Monday, July 27, 2015

मंत्रों में निहित शक्ति एवं उसकी जाग्रति


ईथर तत्व में शब्द प्रवाह के संचरण को रेडियो यंत्र अनुभव करा सकता है, पर ‘ईथर’ को उसके असली रूप में देखा जा सकना सम्भव नहीं गर्मी, सर्दी, सुख, दुःख की अनुभूति होती है, उन्हें पदार्थ की तरह प्रत्यक्ष नहीं देखा जा सकता।
उसी तरह मंत्र में उच्चरित शब्दावली मंत्र की मूल शक्ति नहीं वरन् उसको सजग करने का उपकरण है। किसी सोते को हाथ से झकझोर कर जगाया जा सकता है, पर यह हाथ जाग्रति नहीं। अधिक से अधिक उसे जाग्रति का निमित्त होने का श्रेय ही मिल सकता है। मंत्रोच्चार भी अन्तरंग में और अन्तरिक्ष में भरी पड़ी अगणित चेतन शक्तियों में से कुछ को जाग्रत करने का एक निमित्त कारण भर है।

किस मंत्र से किस शक्ति को किस आधार पर जगाया जाय, इसका संकेत हर मंत्र के साथ जुड़े हुए विनियोग में बताया जाता है। वैदिक और तान्त्रिक सभी मंत्रों का विनियोग होता है। आगम और निगम शास्त्रों में मंत्र विधान के साथ ही उसका उल्लेख रहता है। जप तो मूल मंत्र का ही किया जाता है पर उसे आरम्भ करते समय विनियोग को पढ़ लेना अथवा स्मरण कर लेना आवश्यक होता है। इससे मंत्र के स्वरूप और लक्ष्य के प्रति साधना काल में जागरूकता बनी रहती है और कदम सही दिशा में बढ़ते हैं ।
मंत्र विनियोग के पाँच अंग हैं-ऋषि 2−छन्द, 3−देवता, 4−बीज, 5−तत्व। इन्हीं से मिलकर मंत्र शक्ति सर्वांग पूर्ण बनती है।

‘ऋषि’ तत्व का संकेत है-मार्गदर्शक गुरु, ऐसा व्यक्ति जिसने उस मंत्र में पारंगतता प्राप्त की हो। सर्जरी, संगीत जैसे क्रिया कलाप अनुभवी शिक्षक ही सिखा सकता है। पुस्तकीय ज्ञान से नौकायन नहीं सीखा जा सकता, इसके लिए किसी मल्लाह का प्रत्यक्ष पथ प्रदर्शन चाहिए।

छन्द का अर्थ है-लय वाक्य में प्रयुक्त होनेवाली पिंगल प्रक्रिया के आधार पर भी छन्दों का वर्गीकरण होता है, यहाँ लय को छन्द समझा जाना चाहिए, किस स्वर में किस क्रम से, किस उतार-चढ़ाव के साथ मंत्रोच्चारण किया जाय यह एक स्वतंत्र शास्त्र है। विभिन्न राग रागिनियों का ध्वनि प्रवाह उत्पन्न होता है जिससे मानसिक, वाचिक, उपाँशु, उदात्त, अनुदात्त, स्वरित भेद-प्रभेद उत्पन्न होते हैं, जिनके आधार पर उसी मंत्र द्वारा अनेक प्रकार की प्रतिक्रियायें उत्पन्न की जा सकती हैं।

ध्वनि तरंगों के कम्पन की लय पर निर्भर हैं। साधना विज्ञान में इसे यति कहा जाता है। मंत्रों की एक यति सबके लिए उचित नहीं। व्यक्ति की स्थिति और उसकी आकांक्षा को ध्यान में रख कर यति का लय निर्धारण करना पड़ता है। साधक को उचित है कि मंत्र साधना में प्रवृत्त होने से पूर्व अपने लिए उपयुक्त छन्द की लय का निर्धारण कर ले।

विनियोग का तीसरा चरण है-देवता देवता का अर्थ है-चेतना सागर में से अपने अभीष्ट शक्ति प्रवाह का चयन। आकाश में एक ही समय में अनेकों रेडियो स्टेशन बोलते रहते हैं पर हर एक की फ्रीक्वेंसी अलग होती है। ऐसा न होता तो ब्रॉडकास्ट किये गये सभी शब्द मिलकर एक हो जाते। शब्द धाराओं की पृथकता और उनसे संबंध स्थापित करने के पृथक् माध्यमों का उपयोग करके ही किसी रेडियो सेट के लिए यह सम्भव होता है कि अपनी पसन्द का रेडियो प्रोग्राम सुने और अन्यत्र में चल रहे प्रोग्रामों को बोलने से रोक दे।

निखिल ब्रह्माण्ड में ब्रह्म चेतना की अनेक धारायें समुद्री लहरों की तरह अपना पृथक् अस्तित्व भी लेकर चलती हैं। भूमि एक ही होने पर भी उसमें परतें अलग-अलग तरह की निकलती हैं। समुद्रीय अगाध जल में पानी की परतें तथा असीम आकाश में वायु से लेकर किरणों तक की अनेक परतें होती हैं। इसी प्रकार ब्रह्म चेतना के अनेक प्रयोजनों के लिए उद्भूत अनेक शक्ति तरंगें निखिल ब्रह्माण्ड में प्रवाहित रहती हैं। उनके स्वरूप और प्रयोजनों को ध्यान में रखते हुए ही उन्हें देवता कहा जाता है।उद्देश्य अनुसार उसका चयन करना चाहिए ।

मंत्र योग साधना का एक ऐसा शब्द और विज्ञान है कि उसका उच्चारण करते ही किसी चमत्कारिक शक्ति का बोध होता है। ऐसी धारणा है कि प्राचीन काल के योगी, ऋषि और तत्वदर्शी महापुरुषों ने मंत्रबल से पृथ्वी देव-लोक और ब्रह्माण्ड की अनन्त शक्तियों पर विजय पाई थी। मंत्र शक्ति के प्रभाव से वे इतने समर्थ बन गये थे कि इच्छानुसार किसी भी पदार्थ का हस्तान्तरण, शक्ति को, पदार्थ को शक्ति में बदल देते थे। शाप और वरदान मंत्र का ही प्रभाव माना जाता है। एक क्षण में किसी का रोग अच्छा कर देना एक पल में करोड़ों मील दूर की बात जान लेना, एक नक्षत्र से दूसरे नक्षत्र की जानकारी और शरीर की 72 हजार नाड़ियों के एक-एक जोड़ की ही अलौकिक शक्ति थी। सकाम कर्मों में मंत्र की यही शक्ति विभिन्न क्रिया-कृत्यों के सहारे सजग होती है और अभीष्ट प्रयोजन पूरे करती है।

ह्रीं, श्रीं, क्लीं, ऐं आदि बीज मंत्रों के ध्वनि से ही प्रयोजन सिद्ध होते हैं । नैषध चरित्र के 13 वें सर्ग में उसके लेखक ने इस रहस्य का और भी स्पष्ट उद्घाटन किया है। संगीत का शारीरिक, मानसिक, स्वास्थ्य पर जो असाधारण प्रभाव पड़ता है, उससे समस्त विज्ञान जगत परिचित है।

तत्व : मंत्र से दो वृत्त बनते हैं एक को भाववृत्त और दूसरे को ध्वनिवृत्त कह सकते हैं। लगातार की गति अन्ततः एक गोलाई में घूमने लगती है। ग्रह नक्षत्रों का अपने-अपने अयन वृत्त पर घूमने लगना इसी तथ्य से सम्भव हो सका है कि गति क्रमशः गोलाई में मुड़ती चली जाती है।

मंत्र जप में नियत शब्दों को निर्धारित क्रम से देर तक निरन्तर उच्चारण करना पड़ता है। जप यही तो है। इस गति प्रवाह के दो आधार हैं। एक भाव और दूसरा शब्द। मंत्र के अन्तराल में सन्निहित भावना का नियत निर्धारित प्रवाह एक भाववृत्त बना लेता है, वह इतना प्रचण्ड होता है कि साधक के व्यक्तित्व को ही पकड़ और जकड़ कर उसे अपनी ढलान में ढाल ले। उच्चारण से उत्पन्न ध्वनिवृत्त भी ऐसा ही प्रचण्ड कार्य करती है, उसका स्फोट एक घेरा डालकर उच्चारणकर्ता को अपने घेरे में कस लेता है । भाववृत्त अन्तरंग वृत्तियों पर शब्दवृत्त बहिरंग प्रवृत्तियों पर इस प्रकार आच्छादित हो जाता है कि मनुष्य के अभीष्ट स्तर को तोड़ा-मरोड़ा या ढाला जा सके।

इतने प्रयासें और प्रक्रियाओं के बाद मंत्रों में निहित शक्ति जाग्रति हो कर अपना कार्य प्रारम्भ करती है


।।जय हिंदुत्व।। ।।जय श्रीराम।। ।।जय महाकाल।। ।।जय श्रीकृष्ण।।

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