Tuesday, June 16, 2015

शिकागो वक्तृता: धर्म महासभा: स्वागत भाषण का उत्तर -11 सित. 1893





स्वामी विवेकानंद – विश्‍वधर्म-महासभा, शिकागो, 11 सितंबर 1893
सन् 1893 ई. में विश्व-प्रदर्शनी के उपलक्ष्य में शिकागो में जो धर्मसभा हुई थी, वही विश्व-धर्मपरिषद थी। पाश्चात्य देशों में आजकल आमतौर से होनेवाली प्रदर्शनियों के साथ-साथ विज्ञान, कला तथा साहित्य-सम्बन्धी बैठकों का होना भी एक रिवाजसा हो गया है। इस प्रकार यह आशा की जाती है कि ऐसी प्रत्येक बैठक उन विषयों के इतिहास में चिरस्मरणीय हो जाएगी, जिनकी उन्नति मानव-जाति के लिए वांछित है। इन पर मानवों का जो एक विराट समूह एकत्र होता है, उससे औषधिशास्त्र, न्यायशास्त्र, शिल्पशास्त्र तथा विद्या के अन्यान्य क्षेत्रों में तात्विक गवेषणा एवं प्रायोगिक शोध सम्बन्धी आपसी विचार-विनिमय द्वारा उन सबका संवर्धन हो सके। साहस एवं मौलिकता से प्रेरित शिकागो निवासियों के मन में यह विचार आया कि संसार के प्रमुख धर्मों का सम्मेलन अन्य सब परिषदों में उच्चतर एवं श्रेष्ठ होगा। अतः ऐसा प्रस्ताव रखा गया कि इस सम्मेलन में प्रत्येक धर्म के प्रतिनिधि का भाषण हो और श्रोतागण प्रत्येक प्रतिनिधि के उन विचारों को सहानुभूति और ध्यानपूर्वक सुनें, जिनके कारण उस प्रतिनिधि को अपने धर्म में अटूट श्रद्धा है। उन्होंने यह सोचा कि इस प्रकार आपस में समभाव के मेल-जोल तथा भाषण की स्वतन्त्रा से सब एकत्रित प्रतिनिधियों का एक धार्मिक सम्मेलन अर्थात् ‘पार्लमेंट’ बन जाएगा और इस तरह भिन्न-भिन्न धर्मों में आपसी बन्धुत्व-भाव के जो आधार हैं, वे संसार के लोगों के सम्मुख भलीभाँति रखे जा सकेंगे। इसी समय दक्षिण भारत में कुछ शिष्यों ने, जिन्हें इस बात का बहुत थोड़ा ज्ञान था कि किसी दूसरे देश में प्रतिनिधि किस प्रकार भेजे जाते हैं, अपने गुरुदेव से इस बात का अनुरोध किया कि वे इस अवसर पर अमेरिका जाकर हिन्दू-धर्म के प्रतिनिधि-रूप में अपना भाषण दें। अटूट भक्ति से प्रेरित उन शिष्यों को यह ध्यान नहीं आया कि वे एक ऐसी बात की इच्छा कर रहे थे जो साधारण दृष्टि से असम्भव-सी थी। उनका ऐसा अनुमान था कि स्वामी विवेकानन्द वहाँ चले भर जाएं और उन्हें प्रतिनिधि का स्थान दे दिया जाएगा इधर स्वामी जी भी अपने शिष्यों की ही भाँति सांसारिक व्यवहारों में सरल प्रकृति के थे; और जब उन्हें यह विश्वास हो गया कि उनको वहाँ भेजने की प्रेरणा दैवी ही थी, तो फिर उन्होंने अधिक अनिच्छा नहीं प्रकट की। स्वामीजी भारतवर्ष की किसी मान्य संस्था द्वारा नहीं भेजे गये थे और न उन्हें किसी प्रकार का निमन्त्रण ही प्राप्त हुआ था। फिर उधर इस परिषद में प्रतिनिधियों को घटाने-बढ़ाने का समय भी निकल चुका था तथा उनकी संख्या भी निर्धारित हो चुकी थी। अब पाठक अनुमान करें कि स्वामी जी शिकागो पहुँचकर किस निराशा से वापस लौटे होंगे। पर उन्होंने चाहा कि भारतवर्ष लौटने के पहले बोस्टन शहर में ही चलकर कम से कम किसी से भेंट-मुलाकात तो कर लें। इस प्रकार बिना अपनी कोई निश्चित योजना के वे किसी प्रकार हार्वर्ड युनिवर्सिटी के प्रोफेसर राइट के पास पहुंच गये। प्रोफेसर राइट ने स्वामी जी की प्रतिभा को फौरन ताड़ लिया और उनके मद्रास के शिष्यों के समान ही यह अनुभव करने लगे कि आगामी परिषद के अवसर पर स्वामी जी का सन्देश विश्व के सम्मुख अवश्य आना चाहिए स्मरण रहे कि बाद में एक बार प्रोफेसर राइट ने स्वामीजी को लिखा भी था कि आपसे आपकी योग्यता के बारे में प्रमाण माँगना मानो सूर्य से यह पूछना होगा कि उसे प्रकाशित होने का क्या अधिकार है। प्रोफेसर राइट के स्नेह तथा प्रभावों ने स्वामीजी को फिर शिकागो वापस भेज दिया और इस प्रकार उस परिषद में एक प्रतिनिधि के रूप में उन्हें स्थान तथा सम्मान प्राप्त कराया। परिषद की कार्यवाही जब प्रारम्भ हुई, तो सभामंच पर चाहे वे अकेले भारतीय, अकेले ही बंग-देशीय सज्जन भले ही न रहे हों, परन्तु हिन्दूधर्म के तो वास्तव में वे ही एकमात्र प्रतिनिधि थे। शेष सब प्रतिनिधि किसी न किसी संस्था, मत अथवा पन्थ के थे। परन्तु विश्व को समग्र हिन्दुओं के भावों का दिग्दर्शन करानेवाले केवल वे ही थे और हम कह सकते हैं कि सबसे पहले उसी दिन उनके द्वारा हिन्दूधर्म को एकसूत्रता तथा स्पष्टता प्राप्त हुई। उनके श्रीमुख से भारतवर्ष का वह धर्म निःसृत हुआ, जिसे उन्होंने दक्षिणेश्वर में अपने श्रीगुरुदेव में मूर्त रूप लिये देखा था तथा जिसका अनुभव उन्होंने परवर्ती काल में अपने वर्षों के भारत-भ्रमण में किया था। उनके भाषण ऐसे ही समन्वयात्मक विषयों पर हुए, जिनके सम्बन्ध में भारत वर्ष में एकमत है, न कि उन विषयों पर जिन पर मतभेद है। सर्व-धर्म-परिषद का अन्तरराष्ट्रीय विभाग सत्रह दिन तक चला और उसमें भिन्न भिन्न लेख एवं निबन्ध पढ़े गये। स्वामी विवेकानन्दजी का निबन्ध 19 वीं तारीख को पढ़ा गया। परन्तु पहले दिन से ही जब कि प्रतिनिधियों का औपचारिक स्वागत तथा उनके प्रयुत्तर हुये थे, स्वामी जी का सम्बन्ध श्रोतागणों से स्थापित हो था। स्वामीजी का उत्तर तीसरे प्रहर दिन कुछ देर से हुआ; और जब सहज हिन्दू-पद्धति के अनुसार उन्होंने अमेरिका-निवासियों को ‘अमेरिकानिवासी भगिनी तथा भ्रातृगण’ कहकर सम्बोधित किया, तब तो तमाम श्रोताओं में एक जोश की लहर-सी दौड़ गयी कारण यह था कि प्राच्य के इस संन्यासी ने स्त्रियों को पहले स्थान दिया और सारे विश्व को अपना कुटुम्ब मानकर सम्बोधित किया। वे लोग यह भी कहते थे कि हम लोगों में से किसी को यह कभी नहीं सूझा। कहा जा सकता है कि स्वामीजी की भावी सफलता शायद उसी समय से निश्चित हो चुकी थी। और अन्त में तो यह परिस्थिति हो गयी थी कि श्रोताओं को अन्य प्रतिनिधियों के कारण भाषण में गुलगपाड़ा मचाने से रोकने के लिए, परिषद के कार्यकर्ताओं को उन्हें यह आश्वासन दिलाना पड़ता था कि यदि वे चुपचाप बैठे रहेंगे, तो अन्त में स्वामी जी उन्हें कोई मनोरंजक संवाद सुनायेंगे अथवा कोई भाषण देंगे। हिन्दुधर्म के इतिहास में यह परिषद इस धर्म के वैशिष्टयकाल की द्योतक है और ज्यों ज्यों समय बीतेगा, त्यों त्यों इसका महत्त्व अधिक स्पष्ट होगा। ऊपरी दिखावे तथा प्रदर्शनी की दृष्टि से भी प्रतिनिधियों की बैठक ने आरम्भ से अन्त तक वास्तव में एक ऐसा दृश्य उपस्थित किया होगा, जैसा कि हम अपने समय में शायद ही देख सकें। करोड़ों मनुष्यों के धार्मिक प्रतिनिधि इस सभामंच पर उपस्थित थे। उस दृश्य का अन्दाज लगाने के लिए इस धर्म-परिषद के विश्वास इतिहास के लेखक रेवरेण्ड जॉन हेनरी बैरोज के कुछ अँशों को हम उद्धृत करते हैं—


‘अमेरिकानिवासी भगिनी तथा भ्रातृगण’,
आपने जिस सौहार्द और स्नेह के साथ हम लोगों का स्वागत किया हैं, उसके प्रति आभार प्रकट करने के निमित्त खड़े होते समय मेरा हृदय अवर्णनीय हर्ष से पूर्ण हो रहा हैं। संसार में संन्यासियों की सब से प्राचीन परम्परा की ओर से मैं आपको धन्यवाद देता हूँ; धर्मों की माता की ओर से धन्यवाद देता हूँ; और सभी सम्प्रदायों एवं मतों के कोटि कोटि हिन्दुओं की ओर से भी धन्यवाद देता हूँ।
मैं इस मंच पर से बोलनेवाले उन कतिपय वक्ताओं के प्रति भी धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ, जिन्होंने प्राची के प्रतिनिधियों का उल्लेख करते समय आपको यह बतलाया हैं कि सुदूर देशों के ये लोग सहिष्णुता का भाव विविध देशों में प्रचारित करने के गौरव का दावा कर सकते हैं। मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व का अनुभव करता हूँ, जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सार्वभौम स्वीकृति, दोनों की ही शिक्षा दी हैं। हम लोग सब धर्मों के प्रति केवल सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करते, वरन् समस्त धर्मों को सच्चा मान कर स्वीकार करते हैं। मुझे ऐसे देश का व्यक्ति होने का अभिमान हैं, जिसने इस पृथ्वी के समस्त धर्मों और देशों के उत्पीड़ितों और शरणार्थियों को आश्रय दिया हैं। मुझे आपको यह बतलाते हुए गर्व होता हैं कि हमने अपने वक्ष में यहूदियों के विशुद्धतम अवशिष्ट को स्थान दिया था, जिन्होंने दक्षिण भारत आकर उसी वर्ष शरण ली थी, जिस वर्ष उनका पवित्र मन्दिर रोमन जाति के अत्याचार से धूल में मिला दिया गया था । ऐसे धर्म का अनुयायी होने में मैं गर्व का अनुभव करता हूँ, जिसने महान् जरथुष्ट्र जाति के अवशिष्ट अंश को शरण दी और जिसका पालन वह अब तक कर रहा हैं। भाईयो, मैं आप लोगों को एक स्तोत्र की कुछ पंक्तियाँ सुनाता हूँ, जिसकी आवृति मैं बचपन से कर रहा हूँ और जिसकी आवृति प्रतिदिन लाखों मनुष्य किया करते हैं:
रुचिनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषाम् । नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव ।।
- ‘ जैसे विभिन्न नदियाँ भिन्न भिन्न स्रोतों से निकलकर समुद्र में मिल जाती हैं, उसी प्रकार हे प्रभो! भिन्न भिन्न रुचि के अनुसार विभिन्न टेढ़े-मेढ़े अथवा सीधे रास्ते से जानेवाले लोग अन्त में तुझमें ही आकर मिल जाते हैं।’
यह सभा, जो अभी तक आयोजित सर्वश्रेष्ठ पवित्र सम्मेलनों में से एक हैं, स्वतः ही गीता के इस अद्भुत उपदेश का प्रतिपादन एवं जगत् के प्रति उसकी घोषणा हैं:
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् । मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ।।
- ‘ जो कोई मेरी ओर आता हैं – चाहे किसी प्रकार से हो – मैं उसको प्राप्त होता हूँ। लोग भिन्न मार्ग द्वारा प्रयत्न करते हुए अन्त में मेरी ही ओर आते हैं।’
साम्प्रदायिकता, हठधर्मिता और उनकी बीभत्स वंशधर धर्मान्धता इस सुन्दर पृथ्वी पर बहुत समय तक राज्य कर चुकी हैं। वे पृथ्वी को हिंसा से भरती रही  हैं, उसको बारम्बार मानवता के रक्त से नहलाती रही हैं, सभ्यताओं को विध्वस्त करती और पूरे पूरे देशों को निराशा के गर्त में डालती रही हैं। यदि ये बीभत्स दानवी न होती, तो मानव समाज आज की अवस्था से कहीं अधिक उन्नत हो गया होता । पर अब उनका समय आ गया हैं, और मैं आन्तरिक रूप से आशा करता हूँ कि आज सुबह इस सभा के सम्मान में जो घण्टाध्वनि हुई हैं, वह समस्त धर्मान्धता का, तलवार या लेखनी के द्वारा होनेवाले सभी उत्पीड़नों का, तथा एक ही लक्ष्य की ओर अग्रसर होनेवाले मानवों की पारस्पारिक कटुता का मृत्युनिनाद सिद्ध हो।

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