Wednesday, June 17, 2015

हिंदू धर्म में कर्म



कर्म हिंदू धर्म की वह अवधारणा है, जो एक प्रणाली के माध्यम से कार्य-कारण के सिद्धांत की व्याख्या करती है, जहां पिछले हितकर कार्यों का हितकर प्रभाव और हानिकर कार्यों का हानिकर प्रभाव प्राप्त होता है, जो पुनर्जन्म का एक चक्र बनाते हुए आत्मा के जीवन में पुन: अवतरण या पुनर्जन्म की क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं की एक प्रणाली की रचना करती है. कहा जाता है कि कार्य-कारण सिद्धांत न केवल भौतिक दुनिया में लागू होता है, बल्कि हमारे विचारों, शब्दों, कार्यों और उन कार्यों पर भी लागू होता है जो हमारे निर्देशों पर दूसरे किया करते हैं. जब पुनर्जन्म का चक्र समाप्त हो जाता है, तब कहा जाता है कि उस व्यक्ति को मोक्ष की प्राप्ति होती है, या संसार से मुक्ति मिलती है. सभी पुनर्जन्म मानव योनि में ही नहीं होते हैं. कहते हैं कि पृथ्वी पर जन्म और मृत्यु का चक्र 84 लाख योनियों में चलता रहता है, लेकिन केवल मानव योनि में ही इस चक्र से बाहर निकलना संभव ह.


उत्पत्ति

किये गए कृत्यों के निर्णायक प्रतिफल के संदर्भ में आत्मा के देहांतरण या पुनर्जन्म का सिद्धांत ऋगवेद में नहीं मिलता है. कर्म की अवधारणा सर्वप्रथम भगवद गीता (ई.पू. 3100) में सशक्त शब्दों में प्रकट हुई.पुराणों में कर्म के विषय का उल्लेख है. कहते हैं कि कलियुग के दौरान ज्ञान को सुरक्षित रखने के लिए द्वापर युग के अंत में संत व्यास द्वारा पुराण लिखे गये थे. कहा जाता है कि पहले वही ज्ञान भिक्षुओं द्वारा याद रखा जाता था और मौखिक रूप से दूसरों को दिया जाता था. श्री युक्तेश्वर के अनुसार, पिछ्ला कलियुग ई.पू. 700 में शुरू हुआ था.
परिभाषाएं

"कर्म" का शाब्दिक अर्थ है "काम" या "क्रिया" और भी मोटे तौर पर यह निमित्त और परिणाम तथा क्रिया और प्रतिक्रिया कहलाता है, जिसके बारे में हिंदुओं का मानना है यह सभी चेतना को नियंत्रित करता है. कर्म भाग्य नहीं है, आदमी मुक्त होकर कर्म करता जाए, इससे उसके भाग्य की रचना होती रहेगी. वेदों के अनुसार, यदि हम अच्छाई बोते हैं, हम अच्छाई काटेंगे, अगर हम बुराई बोते हैं, हम बुराई काटेंगे. संपूर्णता में किया गया हमारा कार्य और इससे जुड़ी हुई प्रतिक्रियाएं तथा पिछले जन्म का संबंध कर्म से है, ये सभी हमारे भविष्य को निर्धारित करते हैं. कर्म की विजय बौद्धिक कार्य और संयमित प्रतिक्रिया में निहित है. सभी कर्म तुरंत ही पलटकर वापस नहीं आते हैं. कुछ जमा होते हैं और इस जन्म या अन्य जन्म में अप्रत्याशित रूप से लौट कर आते हैं. हम चार तरीके से कर्म करते हैं:

    विचारों के माध्यम से
    शब्दों के माध्यम से
    क्रियाओं के माध्यम से जो हम स्वयं करते हैं.
    क्रियाओं के माध्यम से जो हमारे निर्देश पर दूसरे करते है.

वह सब कुछ जो हमने कभी सोचा, कहा, किया या कारण बना; ठीक वैसा ही होता हैं जैसा कि हम उस समय सोचते हैं, बोलते हैं, करते हैं; यही कर्म हैं. हिंदू शास्त्र कर्म को तीन प्रकारों में विभाजित करते हैं.

    संचिता संचित कर्म है. इसका अनुभव प्राप्त करना और एक ही जीवन में सभी कर्मों का फल भुगतना असंभव है. संचित कर्म के इस भंडार से पूरे एक जीवन के लिए मुट्ठी भर निकाल लिया जाता है और यह मुट्ठी भर कर्म, जो कि फल को भोगना शुरू कर देता है और उसका फल भोग लेने के बाद वह समाप्त हो जाता है और दूसरे प्रकार से नहीं रहता है, यह प्रारब्ध कर्म के रूप में जाना जाता है.
    प्रारब्ध फल-वहन करनेवाला कर्म संचित कर्म का हिस्सा होता है जो पक जाते ही वर्तमान जीवन में विशेष समस्या के रूप में प्रकट होता है.
    क्रियामन वह सबकुछ है जो हम वर्तमान जीवन में करते हैं. सभी क्रियामन कर्म संचित कर्म में प्रवाहित होते है और फलस्वरुप हमारे भविष्य का आकार ग्रहण करते है. केवल मानव जीवन में हम अपने भावी भाग्य को बदल सकते हैं. मृत्यु के बाद हमारी क्रिया शक्ति (काम करने की क्षमता) समाप्त हो जाती है और तब तक कार्य (क्रियामन) करते हैं जब तक कि दोबारा मानव देह में जन्म नहीं होता.

सचेत होकर किए गए कार्य कहीं अधिक गंभीर होते हैं, बजाए बिना सोचे-समझे किए गए कार्य के. ठीक उसी तरह जिस तरह अनजाने में खा लिया गया जहर हमें प्रभावित करता है, धोखे से दिया गया जहर भी उपयुक्त कार्मिक प्रभाव ही देगा. केवल मनुष्य ही सही से गलत का अंतर करते हुए (क्रियामन) कर्म कर सकता है. पशु और छोटे बच्चे नए कर्म की रचना नहीं करते हैं (इसीलिए अपने भावी नियति को प्रभावित नहीं कर सकते हैं) क्योंकि वे सही और गलत का अंतर करने में अक्षम होते हैं. हालांकि, सभी संवेदनशील जीव कर्म के प्रभाव को समझ सकते हैं, आनंद और पीड़ा में जिसका अनुभव किया जाता है.

एक हिंदू संत तुलसीदास ने कहा, "हमारे शरीर के अस्तित्व में आने से बहुत पहले ही हमारी नियति आकार ग्रहण कर लेती है."संचित कर्म का भंडार जब तक चलता रहता है, तब तक प्रारब्ध कर्म के रूप में इसके एक भाग के सुख का एक जीवन में लिया जाना जारी रहता है, जो जन्म एवं मृत्यु के चक्र की ओर ले जाता है. एक जीव को जन्म और मृत्यु के चक्र से मोक्ष (मुक्ति) तबतक प्राप्त नहीं हो सकती, जब तक कि जमा संचित कर्म पूरी तरह से समाप्त न हो जाय.

पृथ्वी पर जन्म और मृत्यु का चक्र 84 लाख योनियों में चलता है और उनमें से सिर्फ एक मनुष्य योनि है. केवल मनुष्य के रूप में, सही समय पर सही कर्म कर हम अपनी नियति के बारे में कुछ करने की स्थिति में होते हैं. सकारात्मक कर्मों, शुद्ध विचारों, प्रार्थना, मंत्र और ध्यान के माध्यम से, हम वर्तमान जीवन में कर्म के प्रभाव को सुलझाने और भाग्य को बेहतर बनाने के लिए उसे बदल सकते हैं. एक आध्यात्मिक स्वामी ही जो उस अनुक्रम को जानता है जिसमे हमारे कर्म को फल प्राप्त होगा, हमारी सहायता कर सकता है. मनुष्य के रूप में अच्छे कर्म के अभ्यास के द्वारा हमारे पास हमारी आध्यात्मिक प्रगति की गति को त्वरित करने के अवसर हैं. ज्ञान और स्पष्टता की हमारी कमी के कारण हम नकारात्मक कर्म को जन्म देते हैं.

दयाहीनता खराब फल पैदा करती है, जिसे पाप कहते हैं और अच्छे कर्म से मीठे फलों की प्राप्ति होती है, जिसे पुण्य कहते हैं. जो जैसा कर्म करता है, वह वैसा ही बनता है: पवित्र कर्म करके व्यक्ति पवित्र बनता है और बुरे कर्म करके बुरा.
दैवीय शक्तियों की भूमिका

कर्म के परिणाम या उसके अभाव को नियंत्रित करने में दैवीय शक्ति की भूमिका के बारे में हिंदू धर्म में कई भिन्न प्रकार के दर्शन हैं, कुछ का स्वरूप आज भी वर्तमान है और कुछ ऐतिहासिक हैं.
वेदांत दर्शन

हिंदू धर्म के प्रमुख मत वेदांत के अनुयायी आज भी अस्तित्व में हैं, जिनका मानना है कि ईश्वर, परमात्मा, अपनी भूमिका निभा रहा है. वेदांत दर्शन के अनुसार, परमात्मा मूलभूत रूप से कर्म को लागू करनेवाला है, किन्तु अच्छे या बुरे को चुनने के लिए मनुष्य स्वतंत्र होता है.

इन ईश्वरवादी स्कूलों में, कर्म को सिर्फ कारण और प्रभाव के क़ानून के रूप में नहीं देखा जाता, उदाहरणस्वरूप जैसा कि बौद्ध धर्म या जैन धर्म द्वारा इस विचार का समर्थन किया जाता है, बल्कि यह परमात्मा की इच्छा पर निर्भर है. शैव मत में शिव या वैष्णव मत में विष्णु निजी परमेश्वर के उदाहरणों का रूप में शामिल हैं. कर्म के ईश्वरवादी विचार का सारांश निम्नलिखित द्वारा व्यक्त किया गया है: "ईश्वर बिना किसी कारण के किसीको दुखी नहीं करता, न ही बिना किसी कारण के किसीको खुश करता है. ईश्वर बहुत ही न्यायपूर्ण है और वस्तुतः आप जिसके योग्य है आपको वही देता है." इस प्रकार, ईश्वरवाद के अनुयायी समूह इस पर जोर देते हैं कि मानव पीड़ा की समस्या के लिए कर्म एक स्पष्टीकरण है; कोई आत्मा किसी उपयुक्त शरीर में पुनर्जन्म लेती है, जो कर्म पर निर्भर है और समझाने के लिए यह कहा जाता है कि आखिर कुछ लोगों को उनके जीवनकाल में उनके कर्मों के फल क्यों नहीं प्राप्त हुए और बिना कोई पाप किये कुछ बच्चों की मृत्यु आखिर क्यों हो जाया करती है. इस प्रकार, एक व्यक्ति को अपने व्यक्तिगत कर्म का फल मिलता है और उसे पौधों, पशुओं से मानव में कई जन्मों से गुजरना पड़ सकता है और कर्म के ऐसे फल का सादृश्य किसी एक बैंक (अर्थात, ईश्वर) में जमा होता है ताकि बैंक खाते को चुकता किये बिना किसी व्यक्ति को कर्म के प्रभाव से मुक्त नहीं किया जाय.
सांख्य दर्शन

हिंदू धर्म के कुछ आरंभिक ऐतिहासिक परम्पराओं में, सांख्य सम्प्रदाय के एक नास्तिक अनुभाग के अनुयायी सर्वोपरि परमात्मा की सत्ता के मत को स्वीकार नहीं करते. सांख्य दर्शन के अनुसार, किसी परमात्मा का अस्तित्व नहीं है किन्तु कम उच्च विकसित अस्तित्व कर्म के फल पहुंचाने में सहायता करते हैं; इस प्रकार, वे मानते हैं कि देवताओं या आत्माओं द्वारा किसी तरह की भूमिका निभायी जाती है. ये अस्तित्व लौकिक संसार में सुख पहुंचाने में सहायता कर सकते हैं और जन्म व मृत्यु के बाद, तथा मोक्ष में भी ये मदद कर सकते हैं.
मीमांसा दर्शन

हिंदू धर्म की आरंभिक ऐतिहासिक परम्पराएं, जैसे कि मीमांसा ऐसे किसी दैवत्व के मत को अस्वीकार करती हैं और कर्म को स्वतंत्र रूप से क्रियाशील देखती हैं, मानती हैं कि कारण-कार्य-सम्बन्ध के प्राकृतिक नियम कर्म के प्रभावों की व्याख्या के लिए पर्याप्त हैं. उनके विचारों के अनुसार, न तो सर्वोच्च भगवान होता है और न ही उससे कुछ कम दैवत्व का अस्तित्व; संस्कार ही केवल कर्म के फल उत्पन्न करता है; इस प्रकार, वे विश्वास करते हैं कि कर्म (संस्कार या धार्मिक कृत्य) खुद ही परिणाम उत्पन्न करते हैं और कोई परमात्मा या ईश्वर या जरा कम या लघु दैवत्व परिणामों को नहीं वितरित करता.

इन भिन्न विचारों का हिन्दू धर्म के बड़े पंथ वेदांत के एक महत्वपूर्ण ग्रंथ ब्रह्म सूत्र (III.2.38-40) में कई श्रृंखलाओं में स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है, जहां ईश्वर की अवधारणा का समर्थन किया गया है अर्थात एक निजी सर्वोच्च भगवान को कर्म के फलों का स्रोत माना गया है, किन्तु उनका खंडन करने के लिए टिप्पणी विचारों का विरोध करती है. उदाहरण के लिए, ब्रह्मा सूत्र की कड़ी III.2.38 पर स्वामी शिवानंद की टिप्पणी कर्म के फल वितरक के रूप में ईश्वर (परमेश्वर) की भूमिका का उल्लेख करती है. उसी कड़ी पर स्वामी विरेश्वरानंद की टिप्पणी में कहा गया है कि इस कड़ी का उद्देश्य विशेष रूप से मीमांसा के विचारों का खंडन करना है, जो कहता है कि ईश्वर नहीं बल्कि कर्म (काम) ही किसी व्यक्ति के कार्यों के लिए फल देता है. मीमासावादियों के अनुसार इस उद्देश्य के लिए एक ईश्वर को प्रतिष्ठित करना बेकार है, क्योंकि कर्म खुद ही भविष्य में परिणाम दे सकता है.
गीता की व्याख्याएं और गुरु की भूमिका

भगवद गीता की कुछ व्याख्याएं एक मध्यवर्ती विचार रखती हैं, कि कर्म कारण और प्रभाव का नियम है फिर भी भगवान अपने भक्तों के लिए कर्म को हल्का कर सकता है.[कृपया उद्धरण जोड़ें] हालांकि, भगवद गीता की कड़ियों की अन्य व्याख्याओं में भगवान को अकेले कर्म का अंतिम क्रियात्मक नियंता बताया गया है.

एक और विचार है कि भगवान के हेतु कार्यकारी कोई सदगुरु अपने अनुयायी के कर्म को घटा सकता है या संपन्न कर सकता है.
परमात्मा पर विश्वास करने वाले आस्तिक हिन्दू परम्पराओं के विचार
वेदांत

वेदांत जैसे हिंदू धर्म के आस्तिक सम्प्रदाय बौद्ध विचार, जैन और अन्य हिन्दू विचारों से असहमत हैं कि कर्म महज कारण व प्रभाव का एक नियम है, बजाय इसके उनका विचार है कि एक निजी सर्वोच्च इश्वर की इच्छा द्वारा कर्म की मध्यस्थता की जाती है.
शंकर (अद्वैत)

वेदांत सम्प्रदाय की एक शाखा अद्वैत वेदांत सिद्धांत को समेकित करने वाले एक भारतीय दार्शनिक आदि शंकर ने वेदांतिक ग्रंथ ब्रह्म सूत्र  की एक टिप्पणी में कहा है कि कर्म की मूल क्रियाएं स्वयं किसी भविष्य में उचित परिणाम नहीं ला सकती हैं; और न ही अदृष्ट - एक अदृश्य शक्ति जिसका काम और उसके परिणाम के बीच अभौतिक संपर्क होता है - जो खुद के द्वारा उपयुक्त की मध्यस्थता करती है, जो न्य्याय संगत रूप से सुख और दुःख के योग्य होती है. उनके अनुसार, तब फलों को प्रबंधित करने का काम निश्चित ही एक सचेत प्रतिनिधि के जरिये होना चाहिए, जिसका नाम है एक सर्वोच्च अस्तित्व (ईश्वर).

मानव के कर्म की क्रियाओं के परिणाम गुण और दोष में हुआ करते हैं. चूंकि कोई अचैतन्य वस्तु चल नहीं सकती, उसे चलाने के लिए एक माध्यम की जरूरत पडती है (उदाहरण के लिए, कुल्हाड़ी तभी चलती है जब कोई उसे चलाता है) और चूंकि कर्म का नियम एक गैर-बुद्धिमान और अचैतन्य नियम है, इसीलिए शंकर का तर्क है कि ऐसे में एक सचेत भगवान होना ही चाहिए जो व्यक्तियों के अपने किये गये कार्यों के गुण और दोष के बारे में जानता है और व्यक्तियों को उपयुक्त फल दिलाने में जो सहायक के रूप में काम करता है. इस प्रकार, भगवान व्यक्ति के वातावरण को प्रभावित करता है यहां तक कि इसके परमाणुओं को भी और उन आत्माओं के लिए जो अवतरित होती है, उपयुक्त पुनर्जन्म शरीर पैदा करता है और यह सब इस क्रम में कि व्यक्ति को कर्म का उपयुक्त अनुभव हो सकता है. इस प्रकार, कर्म के लिए आस्तिकता-संबंधी एक प्रशासक या पर्यवेक्षक होना ही चाहिए, अर्थात, भगवान होना ही चाहिए.

ब्रह्म सूत्र पर वेदांत विचारों के संश्लेषण की अपनी टिप्पणी में एक अद्वैत विद्वान स्वामी शिवानंद के विचारों में इन्हीं मतों की पुन्ररावृत्त्ति मिलती है. ब्रह्म सूत्र के अध्याय 3 पर अपनी टिप्पणी में शिवानंद ने उल्लेख किया कि कर्म जड़ और क्षणभंगुर होता है और किसी काम के निष्पादित हो जाने के बाद उसका अस्तित्व समाप्त हो जाता है. इसलिए, कर्म किसीकी योग्यता के अनुसार भविष्य में कभी भी काम का फल प्रदान नहीं कर सकता. इसके अलावा, कोई यह नहीं कह सकता कि कर्म अपूर्व या पुण्य उत्पन्न करता है, जो फल देता है. चूंकि अपूर्व अचैतन्य है, इसीलिए यह कुछ कर नहीं सकता जब तक कि किसी बुद्धिमान प्राणी का अस्तित्व, जैसे कि भगवान द्वारा चलाया न जाय. यह स्वतंत्र रूप से इनाम या सजा प्रदान नहीं कर सकता है.

श्वेताश्वतारा उपनिषद (4:6) के स्वामी शिवानंद के अनुवाद के एक भाग में इस अवधारणा की व्याख्या की गयी है:

    सुंदर पंखों वाले दो पक्षी - अभिन्न मित्र - एक ही पेड़ पर रहते हैं. इन दोनों में से एक मीठा फल खा रहा होता है, जबकि दूसरा खाए बिना ताकता रहता है.

उनकी टिप्पणी के अनुसार, पहला पक्षी व्यक्ति विशेष की आत्मा का प्रतिनिधित्व करता है, जबकि दूसरा ब्राह्मण या भगवान का प्रतिनिधित्व करता है. आत्मा मूलतः ब्राह्मण का एक प्रतिबिंब है. पेड़ शरीर का प्रतिनिधित्व करता है. आत्मा शरीर के साथ स्वयं का तादात्म्य स्थापित करती है, उसके कार्यों के फल प्राप्त करती है और पुनर्जन्म से गुजरती है. भगवान अकेले एक शाश्वत गवाह के रूप में स्थिर रहता है, सदैव तृप्त और भोजन नहीं करता, लेकिन वह खानेवाले और खाए गये दोनों का ही संचालक होता है.

स्वामी शिवानंद यह भी उल्लेख करते हैं कि पक्षपात तथा क्रूरता के आरोपों से भगवान स्वतंत्र होता है, हालांकि सामाजिक असमानता, भाग्य और दुनिया में सार्वभौमिक कष्ट के कारण उस पर ये आरोप लगाए जाते हैं. ब्रह्म सूत्र के अनुसार, व्यक्तिगत आत्मा अपने भाग्य के लिए जिम्मेदार हैं; भगवान महज वितरक है और संदर्भ के साथ आत्मा के गुण व दोष का गवाह है.

ब्रह्म सूत्र के अध्याय 2 पर अपनी टिप्पणी में शिवानंद आगे कहते हैं कि कर्म के संबंध में भगवान की स्थिति को बारिश के सादृश्य के माध्यम से समझाया जा सकता है. हालांकि चावल, जौ और अन्य अनाज के विकास में बारिश को सहायक कहा जा सकता है, लेकिन विभिन प्रजातियों में भिन्नता उनके बीजों में छिपी अन्तःशक्ति की विविधता के कारण हुआ करती है. इस प्रकार, शिवानंद बताते हैं कि अलग-अलग आत्माओं के विभिन्न गुण-दोषों के कारण प्राणियों के वर्गों के बीच भिन्नताएं हुआ करती हैं. उन्होंने निष्कर्ष निकाला है कि प्राणियों की विशेष क्रियाओं पर विचार करके ही भगवान पुरस्कार या दंड की सीमा तय करता है.
वेदांत के अन्य मत

वैष्णव धर्म के खंड में वेदांत के अन्य मतों में कर्म के वर्णन पर चर्चा की गयी है.
शैव धर्म
थिरुग्नना सम्बंथर
क्रिया और प्रतिक्रिया के रूप में कर्मा: यदि हम अच्छाई बोते हैं, तो हमे अच्छाई ही मिलेगा.

शैव सिद्धांत सम्प्रदाय के थिरुग्नना सम्बंथर ने ई.सं.7वीं शताब्दी में शैववाद की रूपरेखा में कर्म के बारे में लिखा है. उन्होंने हिन्दू धर्म में कर्म की अवधारणा की व्याख्या की है, ऐसा उन्होंने उन बौद्ध धर्म और जैन धर्म से इसे अलग करते हुए किया है, जिन्हें भगवान जैसे किसी बाहरी अस्तित्व की आवश्यकता नहीं है. उनके विश्वास के अनुसार, जिस तरह दूध पीने के समय बछडा गायों के झुण्ड में अपनी मां को खोज सकता है, उसी तरह जुड़ने और उपयोग करने की जरूरत होने पर कर्म व्यक्ति विशेष को ढूंढ लेता है. हालांकि, आस्तिक हिन्दुओं का मानना है कि बछड़े के विपरीत कर्म एक नासमझ अस्तित्व है.

इसलिए, कर्म अपने-आप ही उपयुक्त व्यक्ति को नहीं ढूंढ सकता. सम्बंथर का निष्कर्ष है कि कर्म को उपयुक्त व्यक्ति के साथ जोड़ने के लिए पूर्ण ज्ञान और शक्ति के साथ एक बुद्धिमान सर्वोच्च अस्तित्व (उदाहरण के लिए शिव) आवश्यक है. इस अर्थ में, भगवान दैवीय लेखाकार है.
अप्पय दीक्षित

एक शैव धर्मशास्त्री और शिव अद्वैत के समर्थक अप्पय दीक्षित कहते हैं कि केवल शिव (भगवान) ही कर्म के नियम के अनुसार सुख और दुःख का वितरण कर सकते हैं.[35] इस प्रकार व्यक्ति पूर्व जन्मों में अपनी इच्छाओं के अनुसार किये गये अच्छे या बुरे कर्म खुद ही किया करते हैं और उन कर्मों के अनुसार, कर्म के नियम को पूरा करने के लिए एक नया जन्म हुआ करता है. शैवों का मानना है कि जन्मों के चक्र हुआ करते हैं, जिनमे आत्मा कर्म के अनुरूप निश्चित शरीरों की ओर आकृष्ट होती रहती है, जो एक नासमझ वस्तु है और जो केवल शिव की इच्छा पर निर्भर है. इस प्रकार, अनेक लोग जाति व्यवस्था की व्याख्या कर्म के अनुरूप किया करते हैं, अर्थात जिन्होंने अच्छे कर्म किये उनका जन्म बहुत ही आध्यात्मिक परिवार (संभवतः ब्राह्मण जाति) में हुआ.
श्रीकंठ

एक और शैव धर्मशास्त्री तथा शिव अद्वैत के समर्थक श्रीकंठ का मानना है कि अलग-अलग आत्माएं खुद ही ऐसे काम किया करती हैं जिन्हें उनके विशेष कार्य करने या विशेष कार्य से परहेज करने के कारण के रूप में माना जा सकता है, जो उनके पूर्व में किये गये कार्यों की सफलता के अनुरूप होता है. श्रीकंठ का यह भी मानना है कि जब कोई व्यक्ति किसी ख़ास तरीके से कार्य को करने या किसी ख़ास कार्य से परहेज रखने की इच्छा करता है, केवल तभी शिव किसीकी सहायता करते हैं. कर्म अपने प्रभाव सीधे उत्पन्न करता है, इस विचार के बारे में श्रीकंठ का मानना है कि बिना किसी बुद्धि के कर्म के अस्तित्व से अनेक जन्मों और अनेक शरीरों के माध्यम से बहुत सारे प्रभावों के पैदा होने की उम्मीद नहीं की जा सकती; बजाय इसके कर्म के फल भगवान की इच्छा से ही मिल सकते हैं जो मनुष्य की इच्छा के साथ सामंजस्य बिठाकर इसका संचालन करता है, या फिर मनुष्य के अपने कर्म द्वारा बाद के चरणों में निर्धारित होता है ताकि सभी कर्म भगवान शिव की कृपा से उचित क्रम में वितरित हों. इस तरह, हमारे कर्मों के लिए एक तरफ भगवान मूलभूत रूप से जिम्मेदार है और स्वतंत्र इच्छा के जरिये व्यक्त या भगवान द्वारा हमारे कार्यों के निर्धारण के रूप में मनुष्य की नैतिक जिम्मेदारी पर किसी पूर्वाग्रह के बिना, दूसरी ओर हमारे कर्मों के अनुरूप ख़ुशी और दुःख के लिए भी भगवान जिम्मेदार है. उनके विचार का एक अच्छा सारांश यह है कि "मनुष्य जिम्मेदार है, वह अपनी इच्छानुसार कार्य करने के लिए स्वतंत्र है, जबकि शिव आत्मा के कर्म के अनुसार जरूरतों की पूर्ति करते हैं."
वैष्णव धर्म

"अपने कर्म के अनुसार " सभी जीवित सत्ता पूरे ब्रह्मांड का चक्कर लगाती रहती हैं. उनमें से कुछ उच्चतर ग्रह प्रणालियों में पहुंचा दी जाती हैं और कुछ निम्न ग्रह प्रणालियों में जा पहुंचती हैं. चक्कर लगाती लाखों-करोड़ों जीवित सत्ताओं में से एक जो बहुत भाग्यशाली होती है उसे कृष्ण की कृपा से वास्तविक आध्यात्मिक स्वामी के साथ जुड़ने का अवसर मिलता है. कृष्ण और आध्यात्मिक स्वामी दोनों की दया से, ऐसे व्यक्ति को भक्तिपूर्ण सेवा की लतिका का बीज प्राप्त होता है." (सी.सी.मध्य 19-151-164) "भक्तिपूर्ण सेवा से रहित ज्ञानियों, योगियों और कर्मियों को दोषी कहा जाता है. श्री चैतन्य महाप्रभु कहते हैं, मायावादी कृष्णे अपराधी: कृष्ण ही सब कुछ है, ऐसा सोचने के बजाय जो यह सोचता है कि सब कुछ माया है, वह एक अपराधी है. "कर्म किसी भी गतिविधि के लिए विस्तृत अर्थ में संदर्भित है, लेकिन अक्सर इसका मतलब परिणाम का आनंद लेने के इरादे से वैदिक आज्ञा की सीमा के अंदर की गतिविधियों से होता है. (एक और शब्द, विकर्म, वेद द्वारा निषिद्ध गतिविधि के लिए प्रयोग किया जाता है.) इसलिए कर्म, धार्मिक महत्ता का होने के बावजूद भौतिक है. कर्मी की दिलचस्पी पैसा, आनंद और इस जीवन में प्रसिद्धि जैसे पुरस्कारों में होती है और वह अगले जीवन में उच्चतर ग्रहों में प्रोन्नति की भी इच्छा रखता है. कर्म की बड़ी त्रुटि यह है कि इसके परिणाम हमेशा प्रतिक्रियाओं में होते हैं, जो कर्मी को आत्मा के देहांतरण की प्रक्रिया द्वारा एक अन्य भौतिक जन्म लेने के लिए बाध्य करता है. इसलिए, चाहे 'अच्छा' या 'बुरा", धर्मनिष्ठ या अधर्मी, सभी कर्म जन्म व मृत्यु के चक्र के अंदर सीमाबद्ध होते हैं."
विष्णु सहस्रनाम

विष्णु सहस्रनाम में अनेक नाम हैं, विष्णु के हजारों नाम कर्म को नियंत्रित करने में भगवान की शक्ति का उल्लेख करने के लिए है. उदाहरण के लिए, विष्णु का 135वां नाम धर्माध्यक्ष है, अद्वैत दार्शनिक शंकर की व्याख्या में इसका अर्थ है, "वो जो प्राणियों के गुण (धर्म) और दोष (अधर्म) को सीधे तौर पर देखते हुए उन्हें उनके प्राप्य दिया करता है."

32वां नाम भावना, 44वां नाम विधाता, 325वां नाम अप्रामातः, 387वां नाम स्थानदः और 609वां नाम श्रीभावना विष्णु के अन्य नाम जो भगवान की इस प्रकृति की ओर इशारा करते हैं. शंकर की व्याख्या के अनुसार, भावना का अर्थ है "जो आनंद के लिए सभी जीवों (आत्माओं) के कर्मों के फल उत्पन्न करता है. ब्रह्म सूत्र (3.2.28) "फलमातः उपापत्तेह" कहता है कि जीवों के सभी कार्यों के फल के प्रदाता के रूप में भगवान का कार्य है.
रामानुज (विशिष्टाद्वैत)

वेदान्त के अन्य उप-संप्रदाय विशिष्टाद्वैत मत के रामानुज बुराई की समस्या पर कहते हुए जीवन में सभी बुरी चीजों के लिए जीवों (मानव आत्मा) के बुरे कर्म के संचय को जिम्मेवार ठहराते हैं और इस बात को कायम रखते हैं कि भगवान अमला है, या बुराई के दागों के बिना है. वैष्णव धर्म संबंधी दृष्टि से ब्रह्म सूत्र की रामानुज की व्याख्या, के रूप में समझ जाएगी, श्री भाष्य में, वे ब्राह्मण को विष्णु के रूप में देखते हैं, जो अलग-अलग आत्माओं के विभिन्न कर्मों के समनुरूपता में विविधता को क्रमबद्ध करता है.

श्रीभाष्य 1.1.1 में रामानुज दुहराते हैं कि विभिन्न आत्माओं के कर्मों के फलों के कारण दुनिया में असमानताएं और विविधताएं हैं और अपने कर्मों के कारण आत्मा की सर्वव्यापी ऊर्जा दुःख या सुख पाती है.कर्म के फलों के बीच भिन्नता, अर्थात अच्छे या बुरे कर्म, सर्वोच्च लागू करने वाले के रूप में विष्णु के कारण हैं, फिर भी आत्माएं ही अपने कर्मों के लिए स्वतंत्र व जिम्मेवार होती हैं.

इसके अलावा, रामानुज का मानना है कि विष्णु ऐसे लोगों पर कृपा करते हैं जो उन्हें खुश करने के लिए कार्यशील होने को पूरी तरह से कृतसंकल्प होते हैं, वे ऐसे लोगों के मन में बहुत ही सदाचारी कार्य करने की प्रवृत्ति पैदा करते हैं, ऐसे साधन जिससे उन्हें प्राप्त कर लिया जाय; जबकि दूसरी तरफ, उन्हें नाखुश करने के कार्य करने वालों को दंडित करने के लिए वे उनके मन में ऐसी कुप्रवृत्ति पैदा करते हैं जो भगवान को प्राप्त करने के मार्ग में रुकावट हों.
माधव (द्वैत)

वेदांत के अन्य उप-संप्रदाय, द्वैत के संस्थापक माधव का दूसरी ओर मानना है कि यहां तक कि यदि कर्म का कोई आरंभ नहीं होने और बुराई की समस्या का कारण होने को स्वीकार कर भी लिया जाय तो भी कर्म में विभिन्नताओं का एक मूल कारण होना ही चाहिए. चूंकि जीवों के विभिन्न प्रकार के कर्म हुआ करते हैं, अच्छे से लेकर बुरे तक, आरंभ के समय से उन सभी की शुरुआत एक प्रकार के ही कर्म से हुआ नहीं होनी चाहिए. इस प्रकार, माधव का निष्कर्ष है कि जीव (आत्माएं) भगवान की रचना नहीं हैं जैसा कि ईसाई सिद्धांत कहता है, बल्कि इसके बजाय विष्णु के साथ प्राणी सह-अस्तित्ववान हैं, हालांकि उनके पूर्ण नियंत्रण के अंतर्गत. इस प्रकार अपनी मूल प्रकृति में और जिनसे वे गुजरी हों ऐसे अपने सभी देहांतरणों में आत्माएं उन पर निर्भर हैं.

माधव के अनुसार, भगवान, हालांकि उसका नियंत्रण है, लेकिन वह मनुष्य की स्वतंत्र इच्छा में हस्तक्षेप नहीं करता है; हालांकि वह सर्वशक्तिमान है, इसका मतलब यह नहीं है कि वह असाधारण कारनामों में संलग्न है. बल्कि, भगवान नियम-क़ानून के शासन को लागू करता है, जीवों की इच्छाओं के अनुरूप, उन्हें अपनी प्रकृति का अनुसरण करने की स्वतंत्रता देता है. इस प्रकार, भगवान एक अनुमोदक के रूप में या एक दैवीय लेखाकार के रूप में कार्य करता है और तदनुसार जीव अपनी सहज प्रकृति और अपने संचित कर्म, अच्छे और बुरे, के अनुसार काम करने के लिए स्वतंत्र हैं. चूंकि भगवान एक अनुमोदक के रूप में कार्य करता है, सो सब कुछ के लिए परम शक्ति भगवान की ओर से आती है और जीव उस शक्ति का केवल इस्तेमाल करता है, अपनी सहज प्रकृति के अनुसार. हालांकि, जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है ब्रह्म सूत्र की शंकरकी व्याख्या की तरह माधव इस पर सहमत हैं कि उनके द्वारा किये गये अच्छे और बुरे कर्मों के अनुरूप जीवों को पुरस्कार और दंड भगवान द्वारा प्रदान किया जाता है और वह अपनी इच्छा से न्याय पर खुद को दृढ रखते हुए ऐसा करता है और मनुष्य के कर्मों द्वारा उसके कार्यों को नियंत्रित नहीं किया जा सकता और न ही उस पर पक्षपात या किसीके साथ क्रूरता का आरोप लगाया जा सकता है.

स्वामी तपस्यानंद तुल्यता के साथ सिद्धांत की व्याख्या करते हुए कहते हैं: किसी कारखाने में ऊर्जा ऊर्जाघर (भगवान) से आती है, किन्तु विभिन्न चक्रदन्त (जीव) उसी दिशा में चलते हैं जैसा कि उन्हें तय किया गया है. इस प्रकार उनका निष्कर्ष है कि भगवान पर पक्षपात और क्रूरता के आरोप नहीं लगाये जा सकते. जीव अपने कर्मों का कर्ता और उसके फलों का उपभोक्ता भी है.

अपनी शाश्वत नरकदंड अवधारणा के कारण माधव उल्लेखनीय रूप से परंपरागत हिन्दू विश्वासों से सहमत नहीं हैं. उदाहरण के लिए, वे आत्मा को तीन श्रेणियों में विभक्त करते हैं: कक्षा तीन में विभाजित आत्माओं: एक श्रेणी की आत्माएं वे हैं जो मुक्ति (मुक्ति-योग) के लिए अर्हता प्राप्त हैं, अन्य श्रेणी की आत्माएं निरंतर पुनर्जन्म या नित्य देहांतरण (नित्य-संसारी) के योग्य हैं और तीसरी श्रेणी की आत्माएं अंततः शाश्वत नरक या अंधतम (तमो-योग) की अपराधी होती हैं. अन्य कोई हिंदू दार्शनिक या हिंदू धर्म के संप्रदाय ऐसी मान्यता नहीं रखती है. इसके विपरीत, अधिकांश हिंदुओं को सार्वभौमिक मोक्ष में विश्वास है: कि सभी आत्माओं को अंततः मोक्ष प्राप्त होगा, भले ही ऐसा लाखों पुनर्जन्म के बाद ही क्यों न हो.
स्वामीनारायण दर्शन

स्वामीनारायण संप्रदाय, जिसके अनेक अनुयायी भारतीय राज्य गुजरात में हैं, उनके आध्यात्मिक गुरु स्वामीनारायण ने कहा है कि हमारे कर्मों के फलों के दाता के रूप में कर्म के प्रति भ्रमित नहीं होना चाहिए. स्वामीनारायण धर्म के एक मूलभूत शास्त्र वचनामृत में, स्वामीनारायण कहते हैं, "जिस तरह बारिश के जल के संपर्क में आने के बाद जमीन में रोपा गया बीज ऊपर की ओर अंकुरित होता है, उसी तरह, रचना के दौरान, अपने कारण शरीर (causal body) के साथ जीव माया के अंदर वास करता है, अपने अलग-अलग कर्मों के अनुसार कर्म के फल के प्रदाता भगवान की इच्छा से उन्हें विभिन्न प्रकार के शरीर प्राप्त होते हैं." (वर्तल 6)

सो, इस प्रकार, हिंदू धर्म के अन्य सम्प्रदायों की ही तरह स्वामीनारायण संप्रदाय के अनुयायी भी मानते हैं कि भगवान हमारे कर्मों के फल का दाता है. हालांकि जब वह बुरे कर्म के फल दिया करता है, तब लोग सोच सकते हैं कि भगवान क्रूर है, जबकि बात ऐसी नहीं है. दरअसल, भगवान सभी के प्रति निष्पक्ष है. वेद व्यास का ब्रह्म सूत्र कहता है, "भगवान किसी को सुख और दुःख देने में पक्षपाती नहीं है, बल्कि वह व्यक्ति के कर्म के फल प्रदान करता है." (2-1-34) हालांकि, हिंदू धर्म के सामान्य संप्रदायों के विपरीत, स्वामीनारायण के अनुयायी स्वामीनारायण को सर्वोच्च भगवान के रूप में मानते हैं, जो हिंदू धर्म के अनुयायियों द्वारा नहीं माना जाता है.
जगतगुरु कृपालुजी महाराज

जगतगुरु कृपालुजी महाराज, एक स्वामी, का कहना है कि आम तौर पर कर्म तय होते हैं और मनुष्य अपने कर्मों के फल प्राप्त करता है; उन्होंने कहा है कि भगवान भी कर्म के नियम का उल्लंघन नहीं कर सकता; स्वामी ने दो मुख्य उदाहरणों का उल्लेख किया: पांडवों को बेहद कष्ट उठाना पड़ा था, जबकि वे भगवान कृष्ण के परम भक्त थे; खुद विष्णु ने दशरथ और कौशल्या के पुत्र के रूप में अवतार लिया था, फिर भी दशरथ की मृत्यु से कौशल्या को विधवा होना पडा, इसके बावजूद उन्होंने उनके दुःख को समाप्त करने के लिए हस्तक्षेप नहीं किया.

हालांकि, जगतगुरु कृपालुजी महाराज ने यह भी कहा कि व्यक्ति के कर्म के परिणाम कई कारकों पर निर्भर हैं: 1) प्रारब्ध कर्म, या निश्चित कर्म जिनका इस जीवन में अनुभव किया जाता है; 2) क्रियामण कर्म, जो कर्म इस जीवन में किये जा सकते हैं, 3) भगवान की इच्छा; 4) किसी विशेष स्थिति में उपस्थित अन्य व्यक्ति के कर्म; और 5) संयोग (अर्थात, किसी घटना के समय संयोग से हमारी उपस्थिति). लेकिन उनका यह भी कहना है कि कर्म में कई वस्तुएं सृजन के रहस्य हैं और मनुष्य को यह प्रश्न भगवान पर छोड़ देना चाहिए जब तक कि उसे भगवान की प्राप्ति नहीं हो जाती.
अन्य वैष्णव विचार

एक वैष्णव भक्त कुलशेखर अलवर अपने "मुकुंदमाला स्तोत्र" में कहते हैं: 'यद यद भव्यम भवतु भगवान पूर्व-कर्म-अनुरूपम'. और पूर्व-कर्म या भाग्य या दैव हमारे द्वारा अदृष्ट है और विधाता के रूप में सिर्फ भगवान को ही मालूम है. भगवान ने कर्म के नियम बनाये हैं और भगवान इसका उल्लंघन नहीं करेंगे. हालांकि, मांगे �

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