हिन्दू धर्म के पतन का कारण
सिर्फ़ और सिर्फ़ हिंदुओ की गंदी और कमजोर मंदिर प्रबंधन की व्यवस्था तथा
ईसाई मुसलमानो की मजबूत चर्च और मस्ज़िद प्रबंधन की व्यवस्था है और जो नेता
लोग हिंदुओ की गंदी व्यवस्था मे फल फूल रहे हैं वो हमेशा हिंदुओ के पतन के
लिये एकता की कमी को जिम्मेवार ठहराते हुए उन्हे कोसते हैंमगर व्यवस्था को
सुधारने का समर्थन नहीं करते । इस लेख में विस्तार से इस विषय को समझाया
गया है तथा इसका समाधान भी बताया गया है कृपया ध्यान से पढें।
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मस्जिद चर्च और गुरुद्वारा व्यक्तिगत सम्पत्ति नहीं होते हैं और उनमे उत्तराधिकारी बनाने की परंपरा नहीं होती और ईमाम एवं पादरी भी अस्थायी रूप से नियुक्त होते हैं।
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चर्च ऑफ़ इंग्लैण्ड नामक एक प्रोटेस्टेंट संप्रदाय में चर्च के पैसों के वितरण सम्बन्धी सभी निर्णय (फैसला) पादरी (priests) लेते हैं। परन्तु ये पादरी प्रधानमंत्री / सांसदों के द्वारा रखे गये होते हैं तथा कोई भी आपराधिक कार्य करने पर ज्यूरी के कंट्रोल (नियंत्रण) में होते हैं । साथ हीं चर्च की संपत्ति पर उनका कोई उत्तराधिकार (वारिस) नही होता। अन्य सभी प्रोटेस्टेंट सम्प्रदायों में स्थानीय बुजुर्गों द्वारा पादरी नियुक्त किया जाता है। इसीलिए चर्च के पैसों पर उत्तराधिकार (वारिस) लागू नही होता। और इसलिए प्रोटेस्टेंट चर्चों में धन इकठ्ठा करने की ओर झुकाव नही पाया जाता । और वे इस धन को समुदाय के निर्माण व विकास में उपयोग करते हैं। कैथोलिकों में चर्च के पैसों के समाज में बांटने सम्बन्धी निर्णय पादरी द्वारा लिए जाते हैं, जो कि पोप के अधीन होता है। अगले पोप के नौकरी पर रखने के लिए 100-200 सर्वाधिक पुराने पादरी जिन्हें कार्डिनल्स कहते हैं, मिलकर करते हैं। उत्तराधिकार यहाँ भी नही होता, चूँकि पादरी शादी नहीं कर सकता तथा उनमें गुरु प्रथा भी नही होती। मतलब वर्तमान पादरी द्वारा अगले पादरी की नियुक्ति नहीं की जाती। इसीलिए कैथोलिक चर्चों में भी संपत्ति संग्रह नही होता, तथा ये भी दान में मिले पैसों को समुदाय के निर्माण व विस्तार पर खर्च करते हैं।
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मस्जिदों में ईमामो का एक जगह से दूसरी जगह ट्रांसफ़र होता रहता है। और यह उत्तराधिकार के आधार पर नहीं अपितु योग्यता के आधार पर है। और मस्जिद का मैनेजमेंट स्थानीय सम्मानित बुजुर्ग लोग करते हैं और उनकी ट्रस्टी के रूप में नियुक्ति भी सीमित समय के लिये होती है.. समय समय पर दान का पैसा किस चीजों पर खर्च हुआ इसका हिसाब किताब स्थानीय लोग पब्लिक मीटिंग में लेते हैं.और गल्फ़ कंट्रीज़ से जो पैसा आता है उस देश की सरकारें भी इस बात के प्रति सजग होती हैं ताकि पैसा इस्लाम के प्रचार प्रसार मे खर्च हो!! साथ ही साथ ईमाम/काज़ी इत्यादि लोगों के आपसी विवादों को भी सुलझाने का काम करते हैं जिससे कि लोगों के बीच विवाद नहीं बढता है.यानि कि हिंदुत्ववादियों की भाषा मे बोलें तो उनमे "एकता रहती है"और मस्जिदों की इस मजबूत व्यवस्था को मुस्लिम राजाओ ने सैकडों साल तक भारत मे मजबूत बनाये रखा ताकि अधिक से अधिक लोग इस्लाम स्वीकार करें. यही कारण रहा कि अंग्रेज राज आने पर भी यह व्यवस्था बरकरार रही क्योंकि मुसलमान जनता यह समझती थी कि इस व्यवस्था से उसका फ़ायदा है और इस व्यवस्था को तोडने के प्रत्येक प्रयास के खिलाफ़ वह उठ खडी होती.और यह व्यवस्था आज भी बरकरार है।
. उसी प्रकार गुरुद्वारों के महन्तों का चुनाव सिख जनता के द्वारा नियमित रूप से सिख गुरुद्वारा ऐक्ट १९२५ , दिल्ली गुरुद्वारा ऐक्ट १९७० इत्यादि के अंतर्गत किया जाता हैगुरुद्वारों की व्यवस्था भी शुरु से प्रजातांत्रिक रही है जिसका लाभ सिख जनता को मिलता रहा है। १९२० के आसपास जब अंग्रेजों ने अपने पिठ्ठू उदासी महंतों को अकाल तख्त की गद्दी पर बिठा दिया तब उसके खिलाफ़ सिख जनता ने विद्रोह करके ब्रिटिश से सिख गुरुद्वारा ऐक्ट १९२५ पास करवाया जिसमे प्रजातांत्रिक व्यवस्था को कानूनी संरक्षण मिल गया जो कि पहले नहीं था.यही कारण है कि जो भी धन मस्जिद चर्च अथवा गुरुद्वारे मे जाता है उसका उपयोग अपने समुदाय के लोगों को धर्म की शिक्षा अथवा स्कूल खोलने,वृद्धों की देखभाल करने गरीबों की मदद तथा युद्ध अथवा दंगे मे मारे गये लोगों के परिवारों की देखरेख के लिए होता है। नतीजा ये है कि उनके समुदाय के लोगों का अधिक से अधिक जुडाव मस्जिद चर्च अथवा गुरुद्वारों से होता है। वो लोग नियमित रूप से वहां इकट्ठे होते हैं तथा वो लोग मस्जिद चर्च गुरुद्वारे को मह्ज़ एक प्रार्थना स्थल के रूप में नहीं अपितु अपनी हितैषी संस्था के रूप में भी देखती है। इसी कारंण ये होता है कि ईमाम पादरी महंत जो कि अस्थायी रूप से चुने जाते हैं अपना कर्तव्य निभाने के लिए जनता को प्रार्थना के लिये इकट्ठे होने समय सरकार द्वारा बनाए जाने वाले ऐसे नियमों तथा दूसरी घटनाओ (जैसे किसी हिंदूवादी संस्था द्वारा उनके समुदाय के लोगों की घर वापसी इत्यादि) के प्रति जागरूक भी करते रहते हैं जिनसे उनके समुदाय पर प्रभाव पडने वाला हो। और चूंकि जनता उन्हे अपने हितैषी के रूप में देखती है इसी कारण उनकी हिदायतों पर ध्यान भी देती है।और उनके समुदाय के लोग युद्ध तथा सांप्रदायिक दंगों इत्यादि मे मारे जाने से भी नहीं डरते क्योंकि वो जानते हैं कि उनके मरे पीछे उनके परिवार का पालन दान के पैसों से अच्छी तरह होगा। और उनका समुदाय सशक्त बना रहता है।
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अब दूसरी तरफ़ हम हिंदू मंदिरों की व्यवस्था देखें तो वहां दान और चढावे का पूरा पैसा महंतों की सम्पत्ति बनकर रहता है।महन्तो पुजारियों की नियुक्ति मे जनता की कोई भागीदारी नहीं।और वहां पीढी दर पीढी उत्तराधिकार चलता है। इसी कारण से वो लोग पैसा घर तो नहीं ले जाते परंतु मूर्तियों की प्राण प्रतिष्ठा कर के उनको गहने बना कर पहना देते हैं और इस प्रकार से जमाखोरी करते हैं ताकि उनके आने वाली पीढी ऐश करे। और समाज के अतिनिम्न वर्ग के लोग जिन्हे अतिशूद्र भी कहा जा सकता है उनका प्रवेश तक वर्जित कर दिया मंदिरों मे क्योंकि वो लोग दान की रकम नहीं ला सकते थे।और न ही उनकी गरीबी और दु:ख दर्द को दूर करने का प्रयास किया और न ही कोई सहायता की। जिससे कि वो धर्म परिवर्तन के लिये मबूर होते गये। आजकल जो रामपुर और दिल्ली के वाल्मीकियों के साथ हो रहा है वो भी इन्ही सब का दुष्परिणाम है। और जो ईसाई मिशनरियां उससे भी २० गुना धर्मपरिवर्तन करा रही हैं वो भी इसी का परिणाम है। अब अधिकतर मंदिरों मे जो चढावे का पैसा आता है उसका उपयोग हिंदू समाज को शिक्षा, नौकरी, चिकित्सा , वृद्दाश्रम की सुविधा देने के लिये नहीं होता। और यही कारण है कि हिंदू लोग मंदिरों में सिर्फ़ पूजा करने जाते हैं और चढावा भगवान को प्रसन्न करने के लिये चढाते हैं मगर वो लोग मंदिरों को अपनी हितैषी संस्था के रूप में नहीं देखते। यही कारण है कि जब मुसलमान राजाओ ने मंदिर तोडे तब भी जनता ने विशेष विरोध नहीं किया और आज जब ट्रस्टियों का विवाद सुलझाने के बहाने जब राज्य सरकारें मंदिरों को हडप लेती हैं और उनकी सम्पत्ति को अल्पसंख्यकों के ऊपर खर्चती हैं तो कोई विरोध नहीं करते। और पुजारी इत्यादि हिंदुओ के आपसी विवादों को सुलझाने का काम तो कतई नहीं करते जिसके कारण हिंदुत्ववादियोंकी भाषा मे बोला जाए तो- "हिंदुओ में मुस्लिमो की अपेक्षा एकता की कमी रहती है"यही कारण है कि मुस्लिम ईमामॊ की तरह हिंदू पुजारी प्रार्थना के लिये आम हिंदुओ को एकत्र करके उसके साथ साथ ऐसे कानूनो तथा रामपुर इत्यादि की घटना के प्रति सजग नहीं कर सकते और न ही करना चाहते हैं।
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जहां तक आर्य समाज मंदिरों की बात है वहां भी उत्तराधिकार की परंपरा नहीं है और वहां भी प्रधान, महामंत्री इत्यादि प्रतिष्ठित सदस्यों के द्वारा चुने जाते हैं इस कारण अन्य हिंदू सम्प्रदायों की तुलना मे आर्य समाज मजबूत जरूर है मगर गुरुद्वारों, मस्जिदों इत्यादि की तुलना मे बहुत कमजोर है.कुव्यवस्था और भ्रष्टाचार फ़ैला हुआ है। सम्पत्तियों को हथियाने की होड लगी हुई है। विवाह करवाकर अथवा अन्य प्रकार से जो भी आमदनी होती है उसके खर्च का ब्यौरा पब्लिक मीटिंग में बिल्कुल नहीं दिया जाता जैसा कि मस्जिदों के ट्रस्टी देते हैं। बहुत से आर्य समाजों मे नियमित रूप से चुनाव नहीं होते। और अधिकतर जगह पे मतदाता सदस्य प्रधान इत्यादि के करीबी लोग ही होते हैं।और आम सदस्य इन सब के खिलाफ़ कुछ नही कर सकते क्योंकि गुरुद्वारों मे नियमित रूप से चुनाव इत्यादि करवाने के लिये जैसे सिख गुरुद्वारा ऐक्त १९२५ जैसा कानून सिखों के पास है वैसा आर्य समाजियो के पास नहीं। और दुषपरिणाम ये होता है कि अधिकतर आर्य समाजी लोग नियमित रूप से मंदिर जाकर यज्ञ इत्यादि करना भी पसंद नही करते। क्योंकि मूर्ति पूजा आर्य समाज मे है नही और यज्ञ तो घर मे भी कर सकते हैं. इस प्रकार से मस्जिदों इत्यादि मे नही होता। हमेशा बहुत से दयानंद के अनुयायियो की शिकायत रहती है कि आर्य लोग नियमित रूप से मंदिरों मे जाकर हवन क्यों नहीं करते इसका उत्तर ये है कि आर्य समाज मंदिरों के प्रबंधन मे उनकी कोई भागीदारी नहीं है और न ही आर्य समाज मंदिर के होने न होने से उनका कोई लाभ अथवा हानि है। क्योंकि आर्य समाज मंदिरों मे ऐसी व्यवस्था कहीं नहीं है कि दान इत्यादि के पैसे को अपने सदस्यों की भलाई पर खर्च करे जैसा मस्जिद गुरुद्वारो तथा चर्चों मे होता है। और यही कारण है कि आम हिंदू जनता आर्य समाज मंदिरों को भी अपनी हितैषी संस्था के रूप मे नहीं देखती है जैसा कि आम मुस्लिम सिख तथा ईसाई जनता गुरुद्वारो मस्जिदो एवं चर्चों को देखती है । मैं ये बात एक बार फ़िर से दोहराना चाहूंगा कि आम हिंदू जनता आर्य समाज मंदिरों को भी अपनी हितैषी संस्था के रूप मे नहीं देखती है जैसा कि आम मुस्लिम सिख तथा ईसाई जनता गुरुद्वारो मस्जिदो एवं चर्चों को देखती है। और इसीलिये जितना मजबूत सिख धर्म है उतना मजबूत आर्य समाज कभी नहीं हो पाया। और प्रजातांत्रिक व्यवस्था के अभाव मे सम्पत्तियों पर व्यक्ति विशेष का कब्जा हो जाता है और उनका उपयोग वैदिक धर्म के प्रचार प्रसार करने वैदिक विश्विद्यालय बनाने इत्यादि मे नही होता जो कि हो सकता था। आश्चर्य है कि बहुत से दयानंद अनुयायी जो कि सरकार से वैदिक विशविद्यालय बनाने की मांग करते हैं वो ये मांग कभी नहीं करते कि सिख गुरुद्वारा ऐक्ट १९२५ की तरह ही कोई ऐसा कानून बने जिससे कि गुरुद्वारों की तरह ही प्रजातांत्रिक व्यवस्था हिंदू मंदिरो मे भी लागू हो जिनको मिला हुआ दान का पैसा वैदिक धर्म के प्रचार तथा वैदिक विश्वविद्यालय बनाने तथा गरीब हिंदुओ को धर्म परिवर्तन से रोकने के लिये पर्याप्त होता है।
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. इन सब समस्याओ के समाधान के लिये तथा हिंदुओ को सशक्त करने के लिये राईट टू रिकॉल ग्रूप के द्वारा कानून प्रस्तावित किया गया है जिसके मुख्य बिंदु निम्न लिखित हैं. देश भर के मंदिरों को तीन कोटि मे विभाजित किया गया है।
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१.राष्ट्र स्तर के मंदिर जो कि अमरनाथ, रामजन्मभूमि, कृष्ण जन्मभूमि, एवं काशी विश्वनाथ हैं.
२ राज्य स्तर के मंदिर
३.सम्प्रदाय विशेष के मंदिर जैसे आर्य समाज मंदिर, स्वामि नारायण संप्रदाय के मंदिर और इन मंदिरों का प्रबंधन निम्नलिखित तरीके से होगा. .
1. NHDPT= ( राष्ट्रीय हिन्दू देवालय प्रबंधक (देख-रेख) ट्रस्ट): (For अमरनाथ, रामजन्मभूमि, कृष्ण जन्मभूमि, एवं काशी विश्वनाथ ) हरेक हिन्दू, सिख, जैन, बौद्ध आदि इस ट्रस्ट के जन्म से सदस्य होंगे, जब तक कि वे स्वयं अपनी सदस्यता नहीं छोड़ देते (वे वोट 18 वर्ष के बाद, उनका मतदाता कार्ड बन् जाने के बाद ही कर सकते हैं) | इस ट्रस्ट को अपनी ओर से करों (टैक्स) में छूट का लाभ वे दे भी सकते हैं और नहीं भी, लेकिन हरेक स्थिति में उनका मतदान का अधिकार बना रहेगा। मुस्लिम तथा क्रिश्चियन इस ट्रस्ट के सदस्य नहीं बन सकते। ट्रस्ट के प्रमुख का चुनाव सभी सदस्य मिलकर करते हैं, तथा सदस्यों के पास प्रमुख को किसी भी दिन बदलने (राईट टू रिकॉल) का अधिकार भी होता है। प्रमुख द्वारा 4 व्यवस्थापकों (मैनेजेर) को नौकरी दी जाती है, जिन्हें कि मतदाता सदस्य चाहें तो किसी भी दिन बदल सकते हैं। ट्रस्ट को आय-कर तथा सम्पत्ति-कर देना होगा, तथा इसे करों में छूट उसी अनुपात में मिलेगी जितने छूट के यूनिट उसे सदस्यों द्वारा प्राप्त होंगे। शुरू में राष्ट्रीय हिंदू देवालय प्रबंधक ट्रस्ट (NHMPT) मात्र 4 मंदिरों की देख-रेख करेगा- कश्मीर का अमरनाथ देवालय, राम जन्म भूमि देवालय, कृष्ण जन्म भूमि देवालय तथा काशी विश्वनाथ देवालय। आगे चलकर यह अन्य मंदिरों की देख-रेख भी कर सकता है, यदि सम्बंधित संप्रदाय स्वेच्छा से मंदिर को इसके सुपुर्द कर दे।. .
2. RHDPT= ( राज्य हिन्दू देवालय प्रबंधक ट्रस्ट): (For temples of State Level importance) हरेक राज्य में एक राज्य हिंदू देवली प्रबंधक ट्रस्ट (RHDPT) होगा, जिसके सदस्य उस राज्य के हरेक हिन्दू, सिख, जैन, बौद्ध आदि मतदाता होंगे, तथा वे तब तक सदस्य बने रहेंगे जब तक कि वे स्वयं अपनी सदस्यता न छोड़ना चाहें। वे चाहें तो अपनी ओर से ट्रस्ट को टैक्स (करों) में छूट का लाभ दे सकते हैं और नही भी दे सकते, इससे उनका मतदान का अधिकार प्रभावित नही होगा। मुस्लिम तथा क्रिश्चियन इस ट्रस्ट के सदस्य नहीं बन सकते। ट्रस्ट के प्रमुख का चुनाव सभी सदस्य मिलकर करेंगे, तथा सदस्यों के पास प्रमुख को किसी भी दिन बदलने (राईट टू रिकॉल) का अधिकार भी होगा। प्रमुख द्वारा 4 व्यवस्थापकों (मैनेजेर) की नियुक्ति की जायेगी, जिन्हें कि मतदाता सदस्य चाहें तो किसी भी दिन बदल (राईट टू रिकॉल)सकते हैं। ट्रस्ट को आय कर तथा सम्पत्ति कर देना होगा, तथा इसे करों में छूट उसी अनुपात में मिलेगी जितने छूट के यूनिट उसे सदस्यों द्वारा प्राप्त होंगे। शुरू में राज्य हिंदू देवली प्रबंधक ट्रस्ट (RHDPT) राज्य के उन्हीं मंदिरों की व्यवस्था करेगा जिन्हें कि सम्बंधित संप्रदाय उस राज्य के सम्पूर्ण हिन्दू समुदाय के सुपुर्द करना चाहेगा। .
3. RT = ( रिलिजियस ट्रस्ट अथवा धार्मिक ट्रस्ट): (Community Trusts Like Swami Narayan, Arya Samaj etc) .
जितने भी हिन्दू ट्रस्ट बने हैं, उनमें से हरेक को इस श्रेणी में रखेंगे। शुरू में सिर्फ ट्रस्टी हीं VM= वोटिंग मेंबर (मतदाता सदस्य) होंगे, तथा NVM= नॉन वोटिंग मेंबर्स (गैर मतदाता सदस्य) की संख्या शून्य होगी। फिर आज के मतदाता सदस्य 67% के बहुमत के साथ और मतदाता सदस्यों तथा गैर मतदाता सदस्यों को जोड़ सकते हैं। कोई एक नागरिक कितने भी धार्मिक ट्रस्टों में मतदाता सदस्य तथा गैर मतदाता सदस्य हो सकता है, बशर्ते उस धार्मिक ट्रस्ट को भी अपने सदस्यों के अन्य ट्रस्टों के सदस्य बनने से कोई एतराज न हो।
. प्रमुख की नियुक्ति मतदाता सदस्यों (VMs) द्वारा होती है जो कि 4 व्यवस्थापकों (मैनेजेर) की नियुक्ति करता है। मतदाता सदस्य प्रमुख या किसी भी व्यवस्थापक को किसी भी दिन बदल (राईट टू रिकॉल) सकते हैं। ट्रस्ट को आय कर तथा सम्पत्ति कर देना होगा, तथा इसे करों में छूट उसी अनुपात में मिलेगी जितने छूट के यूनिट उसे सदस्यों द्वारा प्राप्त होंगे। यदि इस ट्रस्ट (RT) में ऐसा कोई आतंरिक कानून है कि मतदाता सदस्यों के बच्चे भी मतदाता सदस्य बन जायेंगे तो अपने आप वे बच्चे मतदाता सदस्य बन जायेंगे। और एक बार यदि कोई धार्मिक ट्रस्ट (RT) इस नियम को लागू करती है तो फिर वह उसे रद्द नहीं कर सकती। .
4. मुस्लिम तथा क्रिश्चियन धार्मिक ट्रस्टों की व्यवस्था आज के कानूनों के अनुसार हीं होगी: टैक्स (करों_ के लिए इन ट्रस्टों पर भी दूसरे ट्रस्ट के समान नियम लागू होंगे। तथा करों में उन्हें प्राप्त होने वाली छूट भी उनके सदस्यों द्वारा प्राप्त होने वाले कर छूट के यूनिटों के अनुपात में होगी ।
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5. वर्तमान में भारत में धार्मिक ट्रस्ट कोई आय कर तथा संपत्त-कर नहीं देते, इसमें बदलाव आएगा ।इस कानून के लागू होने पर सभी ट्रस्टों को अपने मालिकी वाले प्लाट / इमारतों तथा सोना / चांदी के बाजार मूल्य के अनुसार तथा अपनी आय तथा प्राप्त होने वाले दान के अनुसार कर चुकाने होंगे। करों में छूट इस बात पर निर्भर करेगी कि नागरिकों से कर छूट के कितने यूनिट उन्हें प्राप्त होते हैं। आज के ट्रस्टों के लिए ट्रस्टी हीं मतदाता सदस्य माने जायेगे, तथा उन्हें गैर मतदाता सदस्यों की आवश्यकता नहीं होगी।
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यानि कि राईट टू रिकॉल ग्रूप ने जो समाधान बताया है उसके तहत जो मंदिर आज सरकार के कब्जे में हैं वो सरकार के कब्जे से मुक्त होंगे और उनमे भी प्रजातांत्रिक व्यवस्था लागू होगी । राष्ट्रीय हिन्दू देवालय प्रबंधक (देख-रेख) ट्रक ट्रस्ट के अंतर्गत जो मंदिर आएंगे उसमे यह व्यवस्था अनिवार्य रूप से लागू होगी और कम्यूनिटी ट्रस्टों जैसे स्वामि नारयण और आर्य समाज इत्यादि को यह स्वतंत्रता दी जाएगी कि वो इस व्यवस्था को अपनाएं अथवा नहीं हालांकि राष्ट्रीय और राज्य स्तर के देवालय प्रबंधक ट्रस्टों के अंतर्गत जो अच्छी व्यवस्था है उसे लागू करने के लिये उसके सदस्यों का दबाव ब्ढेगा और उन्हे ये व्यवस्था लानी ही पडेगी .
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मस्जिद चर्च और गुरुद्वारा व्यक्तिगत सम्पत्ति नहीं होते हैं और उनमे उत्तराधिकारी बनाने की परंपरा नहीं होती और ईमाम एवं पादरी भी अस्थायी रूप से नियुक्त होते हैं।
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चर्च ऑफ़ इंग्लैण्ड नामक एक प्रोटेस्टेंट संप्रदाय में चर्च के पैसों के वितरण सम्बन्धी सभी निर्णय (फैसला) पादरी (priests) लेते हैं। परन्तु ये पादरी प्रधानमंत्री / सांसदों के द्वारा रखे गये होते हैं तथा कोई भी आपराधिक कार्य करने पर ज्यूरी के कंट्रोल (नियंत्रण) में होते हैं । साथ हीं चर्च की संपत्ति पर उनका कोई उत्तराधिकार (वारिस) नही होता। अन्य सभी प्रोटेस्टेंट सम्प्रदायों में स्थानीय बुजुर्गों द्वारा पादरी नियुक्त किया जाता है। इसीलिए चर्च के पैसों पर उत्तराधिकार (वारिस) लागू नही होता। और इसलिए प्रोटेस्टेंट चर्चों में धन इकठ्ठा करने की ओर झुकाव नही पाया जाता । और वे इस धन को समुदाय के निर्माण व विकास में उपयोग करते हैं। कैथोलिकों में चर्च के पैसों के समाज में बांटने सम्बन्धी निर्णय पादरी द्वारा लिए जाते हैं, जो कि पोप के अधीन होता है। अगले पोप के नौकरी पर रखने के लिए 100-200 सर्वाधिक पुराने पादरी जिन्हें कार्डिनल्स कहते हैं, मिलकर करते हैं। उत्तराधिकार यहाँ भी नही होता, चूँकि पादरी शादी नहीं कर सकता तथा उनमें गुरु प्रथा भी नही होती। मतलब वर्तमान पादरी द्वारा अगले पादरी की नियुक्ति नहीं की जाती। इसीलिए कैथोलिक चर्चों में भी संपत्ति संग्रह नही होता, तथा ये भी दान में मिले पैसों को समुदाय के निर्माण व विस्तार पर खर्च करते हैं।
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मस्जिदों में ईमामो का एक जगह से दूसरी जगह ट्रांसफ़र होता रहता है। और यह उत्तराधिकार के आधार पर नहीं अपितु योग्यता के आधार पर है। और मस्जिद का मैनेजमेंट स्थानीय सम्मानित बुजुर्ग लोग करते हैं और उनकी ट्रस्टी के रूप में नियुक्ति भी सीमित समय के लिये होती है.. समय समय पर दान का पैसा किस चीजों पर खर्च हुआ इसका हिसाब किताब स्थानीय लोग पब्लिक मीटिंग में लेते हैं.और गल्फ़ कंट्रीज़ से जो पैसा आता है उस देश की सरकारें भी इस बात के प्रति सजग होती हैं ताकि पैसा इस्लाम के प्रचार प्रसार मे खर्च हो!! साथ ही साथ ईमाम/काज़ी इत्यादि लोगों के आपसी विवादों को भी सुलझाने का काम करते हैं जिससे कि लोगों के बीच विवाद नहीं बढता है.यानि कि हिंदुत्ववादियों की भाषा मे बोलें तो उनमे "एकता रहती है"और मस्जिदों की इस मजबूत व्यवस्था को मुस्लिम राजाओ ने सैकडों साल तक भारत मे मजबूत बनाये रखा ताकि अधिक से अधिक लोग इस्लाम स्वीकार करें. यही कारण रहा कि अंग्रेज राज आने पर भी यह व्यवस्था बरकरार रही क्योंकि मुसलमान जनता यह समझती थी कि इस व्यवस्था से उसका फ़ायदा है और इस व्यवस्था को तोडने के प्रत्येक प्रयास के खिलाफ़ वह उठ खडी होती.और यह व्यवस्था आज भी बरकरार है।
. उसी प्रकार गुरुद्वारों के महन्तों का चुनाव सिख जनता के द्वारा नियमित रूप से सिख गुरुद्वारा ऐक्ट १९२५ , दिल्ली गुरुद्वारा ऐक्ट १९७० इत्यादि के अंतर्गत किया जाता हैगुरुद्वारों की व्यवस्था भी शुरु से प्रजातांत्रिक रही है जिसका लाभ सिख जनता को मिलता रहा है। १९२० के आसपास जब अंग्रेजों ने अपने पिठ्ठू उदासी महंतों को अकाल तख्त की गद्दी पर बिठा दिया तब उसके खिलाफ़ सिख जनता ने विद्रोह करके ब्रिटिश से सिख गुरुद्वारा ऐक्ट १९२५ पास करवाया जिसमे प्रजातांत्रिक व्यवस्था को कानूनी संरक्षण मिल गया जो कि पहले नहीं था.यही कारण है कि जो भी धन मस्जिद चर्च अथवा गुरुद्वारे मे जाता है उसका उपयोग अपने समुदाय के लोगों को धर्म की शिक्षा अथवा स्कूल खोलने,वृद्धों की देखभाल करने गरीबों की मदद तथा युद्ध अथवा दंगे मे मारे गये लोगों के परिवारों की देखरेख के लिए होता है। नतीजा ये है कि उनके समुदाय के लोगों का अधिक से अधिक जुडाव मस्जिद चर्च अथवा गुरुद्वारों से होता है। वो लोग नियमित रूप से वहां इकट्ठे होते हैं तथा वो लोग मस्जिद चर्च गुरुद्वारे को मह्ज़ एक प्रार्थना स्थल के रूप में नहीं अपितु अपनी हितैषी संस्था के रूप में भी देखती है। इसी कारंण ये होता है कि ईमाम पादरी महंत जो कि अस्थायी रूप से चुने जाते हैं अपना कर्तव्य निभाने के लिए जनता को प्रार्थना के लिये इकट्ठे होने समय सरकार द्वारा बनाए जाने वाले ऐसे नियमों तथा दूसरी घटनाओ (जैसे किसी हिंदूवादी संस्था द्वारा उनके समुदाय के लोगों की घर वापसी इत्यादि) के प्रति जागरूक भी करते रहते हैं जिनसे उनके समुदाय पर प्रभाव पडने वाला हो। और चूंकि जनता उन्हे अपने हितैषी के रूप में देखती है इसी कारण उनकी हिदायतों पर ध्यान भी देती है।और उनके समुदाय के लोग युद्ध तथा सांप्रदायिक दंगों इत्यादि मे मारे जाने से भी नहीं डरते क्योंकि वो जानते हैं कि उनके मरे पीछे उनके परिवार का पालन दान के पैसों से अच्छी तरह होगा। और उनका समुदाय सशक्त बना रहता है।
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अब दूसरी तरफ़ हम हिंदू मंदिरों की व्यवस्था देखें तो वहां दान और चढावे का पूरा पैसा महंतों की सम्पत्ति बनकर रहता है।महन्तो पुजारियों की नियुक्ति मे जनता की कोई भागीदारी नहीं।और वहां पीढी दर पीढी उत्तराधिकार चलता है। इसी कारण से वो लोग पैसा घर तो नहीं ले जाते परंतु मूर्तियों की प्राण प्रतिष्ठा कर के उनको गहने बना कर पहना देते हैं और इस प्रकार से जमाखोरी करते हैं ताकि उनके आने वाली पीढी ऐश करे। और समाज के अतिनिम्न वर्ग के लोग जिन्हे अतिशूद्र भी कहा जा सकता है उनका प्रवेश तक वर्जित कर दिया मंदिरों मे क्योंकि वो लोग दान की रकम नहीं ला सकते थे।और न ही उनकी गरीबी और दु:ख दर्द को दूर करने का प्रयास किया और न ही कोई सहायता की। जिससे कि वो धर्म परिवर्तन के लिये मबूर होते गये। आजकल जो रामपुर और दिल्ली के वाल्मीकियों के साथ हो रहा है वो भी इन्ही सब का दुष्परिणाम है। और जो ईसाई मिशनरियां उससे भी २० गुना धर्मपरिवर्तन करा रही हैं वो भी इसी का परिणाम है। अब अधिकतर मंदिरों मे जो चढावे का पैसा आता है उसका उपयोग हिंदू समाज को शिक्षा, नौकरी, चिकित्सा , वृद्दाश्रम की सुविधा देने के लिये नहीं होता। और यही कारण है कि हिंदू लोग मंदिरों में सिर्फ़ पूजा करने जाते हैं और चढावा भगवान को प्रसन्न करने के लिये चढाते हैं मगर वो लोग मंदिरों को अपनी हितैषी संस्था के रूप में नहीं देखते। यही कारण है कि जब मुसलमान राजाओ ने मंदिर तोडे तब भी जनता ने विशेष विरोध नहीं किया और आज जब ट्रस्टियों का विवाद सुलझाने के बहाने जब राज्य सरकारें मंदिरों को हडप लेती हैं और उनकी सम्पत्ति को अल्पसंख्यकों के ऊपर खर्चती हैं तो कोई विरोध नहीं करते। और पुजारी इत्यादि हिंदुओ के आपसी विवादों को सुलझाने का काम तो कतई नहीं करते जिसके कारण हिंदुत्ववादियोंकी भाषा मे बोला जाए तो- "हिंदुओ में मुस्लिमो की अपेक्षा एकता की कमी रहती है"यही कारण है कि मुस्लिम ईमामॊ की तरह हिंदू पुजारी प्रार्थना के लिये आम हिंदुओ को एकत्र करके उसके साथ साथ ऐसे कानूनो तथा रामपुर इत्यादि की घटना के प्रति सजग नहीं कर सकते और न ही करना चाहते हैं।
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जहां तक आर्य समाज मंदिरों की बात है वहां भी उत्तराधिकार की परंपरा नहीं है और वहां भी प्रधान, महामंत्री इत्यादि प्रतिष्ठित सदस्यों के द्वारा चुने जाते हैं इस कारण अन्य हिंदू सम्प्रदायों की तुलना मे आर्य समाज मजबूत जरूर है मगर गुरुद्वारों, मस्जिदों इत्यादि की तुलना मे बहुत कमजोर है.कुव्यवस्था और भ्रष्टाचार फ़ैला हुआ है। सम्पत्तियों को हथियाने की होड लगी हुई है। विवाह करवाकर अथवा अन्य प्रकार से जो भी आमदनी होती है उसके खर्च का ब्यौरा पब्लिक मीटिंग में बिल्कुल नहीं दिया जाता जैसा कि मस्जिदों के ट्रस्टी देते हैं। बहुत से आर्य समाजों मे नियमित रूप से चुनाव नहीं होते। और अधिकतर जगह पे मतदाता सदस्य प्रधान इत्यादि के करीबी लोग ही होते हैं।और आम सदस्य इन सब के खिलाफ़ कुछ नही कर सकते क्योंकि गुरुद्वारों मे नियमित रूप से चुनाव इत्यादि करवाने के लिये जैसे सिख गुरुद्वारा ऐक्त १९२५ जैसा कानून सिखों के पास है वैसा आर्य समाजियो के पास नहीं। और दुषपरिणाम ये होता है कि अधिकतर आर्य समाजी लोग नियमित रूप से मंदिर जाकर यज्ञ इत्यादि करना भी पसंद नही करते। क्योंकि मूर्ति पूजा आर्य समाज मे है नही और यज्ञ तो घर मे भी कर सकते हैं. इस प्रकार से मस्जिदों इत्यादि मे नही होता। हमेशा बहुत से दयानंद के अनुयायियो की शिकायत रहती है कि आर्य लोग नियमित रूप से मंदिरों मे जाकर हवन क्यों नहीं करते इसका उत्तर ये है कि आर्य समाज मंदिरों के प्रबंधन मे उनकी कोई भागीदारी नहीं है और न ही आर्य समाज मंदिर के होने न होने से उनका कोई लाभ अथवा हानि है। क्योंकि आर्य समाज मंदिरों मे ऐसी व्यवस्था कहीं नहीं है कि दान इत्यादि के पैसे को अपने सदस्यों की भलाई पर खर्च करे जैसा मस्जिद गुरुद्वारो तथा चर्चों मे होता है। और यही कारण है कि आम हिंदू जनता आर्य समाज मंदिरों को भी अपनी हितैषी संस्था के रूप मे नहीं देखती है जैसा कि आम मुस्लिम सिख तथा ईसाई जनता गुरुद्वारो मस्जिदो एवं चर्चों को देखती है । मैं ये बात एक बार फ़िर से दोहराना चाहूंगा कि आम हिंदू जनता आर्य समाज मंदिरों को भी अपनी हितैषी संस्था के रूप मे नहीं देखती है जैसा कि आम मुस्लिम सिख तथा ईसाई जनता गुरुद्वारो मस्जिदो एवं चर्चों को देखती है। और इसीलिये जितना मजबूत सिख धर्म है उतना मजबूत आर्य समाज कभी नहीं हो पाया। और प्रजातांत्रिक व्यवस्था के अभाव मे सम्पत्तियों पर व्यक्ति विशेष का कब्जा हो जाता है और उनका उपयोग वैदिक धर्म के प्रचार प्रसार करने वैदिक विश्विद्यालय बनाने इत्यादि मे नही होता जो कि हो सकता था। आश्चर्य है कि बहुत से दयानंद अनुयायी जो कि सरकार से वैदिक विशविद्यालय बनाने की मांग करते हैं वो ये मांग कभी नहीं करते कि सिख गुरुद्वारा ऐक्ट १९२५ की तरह ही कोई ऐसा कानून बने जिससे कि गुरुद्वारों की तरह ही प्रजातांत्रिक व्यवस्था हिंदू मंदिरो मे भी लागू हो जिनको मिला हुआ दान का पैसा वैदिक धर्म के प्रचार तथा वैदिक विश्वविद्यालय बनाने तथा गरीब हिंदुओ को धर्म परिवर्तन से रोकने के लिये पर्याप्त होता है।
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. इन सब समस्याओ के समाधान के लिये तथा हिंदुओ को सशक्त करने के लिये राईट टू रिकॉल ग्रूप के द्वारा कानून प्रस्तावित किया गया है जिसके मुख्य बिंदु निम्न लिखित हैं. देश भर के मंदिरों को तीन कोटि मे विभाजित किया गया है।
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१.राष्ट्र स्तर के मंदिर जो कि अमरनाथ, रामजन्मभूमि, कृष्ण जन्मभूमि, एवं काशी विश्वनाथ हैं.
२ राज्य स्तर के मंदिर
३.सम्प्रदाय विशेष के मंदिर जैसे आर्य समाज मंदिर, स्वामि नारायण संप्रदाय के मंदिर और इन मंदिरों का प्रबंधन निम्नलिखित तरीके से होगा. .
1. NHDPT= ( राष्ट्रीय हिन्दू देवालय प्रबंधक (देख-रेख) ट्रस्ट): (For अमरनाथ, रामजन्मभूमि, कृष्ण जन्मभूमि, एवं काशी विश्वनाथ ) हरेक हिन्दू, सिख, जैन, बौद्ध आदि इस ट्रस्ट के जन्म से सदस्य होंगे, जब तक कि वे स्वयं अपनी सदस्यता नहीं छोड़ देते (वे वोट 18 वर्ष के बाद, उनका मतदाता कार्ड बन् जाने के बाद ही कर सकते हैं) | इस ट्रस्ट को अपनी ओर से करों (टैक्स) में छूट का लाभ वे दे भी सकते हैं और नहीं भी, लेकिन हरेक स्थिति में उनका मतदान का अधिकार बना रहेगा। मुस्लिम तथा क्रिश्चियन इस ट्रस्ट के सदस्य नहीं बन सकते। ट्रस्ट के प्रमुख का चुनाव सभी सदस्य मिलकर करते हैं, तथा सदस्यों के पास प्रमुख को किसी भी दिन बदलने (राईट टू रिकॉल) का अधिकार भी होता है। प्रमुख द्वारा 4 व्यवस्थापकों (मैनेजेर) को नौकरी दी जाती है, जिन्हें कि मतदाता सदस्य चाहें तो किसी भी दिन बदल सकते हैं। ट्रस्ट को आय-कर तथा सम्पत्ति-कर देना होगा, तथा इसे करों में छूट उसी अनुपात में मिलेगी जितने छूट के यूनिट उसे सदस्यों द्वारा प्राप्त होंगे। शुरू में राष्ट्रीय हिंदू देवालय प्रबंधक ट्रस्ट (NHMPT) मात्र 4 मंदिरों की देख-रेख करेगा- कश्मीर का अमरनाथ देवालय, राम जन्म भूमि देवालय, कृष्ण जन्म भूमि देवालय तथा काशी विश्वनाथ देवालय। आगे चलकर यह अन्य मंदिरों की देख-रेख भी कर सकता है, यदि सम्बंधित संप्रदाय स्वेच्छा से मंदिर को इसके सुपुर्द कर दे।. .
2. RHDPT= ( राज्य हिन्दू देवालय प्रबंधक ट्रस्ट): (For temples of State Level importance) हरेक राज्य में एक राज्य हिंदू देवली प्रबंधक ट्रस्ट (RHDPT) होगा, जिसके सदस्य उस राज्य के हरेक हिन्दू, सिख, जैन, बौद्ध आदि मतदाता होंगे, तथा वे तब तक सदस्य बने रहेंगे जब तक कि वे स्वयं अपनी सदस्यता न छोड़ना चाहें। वे चाहें तो अपनी ओर से ट्रस्ट को टैक्स (करों) में छूट का लाभ दे सकते हैं और नही भी दे सकते, इससे उनका मतदान का अधिकार प्रभावित नही होगा। मुस्लिम तथा क्रिश्चियन इस ट्रस्ट के सदस्य नहीं बन सकते। ट्रस्ट के प्रमुख का चुनाव सभी सदस्य मिलकर करेंगे, तथा सदस्यों के पास प्रमुख को किसी भी दिन बदलने (राईट टू रिकॉल) का अधिकार भी होगा। प्रमुख द्वारा 4 व्यवस्थापकों (मैनेजेर) की नियुक्ति की जायेगी, जिन्हें कि मतदाता सदस्य चाहें तो किसी भी दिन बदल (राईट टू रिकॉल)सकते हैं। ट्रस्ट को आय कर तथा सम्पत्ति कर देना होगा, तथा इसे करों में छूट उसी अनुपात में मिलेगी जितने छूट के यूनिट उसे सदस्यों द्वारा प्राप्त होंगे। शुरू में राज्य हिंदू देवली प्रबंधक ट्रस्ट (RHDPT) राज्य के उन्हीं मंदिरों की व्यवस्था करेगा जिन्हें कि सम्बंधित संप्रदाय उस राज्य के सम्पूर्ण हिन्दू समुदाय के सुपुर्द करना चाहेगा। .
3. RT = ( रिलिजियस ट्रस्ट अथवा धार्मिक ट्रस्ट): (Community Trusts Like Swami Narayan, Arya Samaj etc) .
जितने भी हिन्दू ट्रस्ट बने हैं, उनमें से हरेक को इस श्रेणी में रखेंगे। शुरू में सिर्फ ट्रस्टी हीं VM= वोटिंग मेंबर (मतदाता सदस्य) होंगे, तथा NVM= नॉन वोटिंग मेंबर्स (गैर मतदाता सदस्य) की संख्या शून्य होगी। फिर आज के मतदाता सदस्य 67% के बहुमत के साथ और मतदाता सदस्यों तथा गैर मतदाता सदस्यों को जोड़ सकते हैं। कोई एक नागरिक कितने भी धार्मिक ट्रस्टों में मतदाता सदस्य तथा गैर मतदाता सदस्य हो सकता है, बशर्ते उस धार्मिक ट्रस्ट को भी अपने सदस्यों के अन्य ट्रस्टों के सदस्य बनने से कोई एतराज न हो।
. प्रमुख की नियुक्ति मतदाता सदस्यों (VMs) द्वारा होती है जो कि 4 व्यवस्थापकों (मैनेजेर) की नियुक्ति करता है। मतदाता सदस्य प्रमुख या किसी भी व्यवस्थापक को किसी भी दिन बदल (राईट टू रिकॉल) सकते हैं। ट्रस्ट को आय कर तथा सम्पत्ति कर देना होगा, तथा इसे करों में छूट उसी अनुपात में मिलेगी जितने छूट के यूनिट उसे सदस्यों द्वारा प्राप्त होंगे। यदि इस ट्रस्ट (RT) में ऐसा कोई आतंरिक कानून है कि मतदाता सदस्यों के बच्चे भी मतदाता सदस्य बन जायेंगे तो अपने आप वे बच्चे मतदाता सदस्य बन जायेंगे। और एक बार यदि कोई धार्मिक ट्रस्ट (RT) इस नियम को लागू करती है तो फिर वह उसे रद्द नहीं कर सकती। .
4. मुस्लिम तथा क्रिश्चियन धार्मिक ट्रस्टों की व्यवस्था आज के कानूनों के अनुसार हीं होगी: टैक्स (करों_ के लिए इन ट्रस्टों पर भी दूसरे ट्रस्ट के समान नियम लागू होंगे। तथा करों में उन्हें प्राप्त होने वाली छूट भी उनके सदस्यों द्वारा प्राप्त होने वाले कर छूट के यूनिटों के अनुपात में होगी ।
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5. वर्तमान में भारत में धार्मिक ट्रस्ट कोई आय कर तथा संपत्त-कर नहीं देते, इसमें बदलाव आएगा ।इस कानून के लागू होने पर सभी ट्रस्टों को अपने मालिकी वाले प्लाट / इमारतों तथा सोना / चांदी के बाजार मूल्य के अनुसार तथा अपनी आय तथा प्राप्त होने वाले दान के अनुसार कर चुकाने होंगे। करों में छूट इस बात पर निर्भर करेगी कि नागरिकों से कर छूट के कितने यूनिट उन्हें प्राप्त होते हैं। आज के ट्रस्टों के लिए ट्रस्टी हीं मतदाता सदस्य माने जायेगे, तथा उन्हें गैर मतदाता सदस्यों की आवश्यकता नहीं होगी।
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यानि कि राईट टू रिकॉल ग्रूप ने जो समाधान बताया है उसके तहत जो मंदिर आज सरकार के कब्जे में हैं वो सरकार के कब्जे से मुक्त होंगे और उनमे भी प्रजातांत्रिक व्यवस्था लागू होगी । राष्ट्रीय हिन्दू देवालय प्रबंधक (देख-रेख) ट्रक ट्रस्ट के अंतर्गत जो मंदिर आएंगे उसमे यह व्यवस्था अनिवार्य रूप से लागू होगी और कम्यूनिटी ट्रस्टों जैसे स्वामि नारयण और आर्य समाज इत्यादि को यह स्वतंत्रता दी जाएगी कि वो इस व्यवस्था को अपनाएं अथवा नहीं हालांकि राष्ट्रीय और राज्य स्तर के देवालय प्रबंधक ट्रस्टों के अंतर्गत जो अच्छी व्यवस्था है उसे लागू करने के लिये उसके सदस्यों का दबाव ब्ढेगा और उन्हे ये व्यवस्था लानी ही पडेगी .
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