हर एक मानव जो इस धरा पर जन्म लिया है उसे गुरु के शरण में अवश्य जाना होता है ..
यह एक मानव जीवन का अवश्यक अंग भी है या यूँ कहे की सोलह संस्कारो में से यह भी एक संस्कार है
जिसका पालन भगवान श्री कृष्ण हरी ने भी किया और मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम ने भी ..
संत कबीर ने भी किया और गोरखनाथ ने भी.... हनुमान ने भी किया और रावण ने भी किया ..
जिस किसी भी महात्माओ को हम आज भी याद करते हे वे सब भी पहले आप और हम जैसे ही साधारण मानव ही थे किन्तु गुरु रुपी पारस की स्पर्श से वे भी सोना नहीं पारस बन गए और आज जब हम उनके संस्पर्श में आते है तो हम भी सोना बन जाते हे ....
आखिर उनके पास ऐसा क्या है जो हम जैसे साधारण को स्पर्श कराते ही हम असाधारण बन जाते हे ..
सोना बन जाते हे ... और उसी सोने को साधना रुपी अग्नि में तपा कर कुंदन भी बना देता हे ... ऐसा कुंदन जिससे माँ तारा की चरणों की शोभा बढ़ाने वाली पायल का निर्माण हो सके उनका मुकुट निर्माण हो सके और माँ तारा भी उसे धारण करने हेतु आतुर हो उठे..
कितने सौभाग्यशाली है वे जिन्हें योग्य गुरु प्राप्त होते है और उन्ही की कृपा दृष्टि से माँ तारा भी उन्हें पूर्ण रूप से अंगीकार कर लेती है ...
परन्तु मेरे आत्मनो !
कभी आपने यह सोचा है योग्य गुरु ढूंढ़ने से पहले की आप योग्य हो की नहीं ?
आप में वो योग्यता की एक सरसों परिमाण भी गुण है की नहीं ?
आप में वो दृढ़ संकल्प है की नहीं ?
आप में वो सामर्थ्य है की नहीं जिससे गुरु आज्ञा का पालन कर सको ?
गुरु तो आप को हजारो नहीं करोड़ो मिल जायेंगे जो आप को पूर्णता प्रदान करने में सक्षम है ...
किन्तु एक योग्य शिष्य अब दुर्लभ ही नहीं निर्लभ हो गया है ...
जरा आप सोचिये क्या आप सच में पूर्णता ही प्राप्त करने हेतु गुरु की खोज कर रहे हो या कुछ और की प्राप्ति हेतु ?
क्योंकि अधिकतर लोग सामान्य स्वार्थ सिद्धि हेतु ही गुरु धारण करते है ..
अगर वो मिल गया तो वे उसी को सर्वस्व मान लेते है ...और गुरु जी को महा सिद्ध के रूप में देखने लग जाते है ... और तब जय गुरु देव बोलते नहीं थकते...
बड़ा दुर्लभ प्राणी थे इस प्रकार का मानव ... किन्तु अभी इस घोर कलियुग में सर्वत्र मिल जायेंगे ..
मेरे आत्मनो !
स्वार्थ होना अति अवश्यक भी है ... किन्तु इतने निम्न कोटि के स्वार्थ नहीं ..
इस धरा पर जिसने भी जन्म लिया है वे सब स्वार्थी थे .है . और रहेंगे .. चाहे वे राम हो या कृष्ण . .. बिना स्वार्थ के इस सृष्ठी का एक कण तक नहीं है .. पेड़ पौधे का भी स्वार्थ है .. नदी और सागर का भी स्वार्थ है ..
समस्त ब्रह्माण्ड की भी एक स्वार्थ है बिना स्वार्थ के केवल 50 शून्य ही है कभी कभी तो मुझे ये शून्य भी स्वार्थी लगता है ..
आप स्वार्थी बनो अवश्य बनो किन्तु इतने निम्न कोटि के स्वार्थी नहीं उच्च कोटि के स्वार्थी बनो ..
फिर यही स्वार्थ परमार्थ में बदल जाता है ..
तब स्वार्थ रुपी आत्मा परमार्थ रुपी परमात्मा में विलीन हो जायेगा ..
इसी स्वार्थ को ही तो शिवत्व कहते है..
इसी को ही तो शून्य कहते है...
इसको ही तो अनु को परमाणु से जोड़कर ब्रह्माण्ड में विलीन करने की महान क्रिया योग कहते है ..
यही तो सर्वस्व है यही सर्व व्यापी है ...सर्वत्र है ....
आप लोग गुरु अपने सिद्धांत पर बनाते है, न की गुरु या शास्त्रों के अनुसार ..
आप लोग ऐसा व्यक्ति ढूंढते हो जो आप के आशा अनुरूप हो ..
तो मेरे आत्मनो !
कभी भी आपको गुरु अपने अनुसार नहीं मिलेगा गुरु में भी कुछ ना कुछ दोष अवश्य होगा ..
जैसे भगवान शिव के भोला मन ही उनका दोष है और जिस कारण कभी कभी वे स्वयम् ही संकट में पड जाते थे ..
और इसी दोष के साथ ही आप को गुरु धारण करना होगा ...
क्योंकि गुरु के गुण, अवगुण, ज्ञान , शक्ति, सिद्धि सब स्वयम् ही शिष्य को प्राप्त हो जाते है ..
बहुत ही रहस्य पूर्ण है गुरु शिष्य का सम्बन्ध .... समझ से परे है ...
अगर आप मांस मछली शराब का सेवन नहीं करते तो आप ऐसे गुरु के पास जाय जो आप की तरह मांस मछली नहीं खाता हो ..
अगर आप मांस मछली खाते हो तो आप भी ऐसे ही गुरु के पास जाय जो खाते हो ..
अगर इसका उल्टा हो गया तो आप के लिए बहुत ही दुविधा जनक स्थिति का निर्माण होगा ...
आप के घर में मांस बनते है और सब मिलके खाते भी हो और आप ने किसी निरामिसी को गुरु बनाओगे तो वो आप को बार बार बोलेगा बेटा मांस खाना महा पाप है ..
तब गुरु की आज्ञा पालन करने के लिए आप को स्वयम् के लिए ही अलग से खाना बनाना होगा ...
एक तरह से आप परिवार से अलग हो जायेंगे .. और दूसरा मांसाहारी गुरु हो तो जब गुरु के घर जायेंगे तो वे मांस बनायेंगे और आप को खाने के लिए बोलेंगे तो भी आप दुविधा में पड़ जायेंगे की क्या करू ..? अगर खाऊंगा तो महा पाप और नहीं खाऊंगा तो गुरु का कोप ......
दूसरा विषय गुरु सिद्ध है की नहीं यह कैसे जाने ..?
मेरे आत्मन !
आप को एक छोटा सा बच्चा भी ज्ञान दे सकता है अगर आप में ज्ञान लेने की सामर्थ्य हो तो ..
आप को पेड़ पौधे भी सिद्धि दे सकते है अगर आप में वो धैर्य हो तो ...
आप को नदी भी अमृत दे सकते है अगर आप में योग्यता हो तो ...
गुरु हाड़ मांस से बना किसी शरीर को नहीं बल्कि ज्ञान को कहते है ...
तीसरी बात सन्यास या घर परिवार छोड़ना ....
सन्यास का रथ में सवार रथी ही आप को पूर्णता के साथ सन्यास का अर्थ बता पायेगा ...
सन्यास का अर्थ भी हजारो ग्रंथो मतानुसार भिन्न भिन्न है ..
कोई कहता है स्वयम् का नाश ही सन्यास है ,,
कोई कहता है असत्य आवरण माया का त्याग कर सत्य की खोज ही सन्यास है ..
कोई कुछ तो कोई कुछ.....
सन्यास अर्थ समझाने की कोशिश करते है ..
. पहले के ज़माने में लोग घर परिवार छोड़ कर सन्यास रुपी संकल्प लेकर वन में चले जाते थे सत्य की खोज में ..
परन्तु सत्य जब इस समाज में इस संसार में नहीं मिला तो फिर उस जंगल में कैसे मिल सकता है ..?
जहाँ पर सिर्फ जीव जंतु और पेड़ पौधे ही रहते है ...
मेरे आत्मन जब एक साधक साधना रुपी तप करता है तो उसे एकांत की आवश्यकता अनुभव होता है .
उसे लगता है की अगर हम परिवार में रहकर साधना करंगे तो साधना खंडित होने का भय सदा मानस पर उभरते रहेगा ..
और इसी भय को दूर करने के लिए और एकांत में साधना करने के लिए ही पहले लोग सन्यास लेते थे ..
लेकिन आज का समय ही अलग है .. ना तो जंगल है और ना ही जंगल की ज्ञान .. की कौन सा फल खाके हम जिन्दा रह सकते है कौन सा पानी विष पूर्ण और कौन सा नहीं ...
अगर आप सन्यास लेकर जंगल में चले भी गए तो भी आप को दो चार दिन बाद इसी समाज में वापस आना ही पड़ेगा ..
क्योंकि आप के भूख को शांत करने के लिए कोई सुस्वादु फल जंगल में मिलेगा ही नहीं और उसी भूख को शांत करने के लिए लोगो के घर जाके भिक्षा मांगना ही होगा ..
जिस समाज परिवार के डर से आप ने सन्यास लिया था फिर उन्ही लोगो से आप को मदद लेनी पड़ेगी ...
उस से अच्छा है की आप घर में ही साधना करो ...
क्योंकि अगर आप को इस समाज संसार घर परिवार में साधना कर नहीं पाओगे तो जंगल में भी नहीं कर पाओगे .. किसी आश्रम में भी नहीं .. कहीं भी नहीं ..
अगर ज्ञान की बात करो तो इस समाज से बड़ा ज्ञान देने वाला और कोई नहीं ...
मै तो यह मानती हूँ की जो लोग सन्यास लेते है वो लोग जरुर किसी न किसी पाप में भागीदारी अवश्य किये होंगे ... किसी ने बहुत बड़ा डाका डाला .. चोरी किया ..खून किया .. और उसी सजा से बचने के लिए ही भगोड़े बन जाते है ...
मानव सन्यास दो ही कारण से लेते है एक भक्ति से भक्त होकर और दूसरा विरक्ति से विरक्त हो कर...
यह एक मानव जीवन का अवश्यक अंग भी है या यूँ कहे की सोलह संस्कारो में से यह भी एक संस्कार है
जिसका पालन भगवान श्री कृष्ण हरी ने भी किया और मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम ने भी ..
संत कबीर ने भी किया और गोरखनाथ ने भी.... हनुमान ने भी किया और रावण ने भी किया ..
जिस किसी भी महात्माओ को हम आज भी याद करते हे वे सब भी पहले आप और हम जैसे ही साधारण मानव ही थे किन्तु गुरु रुपी पारस की स्पर्श से वे भी सोना नहीं पारस बन गए और आज जब हम उनके संस्पर्श में आते है तो हम भी सोना बन जाते हे ....
आखिर उनके पास ऐसा क्या है जो हम जैसे साधारण को स्पर्श कराते ही हम असाधारण बन जाते हे ..
सोना बन जाते हे ... और उसी सोने को साधना रुपी अग्नि में तपा कर कुंदन भी बना देता हे ... ऐसा कुंदन जिससे माँ तारा की चरणों की शोभा बढ़ाने वाली पायल का निर्माण हो सके उनका मुकुट निर्माण हो सके और माँ तारा भी उसे धारण करने हेतु आतुर हो उठे..
कितने सौभाग्यशाली है वे जिन्हें योग्य गुरु प्राप्त होते है और उन्ही की कृपा दृष्टि से माँ तारा भी उन्हें पूर्ण रूप से अंगीकार कर लेती है ...
परन्तु मेरे आत्मनो !
कभी आपने यह सोचा है योग्य गुरु ढूंढ़ने से पहले की आप योग्य हो की नहीं ?
आप में वो योग्यता की एक सरसों परिमाण भी गुण है की नहीं ?
आप में वो दृढ़ संकल्प है की नहीं ?
आप में वो सामर्थ्य है की नहीं जिससे गुरु आज्ञा का पालन कर सको ?
गुरु तो आप को हजारो नहीं करोड़ो मिल जायेंगे जो आप को पूर्णता प्रदान करने में सक्षम है ...
किन्तु एक योग्य शिष्य अब दुर्लभ ही नहीं निर्लभ हो गया है ...
जरा आप सोचिये क्या आप सच में पूर्णता ही प्राप्त करने हेतु गुरु की खोज कर रहे हो या कुछ और की प्राप्ति हेतु ?
क्योंकि अधिकतर लोग सामान्य स्वार्थ सिद्धि हेतु ही गुरु धारण करते है ..
अगर वो मिल गया तो वे उसी को सर्वस्व मान लेते है ...और गुरु जी को महा सिद्ध के रूप में देखने लग जाते है ... और तब जय गुरु देव बोलते नहीं थकते...
बड़ा दुर्लभ प्राणी थे इस प्रकार का मानव ... किन्तु अभी इस घोर कलियुग में सर्वत्र मिल जायेंगे ..
मेरे आत्मनो !
स्वार्थ होना अति अवश्यक भी है ... किन्तु इतने निम्न कोटि के स्वार्थ नहीं ..
इस धरा पर जिसने भी जन्म लिया है वे सब स्वार्थी थे .है . और रहेंगे .. चाहे वे राम हो या कृष्ण . .. बिना स्वार्थ के इस सृष्ठी का एक कण तक नहीं है .. पेड़ पौधे का भी स्वार्थ है .. नदी और सागर का भी स्वार्थ है ..
समस्त ब्रह्माण्ड की भी एक स्वार्थ है बिना स्वार्थ के केवल 50 शून्य ही है कभी कभी तो मुझे ये शून्य भी स्वार्थी लगता है ..
आप स्वार्थी बनो अवश्य बनो किन्तु इतने निम्न कोटि के स्वार्थी नहीं उच्च कोटि के स्वार्थी बनो ..
फिर यही स्वार्थ परमार्थ में बदल जाता है ..
तब स्वार्थ रुपी आत्मा परमार्थ रुपी परमात्मा में विलीन हो जायेगा ..
इसी स्वार्थ को ही तो शिवत्व कहते है..
इसी को ही तो शून्य कहते है...
इसको ही तो अनु को परमाणु से जोड़कर ब्रह्माण्ड में विलीन करने की महान क्रिया योग कहते है ..
यही तो सर्वस्व है यही सर्व व्यापी है ...सर्वत्र है ....
आप लोग गुरु अपने सिद्धांत पर बनाते है, न की गुरु या शास्त्रों के अनुसार ..
आप लोग ऐसा व्यक्ति ढूंढते हो जो आप के आशा अनुरूप हो ..
तो मेरे आत्मनो !
कभी भी आपको गुरु अपने अनुसार नहीं मिलेगा गुरु में भी कुछ ना कुछ दोष अवश्य होगा ..
जैसे भगवान शिव के भोला मन ही उनका दोष है और जिस कारण कभी कभी वे स्वयम् ही संकट में पड जाते थे ..
और इसी दोष के साथ ही आप को गुरु धारण करना होगा ...
क्योंकि गुरु के गुण, अवगुण, ज्ञान , शक्ति, सिद्धि सब स्वयम् ही शिष्य को प्राप्त हो जाते है ..
बहुत ही रहस्य पूर्ण है गुरु शिष्य का सम्बन्ध .... समझ से परे है ...
अगर आप मांस मछली शराब का सेवन नहीं करते तो आप ऐसे गुरु के पास जाय जो आप की तरह मांस मछली नहीं खाता हो ..
अगर आप मांस मछली खाते हो तो आप भी ऐसे ही गुरु के पास जाय जो खाते हो ..
अगर इसका उल्टा हो गया तो आप के लिए बहुत ही दुविधा जनक स्थिति का निर्माण होगा ...
आप के घर में मांस बनते है और सब मिलके खाते भी हो और आप ने किसी निरामिसी को गुरु बनाओगे तो वो आप को बार बार बोलेगा बेटा मांस खाना महा पाप है ..
तब गुरु की आज्ञा पालन करने के लिए आप को स्वयम् के लिए ही अलग से खाना बनाना होगा ...
एक तरह से आप परिवार से अलग हो जायेंगे .. और दूसरा मांसाहारी गुरु हो तो जब गुरु के घर जायेंगे तो वे मांस बनायेंगे और आप को खाने के लिए बोलेंगे तो भी आप दुविधा में पड़ जायेंगे की क्या करू ..? अगर खाऊंगा तो महा पाप और नहीं खाऊंगा तो गुरु का कोप ......
दूसरा विषय गुरु सिद्ध है की नहीं यह कैसे जाने ..?
मेरे आत्मन !
आप को एक छोटा सा बच्चा भी ज्ञान दे सकता है अगर आप में ज्ञान लेने की सामर्थ्य हो तो ..
आप को पेड़ पौधे भी सिद्धि दे सकते है अगर आप में वो धैर्य हो तो ...
आप को नदी भी अमृत दे सकते है अगर आप में योग्यता हो तो ...
गुरु हाड़ मांस से बना किसी शरीर को नहीं बल्कि ज्ञान को कहते है ...
तीसरी बात सन्यास या घर परिवार छोड़ना ....
सन्यास का रथ में सवार रथी ही आप को पूर्णता के साथ सन्यास का अर्थ बता पायेगा ...
सन्यास का अर्थ भी हजारो ग्रंथो मतानुसार भिन्न भिन्न है ..
कोई कहता है स्वयम् का नाश ही सन्यास है ,,
कोई कहता है असत्य आवरण माया का त्याग कर सत्य की खोज ही सन्यास है ..
कोई कुछ तो कोई कुछ.....
सन्यास अर्थ समझाने की कोशिश करते है ..
. पहले के ज़माने में लोग घर परिवार छोड़ कर सन्यास रुपी संकल्प लेकर वन में चले जाते थे सत्य की खोज में ..
परन्तु सत्य जब इस समाज में इस संसार में नहीं मिला तो फिर उस जंगल में कैसे मिल सकता है ..?
जहाँ पर सिर्फ जीव जंतु और पेड़ पौधे ही रहते है ...
मेरे आत्मन जब एक साधक साधना रुपी तप करता है तो उसे एकांत की आवश्यकता अनुभव होता है .
उसे लगता है की अगर हम परिवार में रहकर साधना करंगे तो साधना खंडित होने का भय सदा मानस पर उभरते रहेगा ..
और इसी भय को दूर करने के लिए और एकांत में साधना करने के लिए ही पहले लोग सन्यास लेते थे ..
लेकिन आज का समय ही अलग है .. ना तो जंगल है और ना ही जंगल की ज्ञान .. की कौन सा फल खाके हम जिन्दा रह सकते है कौन सा पानी विष पूर्ण और कौन सा नहीं ...
अगर आप सन्यास लेकर जंगल में चले भी गए तो भी आप को दो चार दिन बाद इसी समाज में वापस आना ही पड़ेगा ..
क्योंकि आप के भूख को शांत करने के लिए कोई सुस्वादु फल जंगल में मिलेगा ही नहीं और उसी भूख को शांत करने के लिए लोगो के घर जाके भिक्षा मांगना ही होगा ..
जिस समाज परिवार के डर से आप ने सन्यास लिया था फिर उन्ही लोगो से आप को मदद लेनी पड़ेगी ...
उस से अच्छा है की आप घर में ही साधना करो ...
क्योंकि अगर आप को इस समाज संसार घर परिवार में साधना कर नहीं पाओगे तो जंगल में भी नहीं कर पाओगे .. किसी आश्रम में भी नहीं .. कहीं भी नहीं ..
अगर ज्ञान की बात करो तो इस समाज से बड़ा ज्ञान देने वाला और कोई नहीं ...
मै तो यह मानती हूँ की जो लोग सन्यास लेते है वो लोग जरुर किसी न किसी पाप में भागीदारी अवश्य किये होंगे ... किसी ने बहुत बड़ा डाका डाला .. चोरी किया ..खून किया .. और उसी सजा से बचने के लिए ही भगोड़े बन जाते है ...
मानव सन्यास दो ही कारण से लेते है एक भक्ति से भक्त होकर और दूसरा विरक्ति से विरक्त हो कर...
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