वैदिक काल से ही भारत वर्ष में प्रकृति के निरीक्षण, परीक्षण एवं विश्लेषण की प्रवृत्ति रही है। इसी प्रक्रिया में वनस्पति जगत का भी विश्लेषण किया गया। प्राचीन वांगमय में इसके अनेक संदर्भ ज्ञात होते हैं। अथर्ववेद में पौधों को आकृति तथा अन्य लक्षणों के आधार पर सात उपविभागों में बांटा गया, यथा- (१) वृक्ष (२) तृण (३) औषधि (४) गुल्म (५) लता (६) अवतान (७) वनस्पति।
आगे चलकर महाभारत, विष्णु पुराण, मत्स्य पुराण, शुक्रनीति, वृहत् संहिता, पाराशर, चरक, सुश्रुत, उदयन आदि द्वारा वनस्पति, उसकी उत्पत्ति, उसके अंग, क्रिया, उनके विभिन्न प्रकार, उपयोग आदि का विस्तार से वर्णन किया गया, जिसके कुछ उदाहरण हम निम्न संदर्भों में देख सकते हैं।
पौधों में जीवन
पौधे जड़ नहीं होते अपितु उनमें जीवन होता है। वे चेतन जीव की तरह सर्दी-गर्मी के प्रति संवेदनशील रहते हैं, उन्हें भी हर्ष और शोक होता है। वे मूल से पानी पीते हैं, उन्हें भी रोग होता है इत्यादि तथ्य हजारों वर्षों से हमारे यहां ज्ञात थे तथा अनेक ग्रंथों में इसका उल्लेख मिलता है।
महाभारत के शांतिपर्व के १८४वें अध्याय में महर्षि भारद्वाज व भृगु का संवाद है। उसमें महर्षि भारद्वाज पूछते हैं कि वृक्ष चूंकि न देखते हैं, न सुनते हैं, न गन्ध व रस का अनुभव करते हैं, न ही उन्हें स्पर्श का ज्ञान होता है, फिर वे पंच भौतिक व चेतन कैसे हैं? इसका उत्तर देते हुए महर्षि भृगु कहते हैं- हे मुने, यद्यपि वृक्ष ठोस जान पड़ते हैं तो भी उनमें आकाश है, इसमें संशय नहीं है, इसी से इनमें नित्य प्रति फल-फूल आदि की उत्पत्ति संभव है।
वृक्षों में जो ऊष्मा या गर्मी है, उसी से उनके पत्ते, छाल, फल, फूल कुम्हलाते हैं, मुरझाकर झड़ जाते हैं। इससे उनमें स्पर्श ज्ञान का होना भी सिद्ध है।
यह भी देखा जाता है कि वायु, अग्नि, बिजली की कड़क आदि होने पर वृक्षों के फल-फूल झड़कर गिर जाते हैं। इससे सिद्ध होता है कि वे सुनते भी हैं।
लता वृक्ष को चारों ओर से लपेट लेती है और उसके ऊपरी भाग तक चढ़ जाती है। बिना देखे किसी को अपना मार्ग नहीं मिल सकता। अत: इससे सिद्ध है कि वृक्ष देखते भी हैं।
पवित्र और अपवित्र गन्ध से तथा नाना प्रकार के धूपों की गंध से वृक्ष निरोग होकर फूलने लगते हैं। इससे सिद्ध होता है कि वृक्ष सूंघते हैं।
वृक्ष अपनी जड़ से जल पीते हैं और कोई रोग होने पर जड़ में औषधि डालकर उनकी चिकित्सा भी की जाती है। इससे सिद्ध होता है कि वृक्ष में रसनेन्द्रिय भी हैं।
जैसे मनुष्य कमल की नाल मुंह में लगाकर उसके द्वारा ऊपर को जल खींचता है, उसी प्रकार वायु की सहायता से वृक्ष जड़ों द्वारा ऊपर की ओर पानी खींचते हैं।
सुखदु:खयोश्च ग्रहणाच्छिन्नस्य च विरोहणात्।
जीवं पश्यामि वृक्षाणां चैतन्यं न विद्यते॥
वृक्ष कट जाने पर उनमें नया अंकुर उत्पन्न हो जाता है और वे सुख, दु:ख को ग्रहण करते हैं। इससे मैं देखता हूं कि कि वृक्षों में भी जीवन है। वे अचेतन नहीं हैं।
वृक्ष अपनी जड़ से जो जल खींचता है, उसे उसके अंदर रहने वाली वायु और अग्नि पचाती है। आहार का परिपाक होने से वृक्ष में स्निग्धता आती है और वे बढ़ते हैं।
इसके अतिरिक्त महर्षि चरक तथा उदयन आचार्य ने भी वृक्षों में चेतना तथा चेतन होने वाली अनुभूतियों के संदर्भ में वर्णन किया है।
महर्षि चरक कहते हैं- ‘तच्येतनावद् चेतनञ्च‘
अर्थात्-प्राणियों की भांति उनमें (वृक्षों में) भी चेतना होती है।
आगे कहते हैं ‘अत्र सेंद्रियत्वेन वृक्षादीनामपि चेतनत्वम् बोद्धव्यम्‘
अर्थात्-वृक्षों की भी इन्द्रिय है, अत: इनमें चेतना है। इसको जानना चाहिए। उसी प्रकार उदयन कहते हैं-
‘वृक्षादय: प्रतिनियतभोक्त्रयधिष्ठिता: जीवनमरणस्वप्नजागरणरोगभेषज
प्रयोगबीजजातीयानुबन्धनुकूलोपगम प्रतिकूलापगमादिभ्य: प्रसिद्ध शरीरवत्।‘
(उदयन-पृथ्वीनिरुपणम्।)
अर्थात्-वृक्षों की भी मानव शरीर के समान निम्न अनुभव निश्चित होते हैं- जीवन, मरण, स्वप्न, जागरण, रोग, औषधि प्रयोग, बीज, सजातीय अनुबन्ध, अनुकूल वस्तु स्वीकार व प्रतिकूल वस्तु का अस्वीकार।
एक अद्भुत ग्रंथ-पाराशर वृक्ष आयुर्वेद
बंगाल के प्रसिद्ध वनस्पति शास्त्री डा. गिरिजा प्रसन्न मजूमदार ने ‘हिस्ट्री ऑफ साइंस इन इंडिया‘ में वनस्पति शास्त्र से संबंधित अध्याय में महामुनि पाराशर द्वारा रचित ग्रंथ ‘वृक्ष आयुर्वेद‘ का वर्णन किया है। बंगाल के एन.एन. सरकार के पिता, जो आयुर्वेद के प्रसिद्ध विद्वान थे, ने इसकी पांडुलिपि खोजी थी। मजूमदार महोदय ने जब इस प्राचीन ग्रंथ को पढ़ा तो वे आश्चर्यचकित हो गए, क्योंकि उसमें बीज से वृक्ष बनने तक का इतना वैज्ञानिक विश्लेषण था कि वह किसी भी पाठक को अभिभूत करता था। उन्होंने इस ग्रंथ का सार अंग्रेजी में अनूदित किया। यह ग्रंथ हजारों वर्ष पूर्व की भारतीय प्रज्ञा की गौरवमयी गाथा कहता है। इसका विश्लेषण जबलपुर में १९९२ में स्वदेशी प्राण विज्ञान पर संपन्न राष्ट्रीय संगोष्ठी में पूर्व केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री डा. मुरली मनोहर जोशी ने किया। वे कहते हैं ‘मैं एक पुस्तक का उल्लेख करना चाहता हूं, वह है वृक्ष आयुर्वेद। उसके लेखक थे महामुनि पाराशर। इस ग्रंथ में जो वैज्ञानिक विवेचन है, वह विस्मयकारी है। इस पुस्तक के ६ भाग हैं- (१) बीजोत्पत्ति काण्ड (२) वानस्पत्य काण्ड (३) गुल्म काण्ड (४)वनस्पति काण्ड (५) विरुध वल्ली काण्ड (६) चिकित्सा काण्ड।
इस ग्रंथ के प्रथम भाग बीजोत्पत्ति काण्ड में आठ अध्याय हैं जिनमें बीज के वृक्ष बनने तक की गाथा का वैज्ञानिक पद्धति से विवेचन किया गया है। इसका प्रथम अध्याय है बीजोत्पत्ति सूत्राध्याय, इसमें महर्षि पाराशर कहते हैं-
आपोहि कललं भुत्वा यत् पिण्डस्थानुकं भवेत्।
तदेवं व्यूहमानत्वात् बीजत्वमघि गच्छति॥
पहले पानी जेली जैसे पदार्थ को ग्रहण कर न्यूक्लियस बनता है और फिर वह धीरे-धीरे पृथ्वी से ऊर्जा और पोषक तत्व ग्रहण करता है। फिर उसका आदि बीज के रूप में विकास होता है और आगे चलकर कठोर बनकर वृक्ष का रूप धारण करता है। आदि बीज यानी प्रोटोप्लाज्म के बनने की प्रक्रिया है जिसकी अभिव्यक्ति बीजत्व अधिकरण में की गई है।
दूसरे अध्याय भूमि वर्गाध्याय में पृथ्वी का उल्लेख है। इसमें मिट्टी के प्रकार, गुण आदि का विस्तृत वर्णन है।
तीसरा अध्याय वन वर्गाध्याय का है। इसमें १४ प्रकार के वनों का उल्लेख है। चौथा अध्याय वृक्षांग सूत्राध्याय (फिजियॉलाजी) का है। इसमें प्रकाश संश्लेषण यानी फोटो सिंथेसिस की क्रिया के लिए कहा है-
‘पत्राणि तु वातातपरञ्जकानि अभिगृहन्ति।‘
वात-क्दृ२ आतप च्द्वदथ्त्ढ़ण्द्य, रंजक क्लोरोफिल। यह स्पष्ट है कि वात कार्बन डाय आक्साइड अ सूर्य प्रकाश अ क्लोरोफिल से अपना भोजन वृक्ष बनाते हैं। इसका स्पष्ट वर्णन इस ग्रंथ में है।
पांचवा पुष्पांग सूत्राध्याय है। इसमें कितने प्रकार के फूल होते हैं, उनके कितने भाग होते हैं, उनका उस आधार पर वर्गीकरण किया गया है। उनमें पराग कहां होता है, पुष्पों के हिस्से क्या हैं आदि का उल्लेख है।
फलांग सूत्राध्याय में फलों के प्रकार, फलों के गुण और रोग का वर्गीकरण किया गया है। सातवें वृक्षांग सूत्राध्याय में वृक्ष के अंगों का वर्णन करते हुए पाराशर कहते है- पत्रं (पत्ते) पुष्प (फूल) मूलं (जड़) त्वक् (शिराओं सहित त्वचा) काण्डम् (स्टिम्) सारं (कठोर तना) सारसं (च्ठ्ठद्र) र्नियासा (कन्ड़द्धड्ढद्यत्दृदद्म) बीजं (बीज) प्ररोहम् (च्ण्दृदृद्यद्म)-इन सभी अंगों का परस्पर सम्बन्ध होता है। आठवें अध्याय में बीज से पेड़ के विकास का वर्णन किया गया है। बीज के बारे में जो कहा गया है, वह बहुत महत्वपूर्ण है। बीज और पत्रों की प्रक्रिया में वे कितनी गहराई में गए, यह तय करना आज के वनस्पति शास्त्र के विद्वानों का दायित्व है। पाराशर कहते हैं-
‘बीज मातृका तु बीजस्यम् बीज पत्रन्तुबीजमातृकायामध्यस्थमादि
पत्रञ्च मातृकाछदस्तु तनुपत्रकवत् मातृकाछादनञ्च कञ्चुकमित्याचक्षते॥
बीजन्तु प्रकृत्या द्विविधं भवति एकमातृकं द्विमातृकञ्च। तत्रैकपत्रप्ररोहानां वृक्षाणां बीजमेकमातृकं भवति। द्वि पत्र प्ररोहानान्तु द्विमातृकञ्च।
यानी मोनोकॉटिलिडेन और डायकॉटिलिडेन। यानी एकबीजपत्री और द्विबीजपत्री बीजों का वर्णन है। किस प्रकार बीज धीरे-धीरे रस ग्रहण करके बढ़ते हैं और वृक्ष का रूपधारण करते हैं। कौन- सा बीज कैसे उगता है, इसका वर्गीकरण के साथ उसमें स्पष्ट वर्णन है।
यह भी वर्णन है कि बीज के विभिन्न अंगों के कार्य अंकुरण (जर्मिनेशन) के समय कैसे होते हैं-
अंकुरनिर्विते बीजमात्रकाया रस:
संप्लवते प्ररोहांगेषु।
यदा प्ररोह: स्वातन्त्रेन भूम्या: पार्थिवरसं गृहणाति तदा बीज मातृका प्रशोषमा पद्यमे। (वृक्ष आयुर्वेद-द्विगणीयाध्याय)
वृक्ष के विकास की गाथा
वृक्ष रस ग्रहण करता है, बढ़ता है। आगे कहा गया है कि जड़ बन जाने के बाद बीज मात्रिका यानी बीज पत्रों की आवश्यकता नहीं रहती, वह समाप्त हो जाती है। फिर पत्तों और फलों की संरचना के बारे में कहा है कि वृक्ष का भोजन पत्तों से बनता है। पार्थिव रस जड़ में से स्यंदिनी नामक वाहिकाओं के द्वारा ऊपर आता है, यह मानो आज के ‘एसेण्ट ऑफ सैप‘ का वर्णन है। यह रस पत्तों में पहुंच जाता है। जहां पतली-पतली शिराएं जाल की तरह फैली रहती हैं। ये शिरायें दो प्रकार की हैं- ‘उपसर्प‘ और ‘अपसर्प‘। वे रस प्रवाह को ऊपर भी ले जाती हैं और नीचे भी ले जाती हैं। दोनों रास्ते अलग-अलग हैं। गुरुत्वाकर्षण के विरुद्ध भी वे रस ऊपर कैसे ले जाती हैं इसके बारे में आज के विज्ञान में पूरा ज्ञान नहीं है। जब तक कैपिलरी एक्शन का ज्ञान न हो तब तक यह बताना संभव नहीं है और यह ज्ञान बहुत समय तक पश्चिमी देशों को नहीं था। कैपिलरी मोशन संबंधी भौतिकी के सिद्धांत का ज्ञान बॉटनी के ज्ञान के साथ आवश्यक है। जब पत्तों में रस प्रवाहित होता है, तब क्या होता है इसे स्पष्ट करके ग्रंथ में कहा गया है-
‘रंजकेन पश्च्यमानात‘ किसी रंग देने वाली प्रक्रिया से यह पचता है-यानी फोटो सिंथेसिस। यह बड़ा महत्वपूर्ण है। इसके पश्चात् वह कहते हैं कि ‘उत्पादं- विसर्जयन्ति‘ हम सब आज जानते हैं कि पत्तियां फोटो सिंथेसिस से दिन में आक्सीजन निकालती हैं और रात में कार्बन डाय अक्साइड। दिन में कार्बन डाय आक्साइड लेकर भोजन बनाती हैं। अतिरिक्त वाष्प का विसर्जन करती हैं, जिसे ट्रांसपिरेशन कहते हैं। इस सबका वर्णन इसमें है।
आगे कहा कि जब उसमें से वाष्प का विसर्जन होता है तब उसमें ऊर्जा उत्पन्न होती है, यानी श्वसन की क्रिया का वर्णन है। संक्षेप में यह वर्णन बताता है कि किस प्रकार रस का ऊपर चढ़ना, पंक्तियों में जाना, भोजन बनाना, फिर श्वसन द्वारा ऊर्जा उत्पन्न करना होता है। इस सारी क्रमिक क्रिया से पेड़ बनता है। इसके अतिरिक्त आज भी कोई दूसरी प्रक्रिया वृक्षों के बढ़ने की ज्ञात नहीं है।
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सन् १६६५ में राबर्ट हुक ने माइक्रोस्कोप के द्वारा जो वर्णन किया उससे विस्तृत वर्णन महर्षि पाराशर हजारों वर्ष पूर्व करते हैं। वे कहते हैं, कोष की रचना निम्न प्रकार है-
(१) कलावेष्टन (ग्र्द्वद्यड्ढद्ध ध्र्ठ्ठथ्थ्)
(२)रंजकयुक्त रसाश्रय (क्रठ्ठद्र ध्त्द्र्यण् ठ्ठ ड़दृथ्दृद्वद्धत्दढ़ थ्र्ठ्ठद्यद्यड्ढद्ध)
(३) सूक्ष्मपत्रक (क्ष्ददड्ढद्ध ध्र्ठ्ठथ्थ्)
(४) अण्वश्च (ग़्दृद्य ध्त्द्मत्डथ्ड्ढ द्यदृ द्यण्ड्ढ दठ्ठत्त्ड्ढड्ड ड्ढन्र्ड्ढ)
अब यह सेल का वर्णन तो बिना माइक्रोस्कोप के संभव नहीं है। यानी वृक्ष आयुर्वेद के लेखक को हजारों साल पहले माईक्रोस्कोप का ज्ञान रहा होगा। तब पश्चिम में इसे कोई नहीं जनता था। यह वृक्ष आयुर्वेद की वैज्ञानिक दृष्टि थी। विचार करने की विषय यह है कि अनुसंधान की परम्परा चलते रहने और अंत में इतनी गहन वैज्ञानिक दृष्टि को पाने में कितने वर्ष लगे होंगे। क्योंकि किसी और देश में वनस्पति शास्त्र का इतना प्राचीन और गहन अध्ययन नहीं हुआ है जितना कि भारत में। परन्तु हमारे वनस्पति शास्त्र के विद्वान इन सन्दभों को पाठ्य पुस्तकों में नहीं रखते, क्योंकि वे संस्कृत नहीं जानते। वे संस्कृत स्वयं पढ़ें या न पढ़ें, परन्तु यदि विज्ञान के विद्यार्थी के लिए संस्कृत का ज्ञान अनिवार्य कर दें तो इस देश के ज्ञान-विज्ञान का मार्ग स्वत: प्रशस्त हो जाएगा। जिसको संस्कृत का ज्ञान नहीं है उसे वृक्ष आयुर्वेद का ज्ञान कहां से होगा?
इसी प्रकार-प्रसिद्ध ग्रंथ च्ड़त्ड्ढदड़द्यत्ढत्ड़ ण्ड्ढद्धत्द्यठ्ठढ़ड्ढ दृढ क्ष्दड्डत्ठ्ठ के पृष्ठ १६३ में वृक्षों का विभिन्न वर्गीकरण, जो चरक, सुश्रुत, महर्षि पाराशर आदि ने किया है, उसका वर्णन है। वह भी वनस्पति विज्ञान के क्षेत्र में भारत की प्रगति को दर्शाता है।
चरक का वर्गीकरण
चरक अपनी ‘चरक संहिता‘ में वनस्पतियों का चार प्रकार से वर्गीकरण करते हैं:-
(१) जिनमें फूल के बिना ही फलों की उत्पत्ति होती है जैसे गूलर, कटहल आदि।
(२) वानस्पत्य- जिनमें फूल के बाद फल लगते हैं जैसे आम, अमरूद आदि।
(३) औषधि-जो फल पकने के बाद स्वयं सूखकर गिर पड़ें, उन्हें औषधि कहते हैं। जैसे गेंहू, जौ, चना आदि।
(४) वीरुध- जिनके तन्तु निकलते हैं, उन्हें वीरुध कहते हैं, जैसे लताएं, बेल, गुल्म आदि।
इसी प्रकार वनस्पति के प्रयोग के अनुसार भी कुछ वर्गीकरण हैं-
(अ) मूलिनी-जिसका मूल अन्य अंगों की अपेक्षा प्रायोगिक दृष्टि से विशेष महत्वपूर्ण है। इनकी सोलह संख्या बताई है।
(ब) फलनी- जिनका फल प्रयोग की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। इसमें उन्नीस प्रकार के पौधे बताये हैं। चरक ऋषि ने मानव के आहार योग्य वनस्पतियों को सात भागों में बांटा है।
(१) शूक धान्य- जिन पर शूक (बाल) निकलते हैं जैसे गेहूं, जौ आदि
(२) शिम्बी धान्य-फली की जाति वाले, जिन पर छिलका रहता है। जैसे सेम, मटर, मूंग, उड़द, अरहर आदि।
(३) शाक वर्ग- पालक, मेथी, बथुआ आदि।
(४) फल वर्ग-विभिन्न प्रकार के फल।
(५) हरित वर्ग- विभिन्न प्रकार की तरकारी, लौकी, तोरई आदि।
(६) आहार योनि वर्ग-तिल, मसाले आदि जिनका आहार में उपयोग होता है।
(७) इक्षु वर्ग- गन्ना और उसकी जातियां।
सुश्रुत का वर्गीकरण: सुश्रुत ने शाकों को दस वर्गों में बांटा है।
(१) मूल- मूली आदि। (२) पत्र- जिनके पत्तों का उपयोग होता है। (३) करीर - जिनके अंकुर का उपयोग होता है, जैसे बास। (४) अग्र-बेंत आदि। (५) फल - सभी फलदार पौधे। (६) काण्ड - कृष्माण्ड आदि। (७) अधिरुढ़-लता आदि। (८) त्वक्-मातुलुंग आदि। (९) पुष्प-कचनार आदि। (१०) कवक
महर्षि पाराशर का वर्गीकरण
महर्षि पराशर ने सपुष्प वनस्पतियों को विविध परिवारों में बांटा है। जैसे शमीगणीय (फलियों वाले पौधे), पिपीलिका गणीय, स्वास्तिक गणीय, त्रिपुण्डक् गणीय, मल्लिका गणीय और कूर्च गणीय। आश्चर्य की बात यह है कि जो विभाजन महर्षि पाराशर ने किया है, आधुनिक वनस्पति विज्ञान का विभाजन भी इससे मिलता-जुलता है।
उदाहरण के लिए- शमीगणीय विभाजन देखें-
सभी तु तुण्दमण्डला विषमविदलास्मृता।
पञ्चमुक्तदलैश्चैव युक्तजालकरुर्णितै:॥
दशभि: केशरैर्विद्यात् समि पुष्पस्य लक्षणम्।
सभी सिम्बिफला ज्ञेया पार्श्च बीजा भवेत् सा॥
वक्रं विकर्णिकं पुष्पं शुकाख्य पुष्पमेव च
एतैश्च पुष्पभेदैस्तु भिद्यन्ते समिजातय:॥
वृक्षायुर्वेद-पुष्पांगसूत्राध्
पराशर के अनुसार - आधुनिक मान्यता
तुण्डमण्डल - क़थ्दृध्र्ड्ढद्धद्म ण्न्र्द्रदृढ़ठ्ठथ्र्द्वद्म
विषम विदल - छदड्ढद्दद्वठ्ठथ् ड़दृद्धदृथ्थ्ठ्ठ थ्दृडड्ढद्म
पंच मुक्तदल - क़त्ध्ड्ढद्यद्धद्वड्ढ घ्ड्ढद्यठ्ठथ्द्म
युक्त जालिका - च्न्र्दड्ढद्मद्रण्ठ्ठथ्दृद्वद्
दश प्रिकेसर - च्र्ड्ढद च्द्यठ्ठदथ्र्ड्ढदद्म
इसी प्रकार अन्य विभाजन भी हैं। संस्कृत भाषा में इन नामों की उपयुक्तता और अभिव्यक्ति के कारण सर विलियम जोन्स ने कहा था ‘यदि लिनियस (आधुनिक वर्गीकरण विज्ञान का जनक) ने संस्कृत सीख ली होती तो उसके द्वारा वह अपनी नामकरण पद्धति का और अधिक विकास कर पाता।‘
मूल से जल का पीना-वृक्षों द्वारा द्रव आहार लेने का ज्ञान भारतीयों को था। अत: उनका नाम पादप, जो मूल से पानी पीता है, रखा गया था। महाभारत के शांतिपर्व में वर्णन आता है।
वक्त्रेणोत्पलनालेन यथोर्ध्वं जलमाददेत।
तथा पवनसंयुक्त: पादै: पिबति पादप:॥ जैसे कमल नाल को मुख में रखकर अवचूषण करने से पानी पिया जा सकता है, ठीक वैसे ही पौधे वायु की सहायता से मूलों के द्वारा पानी पीते हैं।
वनस्पतियों के रोग-वराह मिहिर की ‘बृहत्संहिता‘ में चार प्रकार के वनस्पतियों के रोगों का वर्णन है, आधुनिक विवरण भी उसकी पुष्टि करते हैं।
बृहत् संहिता आधुनिक
(१) पाण्डु पत्रता - पर्णों की पाण्डुता
(क्ण्दृथ्दृद्धदृद्मत्द्म दृढ थ्ड्ढठ्ठध्ड्ढद्म)
(२) प्रवाल अवृद्धि - कलियों का पतन
(क़ठ्ठथ्थ्त्दढ़ दृढ डद्वड्डद्म)
(३) शाखा शोष - डालियों का सूखना
(क़्द्धन्र्त्दढ़ द्वद्र दृढ एद्धठ्ठदड़ण्ड्ढद्म)
(४) रस स्रुति - रस नि:स्राव
(कन्द्वड्डठ्ठद्यत्दृद दृढ द्मठ्ठद्र)
आनुवंशिकता- ॠ क्दृदड़त्द्मड्ढ क्तत्द्मद्यदृद्धन्र् दृढ च्ड़त्ड्ढदड़ड्ढ त्द क्ष्दड्डत्ठ्ठ में दिया गया है कि चरक और सुश्रुत ने विवरण दिया है कि ‘फूल के फलित अंड में वनस्पति के सभी अंग सूक्ष्म रूप में विद्यमान रहते हैं, जो बाद में एक-एक करके प्रकट होते हैं।‘
जगदीश चन्द्र बसु का योगदान-
अर्वाचीन काल में भी वनस्पति शास्त्र के क्षेत्र में जिनका अप्रतिम योगदान रहा, उन महान विज्ञानी जगदीश चन्द्र बसु के बारे में देश कितना जानता है? वर्तमान काल में जगदीश चन्द्र बसु ने सिद्ध किया कि चेतना केवल मनुष्यों और पशुओं तक ही सीमित नहीं है, अपितु वह वृक्षों और जिन्हें निर्जीव पदार्थ माना जाता है, उनके अंदर भी समाहित है। इस प्रकार उन्होंने आधुनिक जगत के सामने जीवन के एकत्व को प्रकट किया। उन्होंने कहा कि निर्जीव व सजीव दोनों निरपेक्ष नहीं, अपितु सापेक्ष हैं। उनमें अंतर केवल इतना ही है कि धातुएं थोड़ी कम संवेदनशील होती हैं, वृक्ष कुछ अधिक संवेदनशील होते हैं, पशु कुछ और अधिक तथा मनुष्य सर्वाधिक संवेदनशील होते हैं। इनमें डिग्री का अंतर है, परन्तु चेतना सभी के अंदर है।
सन् १८९५ के आस-पास जगदीश चन्द्र बसु वैज्ञानिक प्रयोग कर रहे थे। उन्होंने धात्विक डिटेक्टर में तरंगे भेजीं। उसके परिणामस्वरूप डिटेक्टर पर कुछ संकेत चित्र आए। यह प्रयोग बार-बार करने पर एक अंतर उनके ध्यान में आया कि संकेत चित्र प्रारंभ में जितने स्पष्ट आ रहे थे, बार-बार प्रयोग दोहराने पर वे थोड़ा मंद होने लगे। यह देखकर उन्हें आश्चर्य हुआ क्योंकि जो निर्जीव हैं, उनमें प्रतिसाद कम-ज्यादा नहीं होना चाहिए, वह तो यांत्रिक होने के कारण एक जैसा होना चाहिए। प्रतिसाद का कम-ज्यादा होना तो पेशियों का स्वभाव है। उनमें जब थकान आती है तो प्रतिसाद कम होता है तथा कुछ समय आराम मिला तो प्रतिसाद अधिक होता है। अत: डिटेक्टर में प्रतिसाद कम- अधिक देखकर उन्हें शंका हुई और उन्होंने डिटेक्टर को कुछ समय आराम देकर प्रयोग को पुन: दोहराया और वे आश्चर्यचकित हो गए। क्योंकि आराम मिलने के बाद संकेत चित्र पुन: वैसे ही आने लगे। वे सोचने लगे, यह क्यों है? अपने प्रयोग को कई बार दोहराकर उन्होंने जांचा-परखा तथा यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया कि निर्जीव के अंदर भी संवेदनशीलता है। अंतर केवल इतना है कि वह निश्चेष्ट (इनर्ट) है।
जगदीश चन्द्र बसु ने जब यह सिद्ध किया, उस समय पश्चिम के वैज्ञानिकों की क्या हालत थी, इसका अनुभव निम्न प्रसंग से किया जा सकता है। रायल साइंटिफिक सोसायटी में जगदीश चन्द्र बसु का भाषण होने वाला था तो इंग्लैण्ड के प्रसिद्ध बायोलाजिस्ट हारटांग को हॉब्ज नामक विद्वान ने कहा, आज जगदीश चन्द्र बसु का भाषण होने वाला है जिन्होंने यह सिद्ध किया है कि वनस्पतियों और निर्जीवों में भी जीवन रहता है। आप भाषण सुनने चलेंगे? हारटांग की प्रथम प्रतिक्रिया थी ‘मैं अभी होश में हूं, मैंने पी नहीं रखी है। आपने कैसे समझ लिया कि मैं ऐसी वाहियात बातों पर विश्वास करूंगा।‘ फिर भी मजा देखने की मानसिकता से वे भाषण सुनने आए। और भी लोग हंसी उड़ाने की मानसिकता से वहां आए। जगदीशचन्द्र बसु ने केवल मौखिक भाषण ही नहीं दिया अपितु यंत्रों के सहारे प्रत्यक्ष प्रयोगों का प्रदर्शन करते हुए जब अपनी बात सिद्ध करना प्रारंभ किया, तो हॉल में बैठे सभी विद्वान् जो प्रारंभ में उपेक्षा की नजर से देख रहे थे, १५ मिनट बीतते-बीतते तालियां बजाने लगे। सारा हाल उनकी तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा। भाषण व प्रयोगों के अंत में जब सभा के अध्यक्ष ने पूछा कि किसी को कोई शंका, कोई प्रश्न हो तो वक्ता से पूछ सकते हैं। तीन बार दोहराने पर भी जब कोई नहीं बोला, तब प्रो. हॉब्ज खड़े हुए और उन्होंने कहा कि कुछ भी पूछने लायक नहीं है। बसु महोदय ने अत्यंत प्रामाणिकता से अपनी बात सिद्ध की है। उनके भाषण व प्रयोग को देखकर मन में शंका उठती थी, परन्तु अगले ही क्षण दूसरे प्रयोग को देखकर उस शंका का निरसन हो जाता था। रॉयल सोसायटी के अध्यक्ष ने भी जगदीशचन्द्र बसु के जीवन के एकीकरण को सिद्ध करने की दिशा के सफल प्रयत्न के प्रति विश्वास प्रकट किया।
आगे चलकर बसु महोदय ने वृक्षों के ऊपर बहुत गहराई से प्रयोग किए। अपने साथ पौधों को लेकर दुनिया की यात्रा की। अनेक संवेदनशील यंत्र बनाये जिनमें वृक्षों के अन्दर होने वाले सूक्ष्मतम परिवर्तन प्रत्यक्ष देखे जा सकते थे। उन्होंने क्रेस्कोग्राफ नामक यंत्र बनाया, जो संवेदनाओं को एक करोड़ गुना अधिक बड़ा कर बताता था। जब पौधों को वे यंत्र लगा दिए जाते थे, तो पौधे दिन भर में क्या-क्या अनुभूतियां उन्हें हो रही हैं, इसकी कहानी मानों वे स्वयं कहने लगते थे। इस प्रकार उन्होंने अपने प्रयोगों और अनुभवों को छदत्द्यन्र् दृढ थ्त्ढड्ढ, ध्दृत्ड़ड्ढ दृढ थ्त्ढड्ढ आदि लेखों में अभिव्यक्त किया तथा वनस्पति में, पशुओं में, पक्षियों में, कीड़े-मकोड़ों और सारी सृष्टि में चेतना है, इस प्राचीन अवधारणा को आधुनिक युग में सिद्ध किया।
।।जय हिंदुत्व।। ।।जय श्रीराम।। ।।जय महाकाल।। ।।जय श्रीकृष्ण।।
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