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धार्मिक ग्रंथों ने सदियों से ही मानवता को सही दिशा और जीवनशैली सिखाई है। हम जिस भी धर्म को मानते हैं उसी आदर्शों पर आगे बढ़ते हैं, ये आदर्श हमें धार्मिक ग्रंथों के माध्यम से मिलते है। पीढ़ी दर पीढ़ी हम इन्ही आदर्शों का पालन करते आये हैं।

हिन्दू धर्म में श्रीमदभागवतगीता को सबसे पवित्र  माना गया हैं। यह सबसे रहस्यमयी ग्रन्थ हैं। गीता मुश्किलों में राह दिखाती है, उलझनों को सुलझाने का तरीका बताती है, जिंदगी और मृत्यु का सत्य सुनाती है। इसमें सभी प्रश्नों का उत्तर हैं, जीवन जीने का तरीका बताया गया हैं।

आज, कल, जन्म मर्त्यु, धन-सम्पदा, प्रकर्ति, जलवायु, आदि-अन्त, परमात्मा सभी का पूर्ण वर्णन हैं यह बहुत ही Simple हैं लेकिन बहुत ही रहस्यमई पुस्तक हैं।

अगर श्रीमद्भागवत गीता का अध्ययन नित्य किया जाएँ तो इस बात का आभास होता है कि उसमें सिखाया कुछ नहीं गया है, बल्कि समझाया गया कि इस संसार का स्वरूप क्या है? उसमें यह कहीं नहीं कहा गया कि आप इस तरह चलें या फिर उस तरह चलें, बल्कि यह बताया गया है कि किस तरह की चाल से आप किस तरह की छबि बनायेंगे? उसे पढ़कर आदमी कोई नया भाव नहीं सीखता बल्कि संपूर्ण जीवन सहजता से व्यतीत करें, इसका मार्ग बताया गया है।

ये स्वयं परमपिता परमेश्वर के मुखकमल से प्रकट हुयी हैं, भगवान ने स्वयं सारें रहस्य का वर्णन स्वयं किया हैं।

इसमें के कुछ का मैं इस POST में वर्णन करने जा रहा हैं।

आशा हैं आप सभी ‘श्रीमदभागवतगीता’ की दिव्य आनंदरूपी बारिश की एक बूँद का आनंद उठाएंगे।
गीता में 18 अध्याय हैं, हर एक अध्याय में कुछ श्लोक हैं, जो की अपने आप में एक सफल और सुन्दर जीवन जीने का तरीका बताता हैं अथार्थ श्रीमद्भागवत गीता के हर श्लोक में ज्ञान की गंगा हैं।
मैं हर एक Chapter में से कुछ अंश आपके साथ share कर रहा हूँ।
आपके जीवन में कितना भी संघर्ष हो, और मन कितना ही विचलित हो – यह ज्ञान वंहा आपके काम अवश्य आयेगा।

अध्याय एक / Chapter 1
कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में सैन्य निरीक्षण (अर्जुन विशद योग)
अर्जुन अपने विपक्ष में प्रबल सैन्य व्यूह को देख कर भयभीत हो गए थे। उनके सगे-सम्बन्धी जीव-प्रेम ने देश और राजा के प्रति उनके कर्त्तव्य को भुला दिया। इस प्रकार साहस और विश्वास से भरे अर्जुन महायुद्ध का आरम्भ होने से पूर्व ही युद्ध स्थगित कर रथ पर बैठ जातें हैं। श्री कृष्ण से कहते हैं – “मैं युद्ध नहीं करूंगा।“ मैं पूज्य गुरुजनों तथा सम्बन्धियों को मार कर राज्य का सुख नहीं चाहता, भिक्षान्न खाकर जीवन धारण करना श्रेयस्कर मानता हूँ, ऐसा सुनकर भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को उनके कर्तव्य और कर्म के बारें में बताया।
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अध्याय दो / Chapter 2
गीता का सार (सांख्ययोग)
शरीर नित्य और आत्मा जन्म-मृत्यु रहित हैं। निष्काम कर्म, निष्काम भक्ति और ज्ञान सम्मिलन के फलस्वरूप ब्रह्मप्राप्ति और स्तिथ प्रज्ञ अवस्था होती है, इस अवस्था में स्तिथ होकर मनुष्य निष्काम भाव से अपने वर्ण और आश्रम के कर्म करके अंत में ब्रह्मनिर्वाण या मोक्ष प्राप्त करते हैं।
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अध्याय तीन / Chapter 3
(कर्मयोग)
कर्मयोग में सभी कर्म केवल दूसरों के लिए किये जाते हैं। हम सुख चाहते हैं, अमरता चाहतें हैं, निश्चिंतता चाहते हैं, निर्भरता चाहतें हैं, स्वाधीनता चाहते हैं लेकिन यह सब हमें संसार से नहीं मिलेगा, प्रत्युत संसार से सम्बन्ध विच्छेद से मिलेगा। हमें संसार से जो कुछ मिला है, उसको केवल संसार कि सेवा में समर्पित कर दें, यही कर्म योग है। यदि ज्ञान के संस्कार हैं तो स्वरुप का साक्षात्कार हो जाता है और यदि भक्ति से संस्कार है, तो भगवान् में प्रेम हो जाता है। जो कर्म हम अपने लिए नहीं चाहते हैं उसको दूसरों के प्रति न करें।
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अध्याय चार / Chapter 4
दिव्य ज्ञान (ज्ञानयोग)
मनुष्य शरीर अपने किये हुए कर्मों का फल ही लोक तथा परलोक मैं भोगा जाता है। जैसे धूल का छोटा से छोटा कण भी विशाल पृथ्वी का ही एक अंश है, ऐसे ही यह शरीर भी विशाल ब्रह्माण्ड का ही एक अंश है। ऐसा मानने से कर्म तो संसार केलिए होंगें पर योग (नित्य योग) अपने लिए अर्थात परमात्मा का अनुभव हो जाएगा।
जैसे आकाश में विचरण करते वायु को कोई मुट्ठी में पकड़ सकता। इसी तरह मन को कोई नहीं पकड़ सकता।
गीता अध्याय-4 (read more)

अध्याय पांच / Chapter 5
कृष्णभावनाभावित कर्म (सन्यास योग)
कर्म के द्वारा ईश्वर के साथ संयोग ही कर्मयोग है। जिस कर्म में भगवान् का संयोग नहीं होता वह कर्मयोग नहीं, वह केवलकर्म मात्र है। कर्म सकाम होने से ही वह बंधन का कारण होता है और निष्काम होने पर चित्त शुद्धि क्रम से वह मोक्ष का कारण बनता है।
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अध्याय छह / Chapter 6
(ध्यानयोग)
सूत में जरा सा रेशा भी रहने से वह सुई के छेद में नहीं घुसता, उसी तरह मन में मामूली वासना रहने से भी वह ईश्वर केचरणकमलों के ध्यान में लवलीन नहीं होता।
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अध्याय सात / Chapter 7
भागवत ज्ञान (ज्ञान विज्ञानं योग)
जैसे घड़ा बनाने में कुम्हार और सोने के आभूषण बनाने में सुनार ही निमित कारण है, ऐसे ही संसारमात्र की उत्पत्ति में भगवान् ही निमित कारण हैं। ऐसा जानना ही ज्ञान है। सब कुछ भगवत्स्वरूप है। भगवान् के सिवाए दूसरा कुछ है ही नहीं, ऐसा अनुभव हो जाना ही ज्ञान है।
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अध्याय आठ / Chapter 8
भागवत प्राप्ति (अक्षरब्रह्म योग)
ईश्वर के प्रति थोडा भी प्रेम हो तो मन में निर्मल आनंद का संचार होता है। उस समय एक बार राम नाम का उच्चारण करने से कोटि बार संध्या पूजा करने का फल मिलता है। मन का एक अंश ईश्वर मैं और दूसरा अंश संसार के कामों में लगाना होगा।
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अध्याय नौ  / Chapter 9
परम गउह ज्ञान (राजविद्याराजगुह्य योग)
मैं अपनी प्रकृति को वशीभूत करके उसी प्रकृति की सहायता से अपने कर्मानुसार जन्म-मृत्यु के अधीन इन समस्त प्राणियों की पूर्वजीत अदृष्ट के अनुसार बार-बार विविध रूप से सृष्टि कर रहा हूँ। केवल भक्ति से ही परमात्मा का दर्शन सम्भव है।
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अध्याय दस / Chapter 10
श्रीभगवान का का ऐश्वर्य (विभूति योग)
भगवान् कहते हैं – देवतालोग या महर्षि लोग मेरा प्रभाव या महात्मय नहीं जानते क्योंकि मैं देवताओं तथा महर्षियों का आदि कारण हूँ। अतः. मेरी कृपा बिना कोई मुझे नहीं जान सकता भक्तों के प्रति कृपा करने के लिए वह उनकी बुद्धिवृति में अधिष्ठित होकर दीप्तिमान तत्व ज्ञान रूप प्रदीप के द्वारा अज्ञान से उत्पन्न संसार रूप अन्धकार का नाश करतें है।
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अध्याय ग्यारह / Chapter 11
विराट रूप (विश्वरूप दर्शन योग)
अर्जुन ने श्री भगवान् के निकट “विश्वरूप दर्शन” के लिए कातर भाव से प्रार्थना की थी। चिन्मय रूप देखने के लिए चिन्मयदृष्टि की आवश्यकता है। इस कारण श्री भगवान् ने अर्जुन को दिव्य चक्षु दिए थे। दिव्य चक्षुओं के द्वारा अर्जुन ने श्रीभगवान का दिव्य रूप देखा था। जिस रूप का दर्शन होने से मनुष्य को परम गति मिलती है।
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अध्याय बारह / Chapter 12
(भक्ति योग)
कर्मयोग और ज्ञानयोग – ये दोनों लौकिक निष्ठाएं हैं। परन्तु भक्तियोग लौकिक निष्ठां अर्थात प्राणी की निष्ठां नहीं है। जो भगवान् में लग जाता है वह भगवन्निष्ठ होते हैं अर्थात उसकी निष्ठां भी अर्थात भक्ति से भक्ति पैदा होती है। श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन,  वंदन, दास्य, सांख्य और आत्म-निवेदन – यह नौ प्रकार की साधना भक्ति हैं तथा इनके आगे प्रेमलक्षणा भक्ति साध्य भक्ति है जो कर्मयोग और ज्ञानयोग सबकी साध्य है।
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अध्याय तेरह / Chapter 13
प्रक्रति, पुरुष चेतना (क्षेत्रक्षेत्रज्ञ विभाग योग)
जिस प्रकार खेत में जैसा बीज बोया जाता है, वैसा ही अनाज पैदा होता है। उसी प्रकार शरीर में जैसे कर्म किये जातें हैं उनके अनुसार ही दुसरे शरीर परिस्तिथि आदि मिलते हैं। तात्पर्य है कि इस शरीर में किये गए कर्मों के अनुसार ही यह जीव बार-बार जन्म मरणरूप फल भोगता है। इसी दृष्टि से इसको क्षेत्र (खेत) कहा गया है।
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अध्याय चौदह / Chapter 14
प्रक्रति के तीन गुण (गुणत्रयविभाग योग)
ये तीन सत्व, रज, तम प्रकृति के ये हीं गुण है। यदपि परमपुरुष निष्क्रिय है तो भी गुणों के संग के कारण मानो पुरुष का संसारबंधन होता है। ये तीन गुण एकत्र एक ही क्षेत्र में रहते हैं जब भी देहेन्द्रिय के किसी द्वार में ज्ञान रूप प्रकाश होता है तभी उस मनुष्य को सत्वगुण-संपन्न या सात्विक कहते हैं।
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अध्याय पंद्रह / Chapter 15
(पुरुषोतम योग)
मैं प्रत्येक मनुष्य के अत्यंत नजदीक हृदय में रहता हूँ अतः किसी भी साधक को  (मेरे दूरी अथवा वियोग अनुभव करते हुए भी) मेरी प्राप्ति से निराश नहीं होना चाहिए। इसलिए पापी, पुण्यात्मा, मुर्ख, पंडित, निर्धन, धनवान, रोगी,  निरोगी आदि कोई भी स्त्री-पुरुष किसी भी जाति- वर्ण, सम्प्रदाय, आश्रम, देशकाल परिस्तिथि आदि में क्यों न हो भगवत्प्राप्ति का वह पूरा अधिकारी है।
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अध्याय सोलह / Chapter 16
(देवासुर सम्पदि भाग योग)
शास्त्रों के नियम का पालन न करके मनमाने ढंग से जीवन व्यतीत करने वाले तथा असुरी गुणों वाले व्यक्ति अधम योनियो को प्राप्त करते हैं और आगे भी भवबंधन में पड़े रहते हैं किन्तु दैवीगुणों से संपन्न तथा शास्त्रों को आधार मानकर नियमित जीवन बिताने वाले लोग अध्यात्मिक सिद्धि प्राप्त करते हैं।
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अध्याय सतरह / Chapter 17
श्रदा के विभाग (श्रद्धात्रय विभाग योग)
पुण्य कर्म से पुण्य की उत्पत्ति होती है, और पाप कर्म से पाप की उत्पत्ति होती है। रमणीय आचरण करने वाले श्रैष्ठ योनियोंमें जन्म ग्रहण करतें हैं और निन्दित आचरण करने वाले निकृष्ट योनि में जाते हैं. यही संसार का शास्वत नियम है।
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अध्याय अठारह / Chapter 18
उपसंहार-सन्यास की सिद्धि (मोक्ष योग)
स्वयं भगवान् के शरणागत हो जाना – यह सम्पूर्ण साधनो का सार है। सर्व समर्थ प्रभु के शरण भी हो गए और चिंता भी करें, ये दोनों बात बड़ी विरोधी हैं, क्योंकि शरण हो गए तो चिंता कैसी? और चिंता होती है तो शरणागति कैसी?
गीता अध्याय-18 (read more)

दोस्तों, ये सब “Srimadbhagwat Geeta” में कही गई बातें और ऊपर POST में श्रीमदभागवत गीता के अध्यायों का सार मैंने काफी Search(गूगल, लेख, किताबो, पत्रिकाओं) करके आपके सामने प्रस्तुत किया हैं।
यधपि मैंने अपना पूरा प्रयास किया हैं कि कोई त्रुटि न रहे, अगर फिर भी ऊपर दिए गए किसी भी कथन या वाक्य में कोई गलती मिले तो please अपने comments के माध्यम से सूचित करें।