वेदों के विषय में सबसे अधिक प्रचलित अगर कोई शंका हैं तो वह हैं वह हैं कि क्या वेदों में पशुबलि, माँसाहार आदि का विधान हैं?
इस भ्रान्ति के होने के मुख्य-मुख्य कुछ कारण हैं। सर्वप्रथम तो पाश्चात्य विद्वानों जैसे मैक्समुलर , ग्रिफ्फिथ आदि द्वारा यज्ञों में पशुबलि, माँसाहार आदि का विधान मानना, द्वितीय मध्य काल के आचार्यों जैसे सायण , महीधर आदि का यज्ञों में पशुबलि का समर्थन करना, तीसरा ईसाईयों, मुसलमानों आदि द्वारा माँस भक्षण के समर्थन में वेदों कि साक्षी देना , चौथा साम्यवादी अथवा नास्तिक विचारधारा के समर्थकों द्वारा सुनी-सुनाई बातों को बिना जाँचें बार बार रटना।
किसी भी सिद्धांत अथवा किसी भी तथ्य को आँख बंद कर मान लेना बुद्धिमान लोगों का लक्षण नहीं हैं। हम वेदों के सिद्धांत कि परीक्षा वेदों कि साक्षी द्वारा करेगे जिससे हमारी भ्रान्ति का निराकरण हो सके।
शंका 1 क्या वेदों में मांस भक्षण का विधान हैं?
उत्तर:- वेदों में मांस भक्षण का स्पष्ट निषेध किया गया हैं। अनेक वेद मन्त्रों में स्पष्ट रूप से किसी भी प्राणि को मारकर खाने का स्पष्ट निषेध किया गया हैं। जैसे
हे मनुष्यों ! जो गौ आदि पशु हैं वे कभी भी हिंसा करने योग्य नहीं हैं - यजुर्वेद १।१
जो लोग परमात्मा के सहचरी प्राणी मात्र को अपनी आत्मा का तुल्य जानते हैं अर्थात जैसे अपना हित चाहते हैं वैसे ही अन्यों में भी व्रतते हैं-यजुर्वेद ४०। ७
हे दांतों तुम चावल खाओ, जौ खाओ, उड़द खाओ और तिल खाओ। तुम्हारे लिए यही रमणीय भोज्य पदार्थों का भाग हैं । तुम किसी भी नर और मादा की कभी हिंसा मत करो।- अथर्ववेद ६।१४०।२
वह लोग जो नर और मादा, भ्रूण और अंड़ों के नाश से उपलब्ध हुए मांस को कच्चा या पकाकर खातें हैं, हमें उनका विरोध करना चाहिए- अथर्ववेद ८।६।२३
निर्दोषों को मारना निश्चित ही महापाप है, हमारे गाय, घोड़े और पुरुषों को मत मार। -अथर्ववेद १०।१।२९
इन मन्त्रों में स्पष्ट रूप से यह सन्देश दिया गया हैं कि वेदों के अनुसार मांस भक्षण निषेध हैं।
शंका २ क्या वेदों के अनुसार यज्ञों में पशु बलि का विधान हैं?
यज्ञ कि महता का गुणगान करते हुए वेद कहते हैं कि सत्यनिष्ठ विद्वान लोग यज्ञों द्वारा ही पूजनीय परमेश्वर की पूजा करते हैं।
यज्ञों में सब श्रेष्ठ धर्मों का समावेश होता हैं। यज्ञ शब्द जिस यज् धातु से बनता हैं उसके देवपूजा, संगतिकरण और दान हैं। इसलिए यज्ञों वै श्रेष्ठतमं कर्म एवं यज्ञो हि श्रेष्ठतमं कर्म इत्यादि कथन मिलते हैं। यज्ञ न करने वाले के लिए वेद कहते हैं कि जो यज्ञ मयी नौका पर चढ़ने में समर्थ नहीं होते वे कुत्सित, अपवित्र आचरण वाले होकर यही इस लोक में नीचे-नीचे गिरते जाते हैं।
एक और वेद यज्ञ कि महिमा को परमेश्वर कि प्राप्ति का साधन बताते हैं दूसरी और वैदिक यज्ञों में पशुबलि का विधान भ्रांत धारणा मात्र हैं।
यज्ञ में पशु बलि का विधान मध्य काल कि देन हैं। प्राचीन काल में यज्ञों में पशु बलि आदि प्रचलित नहीं थे। मध्यकाल में जब गिरावट का दौर आया तब मांसाहार, शराब आदि का प्रयोग प्रचलित हो गया। सायण, महीधर आदि के वेद भाष्य में मांसाहार, हवन में पशुबलि, गाय, अश्व, बैल आदि का वध करने की अनुमति थी जिसे देखकर मैक्समुलर , विल्सन , ग्रिफ्फिथ आदि पाश्चात्य विद्वानों ने वेदों से मांसाहार का भरपूर प्रचार कर न केवल पवित्र वेदों को कलंकित किया अपितु लाखों निर्दोष प्राणियो को करवा कर मनुष्य जाति को पापी बना दिया। मध्य काल में हमारे देश में वाम मार्ग का प्रचार हो गया था जो मांस, मदिरा, मैथुन, मीन आदि से मोक्ष की प्राप्ति मानता था। आचार्य सायण आदि यूँ तो विद्वान थे पर वाम मार्ग से प्रभावित होने के कारण वेदों में मांस भक्षण एवं पशु बलि का विधान दर्शा बैठे। निरीह प्राणियों के इस तरह कत्लेआम एवं भोझिल कर्मकांड को देखकर ही महात्मा बुद्ध एवं महावीर ने वेदों को हिंसा से लिप्त मानकर उन्हें अमान्य घोषित कर दिया जिससे वेदों की बड़ी हानि हुई एवं अवैदिक मतों का प्रचार हुआ जिससे क्षत्रिय धर्म का नाश होने से देश को गुलामी सहनी पड़ी। इस प्रकार वेदों में मांसभक्षण के गलत प्रचार के कारण देश की कितनी हानि हुई इसका अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। एक ओर वेदों में जीव रक्षा और निरामिष भोजन का आदेश हैं तो दूसरी ओर उसके विपरीत उन्हीं वेदों में पशु आदि कि यज्ञों में बलि तर्क संगत नहीं लगती हैं। स्वामी दयानंद ने वेदभाष्य में मांस भक्षण ,पशुबलि आदि को लेकर जो भ्रान्ति देश में फैली थी उसका निवारण कर साधारण जनमानस के मन में वेद के प्रति श्रद्दा भाव उत्पन्न किया। वेदों में यज्ञों में पशु बलि के विरोध में अनेक मन्त्रों का विधान हैं जैसे:-
यज्ञ के विषय में अध्वर शब्द का प्रयोग वेद मन्त्रों में हुआ हैं जिसका अर्थ निरुक्त के अनुसार हिंसा रहित कर्म हैं।
हे ज्ञान स्वरुप परमेश्वर, तू हिंसा रहित यज्ञों (अध्वर) में ही व्याप्त होता हैं और ऐसे ही यज्ञों को सत्य निष्ठ विद्वान लोग सदा स्वीकार करते हैं। -ऋग्वेद 1/1 /4
यज्ञ के लिए अध्वर शब्द का प्रयोग ऋग्वेद 1/1/8, ऋग्वेद 1/14/21,ऋग्वेद 1/128/4 ऋग्वेद 1/19/1,, ऋग्वेद 3/21/1, सामवेद 2/4/2, अथर्ववेद 4/24/3, अथर्ववेद 1/4/2 इत्यादि मन्त्रों में इसी प्रकार से हुआ हैं। अध्वर शब्द का प्रयोग चारों वेदों में अनेक मन्त्रों में होना हिंसा रहित यज्ञ का उपदेश हैं।
हे प्रभु! मुझे सब प्राणी मित्र की दृष्टि से देखे, मैं सब प्राणियों को मित्र कि प्रेममय दृष्टि से देखूं , हम सब आपस में मित्र कि दृष्टि से देखें।- यजुर्वेद 36 /18
यज्ञ को श्रेष्ठतम कर्म के नाम से पुकारते हुए उपदेश हैं कि पशुओं कि रक्षा करे। - यजुर्वेद 1 /1
पति पत्नी के लिए उपदेश हैं कि पशुओं कि रक्षा करे। - यजुर्वेद 6/11
हे मनुष्य तुम दो पैर वाले अर्थात अन्य मनुष्यों एवं चार पैर वाले अर्थात पशुओं कि भी सदा रक्षा कर। - यजुर्वेद 14 /8
चारों वेदों में दिए अनेक मन्त्रों से यह सिद्ध होता हैं कि यज्ञों में हिंसा रहित कर्म करने का विधान हैं एवं मनुष्य का अन्य पशु पक्षियों कि रक्षा करने का स्पष्ट आदेश हैं।
शंका 3 क्या वेदों में वर्णित अश्वमेध, नरमेध, अजमेध, गोमेध में घोड़ा, मनुष्य, गौ कि यज्ञों में बलि देने का विधान नहीं हैं ? मेध का मतलब है मारना जिससे यह सिद्ध होता हैं?
उत्तर: मेध शब्द का अर्थ केवल हिंसा नहीं है. मेध शब्द के तीन अर्थ हैं १. मेधा अथवा शुद्ध बुद्धि को बढ़ाना २. लोगो में एकता अथवा प्रेम को बढ़ाना ३. हिंसा। इसलिए मेध से केवल हिंसा शब्द का अर्थ ग्रहण करना उचित नहीं हैं।
जब यज्ञ को अध्वर अर्थात ‘हिंसा रहित‘ कहा गया है, तो उस के सन्दर्भ में ‘ मेध‘ का अर्थ हिंसा क्यों लिया जाये? बुद्धिमान व्यक्ति ‘मेधावी‘ कहे जाते हैं और इसी तरह, लड़कियों का नाम मेधा, सुमेधा इत्यादि रखा जाता है, तो क्या ये नाम क्या उनके हिंसक होने के कारण रखे जाते हैं या बुद्धिमान होने के कारण?
अश्वमेध शब्द का अर्थ यज्ञ में अश्व कि बलि देना नहीं हैं अपितु शतपथ १३.१.६.३ और १३.२.२.३ के अनुसार राष्ट्र के गौरव, कल्याण और विकास के लिए किये जाने वाले सभी कार्य “अश्वमेध” हैं ।
गौ मेध का अर्थ यज्ञ में गौ कि बलि देना नहीं हैं अपितु अन्न को दूषित होने से बचाना, अपनी इन्द्रियों को वश में रखना, सूर्य की किरणों से उचित उपयोग लेना, धरती को पवित्र या साफ़ रखना -‘गोमेध‘ यज्ञ है। ‘ गो’ शब्द का एक और अर्थ हैं पृथ्वी। पृथ्वी और उसके पर्यावरण को स्वच्छ रखना ‘गोमेध’ कहलाता है।
नरमेध का अर्थ हैं मनुष्य कि बलि देना नहीं हैं अपितु मनुष्य की मृत्यु के बाद उसके शरीर का वैदिक रीति से दाह संस्कार करना नरमेध यज्ञ है। मनुष्यों को उत्तम कार्यों के लिए प्रशिक्षित एवं संगठित करना नरमेध या पुरुषमेध या नृमेध यज्ञ कहलाता है।
अजमेध का अर्थ बकरी आदि कि यज्ञ में बलि देना नहीं हैं अपितु अज कहते हैं बीज, अनाज या धान आदि कृषि की पैदावार बढ़ाना हैं। अजमेध का सिमित अर्थ अग्निहोत्र में धान आदि कि आहुति देना हैं।
शंका 4: यजुर्वेद मन्त्र 24/29 में हस्तिन आलभते अर्थात हाथियों को मारने का विधान हैं?
समाधान :- ’लभ्’ धातु से बनने वाला आलम्भ शब्द का अर्थ मारना नहीं अपितु अच्छी प्रकार से प्राप्त करना , स्पर्श करना या देना होता हैं। हस्तिन शब्द का अर्थ अगर हाथी ले तो इस मंत्र में राजा को अपने राज्य के विकास हेतु हाथी आदि को प्राप्त करना, अपनी सेनाओं को सुदृढ़ करना बताया गया हैं। यहाँ पर हिंसा का कोई विधान नहीं हैं।
पारस्कर सूत्र 2 /2 /16 में कहा गया हैं कि आचार्य ब्रह्मचारी का आलम्भ अर्थात ह्रदय का स्पर्श करता हैं। यहाँ पर आलम्भ का अर्थ स्पर्श आया हैं।
पारस्कर सूत्र 1 /8 /8 में ही आया हैं कि वर वधु के दक्षिण कंधे के ऊपर हाथ ले जाकर उसके ह्रदय का स्पर्श करे। यहाँ पर भी आलम्भ का अर्थ स्पर्श आया हैं।
अगर यहाँ पर आलम्बन शब्द का अर्थ मरना ग्रहण करे तो यह कैसे युक्तिसंगत एवं तर्क संगत सिद्ध होगा? इससे सिद्ध होता हैं कि आलम्भ शब्द का अर्थ ग्रहण करना , प्राप्त करना अथवा स्पर्श करना हैं।
शंका 5 : वेद, ब्राह्मण एवं सूत्र ग्रंथों में संज्ञपन शब्द आया है जिसका अर्थ पशु को मारना हैं ?
समाधान:- संज्ञपन शब्द का अर्थ हैं ज्ञान देना दिलाना तथा मेल कराना हैं।
अथर्ववेद 6/10/14-15 में लिखा हैं कि तुम्हारे मन का ज्ञानपूर्वक अच्छी प्रकार (संज्ञपन) मेल हो, तुम्हारे हृदयों का ज्ञान पूर्वक अच्छी प्रकार (संज्ञपन) मेल हो।
इसी प्रकार शतपथ ब्राह्मण 1/4 में एक आख्यानिका हैं जिसका अर्थ हैं- मैं वाणी तुझ मन से अधिक अच्छी हूँ, तू जो कुछ मन में चिंतन करता हैं मैं उसे प्रकट करती हूँ, मैं उसे अच्छी प्रकार से दूसरों को जतलाती हूँ (संज्ञपयामी)
संज्ञपन शब्द का मेल के स्थान पर हिंसापरक अर्थ करना अज्ञानता का परिचायक हैं।
शंका 6 : वेदों में गोघ्न अर्थात गायों के वध करने का आदेश हैं।
समाधान : गोघ्न शब्द में हन धातु का प्रयोग हैं जिसके दो अर्थ बनते हैं हिंसा और गति। गोघ्न में उसका गति अथवा ज्ञान, गमन, प्राप्ति विषयक अर्थ हैं। मुख्य भाव यहाँ प्राप्ति का हैं, अर्थात जिसे उत्तम गौ प्राप्त कराई जाये।
हिंसा के प्रकरण में वेद का उपदेश गौ कि हत्या करने वाले से दूर रहने का हैं।
ऋग्वेद 1 /114 /10 में लिखा हैं जो गोघ्न - गौ कि हत्या करनेवाला हैं अह नीच पुरुष हैं , वह तुमसे दूर रहे।
वेदों के कई उदाहरणों से पता चलता है कि ‘हन्’ का प्रयोग किसी के निकट जाने या पास पहुंचने के लिए भी किया जाता है उदहारण में अथर्ववेद 6 /101 /1 में पति को पत्नी के पास जाने का उपदेश है। इस मंत्र का यह अर्थ कि पति पत्नी के पास जाये उचित प्रतीत होता हैं नाकि पति द्वारा पत्नी को मारना उचित सिद्ध होता हैं। इसलिए हनन का केवल हिंसा अर्थ गलत परिपेक्ष में प्रयोग करना भ्रम फैलाने के समान हैं।
शंका 7 - वेदों में अतिथि को भोजन में गौ आदि का मांस पका कर खिलाने का आदेश हैं।
समाधान- ऋग्वेद के मंत्र 10 /68 /3 में अतिथिनीर्गा: का अर्थ अतिथियों के लिए गौए किया गया हैं जिसका तात्पर्य यह प्रतीत होता हैं कि किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति के आने पर गौ को मारकर उसके मांस से उसे तृप्त किया जाता था।
यहाँ पर जो भ्रम हुआ हैं उसका मुख्य कारण अतिथिनी शब्द को समझने कि गलती के कारण हुआ हैं। यहाँ पर उचित अर्थ बनता हैं ऐसी गौएं जो अतिथियों के पास दानार्थ लाई जायें, उन्हें दान कि जायें। Monier Williams ने भी अपनी संस्कृत इंग्लिश शब्दकोश में अतिथिग्व का अर्थ "To whom guests should go " (P.14) अर्थात जिसके पास अतिथि प्रेम वश जायें ऐसा किया हैं। श्री Bloomfield ने भी इसका अर्थ "Presenting cows to guests" अर्थात अतिथियों को गौएं भेंट करनेवाला ही किया हैं। अतिथि को गौ मांस परोसना कपोलकल्पित हैं।
शंका 8 - वेदों में बैल को मार कर खाने का आदेश हैं।
समाधान- यह भी एक भ्रान्ति हैं कि वेदों में बैल को खाने का आदेश हैं। वेदों में जैसे गौ के लिए अघन्या अर्थात न मारने योग्य शब्द का प्रयोग हैं उसी प्रकार से बैल के लिए अघ्न्य शब्द का प्रयोग हैं।
यजुर्वेद 12/73 में अघन्या शब्द का प्रयोग बैल के लिए हुआ हैं। इसकी पुष्टि सायणाचार्य ने काण्वसंहिता में भी कि हैं।
इसी प्रकार से अथर्ववेद 9/4/17 में लिखा हैं कि बैल सींगों से अपनी रक्षा स्वयं करता हैं, परन्तु मानव समाज को भी उसकी रक्षा में भाग लेना चाहिए।
अथर्ववेद 9/4/19 मंत्र में बैल के लिए अधन्य और गौ के लिए अधन्या शब्दों का वर्णन मिलता हैं। यहाँ पर लिखा हैं कि ब्राह्मणों को ऋषभ (बैल) का दान करके यह दाता अपने को स्वार्थ त्याग द्वारा श्रेष्ठ बनाता हैं। वह अपनी गोशाला में बैलों और गौओं कि पुष्टि देखता हैं।
अथर्ववेद 9/4/20 मंत्र में जो सत्पात्र में वृषभ (बैल) का दान करता हैं उसकी गौएं संतान आदि उत्तम रहती हैं।
इन उदहारणों से यह सिद्ध होता हैं कि गौ के साथ साथ बैल कि रक्षा का वेद सन्देश देते हैं।
शंका 9 - वेद में वशा / वंध्या अर्थात वृद्ध गौ अथवा बैल (उक्षा) को मारने का विधान हैं।
समाधान-
शंका का कारण ऋग्वेद 8/43/11 मंत्र के अनुसार वन्ध्या गौओं कि अग्नि में आहुति देने का विधान बताया गया हैं। यह सर्वथा अशुद्ध हैं।
इस मंत्र का वास्तविक अर्थ निघण्टु 3 /3 के अनुसार यह हैं कि जैसे महान सूर्य आदि भी जिसके प्रलयकाल में (वशा) अन्न व भोज्य के समान हो जाते हैं। इसका शतपथ 5/1/3 के अनुसार अर्थ हैं पृथ्वी भी जिसके (वशा) अन्न के समान भोज्य हैं ऐसे परमेश्वर कि नमस्कार पूर्वक स्तुतियों से सेवा करते हैं।
वेदों के विषय में इस भ्रान्ति के होने का मुख्य कारण वशा, उक्षा, ऋषभ आदि शब्दों के अर्थ न समझ पाना हैं।
यज्ञ प्रकरण में उक्षा और वशा दोनों शब्दों के औषधि परक अर्थ का ग्रहण करना चाहिए, जिन्हें अग्नि में डाला जाता हैं।
सायणाचार्य एवं मोनियर विलियम्स के अनुसार उक्षा शब्द के सोम, सूर्य, ऋषभ नामक औषधि हैं।
वशा शब्द के अन्य अर्थ अथर्ववेद 1/10/1 के अनुसार ईश्वरीय नियम वा नियामक शक्ति हैं। शतपथ 1/8/3/15 के अनुसार वशा का अर्थ पृथ्वी भी हैं / अथर्ववेद 20/103/15 के अनुसार वशा का अर्थ संतान को वश में रखने वाली उत्तम स्त्री भी हैं।
इस सत्यार्थ को न समझ कर वेद मन्त्रों का अनर्थ करना निंदनीय हैं।
शंका 10-वेदादि धर्म ग्रंथों में माष शब्द का उल्लेख हैं जिसका अर्थ मांस खाना हैं।
समाधान- माष शब्द का प्रयोग ‘माषौदनम्‘ के रूप में हुआ है। इसे बदल कर किसी मांसभक्षी ने मांसौदनम् अर्थ कर दिया हैं। यहाँ पर माष एक दाल के समान वर्णित है। इसलिए यहाँ मांस का तो प्रश्न ही नहीं उठता। आयुर्वेद (सुश्रुत संहिता शरीर अध्याय २) गर्भवती स्त्रियों के लिए मांसाहार को सख्त मना करता है और उत्तम संतान पाने के लिए माष सेवन को हितकारी कहता है। इससे क्या स्पष्ट होता हैं। यही कि माष शब्द का अर्थ मांसाहार नहीं अपितु दाल आदि को खाने का आदेश हैं। फिर भी अगर कोई माष को मांस ही कहना चाहे, तब भी मांस को निरुक्त 4/1/3 के अनुसार मनन साधक, बुद्धि वर्धक और मन को अच्छी लगने वाली वास्तु जैसे फलका गूदा , खीर आदि कहा गया हैं। प्राचीन ग्रंथों में मांस अर्थात गूदा खाने के अनेक प्रमाण मिलते हैं जैसे चरक संहिता देखे में आम्रमांसं (आम का गूदा) , खजूरमांसं (खजूर का गूदा), तैत्तरीय संहिता २.३२.८ (दही, शहद और धान) को मांस कहा गया है।
इससे यही सिद्ध होता हैं कि वेदादि शास्त्रों में जहाँ पर माष शब्द आता हैं अथवा मांस के रूप में भी जिसका प्रयोग हुआ हैं उसका अर्थ दाल अथवा फलों का मध्य भाग अर्थात गूदा हैं।
शंका 11- वेदों में यज्ञ में घोड़े कि बलि देने का और घोड़े का मांस पकाने का वेदों में आदेश हैं।
समाधान- यजुर्वेद के 25 अध्याय में सायण, महीधर, उव्वट, ग्रिफ्फिथ, मैक्समुलर आदि ने अश्व हिंसापरक अर्थ किये हैं। इसका मुख्य कारण वाजिनम् शब्द के अर्थ को न समझना हैं। वाजिनम् का अश्व के साथ साथ अन्य अर्थ है शूर, बलवान, गतिशील और तेज।
यजुर्वेद के 25/34 मंत्र का अर्थ करते हुए सायण लिखते हैं कि अग्नि से पकाए, मरे हुए तेरे अवयवों से जो मांस- रस उठता है वह वह भूमि या तृण पर न गिरे, वह चाहते हुए देवों को प्राप्त हो।
इस मंत्र का अर्थ स्वामी दयानंद वेद भाष्य में लिखते हैं - हे मनुष्य जो ज्वर आदि से पीड़ित अंग हो उन्हें वैद्य जनों से निरोग कराना चाहिए क्यूंकि उन वैद्य जनों द्वारा जो औषध दिया जाता हैं वह रोगीजन के लिए हितकारी होता हैं एवं मनुष्य को व्यर्थ वचनों का उच्चारण न करना चाहिए, किन्तु विद्वानों के प्रति उत्तम वचनों का ही सदा प्रयोग करना चाहिए।
अश्व कि हिंसा के विरुद्ध यजुर्वेद 13/47 मंत्र का शतपथकार ने पृष्ठ 668 पर अर्थ लिखा हैं कि अश्व कि हिंसा न कर।
यजुर्वेद 25/44 के यज्ञ में घोड़े कि बलि के समर्थन में अर्थ करते हुए सायण लिखते हैं कि हे अश्व ! तू अन्य अश्वों कि तरह मरता नहीं क्यूंकि तुझे देवत्व प्राप्ति होगी और न हिंसित होता हैं क्यूंकि व्यर्थ हिंसा का यहां अभाव हैं। प्रत्यक्ष रूप में अवयव नाश होते हुए ऐसा कैसे कहते हो? इसका उत्तर देते हैं कि सुंदर देवयान मार्गों से देवों को तू प्राप्त होता हैं, इसलिए यह हमारा कथन सत्य हैं।
इस मंत्र का स्वामी दयानंद अर्थ करते हैं कि जैसे विद्या से अच्छे प्रकार प्रयुक्त अग्नि, जल, वायु इत्यादि से युक्त रथ में स्थित हो के मार्गों से सुख से जाते हैं, वैसे ही आत्मज्ञान से अपने स्वरुप को नित्य जान के मरण और हिंसा के डर को छोड़कर दिव्य सुखों को प्राप्त हो।
पाठक स्वयं विचार करे कहाँ स्वामी दयानंद द्वारा किया गया सच्चा उत्तम अर्थ और कहा सायण आदि के हिंसापरक अर्थ। दोनों में आकाश-पाताल का भेद हैं। ऐसा ही भेद वेद के उन सभी मन्त्रों में हैं जिनका अर्थ हिंसापरक रूप में किया गया हैं अत: वे मानने योग्य नहीं हैं।
शंका 12 - क्या वेदों के अनुसार इंद्र देवता बैल खाता हैं?
समाधान - इंद्र द्वारा बैल खाने के समर्थन में ऋग्वेद 10/28/3 और 10/86/14 मंत्र का उदहारण दिया जाता हैं। यहाँ पर वृषभ और उक्षन् शब्दों के अर्थ से अनभिज्ञ लोग उनका अर्थ बैल कर देते हैं। ऋग्वेद में लगभग 20 स्थलों पर अग्नि को, 65 स्थलों पर इंद्र को, 11 स्थलों पर सोम को, 3 स्थलों पर पर्जन्य को, 5 स्थलों पर बृहस्पति को, 5 स्थलों पर रूद्र को वृषभ कहा गया हैं । व्याख्याकारों के अनुसार वृषभ का अर्थ यज्ञ हैं।
उक्षन् शब्द का अर्थ ऋग्वेद में अग्नि, सोम, आदित्य, मरुत आदि के लिए प्रयोग हुआ हैं।
जब वृषभ और उक्षन् शब्दों के इतने सारे अर्थ वेदों में दिए गये हैं तब उनका व्यर्थ ही बैल अर्थ कर उसे इंद्र को खिलाना युक्तिसंगत एवं तर्कपूर्ण नहीं हैं।
इसी सन्दर्भ में ऋग्वेद में इंद्र के भोज्य पदार्थ निरामिष रुपी धान, करम्भ, पुरोडाश तथा पेय सोमरस हैं नाकि बैल को बताया गया हैं।
शंका 13 - वेदों में गौ का क्या स्थान हैं ?
समाधान- यजुर्वेद 8/43 में गाय का नाम इडा, रन्ता, हव्या, काम्या, चन्द्रा, ज्योति, अदिति, सरस्वती, महि, विश्रुति और अध्न्या कहा गया हैं। स्तुति कि पात्र होने से इडा, रमयित्री होने से रन्ता, इसके दूध कि यज्ञ में आहुति दी जाने से हव्या, चाहने योग्य होने से काम्या, ह्रदय को प्रसन्न करने से चन्द्रा, अखंडनीय होने से अदिति, दुग्ध वती होने से सरस्वती, महिमशालिनी होने से महि, विविध रूप में श्रुत होने से विश्रुति तथा न मारी जाने योग्य होने से अधन्या कहलाती हैं ।
अघन्या शब्द में गाय का वध न करने का सन्देश इतना स्पष्ट हैं कि विदेशी लेखक भी उसे भली प्रकार से स्वीकार करते हैं।
हे गौओ, तुम पूज्य हो, तुम्हारी पूज्यता मैं भी प्राप्त करूं। - यजुर्वेद 3/20
मैं समझदार मनुष्य को कहे देता हूं कि तू बेचारी बेकसूर गाय कि हत्या मत कर, वह अदिति हैं काटने-चीरने योग्य नहीं हैं। - ऋग्वेद 8/101/15
उस देवी गौ को मनुष्य अल्प बुद्धि होकर मारे-काटे नहीं। - ऋग्वेद 8/101/16
निरपराध कि हत्या बड़ी भयंकर होती हैं, अत: तू हमारे गाय,घोड़े और पुरुष को मर मार। - अथर्ववेद 10/1/29
गौएं वधशाला में न जाएं। - ऋग्वेद 6/28/4
गाय का वध मत कर। - यजुर्वेद 13/43
वे लोग मुर्ख हैं जो कुत्ते से या गाय के अंगों से यज्ञ करते हैं। - अथर्ववेद 7/5/5
इसके अतिरिक्त भी वेदों में अनेक मंत्र गौ रक्षा के लिए दिए गये हैं। पाठक विचार करे कि जब वेदों में गौ रक्षा कि इतनी स्पष्ट साक्षी हैं ,तब उन्हीं वेदों में यज्ञ में पशु हिंसा का सन्देश कैसे हो सकता हैं।
शंका 14 - वेदों में गौ हत्या करने वाले के लिए क्या विधान हैं?
समाधान- वेदों में गाय हत्यारे के लिए कठिन से कठिन दंड का विधान हैं।
जो गौ हत्या करने वाला हो उसे मृत्यु दंड दिया जाये। - यजुर्वेद 30/18
हे गौऔ ! तुम प्रजाओं से सम्पन्न होकर उत्तम घास वाले चरागाहों में विचरो। सुखपूर्वक जिनसे जल पिया जा सके ऐसे जलाशयों में से शुद्ध जल को पियो। चोर और घातक तुम्हारा स्वामी न बने, क्रूर पुरुष का शास्त्र भी तुम्हारे ऊपर न गिरे।- अथर्ववेद 4/21/7
गौ हत्या करने वाले के लिए स्पष्ट कहा गया हैं कि यदि तू हमारे गाय, घोड़े आदि पशुओं कि हत्या करेगा तो हम तुझे सीसे कि गोली से उड़ा देंगे। - अथर्ववेद 1/16/4
वेदों में गौ हत्या पर मृत्यु दंड का विधान होने के बाद भी मध्य काल में यज्ञों में पशु बलि का प्रचलित होने का कारण राजाओं द्वारा संस्कृत एवं वेद ज्ञान से अनभिज्ञ होना था। दंड देने का कर्त्तव्य राजाओं का हैं जब राजा को ही यह नहीं सिखलाया गया कि गौ हत्यारे को क्या दंड दे तो वह कैसे दंड देते? इसके विपरीत यह बताया गया कि होम में बलि दिया गया पशु स्वर्ग को जाता हैं।
इन प्रमाणों से यही सिद्ध होता हैं कि यज्ञ में किसी भी पशु कि बलि का कोई भी विधान वेदों के सत्य उपदेश के अनुकूल नहीं हैं एवं जो कुछ भी मध्य काल में प्रचलित हुआ वह वेदों के मनमाने अर्थ करने से हुआ हैं जोकि त्यागने योग्य हैं।
आधुनिक भारत में सायण, महीधर आदि भारतीय आचार्यों, मैक्समुलर, विल्सन, ग्रिफ्फिथ आदि के प्रचलित वेद भाष्यों को जब स्वामी दयानंद ने सत्य अर्थ कि दृष्टि से विश्लेषण किया तब उन्होंने पाया वेदों के भाष्यों में वेदों कि मूल भावना के विपरीत मनमाने अर्थ निकाले गये हैं। एक और भारतीय आचार्य वाममार्ग के प्रभाव में आकर वेदों को मांसभक्षण का समर्थक घोषित करने पर उतारू थे दूसरी और विदेशी चिंतक अपनी मतान्धता के जोश में वेदों के स्वार्थपूर्ति के लिए निंदक अर्थ निकाल रहे थे जिससे कि वेदों के प्रति भारतीय जनमानस में श्रद्धा समाप्त हो जाये और उनका मार्ग प्रशस्त हो सके। धन्य हैं स्वामी दयानंद जिन्होंने अपनी दूर दृष्टि से इस षडयन्त्र को न केवल पकड़ लिया अपितु निराकरण के लिए वेदों को उचित भाष्य भी किया। हम सभी को स्वामी जी के इस उपकार का आभारी होना चाहिए।
1 comment :
sir apne apne tareeke se ab bahut log bahut si vyakhyayein kar rahe hain...magar sach ye hi hai ki vaidik yug mein pashu bali hoti thi...!!!
Post a Comment