Tuesday, June 16, 2015

क्या आप जानते हैं आपको गलत इतिहास पढ़ाया गया है..??

देश के स्वाधीन होने के बाद से ही वामपंथी इतिहासकारों ने धर्मनिरपेक्षता के नाम पर भारत के स्वर्णिम इतिहास को विकृत करना शुरू कर दिया था।
गयासुद्दीन गाजी के पोते जवाहरलाल नेहरू ने स्वयं अपनी पुस्तक ‘भारत की खोज’ में महाराणा प्रताप की अपेक्षा अकबर को महान सिद्घ करने का प्रयास किया �था।
स्वाधीनता संग्राम में अपना सर्वस्व बलिदान करने वाले हजारों क्रांतिकारियों की घोर उपेक्षा ही नही की गयी, अपितु उन्हें आतंकवादी और सिरफिरा सिद्घ करने के प्रयास किये गये। उन राष्ट्रभक्तों को इतिहास में उपयुक्त स्थान ही नही दिया गया,
पूरे देश में :-
साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल,
दे दी तूने आजादी बिना खड़ग बिना ढाल
जैसे गीतों का प्रचार कर यही सिद्घ कराने का प्रयास किया गया कि देश को स्वाधीनता बिना खून का एक भी कतरा भी बहाए गांधी जी तथा कांग्रेस के अहिंसात्मक आंदोलन तथा चरखे के कारण मिली है।
आजादी के बाद भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन में कांग्रेस के कार्यों को महिमामंडित करने के लिए सरकारी स्तर पर एक इतिहास लेखन की योजना बनी।
यह कार्य भारत के सुप्रसिद्ध इतिहासकार डा. आर सी मजूमदार को दिया गया। इतिहास लेखन की प्रक्रिया के बीच में जब पं. नेहरू को जानकारी मिली कि इसमें सुभाष चन्द्र बोस को महत्वपूर्ण स्थान दिया जा रहा है तो तत्काल डा. मजूमदार से यह योजना छीन ली गई तथा यह कार्य डा. ताराचन्द को दिया गया, जो इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रहे थे तथा हिन्दुत्व विरोधी स्वभाव के कारण उन्हें वहां के छात्र मियां ताराचन्द भी कहते थे। स्वाभाविक है कि उनके लेखन में हिन्दू विरोध तथा मुस्लिम शासकों की महिमा एवं गुणगान को महत्व मिला।
प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने सन 1971 में कांग्रेस के विभाजन के पश्चात कम्युनिस्टों से समझौता किया और कट्टर वामपंथी विचारधारा वाले डा. नूरूल हसन को केन्द्रीय शिक्षा राज्यमंत्री का��� पद सौंपा।
डा. हसन ने तुरंत कांग्रेस सरकार को ढाल बनाकर प्राचीन हिन्दू इतिहास तथा पाठय पुस्तकों के विकृतिकरण का बीड़ा उठा लिया।
वामपंथी इतिहासकारों लेखकों को एकत्रित कर वे इस
कार्य में जुट गये। ये सभी नकली इतिहासकार अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की उपज थे तथा घोर हिन्दू धर्मविरोधी थे। तमाम शिक्षण अकादमियों में कम्युनिस्ट भर दिये गये। इसका नतीजा ये हुआ कि इन सभी ने भारत का पूरा इतिहास ही कम्युनिस्ट शैली में लिख डालने की साजिश बना डाली।
सन 1972 में इन सेकुलरवादियों ने भारतीय इतिहास
अनुसंधान परिषद का गठन कर इतिहास पुनर्लेखन की घोषणा की। सुविख्यात इतिहासकार यदुनाथ सरकार, रमेश चंद्र मजूमदार तथा श्री जीएस सरदेसाई जैसे सुप्रतिष्ठित इतिहासकारों के लिखे ग्रंथों को नकार कर नये सिरे से इतिहास लेखन का कार्य शुरू कराया गया।
घोषणा की गई कि इतिहास और पाठ्यपुस्तकों से वे अंश हटा दिये जाएंगे जो राष्ट्रीय एकता में बाधा डालने वाले और मुसलमानों की भावना को ठेस पहुँचाने वाले लगते हैं।
डा. नूरूल हसन ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में भाषण करते हुए कहा- महमूद गजनवी औरंगजेब आदि मुस्लिम शासकों द्वारा हिन्दुओं के नरसंहार एवं मंदिरों को तोड़ने के प्रसंग राष्ट्रीय एकता में बाधक है अत: उन्हें नही पढ़ाया जाना चाहिए।
वामपंथियों ने भारतीय स्वाधीनता संग्राम के महान सेनानी स्वातंत्रवीर सावरकर पर अंग्रेजों से क्षमा मांगकर अण्डमान के काला पानी जेल से रिहा होने जैसे निराधार आरोप लगाये और उन्हें वीर की जगह कायर बताने की धृष्टता की।
इतिहास लेखकों के ऊपर कोई सेंसर बोर्ड नहीं है, ये जो चाहे लिख सकते हैं, और हम तथा हमारे बच्चे इनके लिखे हुए विकृत और असत्य लेखों को दिमाग की बत्ती बंद करके पढते रहते हैं, जब हम इनको पढते रहते हैं, तब हमारा सरोकार सिर्फ इतना रहता है कि बस इसका रट्टा मारो और परीक्षा के दौरान कॉपी पर छाप दो जिससे
अच्छे नम्बर आ जाएँ,
लेकिन हम ये भूल जाते हैं, हम जो पढते हैं, उसकी छवियाँ और दृश्य साथ साथ दिमाग में घर बनाते रहते हैं, जिसका नतीजा ये होता है कि अगर इन्होंने राम और महाभारत को काल्पनिक लिख दिया तो हम भी उसे काल्पनिक मानकर अपनी ही संस्कृति और परम्पराओं से घृणास्पद दूरी बना लेते हैं,
और यही इन किराये के टट्टुओं का मकसद रहता है.
इन विधर्मी और गद्दार लेखकों द्वारा देश के इतिहास के
सम्बन्ध में जो विकृत लेख लिखे गए हैं, उसके कुछ उदाहरण प्रस्तुत है:-

वैदिक काल में विशिष्ट अतिथियों के लिए गोमांस का परोसा जाना सम्मान सूचक माना जाता था।
(कक्षा 6-प्राचीन भारत, पृष्ठ 35, लेखिका-रोमिला थापर)
महमूद गजनवी ने मूर्तियों को तोड़ा और इससे वह धार्मिक नेता बन गया।
(कक्षा 7-मध्यकालीन भारत, पृष्ठ 28)
1857 का स्वतंत्रता संग्राम एक सैनिक विद्रोह था।
(कक्षा 8-सामाजिक विज्ञान भाग-1, आधुनिक भारत, पृष्ठ166, लेखक-अर्जुन देव, इन्दिरा अर्जुन देव)
महावीर 12 वर्षों तक जहां-तहां भटकते रहे। 12 वर्ष की लम्बी यात्रा के दौरान उन्होंने एक बार भी अपने वस्त्र नहीं बदले। 42 वर्ष की आयु में उन्होंने वस्त्र का एकदम त्याग कर दिया।
(कक्षा 11, प्राचीन भारत, पृष्ठ 101, लेखक-रामशरण शर्मा)
तीर्थंकर, जो अधिकतर मध्य गंगा के मैदान में उत्पन्न हुए और जिन्होंने बिहार में निर्वाण प्राप्त किया, की मिथक कथा जैन सम्प्रदाय की प्राचीनता सिद्ध करने के लिए गढ़ ली गई।
(कक्षा 11-प्राचीन भारत, पृष्ठ 101, लेखक-रामशरण शर्मा)
जाटों ने, गरीब हो या धनी, जागीरदार हो या किसान, हिन्दू हो या मुसलमान, सबको लूटा।
(कक्षा 12 - आधुनिक भारत, पृष्ठ 18-19, विपिन चन्द्र)
रणजीत सिंह अपने सिंहासन से उतरकर मुसलमान फकीरों के पैरों की धूल अपनी लम्बी सफेद दाढ़ी से झाड़ता था।
(कक्षा 12 -पृष्ठ 20, विपिन चन्द्र)
आर्य समाज ने हिन्दुओं, मुसलमानों, पारसियों, सिखों और ईसाइयों के बीच पनप रही राष्ट्रीय एकता को भंग करने का प्रयास किया।
(कक्षा 12-आधुनिक भारत, पृष्ठ 183, लेखक-विपिन चन्द्र)
तिलक, अरविन्द घोष, विपिनचन्द्र पाल और लाला लाजपतराय जैसे नेता उग्रवादी तथा आतंकवादी थे
(कक्षा 12-आधुनिक भारत-विपिन चन्द्र, पृष्ठ 208)
400 वर्ष ईसा पूर्व अयोध्या का कोई अस्तित्व नहीं था।
महाभारत और रामायण कल्पित महाकाव्य हैं।
(कक्षा 11, पृष्ठ 107, मध्यकालीन इतिहास, आर.एस. शर्मा)
वीर पृथ्वीराज चौहान मैदान छोड़कर भाग गया और गद्दार जयचन्द गोरी के खिलाफ युद्धभूमि में लड़ते हुए मारा गया।
(कक्षा 11, मध्यकालीन भारत, प्रो. सतीश चन्द्र)
औरंगजेब एक महान जिन्दा पीर थे।
(मध्यकालीन भारत, पृष्ठ 316, लेखक-प्रो. सतीश चन्द्र)
राम और कृष्ण का कोई अस्तित्व ही नहीं था। वे केवल
काल्पनिक कहानियां हैं।
(मध्यकालीन भारत, पृष्ठ 245, रोमिला थापर)
(ऐसी और भी बहुत सी आपत्तिजनक बाते आपको एन.सी.आर.टी. की किताबों में पढ़ने को मिल जायेंगी)
दिल्ली विश्वविद्यालय के बी.ए. आनर्स (द्वितीय वर्ष) में
इतिहास की पाठ्य-पुस्तक "कल्चर इन एंशियट इण्डिया" पढ़ाई जा रही है। इसमें रावण को गर्भवती दिखाया गया है तथा उसके छींक मारने से सीता का जन्म बताया है। पुस्तक में सीता को रावण की पुत्री बताया है। हनुमान को एक छोटा सा बन्दर बतलाया तथा उन्हें एक कामुक व्यक्ति के रूप में चित्रित किया गया है।
रोमिला थापर जैसी लेखकों ने मुसलमानों द्वारा धर्म के नाम पर काफ़िर हिन्दुओं के ऊपर किये गये भयानक अत्याचारों को गायब कर दिया है.
इनलोगों ने झूठा इतिहास लिखकर एक समुदाय की हिंसक मानसिकता पर जानबूझकर पर्दा डाला है. इन भयानक अत्याचारों को अनेकता में एकता और धार्मिक सहिष्णुता बताकर नौजवान पीढ़ी को धोखा दिया जा रहा है. उन्हें अंधकार में रखा जा रहा है.
भविष्य में इसका परिणाम बहुत खतरनाक होगा क्योकि नयी पीढ़ी ऐसे समुदाय की वास्तविक मानसिकता न जानने के कारण उनसे असावधान रहेगी और खतरे में पड़ जायेगी.
सोचने का विषय है कि आखिर किसके दबाव में सत्य को छिपाया अथवा तोड़ मरोड़ कर पेश किया जा रहा है????
वामपंथी इतिहासकारों की दृष्टि में छठीं कक्षा के बच्चों को यह पढ़ाना बहुत आवश्यक लगता है कि आर्य बाहर से आये थे और वैदिककाल में गोमांस खाया जाता था जबकि वैदिक साहित्य में गौ को "अघन्या' कहा गया है।
इन्होंने मुगल शासक अकबर, औरंगजेब आदि आक्रमणकारियों को विशुद्ध राष्ट्रवादी बताकर पहली श्रेणी में रखा तथा महाराणा प्रताप, शिवाजी जैसे देश के रक्षकों को बहुत सीमित अर्थों में राष्ट्रवादी कहकर दूसरी श्रेणी में रखा।
अकबर ने अपने शासनकाल में कुछ सुधार किए थे।
परन्तु केवल इस कारण ही उसे 'महान शासक' नहीं कहा जा सकता।
कुछ आधुनिक मुस्लिम इतिहासकारों के एक वर्ग ने मुगल साम्राज्य की सफलताओं को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत किया, परन्तु साथ ही उन्होंने मुगल शासकों की असफलताओं, कमियों तथा हिन्दुओं पर किये गये अमानुषिक अत्याचारों द्वारा धर्मान्तरण को बिल्कुल छिपा लिया।
अराष्ट्रीय मुगल शासक मूलत: विदेशी थे। अत्यधिक शराबी तथा व्यसनी बाबर, मुगलों का प्रथम शासक असल में एक लुटेरा था। न उसे कभी भारत से लगाव था
और न ही यहां के लोगों से। उसे तो भारत के मुसलमान भी नहीं चाहते थे। उससे तो अत्यन्त श्रेष्ठ हसन खां मेवाती था जिसने स्वेदश की रक्षा के लिए राणा सांगा की सेना में भाग लिया था और अपने पुत्र नाहर खां को बाबर द्वारा बन्धक बना लिए जाने के बाद भी देश से गद्दारी नहीं की।
इसी तरह बाबर के अफीमची पुत्र हुमांयू को भारत से किंचित मात्र भी लगाव नहीं था। वह छोटी- मोटी विजय के पश्चात जश्न, दावतों तथा विलासिता में डूब जाता था और बार-बार ईरान की ओर भागता था।
मुगलों का तीसरा साम्राज्यवादी शासक अकबर था। स्मिथ के अनुसार उसमें राष्ट्रीयता की एक बूंद तक नहीं थी। वह अफीम मिली शराब का व्यसनी था तथा उसके नशे में धुत रहता था। अबुल फजल के अनुसार उसके हरम में 3000 महिलाएं थीं। साम्राज्य के विस्तार में वह तैमूर लंग की भांति नृशंस हत्याएँ, क्रूरता तथा छल-कपट में जरा भी नहीं हिचकता था। विशेषकर हेमचन्द्र विक्रमादित्य, महारानी दुर्गावती तथा महाराणा प्रताप के साथ संघर्ष उसके कलंकित चरित्र को सामने लाते हैं।
विचारणीय व गंभीर प्रश्न यह है कि भारतीय राष्ट्रीयता
का प्रतीक साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षी अकबर है या
देशाभिमान पर शहीद होने वाली रानी दुर्गावती, अथवा
भारतीय स्वतंत्रता के लिए मर मिटने वाले हेमचन्द्र
विक्रमादित्य या देश की आजादी के लिए जंगलों में भटकने वाले महाराणा प्रताप।
क्या भारत का राष्ट्रीय पुरुष अकबर है जो छल-कपट तथा दूसरों पर आक्रमण कर उसे जीत लेने के पागलपन से युक्त था या हेमू जैसा साहसी व्यक्ति, जिसने विदेशी शासन को देश से उखाड़ फेंकने तथा दिल्ली पर स्वदेशी शासन पुन: स्थापित करने का प्रयत्न किया?
क्या राष्ट्र का प्रतिनिधि गोंडवाना की रानी पर अकारण
आक्रमण करने वाला अकबर है या शत्रु द्वारा पकड़े जाने व अपमानित होने की आशंका के स्वयं छुरा घोंप कर बलिदान देने वाली रानी?
क्या राष्ट्र का प्रेरक चित्तौड़ में 30,000 हिन्दुओं का नरसंहार करने वाला अकबर है या महाराणा प्रताप का संघर्षमय जीवन, जिन्होंने मुगलों की अजेय सेनाओं को नष्ट कर दिया था।
वस्तुत: विद्वानों द्वारा किसी भी शासक का मूल्यांकन राष्ट्र के जीवन मूल्यों के लिए किए गए उसके प्रयत्नों के रूप में आंका जाना चाहिए।
इस दृष्टि से भारत के इतिहास में महाराणा प्रताप का नाम सदैव प्रेरक रहा है, अकबर का नहीं। अंग्रेजों की दासता से मुक्ति दिलाने में महाराणा प्रताप के नाम ने जादू का काम किया था।
निरंकुश और बर्बर मुगल जहांगीर तथा शाहजहां-दोनों ही अत्यधिक धर्मान्ध तथा विलासी थे। दोनों सुरा के साथ सुन्दरी के भी भूखे थे।
अकबर के बिगड़ैल पुत्र जहांगीर ने स्वयं लिखा कि वह
प्रतिदिन बीस प्याले शराब पीता था। दोनों ने हिन्दू, जैन
तथा सिख गुरुओं को बहुत कष्ट दिए थे। ये दोनों विदेश में अपने पूर्वजों की भूमि कभी नहीं भूले थे।
इन दोनों के बाद औरंगजेब ने भी भारत को दारुल हरब से दरुल इस्लाम बनाने के सभी घिनौने प्रयत्न किए। उसके ही शासन काल में गुरु तेग बहादुर का बलिदान हुआ, गुरु गोविन्द के चारों पुत्रों का बलिदान हुआ था। इसके बावजूद कुछ चाटुकार मुस्लिम तथा वामपंथी इतिहासकारों ने उसे 'जिंदा पीर' का भी खिताब दिया है।
यहां पुन: वही प्रश्न है कि औरंगजेब भारत का राष्ट्रीय
शासक था अथवा शिवाजी तथा गुरु गोविन्द सिंह राष्ट्रीय
महापुरुष थे?
महादेव गोविन्द रानाडे ने शिवाजी के जन्म को एक महान संघर्ष तथा तपस्या का परिणाम माना है।
वामपंथी इतिहासकार औरंगजेब की तुलना में शिवाजी को राष्ट्रीय मानने को तैयार नहीं हैं। उनके संघर्ष को देश के साथ जोड़ने में उन्हें लज्जा आती है। जबकि सर यदुनाथ सरकार जैसे विश्वविख्यात इतिहासकार का कथन है कि शिवाजी जैसा सच्चा नेता सम्पूर्ण मानव जाति के लिए एक अद्वितीय देन है। शिवाजी का लक्ष्य भारतभूमि से विदेशी साम्राज्य को नष्ट करना था।
हर समय घोड़े की पीठ पर रहने वाले शिवाजी की तुलना पालकी में बैठकर युद्ध करने वाले औरंगजेब से किसी भी प्रकार से न्यायोचित नहीं है।
इसी भांति गुरु गोविन्द सिंह जी ने समस्त समाज को, बिना किसी भेदभाव के भयमुक्त तथा नि:स्वार्थ सेवा भावना से ओत-प्रोत किया।
उन्होंने खालसा पंथ की स्थापना कर सम्पूर्ण राष्ट्र को जीवनदायिनी बूटी दी थी।
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि मुगल शासक विदेशी, साम्राज्यवादी, क्रूर, लुटेरे तथा मतान्ध थे। उन्हें न भारत भूमि से कोई लगाव था और न ही भारतीयों से। विदेशियों को राष्ट्रीय शासक कहना सर्वथा अनुचित है तथा देशघातक है।
औरंगजेब को “संत” और परोपकारी साबित करने
की कोशिश पहले शुरु की सैयद शहाबुद्दीन (आईएफ़एस) ने, जिन्होंने कहा कि “मन्दिर को तोड़कर मस्जिद
बनाना शरीयत के खिलाफ़ है, इसलिये औरंगजेब ऐसा कर ही नहीं सकता”।
फ़िर जेएनयू के स्वघोषित सेकुलर बुद्धिजीवी कैसे पीछे
रहते? उन्होंने भी एक सुर में औरंगजेब और अकबर को महान धर्मनिरपेक्षतावादी बताने के लिये पूरा जोर लगा दिया,
जबकि मुगल काल के कई दस्तावेज, डायरियाँ, ग्रन्थ आदि खुलेआम बताते हैं कि उस समय धर्म के नाम पर लाखों हिन्दुओं का नरसंहार हुआ था एवं हजारों मन्दिरों को तोड़कर मस्जिदें बनाई गईं।
जब अरुण शौरी जी ने 2 सितम्बर 1669 के मुगल अदालती दस्तावेज जिसे “मासिरी आलमगिरी” कहा जाता है, उसमें से एक अंश उद्धृत करके बताया कि “बादशाह के आदेश पर अधिकारियों ने बनारस में काशी विश्वनाथ का मन्दिर ढहाया” तो इन सभी सेकुलरों को सांप सूंघ गया और वे बगलें झाँकते नजर आए। आज भी उस पुराने मन्दिर की दीवार औरंगजेब द्वारा बनाई गई मस्जिद में स्पष्ट तौर पर देखी जा सकती है।
एनसीआरटी द्वारा प्रकाशित ‘मध्यकालीन भारत’ तथा ‘उत्तर मुगलकालीन भारत’ पुस्तकों में वामपंथी लेखक डा. सतीश चंद्र ने कलम और तलवार के धनी महान भारतीय गुरू गोविंद सिंह जी महाराज पर औरंगजेब से माफी मांगने जैसा निराधार आरोप लगाने की धृष्टता की थी।
उन्होंने धर्म स्वातंत्रय की रक्षा के लिए महान बलिदान देने वाले गुरू तेगबहादुर जी के संबंध में लिखा:-
सन् 1705 में औरंगजेब ने गुरू को माफ कर दिया। गुरू
चाहता था कि औरंगजेब उसे आनंदपुर वापस दिलवा दें।
मध्यकालीन भारत में डा सतीश चंद्र लिखते हैं:-
गुरू तेगबहादुर को अपने पांच अनुयायियों के साथ
दिल्ली लाया गया और मौत के घाट उतार दिया गया।
पूरा संसार जानता है कि गुरू तेगबहादुर जी ने हिंदू धर्म
की रक्षा के लिए अपना बलिदान दिया था। उन्होंने
सिख धर्म त्यागकर मुसलमान बनने से स्पष्ट इन्कार कर
दिया था इसलिए औरंगजेब के आदेश से आततायियों ने
सरेआम उनकी हत्या की। उन्होंने बलिदान दिया, किंतु
धर्म परिवर्तन नहीं किया।
प्लेटो ने लिखा था कि कहानियां सुनाने वालों के हाथों में सत्ता होती है। इस कथन का आशय यह है कि जिन लोगों के हाथ में सत्ता होती है, वे पुरानी कहानियों की नई व्याख्या भी करना चाहते हैं।़
मध्यकालीन भारत का सम्पूर्ण सच्चा इतिहास कभी भी जनता के सामने नहीं आने दिया गया।
अय्याश नेहरू की ''भारत एक खोज'' को देश आज भी सरकारी रूप से अपना इतिहास मानता है ! देश के बुद्धिजीवी वर्ग ने कभी इस तरफ संज्ञान नही लिया ।लगभग हर जाति का इतिहास उल्टा लिखा गया है ।
राजीव गांधी ने अपनी नई शिक्षा नीति में राष्ट्रीय आन्दोलन को पढ़ाने पर विशेष बल दिया।
भारत के तत्कालीन शिक्षा मंत्री अर्जुन सिंह ने सांस्कृतिक तथा राष्ट्रबोधक तत्वों को हटाने का पूर्ण प्रयत्न किया। विद्यालयों में प्रारंभ में देश प्रार्थना, योग व्यायाम विशेषकर सूर्य नमस्कार तथा वन्देमातरम का राष्ट्रीय गीत झूठी धर्मनिरपेक्षता के नाम पर सरकारी स्तर पर हटा दिया गया।

राजस्थान में 2009 में तत्कालीन मुख्यमंत्री अशोक गहलोत द्वारा वहां के शिक्षा बोर्ड द्वारा भारतीय इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में 'भगवाकरण' से मुक्त करने के प्रयत्न हुए।
पुस्तकों से भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन में महत्वपूर्ण योगदान देने वाले मदनमोहन मालवीय, डा. हेडगेवार,दीनदयाल उपाध्याय तथा वीर सावरकर जैसे राष्ट्रभक्तों से संबंधित सामग्री हटा दी गई।
ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता वि.वा. शिखाड़कर की कविता 'सर्वात्मका सर्वेक्षण' को इसलिए पुस्तक से हटाया गया क्योंकि उसमें शिवाजी द्वारा अफजल खां को मारने का वर्णन था।

बंगाल, त्रिपुरा तथा केरल में तो कम्युनिस्ट शासन होने के कारण सरकार द्वारा इतिहास का पाठ्यक्रम साम्यवादी प्रचार का मुख्य अस्त्र बना। इतिहास की पुस्तकों में श्रमिक आन्दोलन, कम्युनिस्ट पार्टी का इतिहास, लेनिन व स्टालिन की जीवनी, पढ़ाई जाने लगी। 11वीं कक्षा के छात्रों को 30 पृष्ठों में 1917 की रूसी क्रांति पढ़नी पड़ी। अनेक इतिहास के तथ्यों को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत किया।

इतना ही नहीं, 1989 ई. में बंगाल सरकार द्वारा निर्देश दिया गया कि किसी भी पुस्तक में इस्लामी क्रूरता का वर्णन तथा साथ ही मुसलमानों द्वारा हिन्दुओं पर अत्याचार एवं उमरे जबरदस्ती धर्मान्तरण की बात नहीं होनी चाहिए। हिन्दू मंदिरों के ध्वंस का वर्णन नहीं होना चाहिए।
भारतीय इतिहास पर कांग्रेस का लम्बे समय तक कब्जा रहा, वे देश के नौनिहालों को यह झूठा ज्ञान दिलाने में सफल रहे कि भारत का सारा इतिहास केवल पराजयों और गुलामी का इतिहास है और यह कि भारत का सबसे अच्छा समय केवल तब था जब देश पर मुगल बादशाहों का शासन था।

तथ्यों को तोड़-मरोड़कर वे यह सिद्ध करना चाहते थे कि भारत में जो भी गौरवशाली है वह मुगल बादशाहों द्वारा दिया गया है और उनके विरुद्ध संघर्ष करने वाले महाराणा प्रताप, शिवाजी आदि पथभ्रष्ट थे।
आज दुनिया मानती है कि प्राचीन भारत गणित, बीज गणित आदि से लेकर खगोल विद्या तक के क्षेत्र में शिखर पर था।

प्राचीन भारतीय हिन्दू शासकों की सामाजिक और न्यायिक व्यवस्था अपनी उदारता, मानवसेवा एवं प्रजा को ईश्वर मानकर सेवा करने वाली शासन व्यवस्था के लिए विश्वविख्यात रही है जिनका अध्ययन आज भी राजनीतिजों एवं राजनीतिशास्त्र के छात्रों के लिए महान प्रेरणा का स्रोत बन सकता है। पर हमारी पाठ्यपुस्तकों में विदेशी हमलावर मुगलों की क्रूर एवं धर्मआधारित शासन व्यवस्था पढ़ायी जा रही है।
यहां के विश्वविद्यालयों में दुनिया भर से छात्र पढ़ने आते थे। अल−बरुनी, फाह्यान, ह्वेन सांग सरीखे दर्जनों विदेशी यात्री भारत का अध्ययन करने आए और उन्होंने जो प्रामाणिक पुस्तकें लिखी हैं वह चौंका देने वाले तथ्यों का संग्रह तो हैं ही,विश्व में हमारे ज्ञान गुरूत्व को भी प्रमाणित करती है।

स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में आरसी मजुमदार, सर जदुनाथ सरकार, नीलकंठ शास्त्री, टीवी महालिंगम, राधा कुमुद मुखर्जी, काशी प्रसाद जायसवाल जैसे निस्वार्थ और सर्वमान्य इतिहासकार, जो एक तरफ वस्तुपरक
भी थे और दूसरी तरफ भारतीय को भारतीय दृष्टि से देखने की क्षमता भी रखते थे, को पूरी तरह दरकिनार करके मार्क्सवादी इतिहासकारों की नई टोली ने भारत के गौरवमय इतिहास का गला घोंट दिया है।
लार्ड मैकाले ने १२ अक्टूबर १८३६ को अपने पिता को लिखे पत्र में कहा था कि हम भारत पर पूरी तरह से तभी शासन कर पायेंगे जब इन्हें हम इनकी प्राचीन एवं गौरवशाली संस्कृति से दूर कर सकेंगे।
तब उसने व्यापक तौर पर पाठ्यक्रमों में बदलाव किया था एवं भारतीय छात्रों के दिमाग में अंग्रेजियत का बीज बोया था। आज के कान्वेंट स्कूल उसी के शातिर दिमाग की उपज है जिनसे पढ़कर निकलने वाले छात्रों को अपनी गौरवशाली प्राचीन संस्कृति के बारे में कुछ पता ही नहीं होता।
तब से लेकर आज तक �देश एवं राज्यों की लगभग हर सरकारें अपना राजनीतिक स्वार्थ चमकाने के लिए पाठ्यपुस्तकों में फेरबदल करती आयीं हैं।
आज स्कूल और कॉलेज के विद्यार्थी प्राचीन भारतीय गौरव के बारे में जानते ही नहीं हैं। इसीलिए भारतीय कला,इतिहास,एवं संस्कृति का उपहास करते हैं एवं पश्चिमी संस्कृति की ओर भाग रहे हैं।

उम्मीद है कि मेरे पिछले कुछ ऐतिहासिक लेखों से लगातार मुझे गालियाँ दे रहे रट्टू तोतों को ये लेख पढ़कर कुछ सद् बुद्धि आयेगी।

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