह भ्रम ठीक उस समय होना जबकि मृत्यु की विभीषिका के सन्निकट था, उक्त तर्क को काट देता है। राधा स्वयं भी संतुष्ट नहीं हुई और उन्होंने निश्चित रूप से माना कि मृत्यु के बाद भी पिता की चेतना के सूक्ष्म और उसी मानसिक स्थिति के मध्य सम्बन्ध बना रहता है।
वह घटना उदाहरण कही जा सकती है। आत्मा को शरीर से विलग वस्तु प्रमाणित करने, उसके सर्वज्ञ, संकल्प, सर्वव्यापी एवं शाश्वत होने के हजारों उदाहरण हमारे शास्त्र में वर्णित हैं इसीलिये हम वर्ष में एक बार पितृ तर्पण भी करते हैं ।
यह घटनायें असामान्य व्यक्तियों के जीवन में ही घटती हैं, इसलिये उन्हें मनगढ़न्त कहकर ठुकरा दिया जाता है जो कि गलत है । हमारे भारतीय योग-शास्त्रों में अणिमा, लधिमा, महिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, वशित्व और ईशित्व आदि अनेक सिद्धियों का वर्णन है, जिसे प्रयास से साधक सिद्धि कर लेते हैं उनके पीछे साधना और योग विद्या के सुनिश्चित सिद्धान्त है, जो मूलरूप से आत्मा के सूक्ष्म ‘तत्वदर्शन’ पर आधारित है। पातंजलि योग में बहुत-सी सिद्धियों का वर्णन है, जो केवल मन की स्वच्छता से प्राप्त की जाती है, उनमें से पूर्वजन्म का ज्ञान, दूरस्थ व्यक्ति का ज्ञान, अदृश्य और दूसरे चित्त का ज्ञान आदि भी है। उसके कारण पर योगवाशिष्ठ में इस प्रकार प्रकाश डाला है- “जो ज्ञानी-तत्वदर्शी पूर्णतया धार्मिक विचार वाले लोग हैं, उन्हीं का आतिवाहिक (सूक्ष्म) लोकों में प्रवेश हो सकता है। जो प्रबुद्ध होकर सूक्ष्मभाव को प्राप्त हो चुके वे ही दूसरे उन जीवों से मिल सकते हैं, जो सिद्ध होकर दूसरे लोकों में जन्म ले चुके है।“ जिसके मन में अपने को स्थूल शरीर होने का भ्रम दृढ़ हो यथा है, वह भला सूक्ष्म मार्ग द्वारा दूसरे लोकों में कैसे जा सकता है।
दो संकल्पशील मन एक दूसरे में जुड़कर एक दूसरे के मन की बात कैसे जान लेते है (जिसे विज्ञान टेलीपैथी कहता है ), इसका कोई विज्ञान सम्मत विश्लेषण नहीं है पर यदि ऐसा कुछ हुआ तो निश्चय ही उन सूक्ष्म-तत्वों की जानकारी सम्भव होगी, जो मनुष्य की मूलभूत चेतना से सम्बन्धित है। हमारी बुद्धिमता इसमें है कि पूर्वाभासों के आधार पर यह मानें कि सचमुच मनुष्य जीवन शरीर तक ही सीमित नहीं है यह एक चेतना का स्वतन्त्र अस्तित्व भी है जिसे हम पितृ कह सकते हैं । जिससे जुड़े रहने से भविष्य की अप्रिय घटनाओं को जाना व बचा जा सकता है ।
।।जय हिंदुत्व।। ।।जय श्रीराम।। ।।जय महाकाल।। ।।जय श्रीकृष्ण।।
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