भारतीय जीवनदर्शन में पुनर्जन्म का बड़ा महत्व है। यहां जितने पंथ-उपपंथ उत्पन्न हुए हैं, वे पुनर्जन्म के प्रति आस्था रखते हैं। चारवाक सिध्दांत को छोड़कर सभी पंथों में पुनर्जन्म के प्रति आस्था है। यहां का वनवासी जो स्वच्छंद रूप से विचरण करता है, उसमें भी पुनर्जन्म के प्रति आस्था है। पुनर्जन्म से संबंधित अनेक कथाओं का प्रचलन ग्रामों एवं वनों में रहने वाले लोगों के बीच चलता रहता है।
पुनर्जन्म के उदाहरण
हमारे वेदों एवं शास्त्रों में पुनर्जन्म के सैकड़ों उदाहरण मिलते हैं। महाभारत, जो संपूर्ण शास्त्रों का निचोड़ माना जाता है, में भी पुनर्जन्म की कथाएं विद्यमान हैं। श्रीमद्भगवत गीता में, जो महाभारत का एक अंग है, श्रीकृष्ण ने अनेक स्थानों पर पुनर्जन्म की महिमा गायी है। पुनर्जन्म जीवात्मा के कर्मों में अनुसार होते रहता है। श्री कृष्ण ने योगविद्या की महिमा का वर्णन करते हुए अर्जुन से कहा कि योग की श्रेष्ठता उन्होंने बहुत पूर्व सूर्य को बतायी थी। इस पर अर्जुन ने कहा ‘सूर्य तो बहुत पुराना है और हमलोग आज के युग में हैं, तब आपने सूर्य से प्रारंभ में योग की महिमा कैसे बतायी।’ इसके उत्तर में भगवान ने कहा कि हमलोगों के अनेक जन्म हो चुके हैं। जिन्हें ‘मैं जानता हूं तुम नहीं।’ श्री कृष्ण ने यह भी कहा, ‘जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को बदल कर नये वस्त्रों को धारण करता है, उसी प्रकार जीव (प्राणी) भी पुराने शरीर को त्याग कर नया शरीर धारण करता है।’
प्रत्येक जीवधारी में आत्मतत्व है। यह जब तक जीवधारी में विद्यमान रहता है, तब तक जीवनधारी विभिन्न प्रकार की प्रक्रियाएं करता है। उसके निकल जाने से प्राणी मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। यह आत्मतत्व 84 लाख योनियों में जन्म ले सकता है। स्थावर, अंइज, पिंडज आदि जीवधारी सृष्टि में सभी जगह पाये जाते हैं। कुछ जीवधारी सागर की अतल गहराई में तो कुछ वायु में एवं अधिक ऊंचाई तक पाये जाते हैं। आधुनिक प्रयोगों से पता चलता है कि 25 फुट बर्फ की गहराई में भी कुछ प्राणी विद्यमान रहते हैं। सभी प्राणियों में सुख-दुख, प्रसन्नता, अप्रसन्नता आदि की भावना विद्यमान रहती है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि सभी प्राणियों में उपरोक्त गुणों का अनुमान कराने वाला तत्व विद्यमान रहता है।
जीवन का बीजारोपण
पिता के शरीर से माता के गर्भ में जीव का वीजारोपण होता है, तब उचित अवस्था में जीव भ्रूण का रूप धारण करता है। इसे आज वैज्ञानिक दृष्टि से गर्भाधान कहा जाता है। धीरे-धीरे भ्रूण के आकार में वृध्दि होती है। भ्रूण में जीवित तत्व ही माता के शरीर से पोषक तत्वों को प्राप्त करता है और माता के गर्भ में पल कर उस योनि को प्राप्त करता है। जैसे गाय का भ्रूण बछड़ा या बछड़ी, महिला का भ्रूण बच्चा या बच्ची इत्यादि का आकार ग्रहण करता है। जितने दिनों तक जीवात्मा मां के गर्भ में रहता है, उतने दिनों को गर्भावस्था कहा जाता है। यदि कोई दुर्घटना न हो तो पूर्ण समय होने पर जीवात्मा शरीर धारण कर गर्भ से बाहर आता है। आधुनिक विज्ञान ने यह माना है कि गर्भ में जीव अपना विकास करते-करते पूर्ण आकार को प्राप्त कर उचित समय में प्रकृति के खुले वातावरण में आ जाता है। यह एक जटिल प्रक्रिया है।
एक कुशल कारीगर प्राप्त संसाधनों से किसी उपयोगी वस्तु का स्वरूप प्रदान करता है। विशेषज्ञ को जिस वस्तु का निर्माण करना होता है, वह उसके अनुसार प्राप्त संसाधनों से ही उस वस्तु का निर्माण कर लेता है। उदाहरणार्थ यदि किसी मिस्त्री को पलंग बनाने की आवश्यकता है तो उसे पलंग बनाने के साधन मिलने चाहिये।
कुछ वस्तुएं ढाल कर भी निर्माण की जाती है। जिसे ढालना कहा जाता है। इसके पूर्व कारीगर को उचित फ्रेम बनाने की आवश्यकता होती है। यदि उसे एक हिरण के आकार का खिलौना बनाना होता है तो वह धातु पिघलने के पूर्व हिरण के आकार का फ्रेम मिट्टी से बनाता है फिर धातु को पिघला कर उसमें ढालता है। जिससे धातु हिरण का रूप धारण कर लेता है। प्लास्टिक आदि के बहुत से खिलौनों का निर्माण इसी विधि से होता है। लोहा, अल्यूमिनयम, तांबा, जस्ता आदि धातुओं से आज इसी विधि से अनेक उपयोगी पदार्थ बनाये जाते हैं। माता का गर्भ एक प्रकार से जीवात्मा के लिये फ्रेम का काम करता है। जैसे सफल मोल्डर (ढाल कर आकार देने वाला कारीगर) धातु, मिट्टी, प्लास्टिक को आकार दे देता है, उसी प्रकार जीवात्मा भी शरीर का आकार कुशलता पूर्वक दे देता है। कुशल कारीगर अनेकों प्रकार के आकार दे सकता है।
जीवात्मा की प्रकृति
जीवात्मा एक अनुभवी कारीगर के समान कार्य करता है। यदि किसी रोग या मां की गड़बड़ी के कारण गर्भ में से जीव का प्राण निकल जाता है तब वह गर्भ बेकार हो जाता है। गर्भ से निर्माण की प्रक्रिया सभी योनि के प्राणियों में होते रहती है। इससे सिध्द होता है कि जीवात्मा को शरीर निर्माण करने का बहुत बड़ा अनुभव है। वह जिस योनि में पहुंचता है, शरीर के निर्माण का अनुभव जीवात्मा को पूर्व से ही होता है। वह प्राप्त संसाधनों से फ्रेम (मां के गर्भ के अनुसार) ये शरीर का निर्माण कर लेता है।
जीवात्मा संसार में आकर अनेक कार्यों को संपादित करता है। लेकिन गर्भ में आने पर उसका सबसे बड़ा कार्य अपने उपयोग के लिये शरीर का निर्माण करना होता है। उसे माता के खान-पान एवं रहन-सहन से उचित संसाधन मिलते रहता है। मातायें भिन्न-भिन्न प्रकृति की होती हैं। उनका आवास भी भिन्न-भिन्न प्रकार का होता है तथा भोजन जल आदि उन्हें एक समान सदैव नहीं मिलता। इसके कारण समान योनियों में भी संतानों की भिन्नता रहती है। विभिन्न परिस्थितियों में जन्म लेने के कारण एक माता की संतानों में भी भिन्नता आ जाती है। जिसके कारण प्राणियों में विभिन्नता बनती है। जिससे जीवों के स्वरूप और प्रकृति में बहुत अंतर दिखाई देता है। यह विभिन्नता न रहे तो बहुत बड़ी समस्या सामाजिक जीवन में उत्पन्न हो सकती है।
गर्भ में जीव विभिन्न प्रकार के जीवित सेलों का निर्माण करता रहता है। जिसके कारण शरीर के विभिन्न अंग उत्पन्न होते हैं। जटिल से जटिल अंगों के सेल अपना-अपना निर्धारित कार्य करते रहे हैं। इसके कारण अंगुलियां, हड्डियां, आंखें, मस्तिष्क आदि का निर्माण होते रहता है।
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