कथक नृत्यांगना शोभना नारायण, नई दिल्ली। अपनी नृत्य कला की प्रस्तुति के सिलसिले में मैं खूब देश-विदेश घूमी हूं और अपने साथ-साथ दुनिया की सभी संस्कृतियों से रू-ब-रू हुई हूं। सच कहूं तो कला ही वह माध्यम है, जिससे सही मायने में न केवल वर्तमान, बल्कि आदि कालीन समाज की सभ्यता, संस्कृति और उस दौर के रहन-सहन, पहनावा, फैशन आदि का वास्तविक अर्थों में में पता चलता है। आम लोग ही नहीं, बल्कि पढे-लिखे बुद्धिजीवियों में भी यही धारणा है कि वाद्य यंत्र 'तबला' इस देश को अमीर खुसरो की देन है। मैंने पूरे इतिहास, पूरी संस्कृति का अध्ययन कर लिया, लेकिन कहीं भी इसका उल्लेख नहीं मिलता कि तबला हमें अमीर खुसरो ने दिया है।
तबला हमारी संस्कृति में पहले से था
हां, नगाड़ा का जिक्र जरूर अमीर खुसरो के समय मिलता है, लेकिन तबले का नहीं। पुराने तबले के घेरे को ही बड़ा कर नगाड़े का रूप दिया गया था। आज भी ग्वालियर के संग्रहालय में पांचवीं शताब्दी के कलात्मक अवशेष(स्कप्ल्चर) मौजूद हैं, जिसमें संगीतकारों के एक समूह के हाथ में जो वाद्य यंत्र हैं उनमें सरोद और तबला स्पष्ट रूप से दिखता है। हां तबले का आकार वर्तमान की तरह नहीं था, बल्कि उसमें चौड़ाई से अधिक लंबाई थी, लेकिन वह तबला ही था। हां इसे उस वक्त कुछ और कहा जाता था। चूंकि 'ताब्ल' शब्द फारसी का है इसलिए तबले की उत्पत्ति अमीर खुसरो के समय से मान ली गई है।
मुगलों से बहुत पहले सिले वस्त्र भी हमारी संस्कृति में थे
इसी तरह एक आम धारण है कि भारत में सिले हुए वस्त्रों का चलन मुगल काल से प्रारंभ हुआ। लेकिन जब देश के संग्रहालायों में जाएं तो हमें मौर्य काल के 'नटी' की मूर्तियां मिल जाती हैं जो सिले हुए वस्त्र पहनी हुई हैं। पटना के संग्रहालय में तात्कालिक पाटलीपुत्र के 'नटी' की जो मूर्तियां मौजूद हैं वह ईसा के जन्म से 300 साल पहले की है। उस वक्त तो मुगलों का पता भी नहीं था।
इसी तरह, मुगलों के भारत आगमन से करीब 1000 साल पहले और गजनी के भारत पर हमले के करीब 600 साल पहले की मूर्तियां देवघर के संग्रहालय में मौजूद हैं। गुप्तकाल की ये मूर्तियां संगीताकार महिलाओं की हैं। आज जिसे लखनवी कुर्ता कहा जाता है वह कुर्ता उन महिलाओं ने पहन रखे हैं। जबकि आम धारणा हैकि लखनवी कुर्ता जैसे सिले हुए कुर्ते हमें मध्यकाल में मुस्लिम शासकों से मिला। सिले-अनसिले वस्त्रों का उल्लेख तो मौर्य काल से भी बहुत पहले ऋग्वेद और एतरेय ब्राहम्ण में मिलता है।
फैशन के मामले में आज से कहीं अधिक आधुनिक समाज था हमारा
इसी तरह आज जिसे हम आधुनिक वस्त्रों का फैशन कहते हैं, वैसे फैशन तो हमारे आदि काल की संस्कृतियों में भी मौजूद रहे हैं। साड़ी तो हमारी ही देन है। इसके अलावा डबल डेकर लहंगा, लांग कट स्कर्ट- ब्लाउज वाली गुप्त काल की मूर्तियां आज भी बोध गया के संग्रहालयों में मौजूद हैं। शुंग काल की मूर्तियों में पंजाब के पुरुष धोती पहने दिखाई देते हैं तो ईसा के जन्म से 200-300 वर्ष पूर्व की महाराष्ट्र व राजस्थान में जिन नटी की मूर्तियां मिली हैं वो सभी साड़ी पहनी हुई हैं। शुंग काल में ही पुरुषों के शर्ट में बटन वाले कलाकार की मूर्ति भी पटना के संग्रहालय में मौजूद हैं।
सेमिनार की संयोजक एनएसआईटी की छात्रा रवीना माथुर कथक नृत्यांगना शोभना नारायण के साथ
कथक महाभारत काल में था तो यह ईरान से कैसे आया?
मैं एक कथक नृत्यांगना हूं और अक्सर लोगों से सुनता हूं कि कथक भारत को ईरान की देन है। मुझे आश्चर्य होता है कि उनके यहां तो कथक शब्द भी नहीं हैं। 'कथक' एक संस्कृत शब्द है। इसकी उत्पत्ति 'कथा' से हुई है। 'कथा' मतलब स्टोरी और 'कथाकार' मतलब स्टोरी टेलर। इसी तरह नृत्य के द्वारा जो अभिव्यक्ति और संवाद स्थापित किया जाए वह 'कथक' है।
महाभारत में स्पष्ट रूप से कथक का उल्लेख है। इसके अलावा संगीत रत्नाकर, हर्ष चरित जैसे ग्रंथों में तो कथक का खूब जिक्र है। मेरी उत्सुकता हुई तो मैंने इसकी खोज की। मुझे बिहार के गया में तीन ऐसे गांव मिले, जिनका नाम ही कथक पर आधारित है। कथक बिगहा, कथक ग्राम- ये भी मौर्य काल के गांव हैं, जहां के पुराने लोगों में आज भी कथक के प्रति ललक देखने को मिली है। ये अलग बात है कि नई पीढ़ी क्लर्क की नौकरी करने के लिए अपनी परंपरा से कट गई है।
हम अपनी संस्कृति से कट गए हैं इसलिए जो सुनते हैं उसे सच मान लेते हैं
10 वीं 11 शताब्दी में अल-बरूनी जब भारत आया था तो वह यहां की संस्कृति और सभ्यता को देखकर दंग रह गया था। उसने अपनी किताब में भारत की महिलाओं द्वारा पहनी जाने वाली सलवार, लहंगा, कुर्ता आदि का जिक्र किया है।
सच तो यह है कि इस देश के लोग और हमारी युवा पीढ़ी अपनी संस्कृति-सभ्यता से कट गई है। वह अपने इतिहास से अनजान हैं। इसलिए जो जो सुनती है उसे ही सच मान लेती है। जबकि जरूरत हमें अपनी संस्कृति और सभ्यता की समृद्ध विरासत को समझने की है। कला किसी भी काल की सभ्यता- संस्कृति की सच्ची अभिव्यक्ति है, जो हमें उस काल की समूची समाज व्यवस्था से पहचान कराता है।
नोट: प्रसिद्ध नृत्यांगना शोभना नारायण द्वारा नई दिल्ली के द्वारका स्थित नेताजी सुभाष इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी में इंजीनियरिंग के छात्र-छात्राओं के द्वारा आयोजित सेमिनार के दौरान दी गई प्रस्तुति से यह अंश लिया गया है।
।।जय हिंदुत्व।। ।।जय श्रीराम।। ।।जय महाकाल।। ।।जय श्रीकृष्ण।।
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