भारतीय पंचांग और काल निर्धारण का आधार विक्रम संवत हैं। इसकी शुरूआत मध्य
प्रदेश की उ...ज्जैन नगरी से हुई थी। यह कैलेन्डर राजा विक्रमादित्य के
शासन काल में जारी हुआ था इसलिए इसे विक्रम संवत के नाम से जाना जाता
हैं।भारतीय इतिहास में जनप्रिय और न्यायप्रिय शासकों की जब भी बात चलेगी तो
वह उज्जैन के राजा विक्रमादित्य के नाम के बगैर पूरी नहीं हो सकेगी। उनकी
न्याय प्रियता के किस्से भारतीय परिवेश का हिस्सा बन चुके हैं।
विक्रमादित्य का राज्य उत्तर में तक्षशिला जिसे वर्तमान में पेशावर
(पाकिस्तान) के नाम से जाना जाता हैं, से लेकर नर्मदा नदी के तट तक था।
उन्होंने यह राज्य शक्तिशाली शक आक्रांता खरोश जो मध्य एशिया से आया था, को
परास्त कर हासिल किया था। राजा विक्रमादित्य ने यह सफलता मालवा के
निवासियों के साथ मिलकर गठित जनसमूह और सेना के बल पर हासिल की
थी।विक्रमादित्य की इस विजय के बाद जब राज्यारोहण हुआ तब उन्होंने प्रजा के
तमाम ऋणों को माफ करने का ऐलान किया तथा नए भारतीय कैलेंडर को जारी किया,
जिसे विक्रम संवत नाम दिया गया। ईसा पूर्व 57 में जारी किया गया विक्रम
संवत आज तक भारतीय पंचाग और काल निर्धारण का आधार बना हुआ हैं।विक्रम संवत –
महत्वपूर्ण बिन्दुः-• भारतीय संवत अत्यन्त प्राचीन हैं।• साथ ही ये गणित
की दृष्टि से अत्यन्त सुगम और सर्वथा ठीक हिसाब रखकर निश्चित किये गये
हैं।• नवीन संवत चलाने की शास्त्रीय विधि यह है कि जिस नरेश को अपना संवत
चलाना हो, उसे संवत चलाने के दिन से पूर्व कम-से-कम अपने पूरे राज्य में
जितने भी लोग किसी के ऋणी हों, उनका ऋण अपनी ओर से चुका देना चाहिये।•
विक्रम संवत का प्रणेता सम्राट विक्रमादित्य को माना जाता है। कालिदास इस
महाराजा के एक रत्न माने जाते हैं।• भारत के बाहर इस नियम का कहीं पालन
नहीं हुआ।• भारत में भी महापुरुषों के संवत उनके अनुयायियों ने श्रद्धावश
ही चलाये; लेकिन भारत का सर्वमान्य संवत विक्रम संवत है और महाराज
विक्रमादित्य ने देश के सम्पूर्ण ऋण को, चाहे वह जिस व्यक्ति का रहा हो,
स्वयं देकर इसे चलाया है।• इस संवत के महीनों के नाम विदेशी संवतों की
भाँति देवता, मनुष्य या संख्यावाचक कृत्रिम नाम नहीं हैं।• यही बात तिथि
तथा अंश (दिनांक) के सम्बन्ध में भी हैं वे भी सूर्य-चन्द्र की गति पर
आश्रित हैं। सारांश यह कि यह संवत अपने अंग-उपांगों के साथ पूर्णत:
वैज्ञानिक सत्यपर स्थित है।शास्त्रों व शिलालेखों मेंविक्रम संवत के उद्भव
एवं प्रयोग के विषय में कुछ कहना मुश्किल है। यही बात शक संवत के विषय में
भी है। किसी विक्रमादित्य राजा के विषय में, जो ई0 पू0 57 में था, सन्देह
प्रकट किए गए हैं। इस संवत का आरम्भ गुजरात में कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा से
(नवम्बर, ई0 पू0 58) है और उत्तरी भारत में चैत्र कृष्ण प्रतिपदा (अप्रैल,
ई0 पू0 58) से। बीता हुआ विक्रम वर्ष ईस्वी सन्+57 के बराबर है। कुछ
आरम्भिक शिलालेखों में ये वर्ष कृत के नाम से आये हैं ।विद्वानों ने
सामान्यतः 'कृत संवत' को 'विक्रम संवत' का पूर्ववर्ती माना है। किन्तु
'कृत' शब्द के प्रयोग की व्याख्या सन्तोषजनक नहीं की जा सकी है। कुछ
शिलालेखों में मावल-गण का संवत उल्लिखित है, जैसे- नरवर्मा का मन्दसौर
शिलालेख। 'कृत' एवं 'मालव' संवत एक ही कहे गए हैं, क्योंकि दोनों पूर्वी
राजस्थान एवं पश्चिमी मालवा में प्रयोग में लाये गये हैं। कृत के 282 एवं
295 वर्ष तो मिलते हैं किन्तु मालव संवत के इतने प्राचीन शिलालेख नहीं
मिलते। यह भी सम्भव है कि कृत नाम पुराना है और जब मालवों ने उसे अपना लिया
तो वह 'मालव-गणाम्नात'या 'मालव-गण-स्थिति' के नाम से पुकारा जाने लगा।
किन्तु यह कहा जा सकता है कि यदि कृत एवं मालव दोनों बाद में आने वाले
विक्रम संवत की ओर ही संकेत करते हैं, तो दोनों एक साथ ही लगभग एक सौ
वर्षों तक प्रयोग में आते रहे, क्योंकि हमें 480 कृत वर्ष एवं 461 मालव
वर्ष प्राप्त होते हैं। यह मानना कठिन है कि कृत संवत का प्रयोग कृतयुग के
आरम्भ से हुआ। यह सम्भव है कि 'कृत' का वही अर्थ है जो 'सिद्ध' का है जैसे -
'कृतान्त' का अर्थ है 'सिद्धान्त' और यह संकेत करता है कि यह कुछ लोगों की
सहमति से प्रतिष्ठापित हुआ है। 8वीं एवं 9वीं शती से विक्रम संवत का नाम
विशिष्ट रूप से मिलता है। संस्कृत के ज्योति:शास्त्रीय ग्रंथों में यह शक
संवत से भिन्नता प्रदर्शित करने के लिए यह सामान्यतः केवल संवत नाम से
प्रयोग किया गया है। 'चालुक्य विक्रमादित्य षष्ठ' के 'वेडरावे शिलालेख' से
पता चलता है कि राजा ने शक संवत के स्थान पर 'चालुक्य विक्रम संवत' चलाया,
जिसका प्रथम वर्ष था - 1076-77 ई0।ऐतिहासिक महत्व:सृष्टि रचना का पहला दिन :
आज से एक अरब 97 करोड़, 39 लाख 49 हजार 108 वर्ष पूर्व इसी दिन के सूर्योदय
से ब्रह्मा जी ने जगत की रचना इसी दिन की थी।प्रभु राम का राज्याभिषेक
दिवस : प्रभु राम ने भी इसी दिन को लंका विजय के बाद अयोध्या आने के बाद
राज्याभिषेक के लिये चुना।नवरात्र स्थापना : शक्ति और भक्ति के नौ दिन
अर्थात्, नवरात्र स्थापना का पहला दिन यही है। प्रभु राम के जन्मदिन
रामनवमी से पूर्व नौ दिन उत्सव मनाने का प्रथम दिन।गुरु अंगददेव जी का
प्रकटोत्सव : सिख परंपरा के द्वितीय गुरू का जन्मदिवस।आर्य समाज स्थापना
दिवस : समाज को श्रेष्ठ (आर्य) मार्ग पर ले जाने हेतु स्वामी दयानंद
सरस्वती ने इसी दिन को आर्य समाज स्थापना दिवस के रूप में चुना।संत झूलेलाल
जन्म दिवस : सिंध प्रान्त के प्रसिद्ध समाज रक्षक वरूणावतार संत झूलेलाल
इसी दिन प्रकट हुए।डा. हेडगेबार जन्म दिवस : राष्ट्रीय स्वयं सेवक संध के
संस्थापक डा. केशव राव बलीराम हैडगेबार का जन्मदिवस।शालिवाहन संवत्सर का
प्रारंभ दिवस : विक्रमादित्य की भांति शालिवाहन ने हूणों को परास्त कर
दक्षिण भारत में श्रेष्ठतम राज्य स्थापित करने हेतु यही दिन चुना।युगाब्द
संवत्सर का प्रथम दिन : 5111 वर्ष पूर्व युधिष्ठिर का राज्याभिषेक भी इसी
दिन हुआ।प्राकृतिक महत्वः-पतझड़ की समाप्ति के बाद वसंत ऋतु का आरंभ वर्ष
प्रतिपदा से ही होता है। शरद ऋतु के प्रस्थान व ग्रीष्म के आगमन से पूर्व
वसंत अपने चरम पर होता है। फसल पकने का प्रारंभ यानि किसान की मेहनत का फल
मिलने का भी यही समय होता है।आघ्यात्मिक महत्वहमारे ऋषि-मुनियों ने इस दिन
के आध्यात्मिक महत्व के कारण ही वर्ष प्रतिपदा से ही नौ दिन तक
शुद्ध-सात्विक जीवन जीकर शक्ति की आराधना तथा निर्धन व दीन दुखियों की सेवा
हेतु हमें प्रेरित किया। प्रात: काल यज्ञ, दिन में विविध प्रकार के भंडारे
कर भूखों को भोजन तथा सायं-रात्रि शक्ति की उपासना का विधान है। असंख्य
भक्तजन तो पूरे नौ दिन तक बिना कोई अन्न ग्रहण कर वर्षभर के लिए एक असीम
शक्ति का संचय करते हैं। अष्टमी या नवमीं के दिन मां दुर्गा के रूप नौ
कन्याओं व एक लांगुरा (किशोर) का पूजन कर आदर पूर्वक भोजन करा दक्षिणा दी
जाती है।वैज्ञानिक महत्वविश्व में सौर मंडल के ग्रहों व नक्षत्रों की चाल व
निरन्तर बदलती उनकी स्थिति पर ही हमारे दिन, महीने, साल और उनके सूक्ष्मतम
भाग आधारित होते हैं। इसमें खगोलीय पिण्डों की गति को आधार बनाया गया है।
हमारे मनीषियों ने पूरे भचक्र अर्थात 360 डिग्री को 12 बराबर भागों में
बांटा जिसे राशि कहा गया। प्रत्येक राशि तीस डिग्री की होती है जिनमें पहली
का नाम मेष है। एक राशि में सवा दो नक्षत्र होते हैं। पूरे भचक्र को 27
नक्षत्रों में बांटा गया। एक नक्षत्र 13 डिग्री 20 मिनिट का होता है तथा
प्रत्येक नक्षत्र को पुन: 4 चरणों में बांटा गया है जिसका एक चरण 3 डिग्री
20 मिनिट का होता है। जन्म के समय जो राशि पूर्व दिशा में होती है उसे लग्न
कहा जाता है। इसी वैज्ञानिक और गणितीय आधार पर विश्व की प्राचीनतम कालगणना
की स्थापना हुई।एक जनवरी से प्रारंभ होने वाली काल गणना को हम ईस्वी सन्
के नाम से जानते हैं जिसका संबंध ईसाई जगत व ईसा मसीह से है। इसे रोम के
सम्राट जूलियस सीजर द्वारा ईसा के जन्म के तीन वर्ष बाद प्रचलन में लाया
गया। भारत में ईस्वी सम्वत् का प्रचलन अग्रेंजी शासकों ने 1752 में किया।
अधिकांश राष्ट्रो के ईसाई होने और अग्रेंजों के विश्वव्यापी प्रभुत्व के
कारण ही इसे विश्व के अनेक देशों ने अपनाया। 1752 से पहले ईस्वी सन् 25
मार्च से शुरू होता था किन्तु 18वीं सदी से इसकी शुरूआत एक जनवरी से होने
लगी। ईस्वी कलेण्डर के महीनों के नामों में प्रथम छ: माह यानि जनवरी से जून
रोमन देवताओं (जोनस, मार्स व मया इत्यादि) के नाम पर हैं। जुलाई और अगस्त
रोम के सम्राट जूलियस सीजर तथा उनके पौत्र आगस्टस के नाम पर तथा सितम्बर से
दिसम्बर तक रोमन संवत् के मासों के आधार पर रखे गये। जुलाई और अगस्त,
क्योंकि सम्राटों के नाम पर थे इसलिए, दोनों ही इकत्तीस दिनों के माने गये
आखिर क्या आधार है इस काल गणना का? यह तो ग्रहों व नक्षत्रों की स्थिति पर
आधारित होनी चाहिए।ग्रेगेरियन कैलेंडर की काल गणना मात्र दो हजार वर्षों के
अति अल्प समय को दर्शाती है, जबकि यूनान की काल गणना 3579 वर्ष, रोम की
2756 वर्ष यहूदी 5767 वर्ष, मिश्र की 28670 वर्ष, पारसी 189974 वर्ष तथा
चीन की 96002304 वर्ष पुरानी है। इन सबसे अलग यदि भारतीय काल गणना की बात
करें तो हमारे ज्योतिष के अनुसार पृथ्वी की आयु एक अरब 97 करोड़, 39 लाख 49
हजार 108 वर्ष है। हमारे प्रचीन ग्रंथों में एक-एक पल की गणना की गई है
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