Monday, June 15, 2015

भोजनके लिये आवश्यक विचार

उपनिषदोंमें आता है कि जैसा अन्न होता है, वैसा ही मन बनता है‒‘अन्नमय हि सोम्य मनः ।’ (छान्दोग्य॰ ६ । ५ । ४)

अर्थात् अन्नका असर मनपर पड़ता है । अन्नके सूक्ष्म सारभागसे मन (अन्तःकरण) बनता है, दूसरे नम्बरके भागसे वीर्य, तीसरे नम्बरके भागसे मल बनता है जो कि बाहर निकल जाता है । अतः मनको शुद्ध बनानेके लिये भोजन शुद्ध, पवित्र होना चाहिये ।

भोजनकी शुद्धिसे मन (अन्तःकरण-) की शुद्धि होती है‒

‘आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः’(छान्दोग्य॰ २ । २६ । २) ।

जहाँ भोजन करते हैं, वहाँका स्थान, वायुमण्डल, दृश्य तथा जिसपर बैठकर भोजन करते हैं, वह आसन भी शुद्ध, पवित्र होना चाहिये ।

कारण कि भोजन करते समय प्राण जब अन्न ग्रहण करते हैं, तब वे शरीरके सभी रोमकूपों से आसपास के परमाणुओं को भी खींचते‒ग्रहण करते हैं ।

अतः वहाँका स्थान, वायुमण्डल आदि जैसे होंगे, प्राण वैसे ही परमाणु खींचेंगे और उन्हींके अनुसार मन बनेगा । भोजन बनानेवालेके भाव, विचार भी शुद्ध सात्त्विक हों ।

भोजनके पहले दोनों हाथ, दोनों पैर और मुख‒ये पाँचों शुद्ध, पवित्र जलसे धो ले । फिर पूर्व या उत्तर की ओर मुख करके शुद्ध आसनपर बैठकर भोजन की सब चीजों को‘

पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्या प्रयच्छति ।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः ॥’
(गीता ९ । २६)‒

यह श्लोक पढ़कर भगवान्‌के अर्पण कर दे ।

अर्पण के बाद दायें हाथ में जल लेकर

‘ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम् ।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्य ब्रह्मकर्मसमाधिना ॥’
(गीता ४ । २४)‒

यह श्लोक पढ़कर आचमन करे और भोजनका पहला ग्रास भगवान्‌का नाम लेकर ही मुखमें डाले । प्रत्येक ग्रासको चबाते समय

‘हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ॥’‒

इस मन्त्रको मन से दो बार पढ़ते हुए या अपने इष्ट का नाम लेते हुए ग्रास को चबाये और निगले । इस मन्त्रमें कुल सोलह नाम हैं और दो बार मन्त्र पढ़ने से बत्तीस नाम हो जाते हैं ।

हमारे मुखमें भी बत्तीस ही दाँत हैं । अतः (मन्त्रके प्रत्येक नामके साथ बत्तीस बार चबाने से वह भोजन सुपाच्य और आरोग्यदायक होता है एवं थोड़े अन्न से ही तृप्ति हो जाती है तथा उसका रस भी अच्छा बनता है और इसके साथ ही भोजन भी भजन बन जाता है ।

भोजन करते समय ग्रास-ग्रासमें भगवन्नाम-जप करते रहनेसे अन्नदोष भी दूर हो जाता है ।

जो लोग ईर्ष्या, भय और क्रोधसे युक्त हैं तथा लोभी हैं, और रोग तथा दीनतासे पीड़ित और द्वेषयुक्त हैं, वे जिस भोजनको करते हैं,

वह अच्छी तरह पचता नहीं अर्थात् उससे अजीर्ण हो जाता है ।

इसलिये मनुष्य को चाहिये कि वह भोजन करते समय मनको शान्त तथा प्रसन्न रखे ।

मनमें काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि दोषोंकी वृत्तियोंको न आने दे ।

यदि कभी आ जायँ तो उस समय भोजन न करे; क्योंकि वृत्तियों का असर भोजनपर पड़ता है और उसीके अनुसार अन्तःकरण बनता है ।

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