Monday, June 29, 2015

कम्बोडिया के अंगकोर वाट मंदिर

कम्बोडिया के अंगकोर वाट मंदिर की तीर्थ यात्रा के लिये अनेकों श्रद्धालु म्यांमार के रंगून के रास्ते से जाते थे । नेपाल में पशुपति नाथ मंदिर की यात्रा तो अभी तक चलती है । लेकिन धीरे धीरे दक्षिण एशिया के देशों पर इस्लामी सेनाओं के आक्रमण प्रारम्भ हुये और इस पूरे क्षेत्र में इस प्रकार की लम्बी तीर्थ यात्राएँ निरापद नहीं रहीं । कालान्तर में भारत के अनेक हिस्सों पर अंग्रेज़ों और अन्य यूरोपीय जातियों का क़ब्ज़ा हो गया । इसी प्रकार दक्षिण पूर्व एशिया केअनेक देशों म्यांमार, थाईलैंड, सिंगापुर , मलेशिया , लाओस, वियतनाम और कम्बोडिया इत्यादि पर ब्रिटिश, डच, फ्रांस, इत्यादि देशों का आधिपत्य हो गया । इन यूरोपीय शासकोंने अपने लाभ के लिये दक्षिण पूर्वी एशिया के इन देशों में भारत से सस्ते मज़दूर तो भेजने शुरु कर दियेलेकिन आम लोगों का आवागमन रुक गया । ऐसे वातावरण में तीर्थ यात्राओं का रुकना स्वाभाविक ही था । उसके बाद तो नये शासकीय नियमों के कारण एक दूसरे के क्षेत्र में आने जाने के लिये वीज़ा इत्यादि के प्रावधान दुनिया भर के देशों में होने लगे । विदेशी साम्राज्यवादियों की चपेट में आ गये इस पूरे क्षेत्र में तीर्थ यात्राएँ एक प्रकार से बन्द ही हो गईं ।पूरे एशिया , ख़ास कर दक्षिण पूर्व एशिया में अपने समय का सबसे बड़ा तीर्थ स्थल , ‪#‎विष्णु‬ को समर्पित कम्बोडिया का अंगकोर मंदिर , जिसमेंकेवल भारत से ही नहीं बल्कि इस क्षेत्र में पड़ने वाले सभी देशों के तीर्थ यात्री पहुँचते थे , काल के प्रवाह में ऐसा अदृश्य हुआ कि उसका नाम ही लोग भूल गये । अंगकोर मंदिर दुनिया का सबसे बड़ा मंदिर है । जिस मंदिर में कभी मंत्रोच्चार होता था, शंख ध्वनि गूंजा करती थी , वही मंदिर धीरे धीरे जंगलों की घनी छायामें विलुप्त हो गया । लेकिन इतिहास का एक चक्र पूरा हुआ तो मंदिर एक बार फिर विश्व पटल पर उभरने लगा , परन्तु तब तक भारत से कम्बोडिया जाने के सभी स्थल मार्ग अवरूद्ध हो चुके थे । परिस्थितियाँ बदल गईं थीं । साधारण तीर्थयात्रियों की बात तो दूर साधु संतों के लिये भी अंगकोर के दर्शन करना संभव नहीं रहा । भारत से कम्बोडिया के जिस स्थल मार्ग पर कभी भगवाधारी साधु महात्मा विष्णु सहस्रनामा का जाप करते हुये अंगकोर का दर्शन करने हेतु जाते प्रायः मिलजाते थे , उन मार्गों पर सन्नाटा छा गया । कम्बोडिया पर क़ब्ज़ा करने केबाद कम्युनिस्टों ने तो अंगकोर मंदिर को ही अपनी लड़ाई का केन्द्र बना दिया । स्थितियाँ सामान्य हो जाने पर भारत सरकार के पुरातत्व विभाग ने लाखों रुपया ख़र्च करके मंदिर के मूल स्थापत्य को संरक्षित करने का प्रयास किया था ।अटल विहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री काल में मेकांग-गंगा परिकल्पना के नाम से एक बार फिर भारत और दक्षिण पूर्व एशिया के लोगों में पुराने सांस्कृतिक सम्बंधों को हरा भरा करने का प्रयासहुआ था । तब आशा बंधी थी कि शायद सैकड़ों वर्षों बाद फिर अंगकोर मंदिर की तीर्थ यात्रा प्रारम्भ हो सके ।अंगकोर मंदिर की तीर्थ यात्रा का सबसे सुगम स्थल मार्ग मणिपुर के मोरेह नगर से प्रारम्भ होता है । मोरेह से पहले विष्णुपुर नामक ग्राम आता है , जिसमें भगवान विष्णु का अति प्राचीन मंदिर स्थित है । इस मंदिर में पूजा अर्चना के बाद यह यात्रा शुरु होती है । मोरेह भारत का अंतिम ग्राम है जो म्यांमार की सीमा पर स्थित है । कभी इसी रास्ते से होकर साधु सन्यासी अंगकोर की तीर्थ यात्रा पर निकलते थे । मोरेह से मांडले की दूरी ३७५ मील है और यह सड़क मार्ग अब यातायात के लिये उपलब्ध है । मांडले से रंगून होते हुये थाईलैंड के माई सेत तक का सड़क मार्ग भी उपलब्ध है । माई सेत से कम्बोडिया के अंगकोर तीर्थ स्थान तक सहज ही में जाया जा सकता है । सड़ककी हालत चाहे उतनी अच्छी नहीं है । लेकिन इतना निश्चित है कि यदि प्रयास किया जाये तो भारत से म्यांमार व थाईलैंड होते हुये कम्बोडिया में अंगकोर मंदिर तक की यह तीर्थ यात्रा सैकड़ों वर्ष बाद फिर से प्रारम्भ की जा सकती है ।कम्बोडिया में लोगों का विश्वास है कि जो पुण्य सभी तीर्थ स्थलों के दर्शनों से मिलता है वही पुण्य अकेले अंगकोर मंदिर के दर्शन से ही मिल जाता है । अटल विहारी वाजपेयी के शासन काल में जिस उत्साह व तेज़ी से इस परिकल्पना पर कार्य प्रारम्भ हुआ था , उतनी तेज़ी बाद में नहीं रही। इस स्थल मार्ग के खुल जाने से जहाँ एक ओर इस क्षेत्र के सभी देशों के लोगों में परस्पर सम्पर्क बढ़ेगा वहीं पूरे क्षेत्र ख़ास कर पूर्वोत्तर भारत की अर्थव्यवस्था को भी बल मिलेगी । यह स्थल मार्ग पूर्वोत्तर भारत और म्यांमार, थाईदेश, लाओस, वियतनाम और कम्बोडियाजैसे सभी देशों की आर्थिक व सांस्कृतिक गतिविधियों को सकारात्मक दृष्टि से प्रभावित करेगा । प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जिस प्रकार भारत के निकटतम पड़ोसी देशों को वरीयता की श्रेणी में रखा है , उससे लगता है दक्षिण पूर्व एशिया भी उनकी प्राथमिकताओं में रहेगा । इस से भी यह संभावना बढ़ती हैं कि भविष्य में अंगकोर तीर्थ यात्रा की बहाली हो सकती है ।लेकिन मुख्य प्रश्न है कि इस यात्राकी शुरुआत कौन करेगा ? शताब्दियों से बन्द पड़ी तीर्थयात्राओं और परम्पराओं को बहाल करना भी अति जीवटका काम है । इस का एक तरीक़ा तो यह हो सकता है कि भारत सरकार ने कैलाश मानसरोवर की तीर्थ यात्रा का ज़िम्मा जिस प्रकार आधिकारिक तौर पर स्वयं संभाला हुआ है और हर साल आधिकारिक तौर पर ही इस यात्रा का आयोजन होता है , उसी प्रकार अंगकोर तीर्थ यात्रा का आयोजन भी भारत सरकार कम्बोडिया सरकार के साथ मिल कर करे । इस प्रकार के प्रकल्प में इन देशों के रास्ते में पड़ने वाले सड़क मार्गों का निर्माण भी आपसी सहयोग से किया जा सकता है । एक दूसरा विकल्प भी हो सकता है कि कुछ सामाजिक संस्थाएँ आपस में मिल कर इसतीर्थ यात्रा की शुरुआत कर सकती हैं। विश्व हिन्दू परिषद इस में मुख्य भूमिका निभा सकती है । हिमालय परिवार के संरक्षक और संस्थापक इन्द्रेश कुमार भी इस प्रकल्प को संभाल सकते हैं । लद्दाख में सिन्धुदर्शन यात्रा का वे अनेक सालों से सफलता पूर्वक आयोजन कर रहे हैं । जम्मू कश्मीर में वर्षों से बन्द पड़ी अनेक तीर्थ यात्राओं को उन्होंने पुनः प्रारम्भ भी करवाया है । अरुणाचल प्रदेश में परशुराम कुंड की तीर्थ यात्रा में उनके प्रयासों से ही गति आई है । दो साल पहले उन्होंने तवांग तीर्थ यात्रा प्रारम्भ करवाई है । यह ठीक है कि अंगकोर तीर्थ यात्रा का प्रकल्प इन सब से विशाल है लेकिन इन्द्रेश जी के विज़न को देखते हुये कहा जा सकता है कि वे इसे निबाह सकते हैं । इसके अतिरिक्त एक अन्य विकल्प पर भी विचार हो सकता है । भारत, म्यांमार, थाईलैंड,और कम्बोडिया की सरकारें मिल कर अंगकोर तीर्थयात्रा बोर्ड का गठन करें और वह बोर्ड इस तीर्थ यात्रा की व्यवस्था करे । लेकिन इस प्रकार के बोर्ड के गठन की पहल भारत सरकार को ही करनी होगी ।लेकिन एक बात निश्चित है कि मणिपुर में मोरेह से म्यांमार के मांडले तकजिस राजमार्ग का निर्माण हो रहा है उसने निकट भविष्य में अंगकोर तीर्थ यात्रा के पुनः प्रारम्भ हो सकने की संभावनाओं को प्रशस्त कर दिया है ।


।।जय हिंदुत्व।। ।।जय श्रीराम।। ।।जय महाकाल।। ।।जय श्रीकृष्ण।।

Sunday, June 28, 2015

जातिवाद पर क्या कहते है हमारे शास्त्र ?


भविष्य पुराण ( 42,श्लोक 35) में कहा गया है-
शूद्र ब्राह्मण से उत्तम कर्म करता है तो वह ब्राह्मण से भी श्रेष्ठ है।
ब्राम्हण क्षत्रिय विन्षा शुद्राणच परतपः।
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभाव प्रभवे गुणिः ॥
गीता॥१८-४१ ॥
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः ।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम् ॥
गीता॥४-१३॥
अर्तार्थ ब्राह्मण, क्षत्रिया , शुद्र वैश्य का विभाजन व्यक्ति के कर्म और गुणों के हिसाब से होता है, न की जन्म के...
गीता में भगवन श्री कृष्ण ने और अधिक स्पस्ट करते हुए लिखा है की की वर्णों की व्यवस्था जन्म के आधार पर नहीं कर्म के आधार पर होती है...
षत्रियात् जातमेवं तु विद्याद् वैश्यात् तथैव च॥ (मनुस्मृति)
आचारण बदलने से शूद्र ब्राह्मण हो सकता है और ब्राह्मण शूद्र ।।
यही बात क्षत्रिय तथा वैश्य पर भी लागू होती है ।।
निष्कर्ष मेरे द्वारा - जातिवाद वही फैलाता है जो नास्तिक है क्योकि आस्तिक व्यक्ति
श्रीमद भगवत गीता में भगवान् ‪#‎श्रीकृष्णा‬ के द्वारा बताये गये मार्ग को नकारेगा नही !
‪#‎HinduUnited‬
_/\_ ‪#‎जय_श्रीराम‬ _/\_

।।जय हिंदुत्व।। ।।जय श्रीराम।। ।।जय महाकाल।। ।।जय श्रीकृष्ण।।

राघवयादवीयम् - एक अद्भुत ग्रन्थ

अद्भुत......
कांचीपुरम के 17वीं शती के कवि वेंकटाध्वरि रचित ग्रन्थ ‘राघवयादवीयम्’ एक अद्भुत ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ को ‘अनुलोम-विलोम काव्य’ भी कहा जाता है। इसमें केवल 30 श्लोक हैं। इन श्लोकों को सीधे-सीधे पढ़ते जाएँ, तो रामकथा बनती है और विपरीत क्रम में पढ़ने पर कृष्णकथा। इस प्रकार हैं तो केवल 30 श्लोक, लेकिन कृष्णकथा के भी 30 श्लोक जोड़ लिए जाएँ तो बनते हैं 60 श्लोक। उदाहरण के लिए देखें :
अनुलोम :
वंदेऽहं देवं तं श्रीतं रन्तारं कालं भासा यः ।
रामो रामाधीराप्यागो लीलामारायोध्ये वासे ॥ 1 ॥
विलोम :
सेवाध्येयो रामालाली गोप्याराधी भारामोराः ।
यस्साभालंकारं तारं तं श्रीतं वन्देऽहं देवम् ॥ 1 ॥
अनुलोम :
साकेताख्या ज्यायामासीद्याविप्रादीप्तार्याधारा ।
पूराजीतादेवाद्याविश्वासाग्र्यासावाशारावा ॥ 2 ॥
विलोम :
वाराशावासाग्र्या साश्वाविद्यावादेताजीरापूः ।
राधार्यप्ता दीप्राविद्यासीमायाज्याख्याताकेसा ॥ 2 ॥
क्या ऐसा कुछ अंग्रेजी में रचा जा सकता है ??? ..... न जाने कैसे कैसे नमूनो ने इस देश पर राज किया जिनको संस्कृत एक मरती हुई भाषा नज़र आती थी |
_/\_ जय श्रीराम _/\_

।।जय हिंदुत्व।। ।।जय श्रीराम।। ।।जय महाकाल।।

रहस्यमय पाताल लोक का रहस्य जानिए...

इस भू-भाग को प्राचीनकाल में प्रमुख रूप से 3 भागों में बांटा गया था- इंद्रलोक, पृथ्वी लोक और पाताल लोक। इंद्रलोक हिमालय और उसके आसपास का क्षेत्र तथा आसमान तक, पृथ्वी लोक अर्थात जहां भी जल, जंगल और समतल भूमि रहने लायक है और पाताल लोक अर्थात रेगिस्तान और समुद्र के किनारे के अलावा समुद्र के अंदर के लोक। पाताल लोक भी 7 प्रकार के बताए गए हैं। जब हम यह कहते हैं कि भगवान विष्णु ने राजा बलि को पाताल लोक का राजा बना दिया था तो किस पाताल का? यह जानना भी जरूरी है। 7 पातालों में से एक पाताल का नाम पाताल ही है।
कौन रहता है पाताल में? :
हिन्दू धर्म में पाताल लोक की स्थिति पृथ्वी के नीचे बताई गई है। नीचे से अर्थ समुद्र में या समुद्र के किनारे। पाताल लोक में नाग, दैत्य, दानव और यक्ष रहते हैं। राजा बालि को भगवान विष्णु ने पाताल के सुतल लोक का राजा बनाया है और वह तब तक राज करेगा, जब तक कि कलियुग का अंत नहीं हो जाता। राज करने के लिए किसी स्थूल शरीर की जरूरत नहीं होती, सूक्ष्म शरीर से भी काम किया जा सकता है। पुराणों के अनुसार राजा बलि अभी भी जीवित हैं और साल में एक बार पृथ्वी पर आते हैं। प्रारंभिक काल में केरल के महाबलीपुरम में उनका निवास स्थान था।
पुराणों के अनुसार इस ब्रह्मांड में पृथ्वी, वायु, अंतरिक्ष, आदित्य (सूर्य), चंद्रमा, नक्षत्र और ब्रह्मलोक हैं। धरती शेष पर स्थित है। शेष अर्थात खाली स्थान। खाली स्थान में भी बचा हुआ स्थान ही तो होता है।
हिन्दू इतिहास ग्रंथ पुराणों में त्रैलोक्य का वर्णन मिलता है। ये 3 लोक हैं- 1. कृतक त्रैलोक्य, 2. महर्लोक, 3. अकृतक त्रैलोक्य। कृतक और अकृतक लोक के बीच महर्लोक स्थित है। कृतक त्रैलोक्य जब नष्ट हो जाता है, तब वह भस्म रूप में महर्लोक में स्थित हो जाता है। अकृतक त्रैलोक्य अर्थात ब्रह्म लोकादि, जो कभी नष्ट नहीं होते।
विस्तृत वर्गीकरण के मुताबिक तो 14 लोक हैं- 7 तो पृथ्वी से शुरू करते हुए ऊपर और 7 नीचे। ये हैं- भूर्लोक, भुवर्लोक, स्वर्लोक, महर्लोक, जनलोक, तपोलोक और ब्रह्मलोक। इसी तरह नीचे वाले लोक हैं- अतल, वितल, सतल, रसातल, तलातल , महातल और पाताल।
1. कृतक त्रैलोक्य-
कृतक त्रैलोक्य जिसे त्रिभुवन भी कहते हैं, पुराणों के अनुसार यह लोक नश्वर है। गीता के अनुसार यह परिवर्तनशील है। इसकी एक निश्‍चित आयु है। इस कृतक ‍त्रैलोक्य के 3 प्रकार है- भूलोक, भुवर्लोक, स्वर्लोक (स्वर्ग)।
A. भूलोक :
जितनी दूर तक सूर्य, चंद्रमा आदि का प्रकाश जाता है, वह पृथ्वी लोक कहलाता है। हमारी पृथ्वी सहित और भी कई पृथ्वियां हैं। इसे भूलोक भी कहते हैं।
B. भुवर्लोक :
पृथ्वी और सूर्य के बीच के स्थान को भुवर्लोक कहते हैं। इसमें सभी ग्रह-नक्षत्रों का मंडल है।
C. स्वर्लोक :
सूर्य और ध्रुव के बीच जो 14 लाख योजन का अंतर है, उसे स्वर्लोक या स्वर्गलोक कहते हैं। इसी के बीच में सप्तर्षि का मंडल है।
अब जानिए भूलोक की स्थिति : पुराणों के अनुसार भूलोक को कई भागों में विभक्त किया गया है। इसमें भी इंद्रलोक, पृथ्‍वी और पाताल की स्थिति का वर्णन किया गया है। हमारी इस धरती को भूलोक कहते हैं। पुराणों में संपूर्ण भूलोक को 7 द्वीपों में बांटा गया है- जम्बू, प्लक्ष, शाल्मली, कुश, क्रौंच, शाक एवं पुष्कर। जम्बूद्वीप सभी के बीचोबीच है। सभी द्वीपों में पाताल की स्थिति का वर्णन मिलता है।
हिन्दू धर्मग्रंथों में पाताल लोक से संबंधित असंख्य घटनाओं का वर्णन मिलता है। कहते हैं कि एक बार माता पार्वती के कान की बाली (मणि) यहां गिर गई थी और पानी में खो गई। खूब खोज-खबर की गई, लेकिन मणि नहीं मिली। बाद में पता चला कि वह मणि पाताल लोक में शेषनाग के पास पहुंच गई है। जब शेषनाग को इसकी जानकारी हुई तो उसने पाताल लोक से ही जोरदार फुफकार मारी और धरती के अंदर से गरम जल फूट पड़ा। गरम जल के साथ ही मणि भी निकल पड़ी।
पुराणों में पाताल लोक के बारे में सबसे लोकप्रिय प्रसंग भगवान विष्णु के अवतार वामन और राजा बलि का माना जाता है। बलि ही पाताल लोक के राजा माने जाते थे।
रामायण में भी अहिरावण द्वारा राम-लक्ष्मण का हरण कर पाताल लोक ले जाने पर श्री हनुमान के वहां जाकर अहिरावण का वध करने का प्रसंग आता है। इसके अलावा भी ब्रह्मांड के 3 लोकों में पाताल लोक का भी धार्मिक महत्व बताया गया है।
पाताल में जाने के रास्ते :
आपने धरती पर ऐसे कई स्थानों को देखा या उनके बारे में सुना होगा जिनके नाम के आगे पाताल लगा हुआ है, जैसे पातालकोट, पातालपानी, पातालद्वार, पाताल भैरवी, पाताल दुर्ग, देवलोक पाताल भुवनेश्वर आदि। नर्मदा नदी को भी पाताल नदी कहा जाता है। नदी के भीतर भी ऐसे कई स्थान होते हैं, जहां से पाताल लोक जाया जा सकता है। समुद्र में भी ऐसे कई रास्ते हैं, जहां से पाताल लोक पहुंचा जा सकता है। धरती के 75 प्रतिशत भाग पर तो जल ही है। पाताल लोक कोई कल्पना नहीं। पुराणों में इसका विस्तार से वर्णन मिलता है।
कहते हैं कि ऐसी कई गुफाएं हैं, जहां से पाताल लोक जाया जा सकता है। ऐसी गुफाओं का एक सिरा तो दिखता है लेकिन दूसरा कहां खत्म होता है, इसका किसी को पता नहीं। कहते हैं कि जोधपुर के पास भी ऐसी गुफाएं हैं जिनके बारे में कहा जाता है कि इनका दूसरा सिरा आज तक किसी ने नहीं खोजा। इसके अलावा पिथौरागढ़ में भी हैं पाताल भुवनेश्वर गुफाएं। यहां पर अंधेरी गुफा में देवी-देवताओं की सैकड़ों मूर्तियों के साथ ही एक ऐसा खंभा है, जो लगातार बढ़ रहा है। बंगाल की खाड़ी के आसपास नागलोक होने का जिक्र है। यहां नाग संप्रदाय भी रहता था।
समुद्र तटीय और रेगिस्तानी इलाके थे पाताल :
प्राचीनकाल में समुद्र के तटवर्ती इलाके और रेगिस्तानी क्षेत्र को पाताल कहा जाता था। इतिहासकार मानते हैं कि वैदिक काल में धरती के तटवर्ती इलाके और खाड़ी देश को पाताल में माना जाता था। राजा बलि को जिस पाताल लोक का राजा बनाया गया था उसे आजकल सऊदी अरब का क्षेत्र कहा जाता है। माना जाता है कि मक्का क्षे‍त्र का राजा बलि ही था और उसी ने शुक्राचार्य के साथ रहकर मक्का मंदिर बनाया था। हालांकि यह शोध का विषय है।
माना जाता है कि जब देवताओं ने दैत्यों का नाश कर अमृतपान किया था तब उन्होंने अमृत पीकर उसका अवशिष्ट भाग पाताल में ही रख दिया था अत: तभी से वहां जल का आहार करने वाली असुर अग्नि सदा उद्दीप्त रहती है। वह अग्नि अपने देवताओं से नियंत्रित रहती है और वह अग्नि अपने स्थान के आस-पास नहीं फैलती।
इसी कारण धरती के अंदर अग्नि है अर्थात अमृतमय सोम (जल) की हानि और वृद्धि निरंतर दिखाई पड़ती है। सूर्य की किरणों से मृतप्राय पाताल निवासी चन्द्रमा की अमृतमयी किरणों से पुन: जी उठते हैं।
पुराणों के अनुसार भू-लोक यानी पृथ्वी के नीचे 7 प्रकार के लोक हैं जिनमें पाताल लोक अंतिम है। पाताल लोक को नागलोक का मध्य भाग बताया गया है। पाताल लोकों की संख्या 7 बताई गई है।
विष्णु पुराण के अनुसार पूरे भू-मंडल का क्षेत्रफल 50 करोड़ योजन है। इसकी ऊंचाई 70 सहस्र योजन है। इसके नीचे ही 7 लोक हैं जिनमें क्रम अनुसार पाताल नगर अंतिम है। 7 पाताल लोकों के नाम इस प्रकार हैं- 1. अतल, 2. वितल, 3. सुतल, 4. रसातल, 5. तलातल, 6. महातल और 7. पाताल।
7 प्रकार के पाताल में जो अंतिम पाताल है वहां की भूमियां शुक्ल, कृष्ण, अरुण और पीत वर्ण की तथा शर्करामयी (कंकरीली), शैली (पथरीली) और सुवर्णमयी हैं। वहां दैत्य, दानव, यक्ष और बड़े-बड़े नागों और मत्स्य कन्याओं की जातियां वास करती हैं। वहां अरुणनयन हिमालय के समान एक ही पर्वत है। कुछ इसी प्रकार की भूमि रेगिस्तान की भी रहती है।
1. अतल :
अतल में मय दानव का पुत्र असुर बल रहता है। उसने छियानवे प्रकार की माया रची है।
2. वितल :
उसके वितल लोक में भगवान हाटकेश्वर नामक महादेवजी अपने पार्षद भूतगणों सहित रहते हैं। वे प्रजापति की सृष्टि वृद्धि के लिए भवानी के साथ विहार करते रहते हैं। उन दोनों के प्रभाव से वहां हाट की नाम की एक सुंदर नदी बहती है।
3. सुतल :
वितल के नीचे सुतल लोक है। उसमें महायशश्वी पवित्रकीर्ति विरोचन के पुत्र बलि रहते हैं। वामन रूप में भगवान ने जिनसे तीनों लोक छीन लिए थे।
4. तलातल :
सुतल लोक से नीचे तलातल है। वहां त्रिपुराधिपति दानवराज मय रहता है। मयदानव विषयों का परम गुरु है।
5.महातल :
उसके नीचे महातल में कश्यप की पत्नी कद्रू से उत्पन्न हुए अनेक सिरों वाले सर्पों का ‘क्रोधवश’ नामक एक समुदाय रहता है। उनमें कहुक, तक्षक, कालिया और सुषेण आदि प्रधान नाग हैं। उनके बड़े-बड़े फन हैं।
6. रसातल :
उनके नीचे रसातल में पणि नाम के दैत्य और दानव रहते हैं। ये निवातकवच, कालेय और हिरण्यपुरवासी भी कहलाते हैं। इनका देवताओं से सदा विरोध रहता है।
7. पाताल :
रसातल के नीचे पाताल है। वहां शंड्‍ड, कुलिक, महाशंड्ड, श्वेत, धनंजय, धृतराष्ट्र, शंखचूड़, कम्बल, अक्षतर और देवदत्त आदि बड़े क्रोधी और बड़े-बड़े फनों वाले नाग रहते हैं। इनमें वासुकि प्रधान है। उनमें किसी के 5, किसी के 7, किसी के 10, किसी के 100 और किसी के 1000 सिर हैं। उनके फनों की दमकती हुई मणियां अपने प्रकाश से पाताल लोक का सारा अंधकार नष्ट कर देती हैं।

।।जय हिंदुत्व।। ।।जय श्रीराम।। ।।जय महाकाल।।

मानस तप


नारायण ! जिसे मन से सम्पन्न किया जाये वह मानस तप है । शरीर से या वाणी से जो सम्पन्न किया जायेगा उसमें मन का उपयोग तो रहेगा ही क्योंकि बिना मन के सम्बन्ध के न ज्ञानेन्द्रियाँ की और न कर्मेन्द्रियों की प्रवृत्ति हो सकती है । ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ सभी मन के ही अधीन चलती है । जो भी शारीरिक और वाचिक क्रिया होगी उसमें मन तो कार्यकारी रहेगा ही । अतः मानस का मतलब है जो मनोमात्र से निर्वर्त्य है , जिसे मन से ही सम्पन्न किया जाता है । अन्य तपों में मन भी प्रयुक्त है , वाणी या शरीर भी प्रयुकत हैं। मानस तप में तो मन ही प्रधान है , अन्यों का इसमें प्रवेश है ही नहीं । अतः मानस का अर्थ है जो मनोमात्र से सम्पन्न होता है । इसमें सबसे पहले मनःप्रसाद है । मन की प्रसन्नता होनी चाहिये । श्रीमद्भगवद्गीताकार कहते हैं :
मनःप्रसादः सौम्यत्वं मौनमत्मविनिग्रहः ।
भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानस उच्यते ॥
" मनःप्रसादः " मन की प्रसन्नता होनी चाहिये । संस्कृत भाषा में प्रसन्नता का अर्थ होता है जहाँ सारे मल दूर हो जायें । जैसे जब बरसात का मौसम समाप्त हो जाता है तब तालाब बिल्कुल साफ हो जाते हैं । तब कहते हैं " सरः प्रसीदति " । इसी प्रकार मन की प्रसन्नता का मतलब है कि काम , क्रोध , लोभ , मोह , मद , मात्सर्य आदि जितने मन के दोष हैं वे सब बैठ जायें । इनके कारण ही मन हमेशा वृत्ति बनाता रहता है , कभी वृत्तिहीन नहीं हो पाता । काम , क्रोध आदि विकार उठते ही रहते हैं इसलिये मन के अन्दर स्थिरता नहीं होती । मन में इन सारी वृत्तियों का न उठना और ये सारे दोष मन में न होना मन की प्रसन्नता है । वृत्ति उठने का तो मतलब हुआ कि मन के अन्दर प्रकट भान है । वृत्ति न उठने पर भी मल मन में बने रहते हैं । जैसे क्रोध होता है तो कामना का भान नहीं रहता , क्रोध का ही भान रहता है । इसी प्रकार जब लोभ होता है तब काम - क्रोध आदि का भान नहीं रहता , परन्तु वे मल दूर नहीँ हुए हैं । अन्तःकरण में उनके संस्कार मोजूद हैं । किसी एक काल में एक जगता है , दूसरे काल में दूसरा उद्बुद्ध होता है। अतः सारे दोष मन में हैं , केवल उस समय उनकी वृत्ति नहीं बन रही है अर्थात् उस समय उनका भान नहीं हो रहा है । मन की प्रसन्नता का मतलब है कि ये मल हट जायें , मन इनमें से कोई भी वृत्ति न बनाते हुए भी जाग्रत् रह सके । ऐसा मन प्रसन्न है । मन का स्वरूप ही है कुछ - न - कुछ संकल्प करना , बिना संकल्प किये हुए मन की सत्ता ही नहीं रहेगी । संकल्प करता अंतःकरण ही मन है । जब काम , क्रोध आदि से संकल्प नहीं हो तब मन के द्वारा परमात्मा के विषय में संकल्प होगा । शास्त्रीय भाषा में , " अनात्मप्रत्यय " का अभाव हो तभी आत्मप्रत्यय मौजूद हो पायेगा । परमात्म - विषयक संकल्प होने से मन की मौजूदगी सिद्ध होती है । काम , क्रोधादि का संकल्प नहीं होने से मन में मल नहीं है यह पता चलता है । वह परमात्म - विषयक संकल्प भी क्षणिक नहीं होता , क्योंकि मल स्वरूप से ही दूर हो गये हैं इसलिये मन के विचलन का हेतु नहीं रह गया है । इस दशा में मन में बिलकुल स्वच्छता है और परमात्म - वृत्ति को छोड़कर अन्य वृत्ति नहीं होने से सर्वथा शान्ति है । हमारा स्वरूप आत्मा है इसलिये परमात्मा - सम्बन्धी वृत्ति में तो हमें शान्ति मिलती है । अनात्मा हमारा स्वरूप नहीं है इसलिये अनात्म की वृत्ति में अशान्ति है । अनात्मवृत्ति से कभी पूरी तरह शान्ति हो ही नहीं सकती । इस प्रकार , मन मौजूद है परन्तु परमात्मा के विषय में संकल्प करता है , अनात्मा के विषय में नहीं करता , यह " मनःप्रसाद " है । नारायण ! इतना समझ लेना चाहिये कि प्रारम्भ में जब मन को शान्त करने जा रहे हैं तब काम , क्रोधादि विकारों का मल कैसे दूर किया जाये , इसके दो साधन हैं ।
एक साधन विवेक है ।
आत्मा और अनात्मा का विवेक करके " अनात्मा से मेरा वास्तविक सम्बन्ध है नहीं " इसके बारे में बार - बार दृढ़ प्रत्यय - प्रवाह करना एक तरीका है । दूसरा है कि मन का सारा भाव परमात्मा में केन्द्रित कर देना । इसलिये रोज बोलते हैं - " त्वमेव माता च पिता त्वमेव । त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव । त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव । त्वमेव सर्वँ मम देव देवः । " परमात्मा ही विद्या है इसलिये केवल परमात्मा को जानने की इच्छा करनी है क्योंकि वही विद्यारूप है । वही वित्तरूप है । यह खतरनाक प्रार्थना है ! इसमें यह नहीं कहा कि आपसे धन मिलेगा बल्कि आप ही धन हो अर्थात् आप मिल गये तो धन मिल गया । धन - विषयक लोभ रह ही नहीं सकता क्योंकि जानने या पाने की इच्छा परमात्ममात्र की है । इसी प्रकार माता - पिता से मोह होता है। कह दिया कि आप ही माता - पिता हो अर्थात् आपको छोड़कर और कोई मोह का विषय भी नहीं है । इस प्रकार से जितने मन के विकार हैं उनको विवेक के द्वारा धीरे - धीरे छोड़कर परमात्मा पर केन्द्रित कर देने से मन प्रसन्न , स्वच्छ हो जाता है । यह मेरा अनुभव सिद्ध है । इसी का अभ्यास कराने के लिये पुराने जमाने में यह पद्धति थी कि तुमको जो पहनना हो वह पहले भगवान् को अर्पण करो , फिर उनका प्रसाद लेकर ग्रहण करो कि भगवान् का प्रसाद है इसलिये हम पहन रहे हैं । इसी प्रकार जो खाना है वह पहले भगवान् को चढ़ाओ । बताया है कि अमावस्या के दिन , जितना भी महीने भर मेँ कमाया है वह सब भगवती को चढ़ा दो , फिर उसमें से तृतीय अंश अपने लिये ले लो । भगवती को देने के बाद , वह हमें प्रतिग्रह देती है - इस रूप से ग्रहण करो । इससे हैमवती उमा भगवगती प्रसन्न होती है । इस प्रकार से सब चीजों को परमात्म - संबन्धी कर सको इसलिये यह शिक्षा दी जाती है । हर हालत में , अनात्म - सम्बन्धी सब वृत्तियों को छोड़ना है , आत्म - सम्बन्धी वृत्ति बनानी है । जितना - जितना अनात्म पदार्थोँ को विवेक करके अपने से भिन्न करेंगे उतनी ही मन के अन्दर स्वच्छता आयेगी और जितनी भावनायें परमात्मा से अतिरिक्त दूसरी तरफ नहीं जायेगी उतनी ही शान्ति आयेगी । यह मनःप्रसाद है ।
नारायण ! भगवान् कहते हैं " सौम्यत्व " । मन की प्रसन्नता ऐसी चीज़ है जो मनुष्य के चेहरे और शरीर पर भी प्रकट हो जाती है । उपनिषद् के ऋषियों ने गाया है कि कुछ भी हो जाये , तत्वज्ञ के चेहरे पर मलिनता नहीं आती । उसका कारण यह है कि अंतःकरण की अनात्माकार वृत्ति से ही मलिनता आती है । यदि अंतःकरण की वृत्ति होगी कि " मैंने ग़लत काम किया है " तो मुख के ऊपर उसका प्रभाव आ जायेगा । जब वृत्ति यह बनती है कि " बहुत अच्छा हुआ " , तो मुख के ऊपर भी एक शान्ति और प्रसन्नता आ जाती है । गुरु जब अपने शिष्य को उपदेश देते है तो कहते हैं - " हे सोम्य ! " इस का तात्पर्य है कि इस उपदेश को तभी दिया जा सकता है जब उसके अन्तःकर में इतनी शान्ति आ गई है कि उसके अर्थात् शिष्य के मुख के ऊपर झलकती है । कोई अत्यन्त कष्ट में पड़ा हुआ दुःख के अन्दर पीडित है , उसे अगर आप तत्त्व का उपदेश देंगे तो कभी ग्रहण ही नहीं होगा । अतः तत्त्व का उपदेश तभी करना चाहिये कि जब श्रोता की प्रसन्नता चेहरे पर आ जाये । इसीको स्पष्ट करने के लिये हर जगह गुरु शिष्य को सोम्य कहते हैं । इसलिये भगवान् श्रीवासुदेव कृष्ण ने मनःप्रसाद के बाद ही सौम्यता को कहा है ।
नारायण ! भगवान् श्रीवासुदेव कृष्ण ने भिन्न - भिन्न तपों को गाते हुए जब मानस तप के वारे में गाते हैं तो गाते गाते कहते हैं : " मौन " अर्थात् शब्द का प्रयोग न करना अथवा वाणी का संयम । वाणी का संयम भी मनःसंयम पूर्वक होता है इसलिये मनःसंयम को मौन शब्द से कह दिया जाता है । मौन का सीधा अर्थ हुआ वाणी का नियन्त्रण करना । फिर इसे भगवान् ने कैसे गिन दिया , क्योंकि उसको तो वाचिक में गिनना चाहिये था ? वाणी का संयम मनःसंयम पूर्वक होता है । कई जगह कार्य के नाम से कारण को कह दिया जाता है , नाम तो कार्य का लिया जाता है लेकिन उससे कारण का ग्रहण हो जाता है । इसी प्रकार यहाँ मौन शब्द से मन के संयम को लेना है । शब्दार्थ तो वही रहेगा परन्तु वाक् - संयम का कारण मन का संयम है । इसलिये वाक् - संयम से मन के संयम को समझ लेना है । किसी - किसी आचार्य ने यह भी कहा है कि मुनि के भाव को मौन कहते है । बृहदारण्यक उपनिषद् में भगवान् भाष्यकार ने मौन का यही अर्थ किया है । मनन करने वाले का भाव मौन है । उसको भी यहाँ समझा जा सकता है। परन्तु मुनि के भाव का सूक्ष्म अर्थ है कि श्रवण के बाद मनन करना और यहाँ तप का प्रसंग है। इसलिये भगवान् भाष्यकार आचार्य शङ्कर ने श्रवण के बाद ज्ञान होकर उसी की पुष्टि के लिये जो प्रयत्न है, केवल उस का ग्रहण यहाँ नहीं किया है । मन का संयम मात्र तो राक्षसों में भी देखा जाता है । वे लोग भी मन का बड़ा संयम करते हैं । रामायण में आता है कि मेघनाद किसी अनुष्ठान के लिये बैठा कि वह अनुष्ठान सफल हो जाये तो राम जी को मार सके ।
विभीषणजी को इसका पता लग गया । उन्होंने श्रीअंगद जी से कहा " यह अनुष्ठान सफल नहीं होना चाहिये क्योंकि उसका अनुष्ठान सफल हो गया तो राम जी की जीत नहीं होनी है । " कहाँ पर बैठकर अनुष्ठान कर रहा है यह विभीषण जी ने अंगद जी को बता दिया। अंगद जी ने विभीषण जी की प्रेरणा से सारे वानरों से कहा " किसी भी तरह वहाँ जाकर उस अनुष्ठान में विक्षेप पैदा करो । " बन्दरों ने वहाँ जाकर मेघनाद के अनुष्ठान में विक्षेप करना शुरू किया , कोई उसके बालों को खींचता था , कोई और किसी प्रकार से अनुष्ठान में विघ्न डालता था । लेकिन मेघनाद का संयम इतना तीव्र था कि उसमें बिलकुल विकार नहीं आया ! अंत में उसकी पत्नी को ले आये और उसके सामने ही उसे तरह - तरह से परेशान करने लगे । पत्नी की वह स्थिति देखकर मेघनाद सहन नहीं कर सका , उसे गुस्सा आ गया , जो अनुष्ठान कर रहा था वह पूरा नहीं हुआ , उससे पूर्व ही वह बन्दरों को भगाने लग गया । मेघनाद भी समझ गया कि राम जी को नहीं मार पायेगा । इसलिये इतना संयम तो राक्षस भी कर लेते हैं , परन्तु उन्हें परमात्म - विषयक कोई ज्ञान नहीं होता । मनन तो उसके बाद की बात रही । चूँकि रजोगुणी - तमोगुणी मनःसंयम को भी यहाँ लेना है इसलिये भगवान् भाष्यकार ने यहाँ मौन का वह अर्थ नहीं किया है जो बृहदारण्यक उपनिषद् में स्वयं भाष्यकार ने किया है । मन की प्रसन्नता अथवा सौम्यता मन का संयम है ।
नारायण ! भगवान् श्रीवासुदेव कृष्ण कहते हैं " आत्मविनिग्रह " - मन का निरोध करना । चित्तवृत्ति निरोध को ही योग कहा गया है । मौन शब्द के प्रयोग से वाक् - संयम करने वाला भी जो मन का संयम है वही कहा गया है । अन्य सारी वृत्तियों का भी निरोध आत्मविनिग्रह से कहा है । सामान्य रूप से मन का संयम आत्मविनिग्रह से कथिक है । यहाँ आत्मविनिग्रह भगवान् ने कहा है । मन को कौन रोकेगा ? मन को रोकने वाला अहं ही है । है अहं भी अन्तःकरण की वृत्ति और मन भी अन्तःकरण की वृत्ति है , परन्तु मन का निरोध अहं करेगा और चूँकि अहं में ही आत्मा सीधे प्रतिबिम्बित होता है , अहं का पता लगाने पर आत्मा का पता लगता है , इसलिये आत्मा अर्थात् अहं में प्रतिबिम्बित हुआ जो जीव है वही मन का विनिग्रह करेगा । चित्तवृत्ति को रोकना योग है , लेकिन भगवान् श्रीवासुदेव कृष्ण ने केवल निरोध अर्थात् निग्रह का प्रयोग न करके " विनिग्रह " कहा है । एक तो मन का निरोध प्राणायाम आदि से भी हो जाता है क्योंकि प्राण और मन समनियत है । मन में वृत्ति बनेगी तो प्राण भी जरूर वृत्ति बनायेगा और प्राण वृत्ति बनायेगा तो मन भी वृत्ति बनायेगा । इसलिये इसे समझाने के लिये भगवान् श्री आचार्य सुरेश्वर ने कहा कि जैसे काँच के अगले भाग में मुख दीखता है , उसके पिछले भाग में मुख नहीं दीखता परन्तु दोनों मिलकर काँच है । यदि पिछले वाले हिस्से को काट कर निकाल दो तो अगले भाग में भी मुख नहीं दीखेगा । इसी प्रकार चेतन मन की वृत्ति में दीखता है , प्राण की वृत्ति में दीखता नहीं , प्राण में चेतनता की अर्थात् ज्ञान की प्रतीति नहीं होती । परन्तु प्राण और मन चीज एक ही है । मन अगला हिस्सा है और प्राण पिछला हिस्सा है । पिछले हिस्से प्राण को हिलाओगे तो मन हिलेगा और अगले हिस्से मन को हिलाओगे तो प्राण हिलेगा । इसलिये प्राण सम - नियत है । अतः यदि तुम प्राण का निरोध कर लेते हो , प्राण को नहीं हिलते देते हो तो मन का निग्रह हो जाता है । उससे भी समाधि का अभ्यास हो जाता है । परन्तु वह यहाँ " मानस तप " में नहीं आयेगा क्योंकि वहाँ प्राण के द्वारा मन को दबाया है । जैसे ही प्राण निरोध को हटाया जायेगा , वैसे ही मन फिर अपने ढंग से काम करने लगेगा । इसलिये निग्रह न कहकर भगवान् ने " विनिग्रह " कहा । प्राणायाम आदि की सहायता से नहीं वरन् विचार - पूर्वक जो निग्रह किया जाता है , वही मानस तप कहा जायेगा । अहंकार आत्मविनिग्रह करेगा । बुद्धि के द्वारा विचार और विवेक करेगा और उसके द्वारा मन का निग्रह या निरोध करेगा । यह तप तो अपने आप में एकान्त में भी करना है ।
नारायण ! जब दूसरे से व्यवहार करना है तो भावसंशुद्धि चाहिये । दूसरे से व्यवहार करने में किसी भी प्रकार की कुटिलता का अभाव होना भावसंशुद्धि है । क्योंकि मन प्रायः यह करता है कि व्यवहार काल में सारी स्थिति प्रकट नहीं करता । शिष्टता आदि के चलते भी कई बार मन में खीज होने पर भी व्यवहार प्रसन्नता का ही करते हैं । इस प्रकार का व्यवहार मानस तप नहीं है । भावसंशुद्धि में तो जैसा मन का भाव है वैसा ही बाहर में प्रकट करना है । यह मानस तपस्या है क्योंकि जैसे ही भीतरी भाव प्रकट करने जाते हो , अन्दर में खलबलाहट मचती है कि " यह जिलाधीश है , ऐसा कहेंगे तो यह परेशान करेगा"। " परेशान करेगा तो मैं सहन करूँगा " यह तप है । वाणी से सत्य बोलना वाक्तप में आ जायेगा। असत्य में प्रेरक मन की अशुद्धि को दूर करना भावसंशुद्धि मानस तप है। दूसरे के साथ व्यवहारकाल में भाव को छिपाने की वृत्ति का न होने देना भावसंशुद्धि है । भगवान् कहते हैं " इति एतत् " इतना जो बताया है वह मानस तप है । इति शम् ।
नारायण स्मृतिः

।।जय हिंदुत्व।। ।।जय श्रीराम।। ।।जय महाकाल।।

परमात्मा की प्राप्ति होने का क्या अर्थ है?

सामवेद के छान्दोग्य उपनिषद् पर विचार करते हुए भगवान् शंकराचार्य हमें बतातें हैं कि परमात्मा की प्राप्ति का तात्पर्य है जीवन में ३ बातें घटित हो जाना –
१. विदेह भाव की प्राप्ति - अर्थात् अपने शरीर से भी ऊपर उठ जाना, यानी अपने शरीर तक में अहंता (मैंपन) और ममता (मेरापन) समाप्त हो जाना। नित्यपरिवर्तनशील पाञ्चभौतिक शरीर कुछ काल के लिये हमें मिलता है, जिसका उद्देश्य है अपने शुभ-अशुभ कर्मों के अनुसार सुख-दुःख का भोग। इसमें हम या तो ममता (मेरापन) कर लेते हैं – “आज मेरा बदन दुःख रहा है, आज मेरा शरीर भारी-भारी सा हो रहा है” आदि आदि, या फिर इसमें अहंता (मैंपना) कर लेते हैं – “मैं मोटा हो गया हूं, मैं बहुत सुन्दर हूं” आदि आदि। अखिल ब्रह्माण्ड व्यापक चैतन्य तत्त्व का साक्षात्कार हो जाने पर इस शरीर के साथ दिख रहा यह तुच्छ तादात्म्य समाप्त हो जाता है, यही परमात्मप्राप्ति का प्रथम लक्षण है। जिसकी शरीर में ही अहंता-ममता समाप्त हो गयी हो, उसकी अन्यत्र अहंता-ममता रह जाय, ये तो असंभव ही है।
२. परम ज्योति की प्राप्ति – प्रत्येक प्राणी के हृदय में ज्ञानस्वरूप चैतन्यतत्त्व विराजमान है, जो हमारे लिये विषय-जगत् को वैसे ही प्रकाशित कर रहा है, जैसे अंधेरे कमरे में रखा हुआ दीपक उस कमरे में रखी वस्तुओं को प्रकाशित करता है। यही प्राणिमात्र के हृदय में विद्यमान परम ज्योति है। सामान्यतः जीवन में हम इस परम ज्योति से प्रकाशित हो रही वस्तुओं की चेतना तो रखते हैं, लेकिन उन वस्तुओं को प्रकाशित करने वाली इस ज्योति की चेतना से वंचित रह जाते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो इस अन्तःप्रकाश से प्रकाशित हो रही वस्तुओं का भान तो हमें सदैव होता रहता है, पर उन्हें प्रकाशित करने वाले इस अन्तःप्रकाश का भान नहीं हो पाता। इस समस्त दृश्यमान जगत् के साक्षीभूत अन्तःप्रकाश की अनुभूति होने लगे, यही परमात्मप्राप्ति का द्वितीय लक्षण है।
३. अपने वास्तविक स्वरूप की प्राप्ति – जब मनुष्य जन्म लेता है, तो अधिकतर उपाधियों से रहित ही जन्म लेता है। पर जैसे-जैसे बड़ा होने लगता है, वैसे-वैसे उपाधियां जुड़ती चली जाती हैं – लड़का, छात्र, स्नातक, डाक्टर-वकील, हिन्दू-मुसलमान इत्यादि। जैसे-जैसे ये उपाधियां जुड़ती चली जाती हैं, व्यक्ति का इनसे गहरा तादात्म्य होने लग जाता है। वह इन्हें ही अपना वास्तविक स्वरूप मानने लगता है। परन्तु जो हमारा वास्तविक स्वरूप है - हृदयस्थ शुद्ध चैतन्य प्रकाश, वह तो इन सभी उपाधियों से अतीत है, अछूता है। जिसको उस वास्तविक स्वरूप की अनुभूति होने लगती है, वह इन उपाधियों से ऊपर उठने लगता है, फिर ये उपाधियां उसके लिये अपने अर्थ को खो देती हैं। उपाधियां सदैव बांटती हैं, विभाजित करती हैं, उसके लिये यह विभाजन समाप्त हो जाता है। वह सभी के साथ एक हो जाता है। पूरा विश्व ही उसका अपना स्वरूप हो जाता है। इसी को आचार्यों की भाषा में “स्वस्थ” अर्थात् स्व = अपने में, स्थ = स्थित कहते हैं।
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उपरिलिखित विचार के शास्त्रीय आधार – “किं तस्य परमात्माधिगमेन - “ (आनन्दगिरि टीका छान्दोग्योपनिषद् ८.७.१) अर्थात् परमात्मा की प्राप्ति होने पर क्या होता है? - “सोऽस्माच्छरीरात्समुत्थाय परं ज्योतिरुपसंपद्य स्वेन रूपेणाभिनिष्पद्यते” (शांकर भाष्य छान्दोग्योपनिषद् ८.७.१) अर्थात् वह ज्ञानी महापुरुष अपने शरीर से ऊपर उठ कर, परम ज्योति को प्राप्त करके अपने स्वरूप को प्राप्त कर लेता है। “शरीरात्समुत्थानं तस्मिन्नहंममाभिमानत्यागः” (आनन्दगिरि टीका छान्दोग्योपनिषद् ८.७.१) अर्थात् शरीर से ऊपर उठना = शरीर में अहंता और ममता के अभिमान का परित्याग। “ज्योतिरुपसंपद्य स्वास्थमुपगम्य” (शांकर भाष्य छान्दोग्योपनिषद् ८.३.४) अर्थात् परम ज्योति को प्राप्त कर लेने का भाव है स्वस्थता प्राप्त कर लेना, स्वस्थ हो जाना॥

।।जय हिंदुत्व।। ।।जय श्रीराम।। ।।जय महाकाल।।

असाध्य रोगों से स्वस्थ लाभ हेतु देवी प्रत्यंगिरा की आराधना


असाध्य रोगों से स्वस्थ लाभ हेतु यह रहस्यपूर्ण दुर्लभ लेख देवी प्रत्यंगिरा से सबंधित है. यह प्रयोग श्रद्धा और विश्वास के साथ किया जाए तो असाध्य रोगों के कष्ट से निश्चित रूप से मुक्ति मिलती है.

यह प्रयोग रविवार रात्री काल में ११ बजे के बाद शुरू किया जा सकता है.

साधक के वस्त्र और आसान लाल रंग के हो. साधक को उत्तर दिशा की तरफ मुख कर बैठना चाहिए.

साधक अपने सामने देवी प्रत्यंगिरा का चित्र या यन्त्र स्थापित करता है तो उत्तम है लेकिन यह संभव ना हो तो भी साधक मंत्र का जाप कर सकता है. साधक सर्व
प्रथम हाथ में जल ले कर संकल्प करे की मेरे सभी रोग शोक दूर हो इसलिए में यह प्रयोग सम्प्पन कर रहा हू. देवी मुझे आशीष और सहायता प्रदान करे. अगर साधक किसी और व्यक्ति के लिए मंत्र जाप कर रहे हो तो संकल्प में उस व्यक्ति का नाम उच्चारित करे. इसके बाद साधक मानसिक रूप से पूजन सम्प्पन करे तथा मूंगा माला से निम्न मंत्र की २१ माला जाप करे.

ॐ सिंहमुखी सर्व रोग स्तंभय नाशय प्रत्यंगिरा सिद्धिं देहि नमः

मंत्र जाप के बाद साधक देवी को नमस्कार करे और कल्याण करने की प्रार्थना कर सो जाए. साधक को यह क्रम ५१ दिनों तक करना चाहिए. साधना समाप्ति पर साधक यन्त्र चित्र आदि को पूजा स्थान में स्थापित कर दे और माला को किसी को देवी मंदिर में दक्षिणा के साथ अर्पित कर दे तो रोग शांत होते है तथा पीड़ा से मुक्ति मिलती है. अगर साधक कोई चिकित्सा ले रहा हो या औषधि ले रहा हो तो यह प्रयोग करते वक्त उसे बंद करने की ज़रूरत नहीं है. साधक अपनी चिकित्सा के साथ ही साथ यह प्रयोग को कर सकता है इसमें किसी भी प्रकार का कोई दोष नहीं है.

।।जय हिंदुत्व।। ।।जय श्रीराम।। ।।जय महाकाल।।

Saturday, June 27, 2015

सुंदरकांड का प्रसंग

समुद्र लांघने उड़े हनुमान, ने परखा बल-ज्ञानः आज रामकथा में सुंदरकांड से देवों की दूत सुरसा द्वारा हनुमान की परीक्षा का प्रसंग
अंगद के नेतृत्व में सीताजी को खोजने निकली वानरों की टोली को जटायु के भाई गिद्धराज संँपाति ने बताया कि रावण देवी को सुमद्र पार स्थित लंका ले गया है.
संपाति ने लंका की दिशा और रावण के महल की जानकारी दी. लेकिन 100 योजन लंबे समुद्र को लांघा कैसे जाए! अंगद ने सभी से उनकी छलांग लगाने की क्षमता पूछी.
कोई 30 योजन तक तो कोई 50 योजन तक छलांग लगाने में समर्थ था. रीक्षराज जामवंत ने बताया कि वह 90 योजन तक की छलांग लगा सकते हैं.
अंगद ने कहा- मैं 100 योजन तक छलांग लगाकर समुद्र पार तो कर लूंगा, लेकिन लौट पाऊंगा कि नहीं, इसमें संशय है. बिना लौटे तो बात बनने वाली नहीं थी.
तब जामवंत ने हनुमानजी को उनके पराक्रम का स्मरण कराया. जामवंत बोले- हनुमानजी आपने बचपन में छलांग लगाकर आकाश में स्थित सूर्य को पकड़ लिया था, फिर 100 योजन का समुद्र क्या है?
जामवंत द्वारा अपनी शक्तियों का स्मरण कराए जाने के बाद हनुमानजी समुद्र लांघने के लिए उड़े.
उन्हें पवन वेग से लंका की ओर बढ़ता देख देवताओं ने सोचा कि यह रावण जैसे बलशाली की नगरी में जा रहे हैं. इसलिए इनके बल-बुद्धि की विशेष परीक्षा करनी आवश्यक है.
देवगण समुद्र में निवास करने वाली नागों की माता सुरसा के पास गए उनसे बजरंग बली के बल-बुद्धि की परीक्षा लेने का निवेदन किया.
सुरसा राक्षसी का रूप धारण कर हनुमानजी के सामने जा खड़ी हुई और बोली- सागर के इस भाग से जो भी जीव गुजरे मैं उसे खा सकती हूं. ऐसी व्यवस्था देवताओं ने मेरे लिए की है.
आज देवताओं ने मेरे आहार के रूप में तुम्हें भेजा है. मैं तुम्हें खा जाउंगी. ऐसा कहकर सुरसा ने हनुमानजी को दबोचना चाहा.
हनुमानजी ने कहा-माता! इस समय मैं श्रीराम के कार्य से जा रहा हूँ. कार्य पूरा करके मुझे लौट आने दो. उसके बाद मैं स्वयं ही आकर तुम्हारे मुँह में समा जाऊंगा.
हनुमानजी ने सुरसा से बहुत विनती की लेकिन वह मानने को तैयार न थी. हनुमान ने अपना आकार कई सौ गुना बढ़ाकर सुरसा से कहा- लो मुझे अपना आहार बनाओ.
सुरसा ने भी अपना मुंह खोला तो वह हनुमानजी के आकार से बड़ा हो गया. हनुमानजी जितना आकार बढ़ाते, सुरसा उससे बड़ा मुंह कर लेती.
हनुमानजी समझ गए कि ऐसे तो बात नहीं बनने वाली. उन्होंने अचानक अपना आकार बहुत छोटा किया और सुरसा के मुँह में प्रवेश करके तुरंत बाहर आ गए.
सुरसा बजरंगबली की इस चतुराई से प्रसन्न हो गई. वह अपने वास्तविक रूप में प्रकट हुईं और हनुमानजी को आशीर्वाद देकर उनकी सफलता की कामना की.
समुद्र ने रामभक्त को बिना विश्राम लगातार उड़ते देखा तो उसने अपने भीतर रहने वाले मैनाक पर्वत से कहा कि थोड़ी देर के लिए ऊपर उठ जाए ताकि उसकी चोटी पर बैठकर हनुमानजी थकान दूर कर लें.
समुद्र के आदेश से प्रसन्न मैनाक रामभक्त की सेवा का पुण्य कमाने के लिए हनुमानजी के पास गया अपनी सुंदर चोटी पर विश्राम का निवेदन किया.
हनुमानजी मैनाक से बोले-श्रीराम का कार्य पूरा किए बिना विश्राम करने का कोई प्रश्र ही नहीं उठता. उन्होंने मैनाक को हाथ से छूकर प्रणाम किया और आगे चल दिए.
लंका पहुंचते ही हनुमानजी का सामना लंका की रक्षक लंकिनी से हुआ. सुंदरकांड के ये सब प्रसंग भक्ति रस से सराबोर हैं.
सुंदरकांड में हनुमानजी की अपरिमित शक्तियों का वर्णण है और वे प्रभु के संकटमोचक बनते हैं.

।।जय हिंदुत्व।। ।।जय श्रीराम।। ।।जय महाकाल।।

जन्म के छः प्रकार

रज प्रधान मैथुनिक समाज में अब मात्र रज और वीर्य के मिलन से ही संतान उत्पत्ति की व्यवस्था जीवित है पर हमारे प्राचीन जीवन शैली में पांच अन्य प्रकार से भी संतान उत्पत्ति का विधान प्रचलित था किन्तु ज्ञान के आभाव में धीरे- धीरे यह विलुप्त हो गया किन्तु इसका वर्णन शास्त्रों में अभी भी मिलता है इस प्रकार जन्म के संबंध मे भारतीय शास्त्रों में छः प्रकार के जन्म पद्धति वर्णित हैं-
1. माता पिता के मैथुन व्यवहार से जो रज-वीर्य का मिलन होता है इसे लौकिक जन्म कहा जाता है अथवा ऐसा भी कहा जा सकता है कि मन की वासना के अनुसार जो जन्म मिलता है, यह जनसाधारण का जन्म है।
2. दूसरे प्रकार का जन्म संतकृपा से होता है। जैसे, किसी संत ने आशीर्वाद दे दिया, फल दे दिया और उससे गर्भ रह गया। तप करे, जप करे, दान करे अथवा किसी साधु पुरूष के हाथ का वरदान मिल जाये, उस वरदान के फल से जो बच्चा पैदा हो, वह जनसाधारण के जन्म से कुछ श्रेष्ठ माना जाता है। उदाहरणार्थः भागवत में आता है कि धुन्धुकारी का पिता एक संन्यासी के चरणों में गिरकर संतान प्राप्ति हेतु संन्यासी से फल लाया। वह फल उसने अपनी पत्नी को दिया तो पत्नी ने प्रसूति पीड़ा से आशंकित होकर अपनी बहन से कह दिया कि, "तेरे उदर में जो बालक है वह मुझे दे देना। यह फल मैं गाय को खिला देती हूँ और पति को तेरा बच्चा दिखला दूँगी।" ऐसा कहकर उसने वह फल गाय को खिला दिया। उसकी बहन के गर्भ से धुन्धुकारी पैदा हुआ तथा संन्यासी द्वारा प्रदत्त फल गाय ने खाया तो गाय के उदर से गौकर्ण पैदा हुआ जो भागवत की कथा के एक मुख्य पात्र हैं।
3. कोई तपस्वी क्रोध में आकर शाप दे दे और गर्भ ठहर जाय यह तीसरे प्रकार का जन्म है।
एक ऋषि तप करते थे। उनके आश्रम के पास कुछ लड़कियाँ गौरव इमली खाने के लिए जाती थीं। लड़कियाँ स्वभाव से ही चंचल होती हैं, अतः उनकी चंचलता के कारण ऋषि की समाधि में विघ्न होता था। एक दिन उन ऋषि ने क्रोध में आकर कहाः "खबरदार ! इधर मेरे आश्रम के इलाके में अब यदि कोई लड़की आई तो वह गर्भवती हो जायेगी।" ऋषि का वचन तो पत्थर की लकीर होता है। वे यदि ऊपर से ही डाँट लें तो अलग बात है लेकिन भीतर से यदि क्रोध में आकर कुछ कह दें तो चंद्रमा की गति रूक सकती है लेकिन उन ऋषि का वचन नहीं रूक सकता। सच्चे संत का वचन कभी मिथ्या नहीं होता। दूसरे दिन भी रोज की भाँति लड़कियाँ आश्रम के नजदीक गई। उनमें से एक लड़की चुपचाप अन्दर चली गयी और ऋषि की नजर उस पर पड़ी। वह लड़की गर्भवती हो गई क्योंकि उस ऋषि का यही शाप था।
4. दृष्टि से भी जन्म होता है। यह चौथे प्रकार का जन्म है। जैसे वेदव्यासजी ने दृष्टि डाली और रानियाँ व दासी गर्भवती हो गई। जिस रानी ने आँखें बन्द की उससे धृतराष्ट्र पैदा हुए। जो शर्म से पीली हो गई। उसने पांडु को जन्म दिया। एक रानी ने संकोचवश दासी को भेजा। वह दासी संयमी, गुणवान व श्रद्धा-भक्ति से संपन्न थी तो उसकी कोख से विदुर जैसे महापुरूष उत्पन्न हुए।
5. पाँचवें प्रकार का जन्म है कारक पुरूष का जन्म। जब समाज को नई दिशा देने के लिए अलौकिक रीति से कोई जन्म होता है हम कारक पुरूष कहते हैं। जैसे कबीर जी। कबीर जी किसके गर्भ से पैदा हुआ यह पता नहीं। नामदेव का जन्म भी इसी तरह का था।
नामदेव की माँ शादी करते ही विधवा हो गई। पतिसुख उसे मिला ही नहीं। वह मायके आ गई। उसके पिता ने कहाः "तेरा संसारी पति तो अब इस दुनिया में है नहीं। अब तेरा पति तो वह परमात्मा ही है। तुझे जो चाहिए, वह तू उसी से माँगा कर, उसी का ध्यान-चिंतन किया कर। तेरे माता-पिता, सखा, स्वामी आदि सब कुछ वही हैं।"
उस महिला को एक रात्रि में पतिविहार की इच्छा हो गई और उसने भगवान से प्रार्थना की कि 'हे भगवान ! तुम्हीं मेरे पति हो और आज मैं पति का सुख लेना चाहती हूँ।' ऐसी प्रार्थना करते-करते वह हँसती रोती प्रगाढ़ नींद में चली गई। तब उसे एहसास हुआ कि मैं किसी दिव्य पुरूष के साथ रमण कर रही हूँ। उसके बाद समय पाकर उसने जिस बालक को जन्म दिया, वही आगे चलकर संत नामदेव हुए।
6. जन्म की अंतिम विधि है अवतार। श्रीकृष्ण का जन्म नहीं, अवतार है। अवतार व जन्म में काफी अन्तर होता है। अवतरति इति अवतारः। अर्थात् जो अवतरण करे, ऊपर से नीचे जो आवे उसका नाम अवतार है।
सच पूछो तो तुम्हारा भी कभी अवतार था किन्तु अब नहीं रहा। तुम तो विशुद्ध सच्चिदानंद परमात्मा थे सदियों पहले, और अवतरण भी कर चुके थे लेकिन इस मोहमाया में इतने रम गये कि खुद को जीव मान लिया, देह मान लिया। तुम्हें अपनी खबर नहीं इसलिए तुम अवतार होते हुए भी अवतार नहीं हो।
श्रीकृष्ण तुम जैसे अवतार नहीं हैं, उन्हें तो अपने शुद्ध स्वरूप की पूरी खबर है और श्रीकृष्ण अवतरण कर रहे हैं।
श्रीकृष्ण का अवतार जब होता है तब पूरी गड़बड़ में होता है, पूरी मान्यताओं को छिन्न भिन्न करने के लिये होता है। जब श्रीकृष्ण का अवतरण हुआ तब समाज में भौतिकवाद फैला हुआ था। चारों ओर लग जड़ शरीर को ही पालने-पोसने में लगे थे। धनवानों और सत्तावानों का बोलबाला था। ऐसी स्थिती में श्रीकृष्ण ने आकर धर्म का मार्ग दिखलाया

।।जय हिंदुत्व।। ।।जय श्रीराम।। ।।जय महाकाल।।

अतीत का भारत


ईरान से इंडोनेशिया तक सारा हिन्दुस्थान
ईरान – ईरान में आर्य संस्कृति का उद्भव 2000 ई. पू. उस वक्त हुआ जब ब्लूचिस्तान के मार्ग से आर्य ईरान पहुंचे और अपनी सभ्यता व संस्कृति का प्रचार वहां किया। उन्हीं के नाम पर इस देश का नाम आर्याना पड़ा। 644 ई. में अरबों ने ईरान पर आक्रमण कर उसे जीत लिया।
कम्बोडिया – प्रथम शताब्दी में कौंडिन्य नामक एक ब्राह्मण ने हिन्दचीन में हिन्दू राज्य की स्थापना की।
वियतनाम – वियतनाम का पुराना नाम चम्पा था। दूसरी शताब्दी में स्थापित चम्पा भारतीय संस्कृति का प्रमुख केंद्र था। यहां के चम लोगों ने भारतीय धर्म, भाषा, सभ्यता ग्रहण की थी। 1825 में चम्पा के महान हिन्दू राज्य का अन्त हुआ।
मलेशिया – प्रथम शताब्दी में साहसी भारतीयों ने मलेशिया पहुंचकर वहां के निवासियों को भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति से परिचित करवाया। कालान्तर में मलेशिया में शैव, वैष्णव तथा बौद्ध धर्म का प्रचलन हो गया। 1948 में अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त हो यह सम्प्रभुता सम्पन्न राज्य बना।
इण्डोनेशिया – इण्डोनिशिया किसी समय में भारत का एक सम्पन्न राज्य था। आज इण्डोनेशिया में बाली द्वीप को छोड़कर शेष सभी द्वीपों पर मुसलमान बहुसंख्यक हैं। फिर भी हिन्दू देवी-देवताओं से यहां का जनमानस आज भी परंपराओं के माधयम से जुड़ा है।
फिलीपींस – फिलीपींस में किसी समय भारतीय संस्कृति का पूर्ण प्रभाव था पर 15वीं शताब्दी में मुसलमानों ने आक्रमण कर वहां आधिपत्य जमा लिया। आज भी फिलीपींस में कुछ हिन्दू रीति-रिवाज प्रचलित हैं।
अफगानिस्तान – अफगानिस्तान 350 इ.पू. तक भारत का एक अंग था। सातवीं शताब्दी में इस्लाम के आगमन के बाद अफगानिस्तान धीरे-धीरे राजनीतिक और बाद में सांस्कृतिक रूप से भारत से अलग हो गया।
नेपाल – विश्व का एक मात्र हिन्दू राज्य है, जिसका एकीकरण गोरखा राजा ने 1769 ई. में किया था। पूर्व में यह प्राय: भारतीय राज्यों का ही अंग रहा।
भूटान – प्राचीन काल में भूटान भद्र देश के नाम से जाना जाता था। 8 अगस्त 1949 में भारत-भूटान संधि हुई जिससे स्वतंत्र प्रभुता सम्पन्न भूटान की पहचान बनी।
तिब्बत – तिब्बत का उल्लेख हमारे ग्रन्थों में त्रिविष्टप के नाम से आता है। यहां बौद्ध धर्म का प्रचार चौथी शताब्दी में शुरू हुआ। तिब्बत प्राचीन भारत के सांस्कृतिक प्रभाव क्षेत्र में था। भारतीय शासकों की अदूरदर्शिता के कारण चीन ने 1957 में तिब्बत पर कब्जा कर लिया।
श्रीलंका – श्रीलंका का प्राचीन नाम ताम्रपर्णी था। श्रीलंका भारत का प्रमुख अंग था। 1505 में पुर्तगाली, 1606 में डच और 1795 में अंग्रेजों ने लंका
पर अधिकार किया। 1935 ई. में अंग्रेजों ने लंका को भारत से अलग कर दिया।
म्यांमार (बर्मा) – अराकान की अनुश्रुतियों के अनुसार यहां का प्रथम राजा वाराणसी का एक राजकुमार था। 1852 में अंग्रेजों का बर्मा पर अधिकार हो गया। 1937 में भारत से इसे अलग कर दिया गया।
पाकिस्तान - 15 अगस्त, 1947 के पहले पाकिस्तान भारत का एक अंग था।
बांग्लादेश – बांग्लादेश भी 15 अगस्त 1947 के पहले भारत का अंग था। देश विभाजन के बाद पूर्वी पाकिस्तान के रूप में यह भारत से अलग हो गया। 1971 में यह पाकिस्तान से भी अलग हो गया |
।।जय हिंदुत्व।। ।।जय श्रीराम।। ।।जय महाकाल।।

रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानंद के बीच एक दुर्लभ संवाद


स्वामी विवेकानंद : मैं समय नहीं निकाल पाता. जीवन आप-धापी से भर गया है.
रामकृष्ण परमहंस : गतिविधियां तुम्हें घेरे रखती हैं. लेकिन उत्पादकता आजाद करती है.
स्वामी विवेकानंद : आज जीवन इतना जटिल क्यों हो गया है?
रामकृष्ण परमहंस : जीवन का विश्लेषण करना बंद कर दो. यह इसे जटिल बना देता है. जीवन को सिर्फ जिओ.
स्वामी विवेकानंद : फिर हम हमेशा दुखी क्यों रहते हैं?
रामकृष्ण परमहंस : परेशान होना तुम्हारी आदत बन गयी है. इसी वजह से तुम खुश नहीं रह पाते.
स्वामी विवेकानंद : अच्छे लोग हमेशा दुःख क्यों पाते हैं?
रामकृष्ण परमहंस : हीरा रगड़े जाने पर ही चमकता है. सोने को शुद्ध होने के लिए आग में तपना पड़ता है. अच्छे लोग दुःख नहीं पाते बल्कि परीक्षाओं से गुजरते हैं. इस अनुभव से उनका जीवन बेहतर होता है, बेकार नहीं होता.
स्वामी विवेकानंद : आपका मतलब है कि ऐसा अनुभव उपयोगी होता है?
रामकृष्ण परमहंस : हां. हर लिहाज से अनुभव एक कठोर शिक्षक की तरह है. पहले वह परीक्षा लेता है और फिर सीख देता है.
स्वामी विवेकानंद : समस्याओं से घिरे रहने के कारण, हम जान ही नहीं पाते कि किधर जा रहे हैं...
रामकृष्ण परमहंस : अगर तुम अपने बाहर झांकोगे तो जान नहीं पाओगे कि कहां जा रहे हो. अपने भीतर झांको. आखें दृष्टि देती हैं. हृदय राह दिखाता है.
स्वामी विवेकानंद : क्या असफलता सही राह पर चलने से ज्यादा कष्टकारी है?
रामकृष्ण परमहंस : सफलता वह पैमाना है जो दूसरे लोग तय करते हैं. संतुष्टि का पैमाना तुम खुद तय करते हो.
स्वामी विवेकानंद : कठिन समय में कोई अपना उत्साह कैसे बनाए रख सकता है?
रामकृष्ण परमहंस : हमेशा इस बात पर ध्यान दो कि तुम अब तक कितना चल पाए, बजाय इसके कि अभी और कितना चलना बाकी है. जो कुछ पाया है, हमेशा उसे गिनो; जो हासिल न हो सका उसे नहीं.
स्वामी विवेकानंद : लोगों की कौन सी बात आपको हैरान करती है?
रामकृष्ण परमहंस : जब भी वे कष्ट में होते हैं तो पूछते हैं, "मैं ही क्यों?" जब वे खुशियों में डूबे रहते हैं तो कभी नहीं सोचते, "मैं ही क्यों?"
स्वामी विवेकानंद : मैं अपने जीवन से सर्वोत्तम कैसे हासिल कर सकता हूँ?
रामकृष्ण परमहंस : बिना किसी अफ़सोस के अपने अतीत का सामना करो. पूरे आत्मविश्वास के साथ अपने वर्तमान को संभालो. निडर होकर अपने भविष्य की तैयारी करो.
स्वामी विवेकानंद : एक आखिरी सवाल. कभी-कभी मुझे लगता है कि मेरी प्रार्थनाएं बेकार जा रही हैं.
रामकृष्ण परमहंस : कोई भी प्रार्थना बेकार नहीं जाती. अपनी आस्था बनाए रखो और डर को परे रखो. जीवन एक रहस्य है जिसे तुम्हें खोजना है. यह कोई समस्या नहीं जिसे तुम्हें सुलझाना है. मेरा विश्वास करो- अगर तुम यह जान जाओ कि जीना कैसे है तो जीवन सचमुच बेहद आश्चर्यजनक है

।।जय हिंदुत्व।। ।।जय श्रीराम।। ।।जय महाकाल।।

विवाह कब होगा ?


प्रायः: माता-पिता की इच्छा यही होती है कि कन्या का विवाह कब होगा? इसका पता लगाने के लिए सप्तम भाव स्थित राशि, सप्तम भाव स्थित गृह व उस पर पड़ने वाली दृष्टियाँ, सप्तमेश की स्थिति व प्रकृति, सप्तमेश पर अन्य ग्रहों की दृष्टि व प्रभाव एवं महादशा आदि का विश्लेषण करते हुए निम्न बातों को ध्यान में रखते हुए विवाह के समय की गणना करें-
• सप्तमेश शुभ ग्रह की राशी में बैठा हो, शुक्र अपनी स्वराशी या उच्च राशि में बैठा हो| शुक्र लग्न या केंद्र स्थान में बैठकर शुभ ग्रहों से युति कर रहा हो तो कन्या का विवाह शीघ्र होता है| इसके विपरीत होने पर विवाह में विलम्ब होता है|
• सप्तमेश यदि सुभ ग्रह से युति नहीं कर रहा हो या 6 , 8 , 12 वें स्थान में हो, शुक्र व चन्द्रमा पर मंगल या शनि कि दृष्टि हो, 7 या 12 वें स्थान में पाप ग्रहों की युति हो या पंचम भाव में चन्द्रमा हो, सप्तम भाव में केतु हो व शुक्र की दृष्टि हो तो शादी देरी से होती है|
• लग्नेश व सप्तमेश के स्पष्ट राशि व अंश जोड़ने पर जो राशि व अंश आते हैं, गोचर का बृहस्पति जब वहां आता है तो शादी का समय समझें|
• राशीश (जन्म राशि) व अष्टमेश के योग तुल्य राशी व अंश पर जब गोचर का बृहस्पति आता है तो विवाह का समय समझें|
• शुक्र व चन्द्रमा दोनों में से जो बलवान हो उसकी महादशा में गुरु, चन्द्र या शुक्र के प्रत्यंतर में विवाह होता है|
• यदि सप्तमेश शुक्र के साथ हो तो सप्तमेश कि अन्तर्दशा में विवाह का योग बनता है| इसके अलावा सप्तम भाव स्थित ग्रह, भाग्येश व कर्मेश की अन्तर्दशा भी विवाह कारक होती है|
• गोचर का गुरु लग्न कुंडली में 2 , 5 , 7 , 9 , 11 वें स्थान में आता है तो भी विवाह का समय शास्त्रों में माना गया है|
• लग्न सप्तम व द्वितीय भाव में शुभ ग्रह हों एवं इन पर किसी पाप ग्रह की दृष्टि नहीं हो तो शीघ्र विवाह होता है|
• लग्नेश व सप्तमेश कुंडली में नजदीक हों तो विवाह शीघ्र होता है एवं दूर हो तो विवाह देरी से होता है| साथ ही शुक्र जिस राशि में बैठा हो, उस राशि के स्वामी की महादशा में, गुरु की अन्तर्दशा में विवाह योग बनते हैं|
• कुंडली में सप्तमेश या शुक्र के साथ केंद्र स्थान में गोचरवश जब चन्द्रमा, बृहस्पति आते हैं तो विवाह होता है|

।।जय हिंदुत्व।। ।।जय श्रीराम।। ।।जय महाकाल।।

पुरुषोत्तमी (परमा) एकादशी व्रत कथा

अधिकमास कृष्‍ण एकादशी 

धर्मराज युधिष्‍ठिर बोले- हे जनार्दन! अधिकमास के कृष्‍ण पक्ष की एकादशी का क्या नाम है? तथा उसकी विधि क्या है? कृपा करके आप मुझे बताइए।



 
श्री भगवान बोले हे राजन्- अधिकमास में कृष्ण पक्ष में जो एकादशी आती है वह परमा, पुरुषोत्तमी या कमला एकादशी कहलाती है। वैसे तो प्रत्येक वर्ष 24 एकादशियां होती हैं। जब अधिकमास या मलमास आता है, तब इनकी संख्या बढ़कर 26 हो जाती है। अधिकमास या मलमास को जोड़कर वर्ष में 26 एकादशियां होती हैं। अधिकमास में 2 एकादशियां होती हैं, जो पद्मिनी एकादशी (शुक्ल पक्ष) और परमा एकादशी (कृष्ण पक्ष) के नाम से जानी जाती है। ऐसा श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा है। भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को इस व्रत की कथा व विधि भी बताई थी।
 
काम्पिल्य नगरी में सुमेधा नामक एक ब्राह्मण अपनी पत्नी के साथ निवास करता था। ब्राह्मण बहुत धर्मात्मा था और उसकी पत्नी पतिव्रता स्त्री ‍थी। यह परिवार बहुत सेवाभावी था। दोनों स्वयं भूखे रह जाते, परंतु अतिथियों की सेवा हृदय से करते थे। धनाभाव के कारण एक दिन ब्राह्मण ने अपनी पत्नी कहा- धनोपार्जन के लिए मुझे परदेस जाना चाहिए, क्योंकि इतने कम धनोपार्जन से परिवार चलाना अति कठिन काम है।
ब्राह्मण की पत्नी ने कहा- मनुष्य जो कुछ पाता है, वह अपने भाग्य से ही पाता है। हमें पूर्व जन्म के कर्मानुसार उसके फलस्वरूप ही यह गरीबी मिली है अत: यहीं रहकर कर्म कीजिए, जो प्रभु की इच्छा होगी वही होगा।
 
पत्नी की बात ब्राह्मण को जंच गई और उसने परदेस जाने का विचार त्याग दिया। एक दिन संयोगवश कौण्डिल्य ऋषि उधर से गुजर रहे थे, जो ब्राह्मण के घर पधारे। ऋषि कौण्डिल्य को अपने घर पाकर दोनों अति प्रसन्न हुए। उन्होंने ऋषि की खूब आव-भगत की।
 
उनका सेवाभाव देखकर ऋषि काफी खुश हुए और पति-पत्नी द्वारा गरीबी दूर करने का प्रश्न पूछने पर ऋषि ने उन्हें मलमास के कृष्ण पक्ष में आने वाली पुरुषोत्तमी एकादशी करने की प्रेरणा दी। व्रती को एकादशी के दिन स्नान करके भगवान विष्णु के समक्ष बैठकर हाथ में जल एवं फूल लेकर संकल्प करना चाहिए। इसके पश्चात भगवान की पूजा करनी चाहिए। इसके बाद ब्राह्मण को भोजन करवाकर दान-दक्षिणा देकर विदा करने के पश्चात व्रती को स्वयं भोजन करना चाहिए।
 
उन्होंने कहा ‍कि इस एकादशी का व्रत दोनों रखें। यह एकादशी धन-वैभव देती है तथा पापों का नाश कर उत्तम गति भी प्रदान करने वाली होती है। धनाधिपति कुबेर ने भी इस एकादशी व्रत का पालन किया था जिससे प्रसन्न होकर भगवान भोलेनाथ ने उन्हें धनाध्यक्ष का पद प्रदान किया।
 
ऋषि की बात सुनकर दोनों आनंदित हो उठे और समय आने पर सुमेधा और उनकी पत्नी ने विधिपूर्वक इस एकादशी का व्रत रखा जिससे उनकी गरीबी दूर हो गई और पृथ्वी पर काफी वर्षों तक सुख भोगने के पश्चात वे पति-पत्नी श्रीविष्णु के उत्तम लोक को प्रस्थान कर गए।
 
अत: हे नारद! जो कोई मनुष्य विधिपूर्वक इस व्रत को करेगा, भगवान विष्णु निश्‍चित ही कल्याण करते हैं। 

।।जय हिंदुत्व।। ।।जय श्रीराम।। ।।जय महाकाल।।

Thursday, June 25, 2015

कान्हा की प्रथम माखन चोरी लीला

मैया यशोदा ने अपने लाड़ले लला के लिये भाँति भाँति के स्वादिष्ट पकवान बनायें हैं और वह उन मेवा व पकवानों को खाने के लिये बार बार अपने लाड़ले लला से आग्रह कर रही हैं। कान्हा को उन पकवानों में तनिक भी रूचि नहीं, वह मैया से कहते हैं-
" मैया जिन मेवा व पकवानों को तू मुझे खिलाने की बात कर रही है वे मुंझे तनिक भी नहीं भाते। मैया मेरे मन को तो बस माखन भाता है।"
द्वार के पीछे खड़ी बृज की एक गोपी कान्हा और मैया की बातें सुन रही है। कान्हा को माखन रूचि कर लगने की बात सुन कर गोपी के मन में सहसा एक इच्छा जागृत हुई-
"कभी मैं भी अपने घर में इन्हें माखन खाता हुआ देखू। ये नन्हें कान्हा मेरे घर आयें,मटके के पास बैठ कर चुपचाप माखन खायें और मैं छुप कर उस आनन्ददायक क्षण का रसास्वादन करूँ।"
श्री कृष्ण तो अंतर्यामी हैं, गोपी के मन में जागृत हुआ भाव उनसे कैसे छुपा रह जाता? उन्होनें तुरंत गोपी के मन में निहित उसकी आंतरिक अभिलाषा जान ली और उसे पूर्ण करने का निश्चय किया। अभी तक नन्हें कान्हा ने घर में ही माखन चुरा चुरा कर खाया था। घर ले बाहर अभी उन्होंने चोरी नहीं की थी, किंतु उस गोपी के मन की बात जान कर, अब वह घर से बाहर भी माखन चोरी के लिये तत्पर हो गये।
अगले दिन नन्हें कान्हा ने अपनी प्रथम माखन चोरी की, बृज की उसी गोपी के घर। उन्होंने अपने मन में विचार किया कि मैंने बृजवासियों को आनन्द देने के लिये ही गोकुल में अवतार लिया है।अत: इन सबको जिस कार्य में,जिस भाव से आनन्द मिलता है वही मैं इन सबको दूँगा। ये बृज जन मेरे अपने हैं। मेरे स्नेह,मेरे प्रेम,मेरी प्रेत्येक क्रिया से आनन्द प्राप्त करना इनका अधिकार है। इसी भावना से ओतप्रोत कान्हा ने अपनी माखन-चोरी लीला का शुभारम्भ, बृज की उस चिर-अभिलाषित गोपी के यहाँ से किया।
अपनी प्रथम माखन चोरी के समय कान्हा बहुत छोटे हैं। वह चुपचाप दबे पाँव पहुँच गये उस गोपी के घर, द्वार पर कोई नहीं है,इधर-उधर देखा और छिप कर घर के भीतर चले गये। जब गोपी ने कान्हा को आते देखा तो जानबूझकर छिप गई। कान्हा माखन के मटके के पास आकर बैठ गये और हाथ से माखन निकालने का प्रयास करने लगे। एक हाथ से माखन निकाल कहे हैं और साथ साथ चौकन्नी निगाहों से इधर उधर भी देखते जा रहे हैं। तन पर, प्रत्येक अंग में विभिन्न प्रकार के रत्नमय आभूषण दैदिप्यमान हो रहे है।
तभी सहसा अपने सामने के मणिस्तम्भ में अपना ही प्रतिबिम्ब आभूषणों की आलौकिक दीप्ती से जगमगाता हुआ दिखाई दे गया। उसे दूसरा बालक समझ कर अपने साथ उसे भी ख़ूब माखन खिलाते हैं। मणिस्तम्भ से फिसल कर जब माखन नीचें गिर जाता है तो दूसरे बालक को डाँटते हैं-
"यह क्या ढंग है ? खाना नहीं आता ? इतना मीठा माखन है गिरा क्यों रहे हो? तुम्हें खिला कर मुझे बड़ा सुख मिल रहा है,तुम्हें कैसा लग रहा है?"
इस अदुभत सौंदर्यमयी बाल लीला को देख कर छिपी हुई गोपी मुग्ध हुई जा रही है। रोकते रोकते भी उसकी हँसी फूट पड़ी। हँसी का स्वर सुन अटपटाये से,ऊपर से नीचे तक माखन से लिपटे कान्हा, अपने नन्हें नन्हें पैरों से,आभूषणों की खनखनाहट के बीच द्रुत गति से भाग गये। इस दिव्य-लीला का अवलोकन कर मुग्ध गोपी अपनी सुध-बुध ही भूल गई।
प्रफुल्लित हृदय गोपी अपने आपे में नहीं है, वह स्वयं को भूल चुकी है। रोम रोम पुलकित है, कंठ गदगद हो रहा है, कृष्णमयी इधर से उधर बौराई सी फिर रही है। उसकी सखियाँ समझ नहीं पा रहीं हैं कि उसकी ऐसी दशा क्यों है? सब चकित और विस्मित हैं। एक सखि उससे पूछती है-
"तूने ऐसा क्या पा लिया? ऐसी कौन सी मूल्यवान मणि तुझे प्राप्त हो गई है जो तेरी ऐसी दशा हो गई?"
गोपी कुछ नहीं कह पाती, मौन, निशब्द ,बस फूली फूली फिर रही है। सखियों के लाख पूछने पर उसके मुँह से बस एक दो अस्फुट स्वर निकलते हैं-
"मुझे वो दिव्य आलोकिक सुख मिल गया जो तुम्हें नहीं मिला है।"
उधर कान्हा अपने मन में सोच रहे हैं कि गोपी को मेरी माखन चोरी से कितना सुख मिला है, आनन्द मिला है? मैया यशोदा को मुझे बड़ा भोला भाला और अति सूधौ समझती है, वह तो लेशमात्र भी इस पर विश्वास नहीं करेंगीं, तो मैया के विश्वास को जस का तस रख, चुपचाप माखन चोरी कर करके गोपियों को क्यों न आनन्द दूँ और क्यों न गोपियों से आन्नद लूँ ? और प्रारम्भ हो जाती है नटखट कान्हा की माखन चोरी की प्रसिद्ध लीला।
(-- डॉ० मँजु गुप्ता)
।।जय हिंदुत्व।। ।।जय श्रीराम।। ।।जय महाकाल।।

आज्ञा चक्र

शिवजी के मस्तक पर दोनों भौंहों के मध्य विराजमान उनका तीसरा नेत्र उनकी एक विशिष्ट पहचान बनाता है। वेदों के अनुसार, यह नेत्र उस स्थान पर स्थित है, जहाँ मानव शरीर में ‘आज्ञा चक्र’ नामक एक महत्वपूर्ण चक्र उपस्थित होता है। ‘आज्ञा चक्र’ का अर्थ है, ‘हमारे शरीर में सकारात्मक ऊर्जा की शक्ति। इस चक्र को जागृत करने का अर्थ है, मानव शरीर में सम्पूर्ण आध्यात्मिक ऊर्जा का समुचित प्रवाह होना। इसी आज्ञा चक्र के स्थान पर आत्मा का प्रबोधन (ज्ञान) प्रस्तुत और केंद्रित होता है। जो व्यक्ति इस ऊर्जा को जागृत कर लेता है, उसे सभी प्रकार की शक्तियाँ प्राप्त होती हैं। इस ऊर्जा के ज़रिये व्यक्ति ब्रह्माण्ड में सभी-कुछ देख सकता है।
भगवान् शिव मानव का शुद्धतम स्वरूप हैं। वे ब्रह्माण्ड में सबकुछ देख सकते हैं। वे अतीत में देख सकते हैं, वर्तमान पर नियंत्रण रख सकते हैं, और भविष्य भी देख सकते हैं; वे त्रिकालदर्शी हैं। तीसरे नेत्र के द्वारा आज्ञा चक्र सक्रिय होता है।
माना जाता है कि यदि भगवान् शिव अत्यधिक क्रुद्ध हो जाते हैं, तो उनके तीसरे नेत्र से अत्यधिक शक्तिशाली और विनाशकारी तीक्ष्ण प्रकाश निकलता है। शिवजी के तीसरे नेत्र से निकलने वाली यह ऊर्जा ब्रह्माण्ड में उपस्थित समस्त अचेतन, अंधकार-युक्त एवं द्वैतवादी तत्त्वों का विनाश करती है।
संसार की माया को नष्ट करने के लिये ही वे भगवान् शिव अपना तीसरा नेत्र खोलते हैं


।।जय हिंदुत्व।। ।।जय श्रीराम।। ।।जय महाकाल।।

महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती आजादी के मूलमंत्रदाता कैसे ???






आप सभी सोच रहे होगे की महर्षि दयानन्द आजादी के मूल मंत्रदाता कैसे है ??? क्योकी हमे तो इतिहास मे यह पढ़ाया जाता है -- दे दी हमे आजादी बिना खड़ग बिना ढ़ाल के | इतिहास तो हमे ऐसे पढ़ाया जाता है जैसे आजादी की लड़ाई अकेले मोहनदास गाँधी और नेहरू ने शुरू की और लड़ी थी , लेकिन सच्चाई को आपके सामने लाने का एक मामूली सा यह प्रयास है |
महर्षि स्वामी दयानन्द द्वारा स्वय लिखित उनका जीवनी से बस कुछ पन्नो को आपके सामने रख रहा हूँ | वैसे इस बिषय पर पहले भी लेख व प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी द्वारा उनका विचार पहले भी पोस्ट किया जा चुका पर आज सोचा क्यो न सप्रमाण ही लेख पोस्ट किया जाय की आखरिकार आजादी का बीजोरोपण किसने किया ?????
मै इस बिषय पर अपनी तरफ से कुछ न मिलते हुए सीधे महर्षि जी के जीवनी के कुछ पृष्ठ पोस्ट कर रहा हूँ आगे आप स्वंय निर्णय करे की आजादी का मूलमंत्र दाता कौन है ??
१८५७ के विद्रोह मे आप जिनके बारे मे पढ़ते है उन्होने किनसे सलाह लिया ??? उन क्रान्तिकारियो का मार्गदर्शक कौन था ??? साधु संतो का एकत्रीकरण कौन किया ??? आजादी के लिए अपने प्राणो को न्यौछार कर देने तक का मंत्र किसने दिया ??? पूरे देश मे घूम घूम कर स्वदेश रक्षा की क्रान्ति की भावना को किसने पोषित किया ????
मित्रो अगर अपने आप को राष्ट्रवादी , स्वदेशी , आर्य या आर्यो के वंशज देशभक्त मानते हो तो जबाव जरूर देना ताकी पूरी दुनिया को इस कडुवे सच का पता लगे !!!!!
हे ऋषि आपको कोटी कोटी नमन|

लाईक नही शेयर करे
।।जय हिंदुत्व।। ।।जय श्रीराम।। ।।जय महाकाल।।

ये अपनी विशेषता कभी नहीं छोडते



छिन्नोSपि चन्दनतरुर्न जहाति गन्धम्।
वृद्धोSपि वारणपतिर्न जहाति लोलाम् ।।
यन्त्रार्पितो मधुरतां न जहाति चेक्षुः ।
क्षीणोSपि न त्यजति शीलगुणान्कुलीनः।।"
(चाणक्यनीतिः--15.19)

अर्थः--ये चार अपनी विशेषता नहीं छोडतेः--
(1.) कटा हुआ चन्दन का वृक्ष भी अपनी गन्ध को नहीं छोडता ।
(2.) बूढा हो जाने पर भी हाथी गजपति क्रीडा (खेल) नहीं छोडता ।
(3.) कोल्हू में पेरी जाने के बाद भी ईख अपनी मधुरता नहीं छोडती ।
(4.) कुलीन दरिद्र (शूद्र या गरीब) भी अपनी सुशीलता आदि गुण गरीबी में भी नहीं छोडता।

जब ये सब विपरीत परिस्थितियों में भी अपनी विशेषता नहीं छोडते तो हम क्या किसी से कम है, हमें अपनी विशेषता नहीं छोडनी चाहिए।


।।जय हिंदुत्व।। ।।जय श्रीराम।। ।।जय महाकाल।।

सफलता प्राप्त करने की कुछ विधियाँ


आज की दुनिया में काफी सारे लोग कड़ी मेहनत करते हैं, लेकिन उन्हें अपनी मेहनत के मुकाबले पर्याप्त फल की प्राप्ति नहीं होती है। हरदम मेहनत करने वाले व्यक्ति कभी सफलता को देखते हैं तो कभी उन्हें असफलता से दो चार भी होना पड़ता है। अगर आप हरदम, हरबार सफल होना चाहते हैं तो आपको अपने कर्म से पहले कुछ सवालों के जवाब तैयार रखने होंगें। अगर इन सवालों के सटीक और सही जवाब आपके पास होंगे तो आप हर बार सफलता के झंडे गाड़ देंगे। जानिए आचार्य चाणक्य ने किन छह सवालों का जिक्र किया था।
(1.) समय की पहचान करें :---
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किसी भी काम को करने से पहले हमें समय की पहचान करनी चाहिए। आचार्य चाणक्य का कहना था कि समझदार व्यक्ति सफलता के लिए समय को एक बार जरूर परखता है।
(2.) मित्रों की सही परख रखें :---
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कहते हैं कि शत्रु और मित्र बनाने में कई हिदायतें रखनी पड़ती हैं। हमें मालूम होना चाहिए कि कौन हमारा सच्चा मित्र है और कौन मित्र होने का दिखावा भर कर रहा है। शत्रु तो आपको दूर से नजर आ सकते हैं लेकिन उन मित्रों से आपको खासतौर से बचने की जरूरत होती है जो दोस्त की शक्ल में दुश्मन होते हैं। इस दुविधा से आप पार पा लेते हैं तो सफलता आपके कदम चूमेगी।
(3.) आप कहां हैं किस देश में हैं यह भी जाने :----
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अगर आप यह जानते हैं कि जहां आप काम करते हैं वह स्थान,शहर, राज्य और देश के हालात कैसे हैं तो आप सफल हैं। कार्यस्थल पर काम करने वाले लोगों के मिजाज को ध्यान में रखते हुए अगर आप काम करेंगे तो असफल होने की संभावनाएं कम हो जाती हैं।
(4.) कमाई और खर्चे का रखें तालमेल :----
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अगर आप समझदार हैं तो आप जाहिर तौर पर अपनी आय और व्यय का ख्याल रखते ही होंगे। व्यक्ति को अपनी आमदनी देखकर ही खर्च करना चाहिए। जो लोग आय से ज्यादा खर्च करते हैं, वो हमेशा उलझनों में रहते हैं। इसलिए धन संबंधी सुख पाने के लिए कभी भी आय से ज्यादा खर्च नहीं करना चाहिए।
(5.) ध्यान रखें आप किसके मातहत हैं :---
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अगर आप यह बात अच्छे से जानते हैं कि आपका प्रबंधक, कंपनी, संस्थान या आपका बॉस आपसे क्या चाहता है, तो आप न सिर्फ समझदार हैं बल्कि आप सफल भी हैं। ऐसा भान होने पर हम ठीक वैसे ही काम करते हैं जिससे संस्थान को लाभ मिलता है। अगर संस्थान को लाभ होगा तो आपकी सफलता की संभावनाएं भी बढ़ जाती हैं।
(6.) अपनी सामर्थ्य को समझें :---
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अगर आप अपनी सामर्थ्य को अच्छे से जानते हैं तो भी आप सफलता को आसानी से प्राप्त कर सकते हैं। अगर आप वाकई में ऐसे हैं तो आप वही काम हाथ में लेंगे जिसके साथ आप इंसाफ कर पाएंगे। इसके उलट अगर आप अपनी सामर्थ्य से अधिका का काम पकड़ेंगे न सिर्फ आप असफल होंगे बल्कि आपको कार्यस्थल पर भी अपमान का सामना करना पड़ेगा।

।।जय हिंदुत्व।। ।।जय श्रीराम।। ।।जय महाकाल।।

विदुर नीति


!!!---: विदुर नीति :---!!!
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इन 6 कामों से कम होती है मनुष्य की उम्र
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महाभारत में एक प्रसंग आता है जब राजा धृतराष्ट्र महात्मा विदुर से मनुष्य की आयु कम होने का कारण पूछते हैं। तब विदुर मनुष्य की आयु कम करने वाले 6 दोषों के बारे में धृतराष्ट्र को बताते हैं । महात्मा विदुर ने धृतराष्ट्र को मनुष्यों की उम्र कम होने को जो 6 दोष बताए थे, वह इस प्रकार हैं-

धृतराष्ट्र महात्मा विदुर से पूछते हैं-

"शतायुरुक्त: पुरुष: सर्ववेदेषु वै यदा।
नाप्नोत्यथ च तत् सर्वमायु: केनेह हेतुना।।"
(महाभारत, उद्योग पर्व 37/9)

अर्थात- जब सभी वेदों में पुरुष को 100 वर्ष की आयु वाला बताया गया है, तो वह किस कारण से अपनी पूर्ण आयु नहीं जी पाता।

विदुर कहते हैं :---
"अतिमानोSतिवादश्च तथात्यागो नराधिप।
क्रोधश्चात्मविधित्सा च मित्रद्रोहश्च तानि षट्।।
एत एवासयस्तीक्ष्णा: कृन्तन्यायूंषि देहिनाम्।
एतानि मानवान् घ्नन्ति न मृत्युर्भद्रमस्तु ते।।"
(महाभारत, उद्योगपर्व 37/10-11)

अर्थात्- अत्यंत अभिमान, अधिक बोलना, त्याग का अभाव, क्रोध, स्वार्थ, मित्रद्रोह- ये 6 तीखी तलवारें मनुष्य की आयु को कम करती हैं। ये ही मनुष्यों का वध करती हैं।

(1.) अभिमान यानी घमंड
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ऊँचे पद वाले, अपनी प्रशंसा सुनने वाले, स्वयं को बलवान् समझने वाले तथा स्वयं को बुद्धिमान्, त्यागी, महात्मा मानने वाले लोग अभिमान का शिकार हो जाते हैं। जिस व्यक्ति में यह दोष आ जाता है वह दूसरे लोगों को अपने से निचले स्तर का मानने लगता है और अवसर आने पर उनका अपमान करने से भी नहीं चूकता। घमंड करने वाले के कई शत्रु भी हो जाते हैं। अंत में घमंड ही उस व्यक्ति की मृत्यु का कारण बनता है।

(2.) अधिक बोलने वाला
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जो व्यक्ति अधिक बोलता है तथा व्यर्थ की बातें करता है, वह सत्य का पूरी तरह से पालन नहीं करता और ऐसी बातें भी कर बैठता है, जिनका परिणाम बुरा होता है। ऐसा व्यक्ति बुद्धिमानों को प्रिय नहीं होता तथा दूसरों पर उसकी बातों का प्रभाव भी नहीं पड़ सकता। इसलिए अधिक शब्दों का प्रयोग न करके वाणी को संयमित रखना चाहिए, क्योंकि असंयमित वाणी से भी आयु कम होती है।

(3.) क्रोध यानी गुस्सा
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मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु क्रोध है। क्रोधी होने पर मनुष्य उस समय किए गए अपने कर्मों के परिणाम को भूल जाता है, जिससे उसका पतन होता है। श्रीमद्भागवत के अनुसार शरीर अंत से पूर्व जिसने क्रोध को पूरी तरह से जीत लिया, वह मनुष्य इस लोक में योगी और सुखी है। क्रोध को नरक का द्वार भी कहा गया है, जिसका अर्थ है क्रोधी मनुष्य को नरक में जाने के लिए अन्य मार्ग की आवश्यकता ही नहीं पड़ती, क्रोध अकेला ही उसे नरक में ले जाता है। क्रोध के दुष्परिणामों से भी आयु कम होती है।

(4.) त्याग का अभाव
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त्याग का अभाव होने के कारण ही रावण, दुर्योधन आदि का पतन हुआ। सांसारिक सुख मनुष्य की आयु को काटते हैं और उनका त्याग आयु में वृद्धि करता है। मनुष्य को इस बात का सदैव ध्यान रखना चाहिए कि हम इस संसार से कुछ लेने नहीं बल्कि दूसरों को सुख देने के लिए आए हैं। जिन लोगों के मन में त्याग की भावना नहीं होती, उनकी मृत्यु शीघ्र ही हो जाती है।

(5.) स्वार्थ यानी लालच
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स्वार्थ यानी लालच ही अधर्म का मूल कारण है। दुनिया में होने वाले अनेक युद्धों का कारण स्वार्थ (भूमि, धन या स्त्री) ही है। स्वार्थी मनुष्य अपना काम साधने के लिए बड़े से बड़ा पाप करने में भी शर्म का अनुभव नहीं करते। वर्तमान परिदृश्य में देखा जाए तो स्वार्थ के कारण ही आज पूरी दुनिया में पाप कर्म बढ़ रहे हैं और चारो ओर अशांति छाई हुई है। जिसके मन में स्वार्थ होता है, उसकी आयु कम हो जाती है।

(5.) मित्रद्रोही
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मित्रद्रोही यानी अपने मित्र को धोखा देने वाले पुरुष को शास्त्रों में अधम कहा गया है। मनुष्य जीवन में मित्रों का बहुत महत्व है। मित्रता से एक नई शक्ति का निर्माण होता है, जिससे शत्रुओं को भी भय होता है। पतन की ओर जाते हुए कई पुरुषों का उत्थान मित्रों ने किया है। मित्रद्रोही मनुष्य का जीवन नरक के समान होता है। मित्रद्रोही नामक दोष से बचने के लिए त्याग और दूसरों का हित करना परम आवश्यक है।

महात्मा विदुरजी ने आयु को काटने वाले जो 6 दोष बतलाए हैं, वे सभी प्राय: एक-दूसरे पर ही निर्भर है। इसलिए इन दोषों से बचना चाहिए।


।।जय हिंदुत्व।। ।।जय श्रीराम।। ।।जय महाकाल।।

‪#‎आर्य_भारत_के_मूल_निवासी_हैं‬

पोस्ट थोडी लम्बी है 5 मिनट का समय निकाल कर अवश्य पढ़ें और ज्यादा से ज्यादा शेयर करें...
आर्य राघवेन्द्र's photo.
भारत वर्ष की लगातार अत्यन्त त्रुटिपूर्ण शिक्षा का ही ये कमाल है की हम अपने देश में ही अपने आप को विदेशी आक्रमणकारी की संज्ञा से संबोधित करते हैं जिस के कारण बहुत सारे लोग (और इसमें लगातार वृद्धि भी हो रही है) अपने को आर्य और कुछ को द्रविड़ बताते हैं और जिसके कारण उनके ह्रदय एक नही हो पाते हैं और वो अपने आप को अलग संस्कृति का मानते हैं ये बड़ी ही विकट और हास्यास्पद बात है कि काफी सारे दक्षिण भारतीय लोग अब भी उत्तरी भारतीय लोगो को आक्रमणकारी और अलग संस्कृति का समझते हैं और इनकी इस समझ में बहुत सारे नेता उत्तरी भारतीय लोग भी बढ़-चढ़ कर साथ देते हैं जिससे देश विखंडन कि और बढ़ रहा है। करीब १५० साल पहले ब्रिटिश शाशकों द्वारा बड़ी चालाकी से भारतीय शिक्षा में ये लिखवा दिया गया कि उत्तरी भारतीय लोग यहाँ के नही हैं मध्य एशिया से यहाँ पर आए हैं और उन्होंने यहाँ पर यहाँ के वास्तविक लोगो पर कब्जा कर लिया बाद में उनका साथ हमारे महा बेवकूफ और चरित्रहीन नेता जवाहर लाल नेहरू ने एक तर्कहीन महाबकवास किताब उन्ही की नक़ल से डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया लिख कर महांचापलूसी और बुद्दिहीनता का परिचय दिया। इस बात का आज कि पीडी पर बड़ा ही कुप्रभाव पड़ा है। उनके पास कोई भी प्रमाण नही है कि आर्य बाहर से आए हैं सिर्फ़ बेसिर-पैर कि बातों के अलावा। जैसे NCERT की पुस्तकों में लिखा है कि “आर्य पहले कहीं साउथ रूस से मध्य एशिया के मध्य में कही रहते थे क्युकी कुछ जानवरों के नाम जैसे dog, horse, goat (कुत्ता,घोडा , बकरी) आदि और कुछ पोधो के नाम पाइन, मेपल आदि जैसे शब्द सभी इंडो- यूरोपियन भाषाओं में एक जैसे हैं इससे ये पता लगता है कि आर्य नदियों और जंगलों से परिचित थे।“ सब से पहले तो ये इंडो-यूरोपियन भाषा का कोई अस्तित्व नहीं है और विश्व की सभी भाषाओं में तुम्हे संस्कृत के शब्द मिल जायेंगे सभी भाषाओं के आदि में संस्कृत है जरा शोध करके तो देखो। खैर ये एकदम से बेसिर-पैर और अतार्किक बात है जो NCERT कि पुस्तकों में लिखी है भाषाई शब्द और यहाँ तक कि व्याकरण से इंग्लिश, ग्रीक, इटालिक अरेबिक , हिन्दी(संस्कृत) और विश्व की कई अन्य भाषाओं में एक जैसे शब्द पाए जाते हैं किंतु इससे ये तो सिद्ध नही होता और ना ही कोई प्रमाण मिलता कि इंग्लिशमैन,इटालियअब जरा एक बात अपनी बुद्दी से और अनुसंधान करके सोच कर बताओ जो सब कुछ वेदों में लिखा है और जो भी कुछ हमारे रीती रिवाज़ हैं और जो हमारी जीवन दर्शन का सिद्धांत है वो इस विश्व में कही भी नही है अगर आर्य बाहर से मध्य से आते तो उनके वहाँ भी तो तो कुछ प्रमाण होने चाहिए जबकि हमारी संस्कृति और उनमें धरती-आसमान का अन्तर दिखाई देता है। शायद मेरी बात को आप में से कुछ लोग स्वीकार नही करेंगे तो मैं यहाँ उनके लिये कुछ ब्रिटेनिका एनसाईक्लोपीडिया से-
१) आर्यों में कोई गुलाम बनाने का कोई रिवाज़ नही था।
समीक्षा - जबकि मध्य एशिया अरब देशो में ये रिवाज़ बहुत रहा है।
२) आर्य प्रारम्भ से ही कृषि करके शाकाहार भोजन ग्रहण करते आ रहें है।
समीक्षा - मध्य एशिया में मासांहार का बहुत सेवन होता है जबकि भारत में अधिकतम सभी आर्य या हिंदू लोग शाकाहारी हैं३) आर्यों ने किसी देश पर आक्रमण नहीं किया
समीक्षा- अधिकतम अपनी सुरक्षा के लिये किया है या फ़िर अधर्मियो और राक्षसों (बुरे लोगो) का संहार करने के लिये और लोगो को अन्याय से बचाने के लिये और शिक्षित करने के लिये किया है। इतिहास साक्षी है अरब देशो ने कितने आक्रमण और लौट-खसोट अकारण ही मचाई है।
४) आर्यों में कभी परदा प्रथा नही रही बल्कि वैदिक काल में स्त्रियाँ स्नातक और भी पढी लिखी होती थी उनका आर्य समाज में अपना काफी आदर्श और उच् स्थान था ( मुगलों के आक्रमण के साथ भारत के काले युग में इसका प्रसार हुआ था)
समीक्षा- जबकि उस समय मध्य एशिया या विश्व के किसी भी देश में स्त्रियों को इतना सम्मान प्राप्त नही था।
५)आर्य लोग शवो का दाह संस्कार या जलाते हैं जबकि विश्व में और बाकी सभी और तरीका अपनाते हैं।
समीक्षा - ना की केवल मध्य एशिया में वरन पूरे विश्व में भारतीयों के अलावा आज भी शवो को जलाया नही जाता।
६) आर्यों की भाषा लिपि बाएं से दायें की ओर है।
समीक्षा - जबकि मध्य एशिया और इरानियो की लिपि दायें से बाईं ओरहै
७)आर्यों के अपने लोकतांत्रिक गाँव होते थे कोई राजा मध्य एशिया या मंगोलियो की तरह से नही होता था।
समीक्षा - मध्य एशिया में उस समय इन सब बातो का पता या अनुमान भी नही था
८)आर्यों का कोई अपना संकीर्ण सिद्दांत या कानून नही था वरन उनका एक वैश्विक अध्यात्मिक सिद्दांत रहा है जैसे की अहिंसा, सम्पूर्ण विश्व को परिवार की तरह मानना।
समीक्षा -मध्य एशिया या शेष विश्व को परिवार की तरह मानना।
समीक्षा -मध्य एशिया या शेष विश्व में ऐसा कोई सिद्दांत या अवधारणा नही है।
९)वैदिक या सनातन धर्म को कोई प्रवर्तक या बनाने वाला नहीं है जैसे की मोहम्मद मुस्लिमों का, अब्राहम ज्युष का या क्राईस्ट क्रिश्चियन का और भी सब इसी तरीको से।
समीक्षा - मध्य एशिया या शेष विश्व में भारतीयों या हिन्दुओं के अतिरिक्त सभी के अपने मत हैं और सभी में और मतों की बुराई और अपनी तारीफ़ लिखी गई है जबकि हिन्दुओं या आर्यों ने हमेशा समस्त विश्व को साथ लेकर चलने की बात कही गई है।
१०) वेदों में या किसी भी संस्कृत साहित्य में कहीं भी ये वर्णन नहीं है की आर्य जाती सूचक शब्द है और कोई मध्य एशिया से आक्रमणकारी यहाँ आ कर बसे हैं जिन्होंने वेदों की रचना की है।
समीक्षा -जबकि इस बात को विश्व में सभी सर्वसहमति से स्वीकारते हैं की वेद विश्व की सबसे पुराने ग्रन्थ हैंऔर किसी भी भारतीय उपनिषद, पुराण, रामायण, महाभारत या अन्य किसी में भी कहीं भी ये एक शब्द भी नही मिलता की आर्य बाहर से आए हैं जबकि आर्य कोई जातिसूचक शब्द ना हो कर के उसका अर्थ श्रेष्ट है।
अब विचार करने योग्य ये है ये सभी बातें भारतीयों या हिन्दुओं के अलावा विश्व में कहीं और क्यों नही पाई जाती यदि हम आक्रमणकारी थे तो हमारे सिद्दांत या रीती रिवाज़, समाज या अन्य धार्मिक क्रिया-कलाप किसी और विश्व की सभ्यता में क्यों नही पाए जाते अगर वास्तव में हम आक्रमणकारी हैं तो हमारी मूल स्थान कहीं तो होगा जैसे की अधिकतर लोगो का मानना मध्य एशिया हमारा मूल स्थान है उनमें क्या एक भी गुण हम आर्यों के सिद्दान्तो या जीवनदर्शन से मिलता है बल्कि मूल स्थान पर ये गुण अधिक पाये जाने चाहिए थे। हम इस विश्व में शेष विश्व से अपनी एक अलग पहचान रखते हैं और ऐसे हजारों तथ्य हैं जो इस बात को सिद्ध करते हैं हम भारतीय मानव के जन्म काल से भारतवासी हैं। मेरे विचार से इससे बड़ी हास्यास्पद और विकट समस्या भारतीयों के लिये हो नहीं सकती अगर वो अपने को इस देश का मूल निवासी नही मानते। क्युकी इससे राष्ट्रभक्ति और स्वाभिमान पर सीधा आघात होता है जैसा की ब्रिटिश चाहते ही थे और इनके उद्देश्य को पूर्ण करने में पिछले १५० सालो से हमारे नेताओं ने जोकि अधिकतर भारतीयों की खाल में वेदेशी घुसे हुए हैं ने कोई कमी नही छोडी है जिससे आजकल की पीडी अपने राष्ट्र और संस्कृति से भी कटने लगी है। खैर देखते और आशा भी करते है भारत अपने इस काले युग से बाहर निकल कर फ़िर से अपने पैरो पर खड़ा हो कर के चलेगा किसी दिन।
एक साझा मूल होने की बात बहुत पहले से ही की जा रही है। परन्तु कुछ छद्म बुद्धिजीविता के ठेकेदारों को अपनी तुरही के अतिरिक्त सुनाई ही क्या देता है?
वस्तुत: आर्य-द्रविड़ संघर्ष की थियोरी इस राष्ट्र के मन-प्राण औए आत्मा को विदेशी साबित कर कुंठित करने के लिये प्रतिपादित की गई थी... समय आ गया है कि समस्त उपमहाद्वीप की सांस्कृतिक-सह-आनुवांशिक एकात्मकता को एंडोर्स किया जाय।
जहाँ तक अफ्रीका में मानव उत्पत्ति का सवाल है ,तो अफ्रीका में मनुष्य की प्रथम उत्पत्ति का रहस्य भी जगजाहिर हो जायेगा. वह सन्दर्भ यहाँ प्रस्तुत है....
भूगर्भशास्त्रियो
सदियों से भारतीय इतिहास पर छायी आर्य आक्रमण सम्बन्धी झूठ की चादर को विज्ञान की खोज ने एक झटके में ही तार-तार कर दिया है।
विज्ञान की आंखों ने जो देखा है उसके अनुसार तो सच यह है कि आर्य आक्रमण नाम की चीज न तो भारतीय इतिहास के किसी कालखण्ड में घटित हुई और ना ही आर्य तथा द्रविड़ नामक दो पृथक मानव नस्लों का अस्तित्व ही कभी धरती पर रहा है।
इतिहास और विज्ञान के मेल के आधार पर हुआ यह क्रांतिकारी जैव-रासायनिक डीनएनए गुणसूत्र आधारित अनुसंधान फिनलैण्ड के तारतू विश्वविद्यालय, एस्टोनिया में हाल ही में सम्पन्न हुआ है।
कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डॉं. कीवीसील्ड के निर्देशन में एस्टोनिया स्थित एस्टोनियन बायोसेंटर, तारतू विश्वविद्यालय के शोधछात्र ज्ञानेश्वर चौबे ने अपने अनुसंधान में यह सिध्द किया है कि सारे भारतवासी जीन अर्थात गुणसूत्रों के आधार पर एक ही पूर्वजों की संतानें हैं, आर्य और द्रविड़ का कोई भेद गुणसूत्रों के आधार पर नहीं मिलता है, और तो और जो अनुवांशिक गुणसूत्र भारतवासियों में पाए जाते हैं वे डीएनए गुणसूत्र दुनिया के किसी अन्य देश में नहीं पाए गए।
शोधकार्य में अखण्ड भारत अर्थात वर्तमान भारत, पाकिस्तान, बंगलादेश, श्रीलंका और नेपाल की जनसंख्या में विद्यमान लगभग सभी जातियों, उपजातियों, जनजातियों के लगभग 13000 नमूनों के परीक्षण-परिणामों का इस्तेमाल किया गया। इनके नमूनों के परीक्षण से प्राप्त परिणामों की तुलना मध्य एशिया, यूरोप और चीन-जापान आदि देशों में रहने वाली मानव नस्लों के गुणसूत्रों से की गई।
इस तुलना में पाया गया कि सभी भारतीय चाहे वह किसी भी धर्म को मानने वाले हैं, 99 प्रतिशत समान पूर्वजों की संतानें हैं। भारतीयों के पूर्वजों का डीएन गुणसूत्र यूरोप, मध्य एशिया और चीन-जापान आदि देशों की नस्लों से बिल्कुल अलग है और इस अन्तर को स्पष्ट पहचाना जा सकता है ।
जेनेटिक हिस्ट्री ऑफ साउथ एशिया
ज्ञानेश्वर चौबे को जिस बिन्दु पर शोध के लिए पीएच.डी. उपाधि स्वीकृत की गई है उसका शीर्षक है- 'डेमॉग्राफिक हिस्ट्री ऑफ साउथ एशिया: द प्रिवेलिंग जेनेटिक कांटिनिटी फ्रॉम प्रीहिस्टोरिक टाइम्स' अर्थात 'दक्षिण एशिया का जनसांख्यिक इतिहास: पूर्वऐतिहासिक काल से लेकर अब तक की अनुवांशिकी निरंतरता'। संपूर्ण शोध की उपकल्पना ज्ञानेश्वर के मन में उस समय जागी जब वह हैदराबाद स्थित 'सेन्टर फॉर सेल्यूलर एंड मोलेक्यूलर बायोलॉजी' अर्थात सीसीएमबी में अंतरराष्ट्रीय स्तर के ख्यातलब्ध भारतीय जैव वैज्ञानिक डॉ. लालजी सिंह और डॉ के. थंगराज के अन्तर्गत परास्नातक बाद की एक शोधपरियोजना में जुटे थे।
ज्ञानेश्वर के मन में विचार आया कि जब डीएनए जांच के द्वारा किसी बच्चे के माता-पिता के बारे में सच्चाई का पता लगाया जा सकता है तो फिर भारतीय सभ्यता के पूर्वज कौन थे, इसका भी ठीक-ठीक पता लगाया जा सकता है। बस फिर क्या था, उनके मन में इस शोधकार्य को कर डालने की जिद पैदा हो गई। ज्ञानेश्वर बताते हैं-बचपन से मेरे मन में यह सवाल उठता रहा है कि हमारे पूर्वज कौन थे? बचपन में जो पाठ पढे़, उससे तो भ्रम की स्थिति पैदा हो गई थी कि क्या हम आक्रमणकारियों की संतान हैं? दूसरे एक मानवोचित उत्सुकता भी रही। आखिर प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में कभी न कभी तो यह जानने की उत्सुकता पैदा होती ही है कि उसके परदादा-परदादी कौन थे, कहां से आए थे,उनका मूलस्थान कहां है और इतिहास के बीते हजारों वर्षों में उनके पुरखों ने प्रकृति की मार कैसे सही, कैसे उनका अस्तित्व अब तक बना रहा है? ज्ञानेश्वर के अनुसार, पिछले एक दशक में मानव जेनेटिक्स और जीनोमिक्स के अध्ययन में जो प्रगति हुई है उससे यह संभव हो गया है कि हम इस बात का पता लगा लें कि मानव जाति में किसी विशेष नस्ल का उद्भव कहां हुआ, वह उद्विकास प्रक्रिया में दुनिया के किन-किन स्थानों से गुजरी, कहां-कहां रही और उनके मूल पुरखे कौन रहे हैं?
उनके अनुसार- माता और पिता दोनों के डीएनए में ही उनके पुरखों का इतिहास भी समाया हुआ रहता है। हम जितनी गहराई से उनके डीएनए संरचना का अध्ययन करेंगे, हम यह पता कर लेंगे कि उनके मूल जनक कौन थे? और तो और इसके द्वारा पचासों हजार साल पुराना अपने पुरखों का इतिहास भी खोजा जा सकता है।
कैंब्रिज के डॉ. कीवीसील्ड ने किया शोध निर्देशन
हैदराबाद की प्रयोगशाला में शोध करते समय उनका संपर्क दुनिया के महान जैव वैज्ञानिक प्रोफेसर कीवीसील्ड के साथ आया। प्रो. कीवीसील्ड संसार में मानव नस्लों की वैज्ञानिक ऐतिहासिकता और उनकी बसावट पर कार्य करने वाले उच्चकोटि के वैज्ञानिक माने जाते हैं। इस नई सदी के प्रारंभ में ही प्रोफेसर कीवीसील्ड ने अपने अध्ययन में पाया था कि दक्षिण एशिया की जनसांख्यिक संरचना अपने जातीय एवं जनजातीय स्वरूप में न केवल विशिष्ट है वरन् वह शेष दुनिया से स्पष्टत: भिन्न है। संप्रति प्रोफेसर डॉ. कीवीसील्ड कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के बायोसेंटर का निर्देशन कर रहे हैं।
प्रोफेसर डॉ. कीवीसील्ड की प्रेरणा से ज्ञानेश्वर चौबे ने एस्टोनियन बायोसेंटर में सन् 2005 में अपना शोधकार्य प्रारंभ किया। और देखते ही देखते जीवविज्ञान सम्बंधी अंतरराष्ट्रीय स्तर के शोध जर्नल्स में उनके दर्जनों से ज्यादा शोध पत्र प्रकाशित हो गए। इसमें से अनेक शोध पत्र जहां उन्होंने अपने गुरूदेव प्रोफेसर कीवीसील्ड के साथ लिखे वहीं कई अन्य शोधपत्र अपने उन साथी वैज्ञानिकों के साथ संयुक्त रूप से लिखे जो इसी विषय से मिलते-जुलते अन्य मुद्दों पर काम कर रहे हैं।
अपने अनुसंधान के द्वारा ज्ञानेश्वर ने इसके पूर्व हुए उन शोधकार्यों को भी गलत सिद्ध किया है जिनमें यह कहा गया है कि आर्य और द्रविड़ दो भिन्न मानव नस्लें हैं और आर्य दक्षिण एशिया अर्थात् भारत में कहीं बाहर से आए। उनके अनुसार, 'पूर्व के शोधकार्यों में एक तो बहुत ही सीमित मात्रा में नमूने लिए गए थे, दूसरे उन नमूनों की कोशिकीय संरचना और जीनोम इतिहास का अध्ययन 'लो-रीजोलूशन' अर्थात न्यून-आवर्धन पर किया गया। इसके विपरीत हमने अपने अध्ययन में व्यापक मात्रा में नमूनों का प्रयोग किया और 'हाई-रीजोलूशन' अर्थात उच्च आवर्धन पर उन नमूनों पर प्रयोगशाला में परीक्षण किया तो हमें भिन्न परिणाम प्राप्त हुए।'
माइटोकांड्रियल डीएनए में छुपा है पुरखों का इतिहास
ज्ञानेश्वर द्वारा किए गए शोध में माइटोकांड्रियल डीएनए और वाई क्रोमासोम्स और उनसे जुड़े हेप्लोग्रुप के गहन अध्ययन द्वारा सारे निष्कर्ष प्राप्त किए गए हैं। उल्लेखनीय है कि माइटोकांड्रिया मानव की प्रत्येक कोशिका में पाया जाता है। जीन अर्थात मानव गुणसूत्र के निर्माण में भी इसकी प्रमुख भूमिका रहती है। प्रत्येक मानव जीन अर्थात गुणसूत्र के दो हिस्से रहते हैं। पहला न्यूक्लियर जीनोम और दूसरा माइटोकांड्रियल जीनोम। माइटोकांड्रियल जीनोम गुणसूत्र का वह तत्व है जो किसी कालखण्ड में किसी मानव नस्ल में होने वाले उत्परिवर्तन को अगली पीढ़ी तक पहुंचाता है और वह इस उत्परिर्तन को आने वाली पीढ़ियों में सुरक्षित भी रखता है।
इसे इस प्रकार भी समझा जा सकता है कि माइटोकांड्रियल डीएनए वह तत्व है जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक माता के पक्ष की सूचनाएं अपने साथ हूबहू स्थानांतरित करता है। यहां यह समझना जरूरी है कि किसी भी व्यक्ति की प्रत्येक कोशिका में उसकी माता और उनसे जुड़ी पूर्व की हजारों पीढ़ियों के माइटोकांड्रियल डीएनए सुरक्षित रहते हैं।
इसी प्रकार वाई क्रोमोसोम्स पिता से जुड़ी सूचना को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को स्थानांतरित करते हैं। वाई क्रोमोसोम्स प्रत्येक कोशिका के केंद्र में रहता है और किसी भी व्यक्ति में उसके पूर्व के सभी पुरूष पूर्वजों के वाई क्रोमोसोम्स सुरक्षित रहते हैं। इतिहास के किसी मोड़ पर किसी व्यक्ति की नस्ल में कब और किस पीढ़ी में उत्परिवर्तन हुआ, इस बात का पता प्रत्येक व्यक्ति की कोशिका में स्थित वाई क्रोमोसोम्स और माइटोकांड्रियल डीएनए के अध्ययन से आसानी से लगाया जा सकता है। यह बात किसी समूह और समुदाय के संदर्भ में भी लागू होती है।
एक वंशवृक्ष से जुड़े हैं सभी भारतीय
ज्ञानेश्वर ने अपने अनुसंधान को दक्षिण एशिया में रहने वाले विभिन्न धर्मों-जातियों की जनसांख्यिकी संरचना पर केंद्रित किया। शोध मं पाया गया है कि तमिलनाडु की सभी जातियों-जनजातियों, केरल, कर्नाटक, आन्ध्रप्रदेश जिन्हें पूर्व में कथित द्रविड़ नस्ल से प्रभावित माना गया है, की समस्त जातियों के डीनएन गुणसूत्र तथा उत्तर भारतीय जातियों-जनजातियों के डीएनए का उत्पत्ति-आधार गुणसूत्र एकसमान है।
उत्तर भारत में पाये जाने वाले कोल, कंजर, दुसाध, धरकार, चमार, थारू, क्षत्रिय और ब्राह्मणों के डीएनए का मूल स्रोत दक्षिण भारत में पाई जाने वाली जातियों के मूल स्रोत से कहीं से भी अलग नहीं हैं। इसी के साथ जो गुणसूत्र उपरोक्त जातियों में पाए गए हैं वहीं गुणसूत्र मकरानी, सिंधी, बलोच, पठान, ब्राहुई, बुरूषो और हजारा आदि पाकिस्तान में पाये जाने वाले समूहों के साथ पूरी तरह से मेल खाते हैं।
!!!! तथ्य जो आर्यन आक्रमण सिद्धांत पर गंभीर संदेह पैदा करते हैं !!!!
आज विश्व की सबसे बड़े पुस्तकालय में सबसे पुरानी पुस्तक{ग्रन्थ} वेद है,जिसकी पुष्टि भी वैज्ञानिकों ने कर दी है।
भारत के बाहर के किसी भी अन्य क्षेत्र का आर्य मातृभूमि के नाम से वेदों में कहीं भी उल्लेख नहीं है और ना ही कहीं और ऐसा प्रमाण मिलता है।
इस के प्रत्युत, वेदों में शक्तिशाली सरस्वती नदी और अन्य स्थानों का उल्लेख किया गया है।
आज की तिथि तक, आर्यों की घुसपैठ के लिए, न तो पुरातात्विक, भाषाई, सांस्कृतिक और न ही आनुवंशिक प्रमाण पाया गया है।
वेदों मे 2500 से अधिक पुरातत्व स्थलों का उल्लेख मिलता है, जिन में से दो तिहाई हाल ही में खोजी गयी सूखी सरस्वती नदी के किनारे पर स्थित हैं।
सूखी सरस्वती नदी के विस्तार के बारे में किए गए सभी स्वतंत्र अध्ययन एक ही समय अवधि 1900 B.C.E. (ईसा पूर्व) की ओर संकेत करते हैं।
अंग्रेजों द्वारा वैदिक साहित्य की कल्पनिक तिथियां, आर्य आक्रमण के लिए 1500 B.C.E. और ऋग्वेद के लिए 1200 B.C.E., दोनों को अब वैज्ञानिक प्रमाण असत्य प्रमाणित करते हैं।
मैक्स मुलर, आर्यन आक्रमण सिद्धांत के प्रमुख वास्तुकार, ने भी अपनी मृत्यु से पहले माना कि उसकी वैदिक कालक्रम की तिथियां काल्पनिक थीं।
अपनी मृत्यु के पहलेप्रकाशित पुस्तक ‘The Six Systems of Indian Philosophy’ में मैक्समूलर ने लिखा है कि “Whatever may be the date of the Vedic hymns, whether 15 hundred or 15,000 B.C.E., they have their own unique place and stand by themselves in the literature of the world.”

।।जय हिंदुत्व।। ।।जय श्रीराम।। ।।जय महाकाल।।