Thursday, June 18, 2015

गुरु और गुरुभक्ति

भील बालक एकलव्य ने झट से, एक क्षण विलम्ब किये बिना, यह जानते हुए भी कि परिणाम क्या होगा, तत्काल अपने दायें हाथ का अंगूठा काट कर उस गुरु द्रोणाचार्य की झोली में गुरु दक्षिणा के नाम पर डाल दिया जिसने निषादराज हिरन्यधनु के शिष्यताकामी पुत्र एकलव्य को यह कहकर अपने द्वार से लोटा दिया था कि "मैं सिर्फ कुरु राजकुमारों को ही धनुर्विद्या सिखाता हूँ"।
इस घटना में द्रोणाचार्य का चरित्र दूषित हैं। अर्जुन को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनाने के मोह में एकलव्य को हृदय से लगाकर आशीर्वाद देने के बजाये उन्होंने बालक एकलव्य से निर्मम गुरुदक्षिणा मांग ली। द्रोण का यह दुर्व्यवहार किसी गुरु का न होकर एक राजकर्मचारी का लगता है इसिलए महाभारत में इसे गुरुदक्षिणा न कह कर वेतन कहा गया है। उपनिषदकार ने आगे कहा है अस्माकं सुचरितानी तानी त्वया ग्रहीतवयानी नो इतराणी अथार्त हे शिष्य हमारे जो अच्छे काम है उन्ही से तुम प्रेरणा लेना, दुसरे कामो से नहीं।
एकलव्य हमारे जीवन दर्शन, हमारे जीवन मूल्यों की एक वह अद्भुत और महानतम कड़ी है जिसका गुरु शिष्य परम्परा में शायद ही कोई सामानांतर हैं। द्रोणाचार्य के द्वार से निरादर लोटाये जाने पर भी एकलव्य निराश नहीं हुआ। मन ही मन में उसने द्रोण को अपना गुरु मान लिया था। गुरु के प्रति श्रद्धा और मनो भाव में कमी न आ जाये इसलिए द्रोण की प्रतिमा बनाकर धनुर्विद्या का अभ्यास करने लगा और परम विशेषज्ञ बन गया। दुनिया में भारत ही ऐसा देश है जहां गुरु और गुरुभक्ति का महत्व हैं। इस माहौल में अकेले एकलव्य का एक पाठ ही बालको को गुरु और गुरुभक्ति के सम्पूर्ण महत्व को बिना व्याख्या और टीका टिपण्णी के समझा देता है।

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