लेख पढ़े .....जी हाँ..#मैं_वसंत_हूं।’
यदि बात वेलेंटाइन की ही है तो बता दू....हमारी संस्कृति में भी एक त्यौहार होता था मदनोत्सव....मगर समय और मुगलिया शासन में ये प्रतिबंधित कर दियागया....जो धीरे धीरे वसंतोत्सव में बदल गया या...
आज मदनोत्सव और वसंतोत्सव का घालमेल हो गया है।
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प्राचीन ग्रंथों के अनुसार दोनों उत्सवों में अंतर है।
मदनोत्सव होली के पर्व पर आयोजित किया जाता रहा होगा,
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खैर....हम ठहरे प्रकृति पूजक ..हमारे त्यौहार ऋतू आधारित रहे है सो माह है बसंत का तो त्यौहार हुआ वसंतोत्सव
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वसंतोत्सव, वसंत पंचमी के दिन मनाया जाता था।
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लेकिन इस उत्सव के दिन विद्या की देवी सरस्वती की भी पूजा का विधान है। परन्तु कहीं-कहीं वसंत पंचमी के दिन लक्ष्मी जी की भी पूजा की जाती है और इसे श्री पंचमी भी कहा जाता है।
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अपने समय के कारण वसंत पंचमी का पर्व अद्वितीय है। यह उल्लास का अनोखा पर्व है- पूरा प्राकृतिक परिवेश नैसर्गिक उल्लास से भरा होता है। यह उल्लास मानव मन के अंदर से भी स्वयं स्फूर्ति उमंग के रूप में बाहर निकलता है।
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शिशिर ऋतू में घरों में दुबके लोग बाहर निकल पड़ते हैं — पक्षियों का कलरव वातावरण को उल्लासपूर्ण बना देता है।
शीत में परिवर्तन आ जाता है। हड्डिïयों को जमा देने वाली ठंड न होकर गुलाबी धूप खिलने लगती है। यह समय ही एक ऐसा है जिसमें उल्लास और उमंग की सहज अनुभूति होती है।
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प्राचीनकाल में वसन्तोत्सव का दिन कामदेव के पूजन का दिन होता था और वसन्तपञ्चमी के बाद पूरे दो महीने तक वसन्तोत्सव अर्थात मदनोत्सव का कार्यक्रम चलता रहता था।
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आज भी भारतवर्ष का मौसम इस समय अर्थात वसन्त काल में इसी रंग में रंगा नजर आता रहता है, जो वास्तव में प्रेमी-प्रेमिकाओं का ही मौसम होता है। होली का उत्सव इसका चरमबिन्दु है, जब रस के रसिया का एकाकार हो जाता है। वसन्त काम का सहचर है , इसीलिए भारतवर्ष में वसन्त ऋतु में मदनोत्सव मनाने का विधान है।
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पुरातन काल से ही भारतवर्ष में काम को निकृष्ट नहीं मानकर दैवी स्वरूप प्रदान कर उसे कामदेव के रूप में मान्यता दी गई है। यदि काम इतना विकृत होता तो भगवान शिव अपनी क्रोधाग्नि में काम को भस्म करने के बाद उसे अनंग रूप में पुनः क्यों जीवित करते ? इसका अर्थ यह है कि काम का साहचर्य उत्सव मनाने योग्य है। जब तक वह मर्यादा में रहता है , उसे भगवान की विभूति माना जाता है,लेकिन जब और जैसे ही वह मर्यादा छोड़ देता है तो आत्मघाती बन जाता है ,
शिव का तीसरा नेत्र (विवेक) उसे भस्म कर देता है। भगवान शिव द्वारा किया गया काम-संहार मनुष्य को यही शिक्षा देता है ,समझाता है।
वसंत पंचमी के ही दिन भगवान शिव के पांचवें मुख से एक खास किस्म का राग निकला था, जिसे ‘वसंत राग’ कहा जाता है।
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इस राग को आज भी समूची मधु ऋतु में गाने का रिवाज है।
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प्राचीन ग्रंथों में ऐसा वर्णन मिलता है कि पहले वसंतोत्सव के एक दिन पहले ही स्थान-स्थान पर वंदनवार सजाए जाते थे। पूजा की सामग्री एकत्र कर ली जाती थी। केले के स्तंभों से प्रवेशद्वार सुसज्जित किए जाते थे। पीत वस्त्र धारण किए जाते थे। कहते हैं कि वसंत पंचमी का यह त्योहार उस समय आरंभ हुआ जब भारत धन-धान्य से संपन्न था।
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उस समय आज की तरह मनोरंजन के अन्य साधन उपलब्ध नहीं थे। एक मान्यता यह है कि
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वसंत पंचमी मनाने की शुरुआत मौर्य काल में हुई, जो गुप्त काल में एक लोकप्रिय उत्सव में बदल गया। किसानों का यह प्रिय पर्व रहा। आज भी उत्तरी भारत में वसंत पंचमी पर अनेक जगहों पर मेले जुड़ते हैं।
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संस्कृत के नाटककार भास के नाटक ‘चारूदत्त’ के अनुसार वसंत के उत्सव पर लोग उमंग-उल्लास के साथ वाद्य यंत्र लेकर निकलते थे और नृत्यगान करते हुए उनकी शोभा यात्राएं नगर में निकालते थे। ‘रत्नावली’ नाटिका में मदनोत्सव व वसंतोत्सव नाम दिए गए हैं। ‘दशकुमार चरित’ में इसका चित्रण कामोत्सव के रूप में किया गया है।
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भवभूति के श्मालती-माधव के अनुसार वसन्तोत्सव मनाने के लिए विशेष मदनोत्सव बनाया जाता था जिसके केन्द्र में कामदेव का मन्दिर होता था। इसी मदनोत्सव में सभी स्त्री-पुरुष एकत्र होते, फूल चुनकर हार बनाते, एक-दूसरे पर अबीर-कुमकुम डालते और नृत्य संगीत आदि का आयोजन करते थे। बाद में वह सभी मन्दिर जाकर कामदेव की पूजा करते थे।
भविष्य पुराण में भी ऐसा जिक्र मिलता है कि आज के दिन काम और रति की प्रतिमा तैयार कर दोनों की पूजा की जाती है उन दिनों मदनोत्सव का आयोजन अंत:पुर में होता था और अंत:पुर वासी परस्पर हास्य-विनोद और मनोविनोद करते थे।
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‘मालविकाग्निमित्रम्’ की नायिका रानी सज-संवर कर पैरों में महावर रचकर सुहाग नूपुर बांधे अपने बायें चरण से अशोक वृक्ष पर आघात करती हैं जिससे पूरा वृक्ष पुष्पगुच्छों से भर उठता है।
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सम्राट हर्ष ने अपने नाटक रत्नावली तथा नागानंद में ऋतु-उत्सव यानि मदनोत्सव का विषद वर्णन किया है ।नागानंद नामक नाटक नें एक वृद्धा के विवाह का विषद और रोचक वर्णन किया गया है । वाल्मीकि रामायण में भी वसन्तोत्सव का वर्णन मिलता है । दंडी ने अपने नाटक दशकुमार चरित में कामदेव की पूजा के लिए आवष्यक ऋतुओं को बताया है । पुस्तक के अनुसार प्रत्येक पति एक कामदेव है तथा प्रत्येक स्त्री एक रति
वसंत ऋतु का सबसे प्रमुख संदेश यह है कि जीवन में अविरल चलने वाले को ही वास्तविक आनंद प्राप्त होता है। उन्हीं क्षणों में ऋषि मुख से कविता छंदों में प्रवाहित होने लगती है।
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बहरहाल कामदेव से जुड़े तमाम उत्सव अतीत का हिस्सा बन चुके हैं और समय के साथ सौंदर्य और मादक उल्लास के इस वसन्तउत्सव का स्वरूप बहुत बदल गया है । अब इस शालीनता का स्थान फुहड़ता ने ले लिया है ।
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अब कोई किसी से प्रणय निवेदन नही वरन जोर जबरदस्ती करता है और प्यार न मिलने पर चेहरा व शरीर जलाने के लिए अम्ल अर्थात एसिड फेकता है । आज प्रेम अर्थात प्यार सिर्फ दैहिक आकर्षण की वस्तु बन कर रह गया है ।
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कामदेव के पुष्पवाणों से निकली मादकता, उमंग, उल्लास और मस्ती की रसधारा न जाने कहां खो गई।आधुनिक काल में होली का स्वरूप भले ही बिगड़ गया है मगर फिर भी होली हमारी प्राचीन भारतीय सांस्कृतिक विरासत और लोक संस्कृति का एक प्रखर नक्षत्र है।
तभी भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में अपने स्वरूपों का वर्णन करते हुए कहा है : ‘ऋतुनांकुसुमाकर’: ‘अर्थात ऋतुओं में मैं वसंत हूं।’
यदि बात वेलेंटाइन की ही है तो बता दू....हमारी संस्कृति में भी एक त्यौहार होता था मदनोत्सव....मगर समय और मुगलिया शासन में ये प्रतिबंधित कर दियागया....जो धीरे धीरे वसंतोत्सव में बदल गया या...
आज मदनोत्सव और वसंतोत्सव का घालमेल हो गया है।
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प्राचीन ग्रंथों के अनुसार दोनों उत्सवों में अंतर है।
मदनोत्सव होली के पर्व पर आयोजित किया जाता रहा होगा,
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खैर....हम ठहरे प्रकृति पूजक ..हमारे त्यौहार ऋतू आधारित रहे है सो माह है बसंत का तो त्यौहार हुआ वसंतोत्सव
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वसंतोत्सव, वसंत पंचमी के दिन मनाया जाता था।
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लेकिन इस उत्सव के दिन विद्या की देवी सरस्वती की भी पूजा का विधान है। परन्तु कहीं-कहीं वसंत पंचमी के दिन लक्ष्मी जी की भी पूजा की जाती है और इसे श्री पंचमी भी कहा जाता है।
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अपने समय के कारण वसंत पंचमी का पर्व अद्वितीय है। यह उल्लास का अनोखा पर्व है- पूरा प्राकृतिक परिवेश नैसर्गिक उल्लास से भरा होता है। यह उल्लास मानव मन के अंदर से भी स्वयं स्फूर्ति उमंग के रूप में बाहर निकलता है।
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शिशिर ऋतू में घरों में दुबके लोग बाहर निकल पड़ते हैं — पक्षियों का कलरव वातावरण को उल्लासपूर्ण बना देता है।
शीत में परिवर्तन आ जाता है। हड्डिïयों को जमा देने वाली ठंड न होकर गुलाबी धूप खिलने लगती है। यह समय ही एक ऐसा है जिसमें उल्लास और उमंग की सहज अनुभूति होती है।
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प्राचीनकाल में वसन्तोत्सव का दिन कामदेव के पूजन का दिन होता था और वसन्तपञ्चमी के बाद पूरे दो महीने तक वसन्तोत्सव अर्थात मदनोत्सव का कार्यक्रम चलता रहता था।
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आज भी भारतवर्ष का मौसम इस समय अर्थात वसन्त काल में इसी रंग में रंगा नजर आता रहता है, जो वास्तव में प्रेमी-प्रेमिकाओं का ही मौसम होता है। होली का उत्सव इसका चरमबिन्दु है, जब रस के रसिया का एकाकार हो जाता है। वसन्त काम का सहचर है , इसीलिए भारतवर्ष में वसन्त ऋतु में मदनोत्सव मनाने का विधान है।
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पुरातन काल से ही भारतवर्ष में काम को निकृष्ट नहीं मानकर दैवी स्वरूप प्रदान कर उसे कामदेव के रूप में मान्यता दी गई है। यदि काम इतना विकृत होता तो भगवान शिव अपनी क्रोधाग्नि में काम को भस्म करने के बाद उसे अनंग रूप में पुनः क्यों जीवित करते ? इसका अर्थ यह है कि काम का साहचर्य उत्सव मनाने योग्य है। जब तक वह मर्यादा में रहता है , उसे भगवान की विभूति माना जाता है,लेकिन जब और जैसे ही वह मर्यादा छोड़ देता है तो आत्मघाती बन जाता है ,
शिव का तीसरा नेत्र (विवेक) उसे भस्म कर देता है। भगवान शिव द्वारा किया गया काम-संहार मनुष्य को यही शिक्षा देता है ,समझाता है।
वसंत पंचमी के ही दिन भगवान शिव के पांचवें मुख से एक खास किस्म का राग निकला था, जिसे ‘वसंत राग’ कहा जाता है।
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इस राग को आज भी समूची मधु ऋतु में गाने का रिवाज है।
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प्राचीन ग्रंथों में ऐसा वर्णन मिलता है कि पहले वसंतोत्सव के एक दिन पहले ही स्थान-स्थान पर वंदनवार सजाए जाते थे। पूजा की सामग्री एकत्र कर ली जाती थी। केले के स्तंभों से प्रवेशद्वार सुसज्जित किए जाते थे। पीत वस्त्र धारण किए जाते थे। कहते हैं कि वसंत पंचमी का यह त्योहार उस समय आरंभ हुआ जब भारत धन-धान्य से संपन्न था।
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उस समय आज की तरह मनोरंजन के अन्य साधन उपलब्ध नहीं थे। एक मान्यता यह है कि
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वसंत पंचमी मनाने की शुरुआत मौर्य काल में हुई, जो गुप्त काल में एक लोकप्रिय उत्सव में बदल गया। किसानों का यह प्रिय पर्व रहा। आज भी उत्तरी भारत में वसंत पंचमी पर अनेक जगहों पर मेले जुड़ते हैं।
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संस्कृत के नाटककार भास के नाटक ‘चारूदत्त’ के अनुसार वसंत के उत्सव पर लोग उमंग-उल्लास के साथ वाद्य यंत्र लेकर निकलते थे और नृत्यगान करते हुए उनकी शोभा यात्राएं नगर में निकालते थे। ‘रत्नावली’ नाटिका में मदनोत्सव व वसंतोत्सव नाम दिए गए हैं। ‘दशकुमार चरित’ में इसका चित्रण कामोत्सव के रूप में किया गया है।
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भवभूति के श्मालती-माधव के अनुसार वसन्तोत्सव मनाने के लिए विशेष मदनोत्सव बनाया जाता था जिसके केन्द्र में कामदेव का मन्दिर होता था। इसी मदनोत्सव में सभी स्त्री-पुरुष एकत्र होते, फूल चुनकर हार बनाते, एक-दूसरे पर अबीर-कुमकुम डालते और नृत्य संगीत आदि का आयोजन करते थे। बाद में वह सभी मन्दिर जाकर कामदेव की पूजा करते थे।
भविष्य पुराण में भी ऐसा जिक्र मिलता है कि आज के दिन काम और रति की प्रतिमा तैयार कर दोनों की पूजा की जाती है उन दिनों मदनोत्सव का आयोजन अंत:पुर में होता था और अंत:पुर वासी परस्पर हास्य-विनोद और मनोविनोद करते थे।
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‘मालविकाग्निमित्रम्’ की नायिका रानी सज-संवर कर पैरों में महावर रचकर सुहाग नूपुर बांधे अपने बायें चरण से अशोक वृक्ष पर आघात करती हैं जिससे पूरा वृक्ष पुष्पगुच्छों से भर उठता है।
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सम्राट हर्ष ने अपने नाटक रत्नावली तथा नागानंद में ऋतु-उत्सव यानि मदनोत्सव का विषद वर्णन किया है ।नागानंद नामक नाटक नें एक वृद्धा के विवाह का विषद और रोचक वर्णन किया गया है । वाल्मीकि रामायण में भी वसन्तोत्सव का वर्णन मिलता है । दंडी ने अपने नाटक दशकुमार चरित में कामदेव की पूजा के लिए आवष्यक ऋतुओं को बताया है । पुस्तक के अनुसार प्रत्येक पति एक कामदेव है तथा प्रत्येक स्त्री एक रति
वसंत ऋतु का सबसे प्रमुख संदेश यह है कि जीवन में अविरल चलने वाले को ही वास्तविक आनंद प्राप्त होता है। उन्हीं क्षणों में ऋषि मुख से कविता छंदों में प्रवाहित होने लगती है।
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बहरहाल कामदेव से जुड़े तमाम उत्सव अतीत का हिस्सा बन चुके हैं और समय के साथ सौंदर्य और मादक उल्लास के इस वसन्तउत्सव का स्वरूप बहुत बदल गया है । अब इस शालीनता का स्थान फुहड़ता ने ले लिया है ।
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अब कोई किसी से प्रणय निवेदन नही वरन जोर जबरदस्ती करता है और प्यार न मिलने पर चेहरा व शरीर जलाने के लिए अम्ल अर्थात एसिड फेकता है । आज प्रेम अर्थात प्यार सिर्फ दैहिक आकर्षण की वस्तु बन कर रह गया है ।
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कामदेव के पुष्पवाणों से निकली मादकता, उमंग, उल्लास और मस्ती की रसधारा न जाने कहां खो गई।आधुनिक काल में होली का स्वरूप भले ही बिगड़ गया है मगर फिर भी होली हमारी प्राचीन भारतीय सांस्कृतिक विरासत और लोक संस्कृति का एक प्रखर नक्षत्र है।
तभी भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में अपने स्वरूपों का वर्णन करते हुए कहा है : ‘ऋतुनांकुसुमाकर’: ‘अर्थात ऋतुओं में मैं वसंत हूं।’
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