Monday, June 15, 2015

दूब घास

दूब या 'दूर्वा' (वैज्ञानिक नाम- 'साइनोडान डेक्टीलान") वर्ष भर पाई जाने वाली घास है, जो ज़मीन पर पसरते हुए या फैलते हुए बढती है।

हिन्दू धर्म में इस घास को बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। हिन्दू संस्कारों एवं कर्मकाण्डों में इसका उपयोग बहुत किया जाता है।

इसके नए पौधे बीजों तथा भूमीगत तनों से पैदा होते हैं। वर्षा काल में दूब घास अधिक वृद्धि करती है तथा वर्ष में दो बार सितम्बर-अक्टूबर और फ़रवरी-मार्च में इसमें फूल आते है।

दूब सम्पूर्ण भारत में पाई जाती है। भगवान गणेश को दूब घास प्रिय है। यह घास औषधि के रूप में विशेष तौर पर प्रयोग की जाती है।

पौराणिक कथा

"त्वं दूर्वे अमृतनामासि सर्वदेवैस्तु वन्दिता।
वन्दिता दह तत्सर्वं दुरितं यन्मया कृतम॥"

पौराणिक कथा के अनुसार- समुद्र मंथन के दौरान एक समय जब देवता और दानव थकने लगे तो भगवान विष्णु ने मंदराचल पर्वत को अपनी जंघा पर रखकर समुद्र मंथन करने लगे।

मंदराचल पर्वत के घर्षण से भगवान के जो रोम टूट कर समुद्र में गिरे थे, वही जब किनारे आकर लगे तो दूब के रूप में परिणित हो गये।

अमृत निकलने के बाद अमृत कलश को सर्वप्रथम इसी दूब पर रखा गया था, जिसके फलस्वरूप यह दूब भी अमृत तुल्य होकर अमर हो गयी।

दूब घास विष्णु का ही रोम है, अतः सभी देवताओं में यह पूजित हुई और अग्र पूजा के अधिकारी भगवान गणेश को अति प्रिय हुई। तभी से पूजा में दूर्वा का प्रयोग अनिवार्य हो गया।[1]

एक अन्य कथा है कि पृथ्वी पर अनलासुर राक्षस के उत्पात से त्रस्त ऋषि-मुनियों ने देवराज इन्द्र से रक्षा की प्रार्थना की। लेकिन इन्द्र भी उसे परास्त न कर सके। देवतागण भगवान शिव के पास गए।

शिव ने कहा इसका नाश सिर्फ़ गणेश ही कर सकते हैं। देवताओं की स्तुति से प्रसन्न होकर श्रीगणेश ने अनलासुर को निगल लिया। जब उनके पेट में जलन होने लगी, तब ऋषि कश्यप ने 21 दुर्वा की गाँठ उन्हें खिलाई और इससे उनकी पेट की ज्वाला शांत हुई।[2]

भारतीय संस्कृति में महत्त्व

'भारतीय संस्कृति' में दूब को अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। चाहे 'नाग पंचमी' का पूजन हो या विवाहोत्सव या फिर अन्य कोई शुभ मांगलिक अवसर, पूजन-सामग्री के रूप में दूब की उपस्थिति से उस समय उत्सव की शोभा और भी बढ़ जाती है।

ज़मीन पर उगती दूब

दूब का पौधा ज़मीन से ऊँचा नहीं उठता, बल्कि ज़मीन पर ही फैला हुआ रहता है, इसलिए इसकी नम्रता को देखकर गुरु नानक ने एक स्थान पर कहा है-

नानकनी चाहो चले, जैसे नीची दूब
और घास सूख जाएगा, दूब खूब की खूब।

हिन्दू धर्म के शास्त्र भी दूब को परम-पवित्र मानते हैं। भारत में ऐसा कोई मांगलिक कार्य नहीं, जिसमें हल्दी और दूब की ज़रूरत न पड़ती हो।

दूब के विषय में एक संस्कृत कथन इस प्रकार मिलता है-

"विष्णवादिसर्वदेवानां दूर्वे त्वं प्रीतिदा यदा।
क्षीरसागर संभूते वंशवृद्धिकारी भव।।"

अर्थात "हे दुर्वा! तुम्हारा जन्म क्षीरसागर से हुआ है। तुम विष्णु आदि सब देवताओं को प्रिय हो।"

महाकवि तुलसीदास ने दूब को अपनी लेखनी से इस प्रकार सम्मान दिया है-

"रामं दुर्वादल श्यामं, पद्माक्षं पीतवाससा।"

प्रायः जो वस्तु स्वास्थ्य के लिए हितकर सिद्ध होती थी, उसे हमारे पूर्वजों ने धर्म के साथ जोड़कर उसका महत्व और भी बढ़ा दिया। दूब भी ऐसी ही वस्तु है। यह सारे देश में बहुतायत के साथ हर मौसम में उपलब्ध रहती है।

दूब का पौधा एक बार जहाँ जम जाता है, वहाँ से इसे नष्ट करना बड़ा मुश्किल होता है। इसकी जड़ें बहुत ही गहरी पनपती हैं। दूब की जड़ों में हवा तथा भूमि से नमी खींचने की क्षमता बहुत अधिक होती है,

यही कारण है कि चाहे जितनी सर्दी पड़ती रहे या जेठ की तपती दुपहरी हो, इन सबका दूब पर असर नहीं होता और यह अक्षुण्ण बनी रहती है।[3]

तंत्र शास्त्र में उल्लेख

पाँच दुर्वा के साथ भक्त अपने पंचभूत-पंचप्राण अस्तित्व को गुणातीत गणेश को अर्पित करते हैं। इस प्रकार तृण के माध्यम से मानव अपनी चेतना को परमतत्व में विलीन कर देता है।

गणेश की पूजा में दो, तीन या पाँच दुर्वा अर्पण करने का विधान तंत्र शास्त्र में मिलता है। इसके गूढ़ अर्थ हैं। संख्याशास्त्र के अनुसार दुर्वा का अर्थ जीव होता है, जो सुख और दु:ख ये दो भोग भोगता है। जिस प्रकार जीव पाप-पुण्य के अनुरूप जन्म लेता है।

उसी प्रकार दुर्वा अपने कई जड़ों से जन्म लेती है। दो दुर्वा के माध्यम से मनुष्य सुख-दु:ख के द्वंद्व को परमात्मा को समर्पित करता है। तीन दुर्वा का प्रयोग यज्ञ में होता है।

ये 'आणव'[4], 'कार्मण'[5] और 'मायिक'[6] रूपी अवगुणों का भस्म करने का प्रतीक है।[2]

उद्यानों की शोभा
दूब को संस्कृत में 'दूर्वा', 'अमृता', 'अनंता', 'गौरी', 'महौषधि', 'शतपर्वा', 'भार्गवी' इत्यादि नामों से जानते हैं।

दूब घास पर उषा काल में जमी हुई ओस की बूँदें मोतियों-सी चमकती प्रतीत होती हैं। ब्रह्म मुहूर्त में हरी-हरी ओस से परिपूर्ण दूब पर भ्रमण करने का अपना निराला ही आनंद होता है।

पशुओं के लिए ही नहीं अपितु मनुष्यों के लिए भी पूर्ण पौष्टिक आहार है दूब। महाराणा प्रताप ने वनों में भटकते हुए जिस घास की रोटियाँ खाई थीं, वह भी दूब से ही निर्मित थी।[3]

राणा के एक प्रसंग को कविवर कन्हैयालाल सेठिया ने अपनी कविता में इस प्रकार निबद्ध किया है-

अरे घास री रोटी ही,
जद बन विला वड़ो ले भाग्यो।

नान्हों सो अमरयौ चीख पड्यो,
राणा रो सोयो दुख जाग्यो।

1- ↑ दूब घास (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 15 अप्रैल, 2013।

2- ↑ 2.0 2.1 श्रीगणेश को अर्पित की जाती है दुर्वा (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 15 अप्रैल, 2013।

3- ↑ 3.0 3.1 दूब तेरा महिमा न्यारी (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 15 अप्रैल, 2013।

4- ↑ भौतिक

5- ↑ कर्मजनित

6- ↑ माया से प्रभावित

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