Thursday, August 13, 2015

भारतवर्षीय इतिहास




भारतीय राष्ट्र की उन्नति और अवनति, उस की चेष्टा और शिथिलता, उस की भ्रांति और दक्षता, अनेक समय उस के नेताओं की मूर्खता तथा स्वार्थपरता के कारण उस के दु:खों और अन्यान्य समयों में उन की बुद्धिमत्ता तथा आत्मत्याग के कारण उस के सुखों का वृतांत है।
   
 यह निश्चित है कि हम भारतवासी जब भारतवर्ष का इतिहास पढ़ेंगे तो अपने पुरुषाओं के महान कार्यों को मनन कर उत्साहित होंगे, जातीय अभिमान (नेशनल स्पिरिट) उत्तेजित होगा तथा अपने कई पुरुषाओं कि भूलों को देखकर निश्चित पदों से उन्नति के मार्ग पर चलेंगे। कौन आर्य संतान है जो यह सुन कर प्रसन्न न होगा कि महाराज रामचन्द्र ऐसे धर्मात्मा पुरुष थे कि सत्य-प्रतिज्ञापालनार्थ उन्होने अयोध्या का राज्य परित्याग कर दिया, भीष्मपितामह ऐसे वीर थे कि वाणों कि शय्या पर पड़े हुए भी उपदेश कर रहे थे, प्राचीन आर्य ऐसे साहसी, परिश्रमी तथा ईश्वर भक्त थे कि वेद कि आज्ञा “समुद्रां गच्छस्वाहा अन्तरिक्ष गच्छस्वाहा” के पालनार्थ जलयान तथा आकाश यानों के द्वारा देश-देशान्तर की यात्रा करते और अपना धर्ममय राज्य सब के लिए सुखदायी बनाते थे। ऐसे-ऐसे योद्धा तथा विज्ञ थे कि सम्पूर्ण पृथ्वी के सुशासन और सुख के लिए सार्वभौम चक्रवर्ती साम्राज्य संस्थापित कर सकते थे, घोर महाभारत युद्ध के कारण बलहीन हो जाने पर भी आर्य इतने साहसी थे कि वे जावा, सुमात्रा आदि अनेक द्वीपों तथा अन्यान्य भू-भागों में भी अपने उपनिवेश (कालोनी) वसा सकते थे, गुप्त वंश के राजा इतने पराक्रमी थे कि उन का राजनैतिक संबंध रोमा और यूनान के साथ था। कौन ऐसा नीच आर्य होगा जिस के मन में इन वृतांतों के पढ़ने से यह प्रबल इच्छा उत्पन्न न होगी कि वह अपने प्रियदेश को उन्नत करने का पुन: प्रयत्न करें। इसी प्रकार भारत-संतान जब यह पढ़ेंगे कि भारत में मुसल्मानी राज्य केवल इस कारण संस्थापित हो सका कि कन्नौज के महाराज जयचंद थे निज द्वेषवश महाराज पृथिवीराय जी को पद दलित करने के लिए स्वदेश द्रोहता कि और नीच सिलाव ने ठीक उस समय जब कि मुसल्मानों के विरुद्ध आर्यों की जय होने वाली थी स्वदेशभक्त राणा-सांगा का साथ छोड़ दिया, तो क्या उनका मन ईर्षा द्वेष और अनैक्यता को दालन करने की चेष्टा न करेगा और उन के हृदय में स्वदेशभक्ति का प्रबल प्रवाह न होगा ?
                             इतिहास पढ़ने के लाभ
* स्वजाति और स्वदेश हित के भावों का प्रादुर्भाव ।
* देश में दुर्गुणों के नाश और सद्गुणों के प्रचार का प्रयत्न ।
* जाति के लिए सब प्रकार की उन्नति के मार्गों का सुगम होना ।

इन लाभों का भारतीयों को पूर्ण रूप से ज्ञान था इसी कारण राजा-महाराजा आदि राज अधिकारियों को इतिहास की अलग से शिक्षा का प्रावधान था। आज हमारा देश हजारों साल की गुलामी के कारण अपने पूर्वजों के सही इतिहास से पूर्णत: अनभिज्ञ है। हमें समझना होगा कि सही गौरवपूर्ण इतिहास के अभाव में हमारा राष्ट्र कभी भी पूर्ण सुखदायक उन्नति को प्राप्त नहीं हो सकेगा। अत: इतिहास को पूर्ण बुद्धिपूर्वक पढ़ना चाहिए क्योंकि इतिहास में कई सत्य वचन झूठे प्रतीत होते है जैसे प्राचीन काल में भारत में आज से अधिक विज्ञान था। इसी प्रकार कई झूठे वचन सही प्रतीत होते है जैसे लालकिला, ताजमहल आदि मुसल्मानों ने बनाए थे आदि। पुन: भारत को विश्वगुरु बनाने के लिए हमें अपने पुराने गौरवपूर्ण सही इतिहास को गढ़ना व पढ़ना होगा उसी में भारत व पूरे विश्व का हित है।
                                              पुराने इतिहास क्यों नहीं मिलते ?
मुसलमानों ने सांप्रदायिक पक्षपात के कारण आर्यों की पुस्तकों को जला दिया। बाद में अंग्रेजों ने भी भारतीय गौरवपूर्ण सत्य इतिहास को मिटाने में आखिरी कील ठोक दी क्योंकि स्वइतिहास के रहते किसी भी राष्ट्र व जाति को लंबे समय तक गुलाम नहीं बनाया जा सकता।
उदान्तापुरी के विहार मंदिर में (जिस के विषय में कहा जाता है कि वह बुद्धगया तथा नालंदा के विहार मंदिरों से भी ऊंचा था) ब्राह्मणों के बनाए ग्रन्थों का एक बहुत बड़ा महान पुस्तकालय था। इसमें 6000 साधु बताए जाते है। सन 1202 ई० में बख्तियार खिलजी के सेनापति मुहम्मद बिनकासिम ने जला दिया और साधुओं को मार डाला। इसी प्रकार नालंदा विश्वविद्यालय में जब मुस्लिमों ने आग लगाई तो कहते है कि ६ मास तक धुआँ उठता रहा। ऐसी दुर्घटनाएँ कितनी हुई इस का पता कौन लगा सकता है!    (वर्तमान संस्कृत ग्रन्थों में अनेक ऐसे ग्रन्थों के नाम आते है जिन का इस समय कहीं भी पता नहीं लगता । इसका कारण क्या ? यही कि अनेक भारतीय ग्रंथ मुसल्लों ने जला दिये।) जब आर्य जाति पर यह विपत्ति पड़ी तो उस के नेताओं ने यह सोचा कि इतिहासादि साधारण ग्रंथ तो फिर भी बन सकते हैं परंतु यदि वेदों, उपनिषदों तथा दर्शनादि शास्त्रों का नाश हो गया तो न केवल आर्य जाति ही विनष्ट हो जाएगी अपितु संसार मात्र की आत्मिक, मानसिक तथा सामाजिक उन्नतियों में बाधा पड़ेगी।  अतएव वे वेदों, उपनिषदों तथा दर्शनादि शास्त्रों ग्रन्थों को कंठस्थ करने लगे जिस से आर्यों के सैकड़ों ग्रंथ बच गए परंतु सहस्त्रों परमोपयोगी ग्रन्थों की रक्षा न हो सकी, वेदों की ८०० से भी अधिक शाखाओं का नाश हो गया, धनुर्वेद, आयुर्वेद, शिल्प विद्या (ज्ञान-विज्ञान), इतिहासादि के हजारों ग्रंथ विलुप्त हो गए।
                                      क्या प्राचीन आर्य इतिहास जानते थे ?
 यहाँ हम पश्चिमी इतिहासवेताओं के इस कथन की परीक्षा करनी है कि “प्राचीन आर्य ऐतिहासिक विद्या से अनभिज्ञ थे” । वास्तव में यदि यह लांछन ठीक हो तो हमें मानना पड़ेगा कि हमारे पुरुष अर्ध सभ्य थे क्योंकि केवल दो ही अवस्थाओं में कोई नेशन या जाति ऐतिहासिक ज्ञान से शून्य हो सकती
है :-
* कि उस के नेताओं ने कोई ऐसे कार्य न किए हो जिसे उन की सन्तति अभिमान युक्त स्मरण कर
  सके।
* कि उस के नेता अपनी सन्तति को ऐतिहासिक शिक्षा के लाभों से अवगत कर उन में देशभक्ति के
  भावों को उत्तेजित करने की आवश्यकता से अनभिज्ञ हों।
पहली अवस्था तो हो ही नहीं सकती, क्योंकि यह प्रख्यात है कि प्राचीन आर्यावर्त में रेखागणित, बीजगणित, ज्योतिष, पदार्थ व शिल्प विज्ञान महोन्नति को पहुंचे हुए थे, वैधक संबंधी आश्चर्य जनक अन्वेषण हो चुके थे, अध्यात्म-विद्या उन्नति के शिखर पर विराजमान थी, प्रजा-तंत्र शासन प्रणाली का प्रचार किया गया था तथा चक्रवर्ती साम्राज्य भी संस्थापित हो चुका था। अत: यह सिद्ध नहीं हो सकता कि प्राचीन आर्यों के कार्य ऐसे न थे जो उन के संतान के उच्च भावों को उत्तेजित करते और उन की उन्नति में सहायक हो सकते। वास्तव में उन के कार्य तो केवल भारत ही नहीं अपितु सर्व संसार को उन्नति के मार्ग पर चलने का आदेश करते है।
दूसरी अवस्था भी संघटित नहीं हो होती क्योंकि जब हम प्राचीन संस्कृत साहित्य को देखते है तो उसे इतिहास के गुण वर्णन से भरपूर पाते है। यहाँ पर थोड़े से उदाहरण प्रस्तुत कर रहे है :-
अथर्ववेद, काण्ड १५, अ० १, सूक्त ६, मंत्र १०, ११ तथा १२ में निम्नलिखित शिक्षा है :-
“महत्वभिलाषी पुरुष जब महत्व की ओर चलता है तब इतिहास, पुराण, गाथा और नाराशंसी उस के अनुगामी बन जाते है” इस बात को जो पुरुष जानता है वह इतिहास, पुराण, गाथा और नाराशंसी का प्रियधाम बन जाता है। (ये मंत्र इतिहास विद्या के बीज है)
गृह्य सूत्र में लिखा है कि ब्राह्मणों ग्रन्थों को इतिहास, पुराण, गाथा और नाराशंसी भी कहते है अर्थात ऐतरेय, शतपथ, साम और गोपथ जो ब्राह्मण ग्रन्थों के नाम से प्रसिद्ध है उनमें कई प्रकार के इतिहास विद्यमान है।
छंदोग्योपनिषद के सप्तम प्रपाठक में जहां महर्षि सनत्कुमार और ऋषि नारद का संवाद है वहाँ सनत्कुमार के पूछने पर नारद ने निम्नलिखित प्रकार बतलाया है कि उन्होने क्या-क्या अध्ययन किया है :-
हे भगवन ! मैंने ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, इतिहास-पुराण, वेदार्थ प्रतिपादकग्रंथ, पितृविद्या, राशि, दैव, निधिवाकोवाक्य, एकायनविद्या, देवविद्या, ब्रह्मविद्या, भूतविद्या, क्षत्रविद्या, नक्षत्रविद्या, सर्प देव जनविद्याओं का अध्ययन किया है। (इस उत्तर में इतिहास-पुराण अर्थात पुराकालीन इतिहास का नाम स्पष्ट आया है) ।
इसी प्रकरण में सनत्कुमार ने नारद को उपदेश दिया है :-
“विज्ञानेन वा ऋग्वेदं विजानाति यजुर्वेदं सामवेदमाथर्वणं चतुर्थमितिहास पुराणं पञ्चमं………….”
अर्थात विज्ञान (सायंस) के द्वारा ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, इतिहास-पुराण का तत्व ज्ञात होता है। (इस कथन का तात्पर्य तो यह है कि किसी समय इतिहासविद्या भारत में ऐसी उन्नति को प्राप्त थी कि उसके गूढ़ाशय पूर्ण ग्रन्थों को समझने के लिए विद्यार्थी को पहले विज्ञानवित अर्थात सायंस का ज्ञाता बनना पड़ता था।)
चतुषष्ठी (६४) कलाओं की गणना कराता हुआ एक कवि लिखता है :-
“इतिहासागमाद्याश्च काव्यालंकार नाटकम्……………………”
अर्थात इतिहास, वेद, काव्य, अलंकार, नाटक ………… आदि 64 कलाएं हैं।
राजकुमार चंद्रापीड़ को कौन-कौन सी विद्याएं पढ़ाई गई थी इसका वर्णन करता हुआ कवि बाण अपने ग्रन्थ कादंबरी में लिखता है :-
“स (चंद्रापीड़:) महाभारत पुरराणेतिहास रामायणेषु परं कौशलमवाप”
अर्थात वह राजकुमार महाभारत, इतिहास, पुराण, तथा रामायण में बड़ा कुशल हो गया।
राजा के वर्णन में कवि बाण ने कादंबरी में लिखा है :-
वह कभी-कभी प्रबन्ध, कहानियां, इतिहास, तथा पुराणों को सुनकर मित्रों के साथ दिन व्यतीत करता था।
महाभारत में लिखा है :-
“इतिहास पुराणाभ्यां वेदार्थमुपवृंहयेत्”
अर्थात इतिहास तथा पुराण से वेदार्थ दृढ़ करना चाहिए।
एक कवि लिखता है :- “धर्मार्थकाममोक्षाणामुपदेश समन्वितम् पूर्ववृत कथायुक्तमिति हासप्रचक्षेत”
अर्थात इतिहास वह विद्या है जिस में प्राचीन बातों के वर्णन के साथ-साथ धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष का उपदेश हो।
इस विषय में विदेशियों की साक्षी :-
* हयूनसेन लिखता है कि जब वह भारत यात्रा को आया था तो राज कि ओर से नीलपत्रियों का निर्माण
  होता था।
* मेगस्थनीज लिखते है कि उन्होने अपनी भारतीय यात्रा में देखा कि सुघटनाओं तथा दुर्घटनाओं के
  अंकित करने वाले राज कर्मचारी प्रत्येक प्रान्त में काम कर रहे थे।
* महाशय टाड लिखते है कि उन्होने “राजस्थान” के निर्माण करने में पुरानी पुस्तकों तथा सामयिक
  चरणों से सहायता ली।
* अबुल फज़ल का भारतीय इतिहास साक्षी देता है कि उनके समय तक भी कुछ ऐतिहासिक सामग्री
  भारत में विद्यमान थी।
        इन उदाहरणों से भली-भांति विदित होता है कि प्राचीन आर्य इतिहास को एक प्रकार का विज्ञान और धर्मार्थ काम मोक्ष की प्राप्ति में सहायक मानते थे एवं इसकी सहायता से अपने अनेक काव्यों को शिक्षा प्रद तथा मनोरंजक बनाया करते थे।
सोचने की बात है कि महाराज विक्रमादित्य कि 12वीं शताब्दी में जब की भारत का अध: पतन हो रहा था, कल्हन जैसे इतिहासवेता उत्पन्न हो सकते थे तो उस समय जबकि भारत उन्नति के शिखर पर था विराजमान था इस देश में कितने और कैसे-कैसे ऐतिहासिक विज्ञानी उत्पन्न हुए होंगे ! वही कल्हन लिखते है कि राजतरंगिणी लिखने के पूर्व मैंने 11 ऐतिहासिकों के पुस्तकों को पढ़ा था। परंतु शौक ! महाशौक! मुसलमानों के कारण उन में से एक का भी कहीं पता नहीं चलता । संस्कृत भाषा में ऐतिहासिक काव्यों कि विध्यमानता सिद्ध कर रही है कि प्राचीन आर्यावर्त में इतिहास पर कई पुस्तकें लिखी गई थी, यदि नहीं लिखी गई तो कवि कालिदास ने रघुवंश लिखने के लिए ऐतिहासिक सामग्री एकत्र कहाँ से कि थी? कई काव्यों के पढ़ने से पता चलता है कि एक समय इस देश के विद्यालयों में इतिहास भली-भांति पढ़ाया जाता था एवं इतिहास के अनेक ग्रन्थ उपस्थित थे। हर्षचरित में बाणभट्ट लिखता है कि जब महाराज हर्ष का चित्त उदास हुआ करता था तब वह इतिहास सुना करते थे पुन: वही कवि अपनी पुस्तक कादंबरी में कहते है कि राजा ने अपने पुत्र के लिए गुरुकुल खुलवाया और उस में भिन्न-भिन्न विद्याओं के अध्यापकों के साथ-साथ इतिहास का अध्यापक भी नियुक्त किया। यदि इतिहास थे ही नहीं तो अध्यापक इतिहास कैसे पढ़ते थे ? रामायण और महाभारत को महान ऐतिहासिक काव्य इस समय उपस्थित हैं। हालांकि उनमें मिलावट बहुत हैं तथापि उन के विषयों के ऐतिहासिक होने में कोई संदेह नहीं। यदि प्राचीन आर्य इतिहास के लाभों को नहीं समझते थे तो वाल्मीकि और व्यास ने इतनी बड़ी-बड़ी पुस्तकों के लिखने का कष्ट क्यों उठाया?
पूर्वोक्त प्रमाणों से यही परिणाम निकलता है कि प्राचीन आर्य ऐतिहासिक विज्ञान को जाते थे, उन्होने इतिहास की कई पुस्तकें लिखी जिन में से बहुतेरों का मुसल्लमानी राज्य के समय नाश हो गया ।

।।जय हिंदुत्व।। ।।जय श्रीराम।। ।।जय महाकाल।। ।।जय श्रीकृष्ण।।

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