Monday, July 27, 2015

नमस्कार का महत्व




 नमस्कार या प्रणाम से अभिवादन या किसी से मिलते समय कहें, 
एवं नमस्ते जाते समय या विदा लेते समय कहें !

कॉपी पेस्टिये नेटमजदूर समाजी आजकल नमस्ते वाले लेख को कॉपी पेस्ट कर रहे हैं, 
जिसका शीर्षक है - "विश्व का सर्वोत्तम अभिवादन नमस्ते" , 
पहली लाइन में ये लिखा है की ये विश्व का पहला अभिवादन है , जो छोटे बडों को करें तथा बडे छोटों को करें, भैया अब ये बताओ हमें इससे फिर बड़े छोटों में कुछ अंतर रह गया क्या, या ये भी किसी दयानंदी अनुच्छेद के अंतर्गत आता है?

अब ज्यादा बेइज्जती ना करते हुए मुद्दे की बात, यहाँ अब नमस्ते के अर्थ को टटोलना है, ठीक उसी आधार पर जिस तरह अनेकार्थी फार्मूले से शुरू से समाजियों की दुकान चल रही है :

आर्य समाजी इसका अर्थ कैसे लगाते हैं ये देखिये - नमस्ते = नमः+अस्ते । 
अर्थात् तुम्हारे लिए झुकता हूँ। अब इन्होंने यहाँ पर सतही अर्थ ले लिया!

संस्कृत में आदर के लिए 'नमः' अव्यय प्रयुक्त होता है, जैसे- "सूर्याय नमः" (सूर्य के लिए नमन है)। इसी प्रकार यहाँ- "तुम्हारे लिए नमन है", के लिए युष्मद् (तुम) की चतुर्थी विभक्ति का प्रयोग होता है। वैसे "तुम्हारे लिए" के लिए संस्कृत का सामान्य प्रयोग "तुभ्यं" है, परन्तु उसी का वैकल्पिक, संक्षिप्त रूप "ते" भी बहुत प्रयुक्त होता है, यहाँ वही प्रयुक्त हुआ है। अतः नमस्ते का शाब्दिक अर्थ है- तुम्हारे लिए नमन। इसे "तुमको नमन" या "तुम्हें नमन" भी कहा जा सकता है। परन्तु इसका संस्कृत रूप हमेशा "तुम्हारे लिए नमः" ही रहता है, क्योंकि नमः अव्यय के साथ हमेशा चतुर्थी विभक्ति आती है, ऐसा नियम है। पाणिनि व्याकरण के अनुसार!

मेरा स्वयं (कलियुग नाशक) का मानना है, की किसी से मिलते समय "प्रणाम" और अगर ये बोलने में दिक्कत हो रही हो तो "नमस्कार" कहना चाहिए, एवं उसी व्यक्ति से विदा लेते समय नमस्ते बोलना चाहिए, 

अब ये किस आधार पर कह रहा हूँ ये सुनिये - ज्यादा नयी चीज नहीं है ये और आर्य समाजियों के लिए तो बहुत जानी पहचानी है, बस समाजी स्टाइल में अनेकार्थी पर्यायों व विभिन्न धातुओं के प्रयोग की बात हो रही है यहाँ! 

आर्य समाजी "अस्त" को झुकना से परिभाषित करते है, तो मैं इसे जाना या विदा लेना से कर रहा हूँ, जैसे हम कहते हैं ना कि "सूर्य अस्त हो रहा है" मतलब "डूब रहा है" या हमसे दूर "जा" रहा है या "विदा" ले रहा है, अब जैसे इसी नमस्ते को आर्य समाजियों ने जैसे "मैं तुम्हारे सामने झुकता हूँ" के अर्थ में किसी से मिलने पर बोलने को कहा है, मैं कहता हूँ उसे इसका प्रयोग उस व्यक्ति से विदा लेते वक़्त करना चाहिए, तो इसका व्याकरणी अर्थ बनेगा : नमस्ते - "आपको नमन अब मैं आपसे विदा लेता हूँ"

अब जैसा की मैंने ऊपर लिखा है की किसी का अभिवादन या मिलते समय उसे "प्रणाम" कहना चाहिए नमस्ते कदापि नहीं! अब ये कैसे देखिये -

प्रणाम करने की परंपरा दुनिया के हर कोने में है, लेकिन यह भारतीय संस्कृति का आधार है। शास्त्रों में जितने भी मन्त्रों का उल्लेख किया गया है, अधिकांश में नम: शब्द अवश्य आया है। यह नम: शब्द ही नमस्कार अथवा प्रणाम का सूचक है। जिस देवता का मन्त्र होता है, उसमें उसी देव को प्रणाम किया जाता है। ऐसी मान्यता है कि जब हम किसी को प्रणाम करते हैं, तो हम अवश्य ही आशीर्वाद प्राप्त करते हैं और पुण्य अर्जित करते हैं। मनु ने तो प्रणाम करने के कई लाभ गिनाए हैं। 

प्रणामोशीलस्य नित्यं वृद्धोपि सेविन:, 
तस्य चत्वारि वर्धन्ते, आयु: विद्या यशो बलं।

अर्थात - प्रणाम करने वाले और बुजुर्गों की सेवा करने वाले व्यक्ति की 
आयु, विद्या, यश और बल चार चीजें अपने आप बढ़ जाती हैं। 

यह समाज की विडंबना ही है कि बहुत से लोग प्रणाम करने की बात तो दूर, प्रणाम का जवाब देने से भी कतराते हैं। और ये धूर्त समाजी तो नमस्ते वाली परिपाटी निकाल रहे है! हालांकि प्रणाम को एक मर्यादा में बांधा गया है कि लोग अपने से श्रेष्ठ को अवश्य प्रणाम करें, 

इस सन्दर्भ में समाजियो के लिए 
गोस्वामी तुलसीदास ने तो गजब का आदर्श प्रस्तुत किया है।

सीय राममय सब जग जानी, करउं प्रनाम जोरि जुग पानी।
बन्दउं सन्त असज्जन चरना, दुखप्रद उभय बीच कछु बरना।

मतलब यह कि वह सभी को प्रणाम करने का सन्देश देते हैं। उनके अनुसार सम्पूर्ण संसार में भगवान व्याप्त है, इसलिए सभी को प्रणाम किया जाना चाहिए। 

प्रणाम कोई साधारण आचार या व्यवहार नहीं है। इसमें बहुत बड़ा विज्ञान छिपा है। साधारण तौर पर उसका अर्थ है, हृदय से प्रस्तुत हूं। प्रणाम करने में प्राय: भगवान के नाम का उच्चारण किया जाता है, जिसका अलग ही पुण्य होता है। बहुत से मामलों में तो प्रणाम (नाम बदलकर जैसे नमस्ते) भी बाहरी तौर पर किया जाता है और हृदय को उससे दूर ही रखा जाता है। शायद इसी सन्दर्भ में कहावत प्रचलित हुई - मुख पर राम बगल में छूरी। (जैसे समाजी) इस तरह का प्रणाम करने से अच्छा है न ही किया जाए। प्रणाम एक ऐसी व्यवस्था है, जो समाज को प्रेम के सूत्र में बांध कर रखती है। इसके महत्व को समझा जाए, तो समाज से कटुता अवश्य दूर होगी। ऐसी मान्यता है कि यदि आप किसी साधक को प्रणाम करते हैं, तो उसकी साधना का फल आपको बिना कोई साधना किए मिल जाता है। प्रणाम करने से अहंकार भी तिरोहित होता है। अहंकार के तिरोहित होने से परमार्थ की दिशा में कदम आगे बढ़ता है। प्रणाम को निष्काम कर्म के रूप में लिया जाना चाहिए। वेदों में ईश्वर को प्रणाम करने की व्यवस्था है, (जिसके अंट शंट अर्थ समाजियों ने लगाएं है), यह कोई याचना नहीं, निष्काम कर्म ही है, जो परमार्थ के लिए प्रमुख साधन है। श्रीरामचरितमानस में कहा गया है, 

हरि व्यापक सर्वत्र समाना, 
प्रेम ते प्रकट होइ मैं जाना। 

ईश्वर कण-कण में व्याप्त है, जो प्रेम के वशीभूत हो कर प्रकट हो जाता है। इसलिए चेतन ही नहीं, जड़ वस्तुओं को भी प्रणाम किया जाए, तो वह ईश्वर को ही प्रणाम है, क्योंकि कोई ऐसी जगह नहीं है, जहां ईश्वर नहीं है।

एक बात और, प्रणाम सद्भाव से ही किया जाना चाहिए, भले ही वह मानसिक क्यों न हो। शास्त्रों में इसके भी उदाहरण मिलते हैं। श्रीरामचरितमानस का सन्दर्भ लें, तो स्वयंवर के मौके पर श्रीराम ने अपने गुरु को मन में ही प्रणाम किया था।

गुरहि प्रनामु मनहि मन कीन्हा, 
अति लाघव उठाइ धनु लीन्हा।

अर्थात - उन्होंने मन-ही-मन गुरु को प्रणाम किया और बड़ी फुर्ती से धनुश उठा लिया। इस प्रकार प्रणाम के रहस्य को समझ कर उसे जीवन में लागू किया जाए, तो अनेक रहस्यपूर्ण अनुभव होंगे, इसमें कोई सन्देह नहीं।

अब लोग प्रणाम कहने से शरमाते हैं तो वे समाजियों की तरह ही मूर्ख कहलायेंगे, पर एक उपाय है, प्रणाम नहीं कह सकते तो उसकी जगह "नमस्कार" कहो, ये प्रणाम का ही तद्भव रूप है, और ध्यान रहे नमस्कार किसी से मिलते समय करना है, अर्थात अभिवादन नमस्कार से होना चाहिए, जैसे हम उगते सूर्य को देख कर "सूर्य नमस्कार" करते हैं, अब डूबते सूर्य को देखकर "सूर्य नमस्ते" तो कोई करता नहीं, बताओ कोई करता है क्या? शायद आर्य समाजी करते होंगे पर मूर्खों की बांतों पर हम सनातनियों को ध्यान नहीं देना चाहिए, 

अब प्रश्न ये है की जाते समय या उस व्यक्ति से जिससे नमस्कार किया है उससे विदा लेते समय क्या कहा जाये, तो इसका उत्तर है की उससे विदा लेते समय "नमस्ते" कहना चाहिए, जिसका अर्थ होगा कि "मैं आपको नमन करता हूँ तथा यहाँ से अस्त होता हूँ, या जाता हूँ"

अब पाठकों को भली प्रकार समझ आ गया होगा कि उन्हें क्या करना है, तो सनातनियों स्मरण रहे -

"नमस्कार या प्रणाम से अभिवादन या किसी से मिलते समय, 
एवं नमस्ते जाते समय या विदा लेते समय"



।।जय हिंदुत्व।। ।।जय श्रीराम।। ।।जय महाकाल।। ।।जय श्रीकृष्ण।।

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