जब अमरीकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन रिटायर हो रहे थे तो राष्ट्रपति के तौर 
पर अपने अंतिम भाषण में उन्होंने कहा कि " सोवियत संघ के ख़त्म होने के बाद
 हमारे दो ही दुश्मन बचे हैं, एक चीन और दूसरा भारत " | रोनाल्ड रीगन के 
बाद जो राष्ट्रपति आये उसने जो पहले दिन का भाषण दिया संसद में, उसमे उसने 
कहा कि "मिस्टर रोनाल्ड रीगन ने अपने आर्थिक और विदेश नीति के बारे में जो 
वक्तव्य दिया, उसी पर हमारी सरकार काम करेगी " | अमेरिका में क्या होता है 
कि राष्ट्रपति कोई भी हो जाये, नीतियाँ नहीं बदलती, तो रोनाल्ड रीगन ने जो 
कहा जॉर्ज बुश, बिल क्लिंटन, जोर्ज बुश और ओबामा उसी राह पर चले और आगे आने
 वाले राष्ट्रपति उसी राह पर चलेगे अगर अमेरिका की स्थिति यही बनी रही तो 
|तो दुश्मन को बर्बाद करने के कई तरीके होते हैं और अमेरिका उन सभी तरीकों 
को भारत पर आजमाता है | अमेरिका जो सबसे खतरनाक तरीका अपना रहा है हमको 
बर्बाद करने के लिए और वो हमको समझ में नहीं आ रहा है, खास कर पढ़े लिखे 
लोगों को | अमेरिका ने एक ऐसा जाल बिछाया है जिसके अंतर्गत भारत में जितने 
भी अच्छे स्तर के प्रतिभा हो उसको अमेरिका खींच लो, भारत में मत रहने दो | 
अब इसके लिए अमेरिका ने क्या किया है कि हमारे देश के अन्दर जितने बेहतरीन 
तकनीकी संस्थान हैं, जैसे IIT, IIM, AIIMS, आदि, उनमे से जितने अच्छे 
प्रतिभा हैं वो सब अमेरिका भाग जाते हैं |अमेरिका ने और युरोप के देशों ने 
अपने यहाँ के ब्रेन ड्रेन (प्रतिभा पलायन) को रोकने के लिए तमाम तरह के 
नियम बनाए हैं और उनके यहाँ अलग अलग देशों में अलग अलग कानून हैं कि कैसे 
अपने देश की प्रतिभाओं को बाहर जाने से रोका जाये | उधर अमेरिका और यूरोप 
के अधिकांश देशों में ये परंपरा है कि आपको कमाने के लिए अगर विदेश जाना है
 तो फ़ौज की सर्विस करनी पड़ेगी, सीधा सा मतलब ये है कि आपको बाहर नहीं 
जाना है और उन्ही देशो में ये गोल्डेन रुल है कि अगर उनके यहाँ बहुतायत में
 ऐसे लोग होंगे तो ही उनको बाहर जाने देने के लिए अनुमति के बारे में सोचा 
जायेगा | और दूसरी तरफ तीसरी दुनिया (3rd World Countries) मे जो सबसे 
अच्छे दिमाग है उन्हें सस्ते दाम मे खरीदने के लिए उन्होने दूसरे नियम भी 
बनाए | हमारे देश का क्रीम (दिमाग के स्तर पर) उन्हे सस्ते दाम मे मिल सके 
इसके लिए हमारे यहाँ IIT खोले गये, ये जो IIT खड़े हुए हैं हमारे देश मे वो
 एक अमेरिकी योजना के तहत हुई थी |हमारे देश का क्रीम (दिमाग के स्तर पर) 
उन्हे सस्ते दाम मे मिल सके इसके लिए अमेरिका ने एक योजना के तहत आर्थिक 
सहायता दी थी IIT खोलने के लिए | आप पूछेंगे कि अमेरिका हमारे यहाँ IIT 
खोलने के लिए पैसा क्यों लगाएगा ? वो अपने यहाँ ऐसे संस्थान नहीं खोल लेगा ?
 क्यों नहीं खोल लेगा बिलकुल खोल लेगा लेकिन वैसे संस्थान से इंजिनियर पैदा
 करने मे उसे जो खर्च आएगा उसके 1/6 खर्च मे वो यहाँ से इंजिनियर तैयार कर 
लेगा | और इन संस्थानों में पढने वाले विद्यार्थियों का दिमाग ऐसा सेट कर 
दिया जाता है कि वो केवल अमेरिका/युरोप की तरफ देखता है | उनके लिए पहले से
 एक माहौल बना दिया जाता है, पढ़ते-पढ़ते | और माहौल क्या बनाया जाता है कि
 जो प्रोफ़ेसर उनको पढ़ाते हैं वहां वो दिन रात एक ही बात उनके दिमाग में 
डालते रहते हैं कि "बोलो अमेरिका में कहाँ जाना है" तो वो विद्यार्थी जब 
पढ़ के तैयार होता है तो उसका एक ही मिशन होता है कि "चलो अमेरिका" | IITs 
मे जो सिलेबस पढाया जाता है वो अमेरिका के हिसाब से तैयार होता है, कभी ये 
देश के अंदर इस्तेमाल की कोशिश करें तो 10% से 20% ही इस देश के काम का 
होगा बाकी 80% अमेरिका/युरोप के हिसाब से होगा |मतलब कि ये पहले से ही 
व्यवस्था होती है कि हमारे यहाँ के बेहतरीन दिमाग अमेरिका जाएँ | ये सारी 
की सारी सब्सिडी अमेरिका की तरफ से हमारे IITs को मिलती है नहीं तो IIT से 
बी.टेक. करना इतना सस्ता नहीं होता | इस तरह से हमारा हर साल ब्रेन ड्रेन 
से 25 अरब डॉलर का नुकसान होता है और अमेरिका को अपने देश की तुलना मे 
इंजिनियर 1/3 सस्ते दाम मे मिल जाते हैं. क्योंकि हमारा मुर्ख दिमाग़ बहुत 
जल्दी डॉलर्स को रूपये मे बदलता है | इस तरह से अमेरिका हर साल अपना 
150-200 अरब डॉलर बचाता है. और हम…………………. अब आप कहेंगे की हम क्यों नहीं 
ब्रेन ड्रेन रोकने के लिए क़ानून बनाते हैं ? तो हमारे नेताओं को डर है कि 
जो रिश्वत उन्हे हर साल मिलता है वो बंद हो जाएगा और IIT को जो अमेरिकी धन 
मिलता है वो भी रोक दिया जाएगा | इस तरह से हमारे यहाँ का बेहतरीन दिमाग 
अमेरिका चला जाता है और हमारे यहाँ तकनीकी क्षेत्र में पिछड़ापन ही फैला 
रहता है | अमेरिका को घाटा ये हुआ है कि उसके इंटेलेक्ट मे काफ़ी कमी आई है
 पिछले 25 सालों मे | आप अमेरिकी विश्वविद्यालयों के टॉपर्स की सूचि उठा के
 देखेंगे तो वहाँ टॉपर या तो एशियन लड़के/लड़कियां हो रहे हैं या लैटिन 
अमेरिकन | खैर अमेरिका से हमे तो कुछ लेना है नहीं | और अब ये हो रहा है की
 वहाँ के लोग भी एशियाई प्रतिभा का विरोध करने लगे हैं |इसी तरह हमारे 
संस्थान यहाँ सबसे अच्छे डॉक्टर निकालते हैं एम्स में से या किसी और अच्छे 
संस्थान से तो वो भी अमेरिका भागने को तैयार होते है | इसी तरह आईआईएम से 
निकलने वाले सबसे बेहतरीन विद्यार्थी भी अमेरिका भागने को तैयार होते हैं |
 तो अमेरिका ने एक जाल फ़ेंक रखा है, जैसे शिकारी फेंकता है कि हर वो अच्छी
 प्रतिभा जो कुछ कर सकता है इस देश में रहकर अपने राष्ट्र के लिए, अपने 
समाज के लिए, वो भारत से अमेरिका भाग जाता है |इसको तकनीकी भाषा में आप 
ब्रेन ड्रेन कहते है, मैं उसे भारत की तकनीकी का सत्यानाश मानता हूँ, 
क्योंकि ये सबसे अच्छा दिमाग हमारे देश में नहीं टिकेगा तब तो हमारी तकनीकी
 इसी तरह हमेशा पीछे रहती जाएगी | आप सीधे समझिये न कि जो विद्यार्थी पढ़कर
 तैयार हुआ, वही विद्यार्थी अगर भारत में रुके तो क्या-क्या नहीं करेगा 
अपने दिमाग का इस्तेमाल कर के, लेकिन वो दिमाग अगर यहाँ नहीं रुकेगा, 
अमेरिका चला जायेगा तो वो जो कुछ करेगा, अमेरिका के लिए करेगा, अमरीकी 
सरकार के लिए करेगा और हम बेवकूफों की तरह क्या मान के बैठे जाते हैं कि 
"देखो डॉलर तो आ रहा है", अरे डॉलर जितना आता है उससे ज्यादा तो नुकसान हो 
जाता है और हमको क्या लगता है कि अमेरिका जाने से ज्यादा रुपया मिलता है, 
हम हमेशा बेवकूफी का हिसाब लगाते हैं, आज अमेरिका का एक डॉलर 55 रूपये के 
बराबर है और किसी को 100 डॉलर मिलते हैं तो कहेंगे कि 5500 रुपया मिल रहा 
है | अरे, उनके लिए एक डॉलर एक रूपये के बराबर होता है और वहां खर्च भी उसी
 अनुपात में होता है | हम कभी दिमाग नहीं लगाते, हमेशा कैल्कुलेसन करते हैं
 |आज उनका एक डॉलर 55 रूपये का है, कल 70 का हो जायेगा या कभी 100 रूपये का
 हो जायेगा तो हमारा हिसाब उसी तरह लगता रहेगा | उस हिसाब को हम जोड़ते हैं
 तो लगता है कि बड़ा भारी फायदा है लेकिन वास्तव में है उसमे नुकसान | यहाँ
 लगभग 10 लाख रूपये में एक इंजिनियर तैयार किया जाता है इस उम्मीद में कि 
समय आने पर वो राष्ट्र के काम में लगेगा, देश के काम में लगेगा, राष्ट्र को
 सहारा देगा, वो अचानक भाग के अमेरिका चला जाता है, तो सहारा तो वो अमेरिका
 को दे रहा है और अमेरिका कौन है तो वो दुश्मन है, तो दुश्मन को हम अपना 
दिमाग सप्लाई कर रहे हैं |हमारे यहाँ से आजकल जो लड़के लड़कियां वहां जा 
रहे हैं उनको वहाँ कच्चा माल कहा जाता है और उनके सप्लाई का धंधा बहुत जोरो
 से चल रहा है | ऐसे ही सॉफ्टवेर इंजिनियर के रूप में बॉडी शोपिंग की जा 
रही है और वहां इन सोफ्टवेयर इंजिनियर लोगों का जो हाल है वो खाड़ी देशों 
(Middle East) में जाने वाले मजदूरों से भी बदतर है | जैसे हमारे यहाँ 
रेलों में 3 टायर होते हैं वैसे ही 5 टायर, 6 टायर के बिस्तर वाले कमरों 
में ये रहते हैं | अमेरिका दुश्मन है और उसी दुश्मन की अर्थव्यवस्था को 
मजबूत करने के काम में हमारे देश के लोग लगे हैं |आप बताइए कि इससे खुबसूरत
 दुष्चक्र क्या होगा कि आपका दुश्मन आपको ही पीट रहा है आपकी ही गोटी से | 
अमेरिका कभी भी इस देश की तकनीकी को विकसित नहीं होने देना चाहता | इस देश 
के वैज्ञानिक यहाँ रुक जायेंगे, इंजिनियर यहाँ रुक जायेंगे, डॉक्टर यहाँ 
रुकेंगे, मैनेजर यहाँ रुकेंगे तो भारत में रुक कर कोई ना कोई बड़ा काम 
करेंगे, वो ना हो पाए, इसलिए अमेरिका ये कर रहा है | और अमेरिका को क्या 
फायदा है तो उनको सस्ती कीमत पर अच्छे नौकर काम करने को मिल जाते हैं 
|हमारे यहाँ के इंजिनियर, डॉक्टर, मैनेजर कम पैसे पर काम करने को तैयार हैं
 वहां पर और वो भी ज्यादा समय तक | यहाँ अगर किसी लड़के को कहो कि 10 बजे 
से शाम 5 बजे तक काम करो तो मुंह बनाएगा और वहां अमेरिका में सवेरे 8 बजे 
से रात के 8 बजे तक काम करता है तो तकलीफ नहीं होती है | कोई भी भारतीय 
अमेरिका गया है तो वो सवेरे सात बजे से लेकर रात के आठ बजे तक काम ना करे 
तो उसको जिंदगी चलानी भी मुश्किल है |और अमेरिका में भारत के लोगों के साथ 
कैसा व्यव्हार होता है ये भी जान लीजिये, अमेरिका मे यहाँ के लोगों को 
हमेशा दूसरी या तीसरी श्रेणी के नागरिक के तौर पर ही गिना जाता है | हम 
यहाँ बहुत खुश होते हैं की कोई भारतीय इस पद पर है या उस पद पर है लेकिन 
पर्दे के पीछे की कहानी कुछ और होती है | हमारे यहाँ के लोग कितने ही 
बुद्धिशाली हो या कितने ही बेसिक रिसर्च का काम किए हो लेकिन उनको कभी भी 
Higher Authority नहीं बनाया जाता है वहां, मतलब उनका बॉस हमेशा अमेरिकन ही
 रहेगा चाहे वो कितना ही मुर्ख क्यों ना हो | आनंद मोहन चक्रवर्ती का क्या 
हाल हुआ सब को मालूम होगा, पहले वो यहाँ CSIR मे काम करते थे, अमेरिका मे 
बहुत जल्दी बहुत नाम कमाया लेकिन जिस जगह पर उन्हे पहुचना चाहिए था वहाँ 
नहीं पहुच पाए, हरगोबिन्द खुराना को कौन नहीं जानता आपको भी याद होंगे, 
उनको भी कभी अपने संस्थान का निदेशक नहीं बनाया गया | नवम्बर 2011 में उनकी
 मृत्यु हो गयी, कितने अमरीकियों ने उनकी मृत्यु पर दुःख जताया और भारत के 
लोगों को तो हरगोबिन्द खुराना का नाम ही नहीं मालूम है, अपनी जमीन छोड़ने 
से यही होता है | ऐसे बहुत से भारतीय हैं, इन प्रतिभाशाली लोगों के बाहर 
चले जाने से हमे क्या घाटा होता है, जानते हैं आप ? हम फंडामेंटल रिसर्च मे
 बहुत पीछे चले जाते हैं, जब तक हमारे देश मे बेसिक रिसर्च नहीं होगी तो हम
 अप्लाइड फील्ड मे कुछ नहीं कर सकते हैं, सिवाए दूसरो के नकल करने के | 
मतलब हमारा नुकसान ही नुकसान और अमेरिका और युरोप का फायदा ही फायदा |सबसे 
बड़ी बात क्या है, हमारे देश मे सबसे बड़ा स्किल्ड मैंन पावर है चीन के 
बाद, हमारे पास 65 हज़ार वैज्ञानिक हैं, दुनिया के सबसे ज़्यादा 
इंजिनियरिंग कॉलेज हमारे देश मे हैं, अमेरिका से 4-5 गुना ज़्यादा 
इंजिनियरिंग कॉलेज हैं भारत मे, अमेरिका से ज़्यादा हाई-टेक रिसर्च 
इन्स्टिट्यूट हैं भारत मे, अमेरिका से ज़्यादा मेडिकल कॉलेज हैं भारत मे, 
हमारे यहाँ पॉलिटेक्निक, ITI की संख्या ज़्यादा है, नॅशनल लॅबोरेटरीस 44 से
 ज़्यादा हैं जो CSIR के कंट्रोल मे हैं, इतना सब होते हुए भी हम क्यों 
पीछे हैं ? हम क्यों नहीं नोबेल पुरस्कार विजेता पैदा कर पाते ?हमारी सबसे 
बड़ी कमी क्या है कि हम किसी भी आदमी को उसके डिग्री या पोस्ट से मापते हैं
 | हमारा सारा एजुकेशन सिस्टम डिग्री के खेल मे फँसा हुआ है इसलिए कई बार 
बिना डिग्री के वैज्ञानिक हमारे पास होते हुए भी हम उनका सम्मान नहीं कर 
पाते, उनको जो इज्ज़त मिलनी चाहिए वो हम नहीं दे पाते | जहाँ नोबेल 
पुरस्कार विजेता पैदा हो रहे हैं वहाँ की शिक्षा व्यवस्था पूरी तरह डिग्री 
से बाहर है | हमारे यहाँ जो शिक्षा व्यवस्था है वो अँग्रेज़ों के ज़माने का
 है उन्होने ही डिग्री और इंटेलेक्ट को जोड़ के हमारे सारे तकनीकी संरचना 
(टेक्नोलॉजिकल इनफ्रास्ट्रक्चरसिस्टम) को बर्बाद कर दिया | अँग्रेज़ों के 
ज़माने मे ये नियम था कि अगर आप उनके संस्थानों से डिग्री ले के नहीं निकले
 हैं तो आपकी पहचान नहीं होगी |चुकी उनके संस्थानों से कोई डिग्री लेता 
नहीं था तो उनकी पहचान नहीं होती थी | बाद मे उनके यहाँ से डिग्री लेना 
शुरू हुआ और आप देखते होंगे कि हमारे यहाँ बहुत से बैरिस्टर हुए उस ज़माने 
मे जिन्होंने लन्दन से बैरिस्टर की डिग्री ली थी | उनके तकनीकी संस्थाओं मे
 अगर आप चले जाएँ डिग्री लेने के लिए तो पढाई ऐसी होती थी की आप कोई बेसिक 
रिसर्च नहीं कर सकते थे, और संस्थान से बाहर रह के रिसर्च कर सकते हैं तो 
आपके पास डिग्री नहीं होगी और आपके पास डिग्री नहीं है तो आपका रेकग्निशन 
नहीं है | हमारे देश में बहुत सारे उच्च शिक्षा के केंद्र रहे 1840 -1850 
तक लेकिन अंग्रेजों की नीतियों की वजह से सब की सब समाप्त हो गयी और हमारे 
देश में किसी भी शासक ने इसे पुनर्स्थापित करने का नहीं सोचा | और उन 
Higher Learning Institutes में ऐसे ऐसे विषय पढाये जाते थे जो आज भी भारत 
में तो कम से कम नहीं ही पढाया जाता है |आपने धैर्यपूर्वक पढ़ा इसके लिए 
धन्यवाद् और अच्छा लगे तो इसे फॉरवर्ड कीजिये, आप अगर और भारतीय भाषाएँ 
जानते हों तो इसे उस भाषा में अनुवादित कीजिये (अंग्रेजी छोड़ कर), अपने 
अपने ब्लॉग पर डालिए, मेरा नाम हटाइए अपना नाम डालिए मुझे कोई आपत्ति नहीं 
है | मतलब बस इतना ही है की ज्ञान का प्रवाह होते रहने दीजिये |
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