हिन्दू धर्म को छोड़कर विश्व के किसी भी धर्म या सम्प्रदाय में किसी भी ग्रंथ की जयंती नहीं मनायी जाती।
हिन्दू धर्म में गीता जयंती मनाने की परम्परा पुरातनकाल से चली आ रही है
क्योंकि अन्य धर्मों के ग्रंथ किसी मनुष्य द्वारा लिखे या संकलित किये गये
हैं जबकि गीता का जन्म स्वयं भगवान के श्रीमुख से हुआ है। कुरुक्षेत्र की
रणभूमि में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को निमित्त बनाकर विश्व को
वेदों-उपनिषदों का सार यह महान ग्रंथ दिया। संत ज्ञानेश्वर जी कहते हैं-
"गीता में वेदों के तीनों कांड स्पष्ट किये गये हैं। अतः वह मूर्तिमान
वेदरूप है और उदारता में तो वह वेदों से भी अधिक है।" इसकी महिमा गाते हुए
भगवान श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं- गीता में हृदय पार्थ गीता में
सारमुत्तमम्। गीता में ज्ञानमत्युग्रं गीता में ज्ञानमव्ययम्।। गीता में
चोत्तमं स्थानं गीता मे परमं पदम्। गीता में परमं गुह्यं गीता में परमो
गुरुः।। ʹगीता मेरा हृदय है। गीता मेरा उत्तम सार है। गीता मेरा अति उग्र
ज्ञान है। गीता मेरा अविनाशी ज्ञान है। गीता मेरा श्रेष्ठ निवासस्थान है।
गीता मेरा परम पद है। गीता मेरा परम रहस्य है। गीता मेरा परम गुरु है।ʹ
गीता जयंती मोक्षदा एकादशी के दिन आती है। केवल भारत ही नहीं अपितु विश्व
के कई देशों में प्रतिवर्ष गीता जयंती मनायी जाती है। पूज्य बापू जी कहते
हैं- "गीता सर्वशास्त्रमयी है। इसमें सारे शास्त्रों का सार भरा है। गीता
कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग की त्रिवेणी है। इसने मात्र भारत में ही
नहीं अपितु विश्व के कई देशों में अपने भारत में ही नहीं बल्कि विश्व के
अऩेक देशों में अपने दिव्य ज्ञान का प्रकाश फैलाया है। गीता का एकमात्र
उद्देश्य मानवमात्र का परम कल्याण करना है, उसको ईश्वरप्राप्ति कराना है।"
गीता एक सार्वभौमिक ग्रंथ है। यह किसी काल, धर्म, सम्प्रदाय या जाति-विशेष
के लिए नहीं अपितु सम्पूर्ण मानव जाति के लिए है। गीता में कहीं भी
ʹश्रीकृष्ण उवाचʹ शब्द नहीं आया है, बल्कि ʹश्रीभगवानुवाचʹ का प्रयोग किया
गया है। गीता भगवान के अनुभव की वाणी है। गीता की महिमा का वर्णन करते हुए
महामना मालवीय जी कहते हैं कि "इस अदभुत ग्रंथ के 18 अध्यायों में इतना
सारा सत्य, इतना सारा ज्ञान और इतने सारे उच्च, गम्भीर और सात्त्विक विचार
भरे हुए हैं कि वे मनुष्य को निम्न से निम्न दशा में से उठाकर देवता के
स्थान पर बिठाने की शक्ति रखते हैं।" संसार के सभी प्राणी अपने-अपने कर्मों
के अनुसार सुख या दुःख भोगते हैं। प्रत्येक मनुष्य अपने-आपमें पाँच प्रकार
का जीवन जाता है-शारीरिक, मानसिक, आर्थक, पारिवारिक और सामाजिक। इन
परिस्थितियों में जीवन जीते हुए उसे रोज ही नयी-नयी समस्याओं का सामना करना
पड़ता है, जिनका वह समुचित एवं ठोस समाधान चाहता है। इसके लिए उसे किसी
सच्चे, आत्महितैषी मार्गदर्शक की आवश्यकता होती है। इन सभी परिस्थितियों का
समाधान भगवान श्रीकृष्ण ने गीता मे किया है। वैदिक परम्परा में
मनुष्योमात्र के उद्धार के लिए तीन प्रकार के राजमार्ग बतलाये हैं, जिन्हें
ʹप्रस्थान-त्रयीʹ के नाम से जाना जाता है। उनमें से एक प्रस्थान में है
गीता। गीता मे भगवत्प्राप्ति के तीन उपाय बताये गये हैं – कर्मयोग,
ज्ञानयोग और भक्तियोग। इन तीनों योगों में से किसी भी एक योग में अपने-आपको
पूर्ण रूप से लगाकर अन्य दो योगों को सहकारी एवं समता भावपूर्वक पालन कर
आत्मा-परमात्मा की प्राप्ति की जा सकती है। गीता ग्रंथ के 18 अध्यायों को
प्रसंग के अनुसार विभाजित किया गया है। प्रत्येक अध्याय में प्रवृत्ति तथा
प्रकृति में सामंजस्य स्थापित कर निष्काम भाव से कर्म करने की प्रेरणा दी
गयी है। ईश्वर की उपासना सकाम एवं निष्काम दोनों भावों से की जा सकती है।
लेकिन भावना के अनुसार दोनों के फलों में भिन्नता होती है। सकाम भाव से
भक्ति करने वाला जहाँ सांसारिक भोग एवं ऐश्वर्य की प्राप्ति करता है, वहीं
निष्काम भाव से भक्ति करने वाला परमात्मतत्त्व को प्राप्त होता है। गीता
केवल लाल कपड़े में बाँधकर रखने के लिए नहीं बल्कि उसे पढ़कर उसके संदेशों
को आत्मसात् करने के लिए है। गीता का चिंतन अज्ञानता के आचरण को हटाकर
आत्मज्ञान की ओर प्रवृत्त करता है। गीता भगवान का श्वास और भक्तों का
विश्वास है। गीता ज्ञान का अदभुत भंडार है। गीता केवल ग्रंथ नहीं बल्कि
कलियुग के पापों को क्षय करने का अदभुत और अनुपम माध्यम भी है। जिसके जीवन
में गीता का ज्ञान नहीं वह पशु से भी बदतर होता है। गीता हमें बताती है कि
दुर्लभ मनुष्य-जीवन हमें भोग-विलास से समाप्त करने के लिए नहीं मिला है,
बल्कि भक्ति, योग और सेवा के द्वारा अपने परम लक्ष्य को पाने के लिए मिला
है। गीता हमें पलायन से पुरुषार्थ की ओर, आसक्ति से अनासक्ति की ओर, अहंकार
से निरहंकारिता की ओर अग्रसर होने की प्रेरणा देती है।
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