भाषा वाणी का धर्म है। जैसे धर्म जीवन का अनुशासन है वैसे ही भाषा वाणी का अनुशासन। भाषा विचार प्रवाह को भी व्यवस्था देती है। भाव या विचार अन्तस् में उगते हैं। हम उन्हें भाषाबद्ध करते हैं। तब बाहर लाते हैं। 99 प्रतिशत भारतीय अपनी भाषा में ही सोचते हैं। बेशक भाषा विचार प्रकट करने का माध्यम है लेकिन उससे ज्यादा यह सोचने का माध्यम भी है। सोचने की स्वाभाविक कार्यवाही में हम मातृभाषा की गोद में होते हैं। सोचते समय हम भाषाहीन नहीं होते। हम भाषा में सोचते हैं। हमारे सोच विचार में दृश्य, रूप और बिम्ब भी होते हैं। हमारी भाषा रूप, रस, गंध, ध्वनि और अनुभव अनुभूति को शब्द वाक्य बनाती है।
निस्संदेह भाषा विचारों के आदान प्रदान का उपकरण है। विचार भाषा के रथ पर सवार होकर ही दिग्दिगंत व्यापी होते हैं। लेकिन मातृभाषा केवल विचार प्रवाह का ही माध्यम नहीं होती। विचारों का जन्म और विकास भी मातृभाषा की ही गोद में ही होता है। सोचना स्वतंत्र बौद्धिक कार्रवाई है। स्वतंत्रता की इस उड़ान को भाषा अपने पंख देती है। वह बहुधा सोच विचार की दिशा भी निर्धारित करती है।
मार्क्सवाद अंतर्राष्ट्रीय विचारधारा है। इसे यूरोपीय भाषाओं में सोचने में सुविधा है। हिन्दी, संस्कृत, फारसी या तमिल, तेलगु बोलने वाले मार्क्सवाद को अटपटा पाएंगे। संस्कृत के अपने संस्कार हैं। संस्कृत संस्कारों में सोचने की अपनी बहुआयामी शैली है। संस्कृत ने अपनी भाषा निधि के बूते ही एक ऐतिहासिक संस्कृति और सभ्यता का निर्माण किया है। भाषा की ऐसी शक्ति सभ्यता और संस्कृृति यूरोप की भाषाओं में नहीं है। इसलिए संस्कृत समझ वाले लोगों को मार्क्सवाद अटपटा लगता है और विरोधी व अधूरा भी। हिन्दी की भी यही स्थिति है।
हिन्दी भाषी क्षेत्रों का भूगोल बड़ा है। संस्कृत सहित सभी भारतीय भाषाओं में ‘धर्म’ की समझ दूसरी है और यूरोप की भाषाओं में दूसरी। कार्ल मार्क्स भारतीय धर्म से गहन रूप में परिचित नहीं थे। उनके सामने ईसाइयत थी। ईसाइयत धर्म नहीं रिलीजन है। आस्था और विश्वास का ही विचार संकुल। वे रिलीजन के अंधविश्वासी चरित्र के विरोधी थे। मार्क्स ने उचित ही रिलीजन को अफीम कहा। लेकिन अनुवाद में धर्म भी अफीम हो गया। रिलीजन और धर्म पर्यायवाची नहीं हैं।
संस्कृत साहित्य में धर्म एक विराट चेतना है। यह धर्म चेतना संवादी है। धर्म आस्था नहीं धारण किया हुआ कर्म है। कथा है कि विष्णु ने तीन पग चलकर विश्व नाप लिया। सो कैसे? ऋग्वेद के अनुसार धर्म के द्वारा। ग्रिफ्थ ने धर्म का अनुवाद स्ंूे-लाज किया है। सबसे मजेदार बात है मित्र और वरूण की। वे नियमों का पालन कराते हैं लेकिन यह कार्य भी वे धर्मणा – यथानियम ही करते हैं। यहां भाषा संस्कार की गहनता विचारणीय है। वृहदारण्यक उपनिषद् में कहते हैं “जिससे सूर्य उदय और अस्त होता है, वह प्राण से ही उदित होता है, प्राण से ही अस्त होता है इस धर्म को देवों ने बनाया है।” यहां भी धर्म नियम हैं। डाॅ0 पी0वी0 काणे ने ‘धर्मशास्त्र का इतिहास’ के पहले भाग में लिखा है “धर्म किसी संप्रदाय या मत का द्यौतक नहीं है, प्रत्युत यह जीवन का ढंग या आचार संहिता है।
यह समाज या व्यक्ति के रूप में मनुष्य के कर्म और कृति को व्यवस्थित करता है।” संस्कृत भाषा द्वारा निर्मित संस्कृति में धर्म व्यवस्था है। गौतम सहित सभी विद्वानों ने आदर्श लोक व्यवहार और सदाचार को धर्म भाग बताया है। काणे ने एक गंभीर तथ्य की ओर ध्यान दिलाया है। उन्होंने सम्राट अशोक के शिलालेखों में लिखित मानवीय गुणों की सूची दी है – “दया, उदारता, सत्य, शुद्धि, भद्रता, शांति, प्रसन्नता, साधुता और आत्मसंयम।” काणे के अनुसार यह सूची गौतम की सूची से मिलती है।
संस्कृति और धर्म की जन्मतिथि का आंकलन असंभव है। ऋग्वेद के रचनाकाल को ईसा से 7-8 हजार वर्ष पूर्व मानना चाहिए। कुछेक सूक्त इससे भी प्राचीन हो सकते हैं और कुछेक सूक्त ईसाा के चार हजार वर्ष पहले के आसपास के भी। काणे के अनुसार “4000-1000 ईसा पूर्व के बीच वैदिक संहिता और उपनिषद् उगे हैं। प्रमुख उपनिषदों का रचनाकाल 1500 ई0पूर्व भी हो सकता है। कुछ का ईसवी सन् के बाद भी। काणे के अनुसार “800 से 400 ईसा पूर्व के मध्य प्रमुख श्रौत सूत्र और गृह्यसूत्र रचे गये। काणे के अध्ययन विवेचन में गौतम, आपस्तंब, वोधायन आदि के धर्मसूत्र भी 600-300 ईसा पूर्व के हैं। वे गीता का रचनाकाल भी 500-200 ईसा पूर्व अनुमानित करते हैं।
गीता महाभारत का ही हिस्सा है। भारतीय सोच विचार और तर्क प्रतितर्क की जीवन दृष्टि के विकास में ऐसे विशाल विपुल ज्ञान भंडार की भूमिका है। रामायण और महाभारत की भाषा शक्ति विराट है। दोनो ने लोक प्रभावित किया है। पुराणों की भी भूमिका है। पतंजलि के योग सूत्र और कौटिल्य का अर्थशास्त्र भी उल्लेखनीय है। चरक संहिता आयुर्वेद का ग्रंथ है लेकिन सोंचने की दृष्टि का भी निर्माता है। सबकी भाषा संस्कृत है।
सोचने और बोलने में भाषा की भूमिका है। पाणिनि की अष्टाध्यायी और उस पर पतंजलि का महाभाष्य अमूल्य निधियां हैं। भरत मुनि का नाट्यशास्त्र कला और अभिनय की व्याख्या का दुनिया का पहला ग्रंथ है। भारत का मन ऐसे ही तमाम स्रोतों से बना है। अंग्रेजी से नहीं। अंग्रेजी सभ्यता और संस्कारों से तो बिल्कुल ही नहीं। संस्कृत भाषा ने भाषियों ने धर्म को व्यापक और विभु बनाया। भारत के धर्म ने सबको जगह दी। यहां ज्ञान विज्ञान की कार्रवाई को भी धार्मिक अनुष्ठान बनाया गया। धर्म ने वैचारिक विविधिता और बहुलता को बढ़ाया।
विविधिता और बहुलता ने धर्म और सोच विचार को समृद्ध किया। धर्म ने विज्ञान के सत्यों को अन्तःस्थल में जगह दी। सामाजिक विकास की नई मंजिल को भी यथातथ्य जगह मिली। इस्लाम के भारत में प्रवेश के पूर्व तक भारतीय जीवन दृष्टि में कोई बाधा नहीं थी। राज्य व्यवस्थाएं कमजोर हो रहीं थीं लेकिन सोच विचार और धर्म-दर्शन में ग्लानि नहीं थी। मो0 बिन कासिम और उसके बाद के हमलों ने धर्म और मुक्त चिंतन को आत्मरक्षा के लिए विवश किया। ईस्ट इण्डिया कंपनी और उसके बाद अंग्रजी राज ने सोंचने की भारतीय दृष्टि को आहत किया।
भारत अंग्रेजीराज से लड़ा था। लड़ाई का उपकरण हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाएं थीं। अंग्रेजी भाषा सहित सारे प्रतीकों से भारत की टक्कर थी। अंग्रेजी सभ्यता, सोंच, विचार और संस्कृति से भी। स्वाधीनता संग्राम के समय हम सबको भारत पर गर्व था, अंग्रेज हेय थे, भारत प्रेय था, अंग्रेजी सत्ता की भाषा थी, लोकसत्ता भारतीय भाषाओं में बोल रही थी। स्वाधीनता संग्राम सेनानी इतिहासबोध जगा रहे थे। लड़ाई लम्बी चली। लेकिन संघर्ष का हरेक नया वर्ष भारत और भारतीय राष्ट्रभाव के जागरण की त्वरा बढ़ाता रहा। सोचने की भारतीय दृष्टि के पीछे भारतीय भाषाओं की शक्ति थी। अंग्रेज विदा हो गये। अंग्रेजी नहीं गयी।
हमने इंग्लैण्ड की तर्ज वाली संसदीय व्यवस्था अपनाई। यहां तक तो बात बहुत नहीं बिगड़ी। हमारे सोचने के उपकरण और मानक भी अंग्रेजी संस्कारों की गिरफ्त में चले गए। अंग्रेजी सोच, विचार, सभ्यता और इतिहास समझने की शैली ने भारतीय जनजीवन की मूल चेतना को परे धकेल दिया। अपनी भाषा से कटना दरअसल अपनी जड़ों से ही कटना है। जड़ों से कटे पेड़ पर पत्तियां नहीं उगती। फूल तो खिलते ही नहीं। अंग्रेजी संस्कारों वाले प्लास्टिक के फूल हमारे जीवन में मधुगंध और मधुवातायन नहीं ला सकते।
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