पौराणिक कथाओं अनुसार देवता और राक्षसों के सहयोग से समुद्र मंथन
के पश्चात् अमृत कलश की प्राप्ति हुई। जिस पर अधिकार जमाने को लेकर
देवताओं और असुरों के बीच युद्ध हुआ। इस युद्ध के दौरान अमृत कलश से अमृत
की कुछ बूंदे निकलकर पृथ्वी के चार स्थानों पर गिरी।
वे चार स्थान है : -
प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक। जिनमें प्रयाग गंगा-यमुना-सरस्वती के
संगम पर और हरिद्वार गंगा नदी के किनारे हैं, वहीं उज्जैन शिप्रा नदी और
नासिक गोदावरी नदी के तट पर बसा हुआ है।
अमृत पर अधिकार को लेकर देवता और दानवों के बीच लगातार बारह दिन तक युद्ध
हुआ था। जो मनुष्यों के बारह वर्ष के समान हैं। अतएवं कुम्भ भी बारह होते
हैं। उनमें से चार कुम्भ पृथ्वी पर होते हैं और आठ कुम्भ देवलोक में होते
हैं।
युद्ध के दौरान सूर्य, चंद्र और शनि आदि देवताओं ने कलश की रक्षा की थी,
अतः उस समय की वर्तमान राशियों पर रक्षा करने वाले चंद्र-सूर्यादिक ग्रह जब
आते हैं, तब कुम्भ का योग होता है और चारों पवित्र स्थलों पर प्रत्येक तीन
वर्ष के अंतराल पर क्रमानुसार कुम्भ मेले का आयोजन किया जाता है।
श्री गोपालदत्त शास्त्री महाराज जो रामानुज सम्प्रदाय के आचार्य
हैं, ने एक लघु पुस्तिका 'कुंभ महात्म्य' के नाम से लिखी है, जिसमें 'कुंभ पर्व की
प्रचलित तीन कथाएं' शीर्षक से जिन कथाओं का उल्लेख किया गया है उनमें
सर्वोपरि महत्ता समुद्र-मंथन से सम्बद्ध कथा को मिली है पर अन्य कथाओं की
भी उपेक्षा नहीं की जा सकती। क्रम यह दिया गया है : -
* महर्षि दुर्वासा की कथा
* कद्रू-विनता की कथा
* समुद्र-मंथन की कथा
पहली कथा :-
महर्षि दुर्वासा की कथा :-
पहली कथा इन्द्र से सम्बद्ध है जिसमें दुर्वासा द्वारा दी गई दिव्य माला
का असहनीय अपमान हुआ। इन्द्र ने उस माला को ऐरावत के मस्तक पर रख दिया और
ऐरावत ने उसे नीचे खींच कर पैरों से कुचल दिया। दुर्वासा ने फलतः भयंकर शाप
दिया, जिसके कारण सारे संसार में हाहाकार मच गया। अनावृष्टि और दुर्भिक्ष
से प्रजा त्राहि-त्राहि कर उठी। नारायण की कृपा से समुद्र-मंथन की
प्रक्रिया द्वारा लक्ष्मी का प्राकट्य हुआ, जिसमें वृष्टि होने लगी और कृषक
वर्ग का कष्ट कट गया।
अमृतपान से वंचित असुरों ने कुंभ को नागलोक में छिपा दिया जहां से गरुड़ ने
उसका उद्धार किया और उसी संदर्भ में क्षीरसागर तक पहुंचने से पूर्व जिन
स्थानों पर उन्होंने कलश रखा, वे ही कुंभ स्थलों के रूप में प्रसिद्ध हुए।
दूसरी कथा :-
कद्रू-विनता की कथा :-
दूसरी कथा प्रजापति कश्यप की दो पत्नियों के सौतियाडाह से संबद्ध है।
विवाद इस बात पर हुआ कि सूर्य के अश्व काले हैं या सफेद। जिसकी बात झूठी
निकलेगी वहीं दासी बन जाएगी। कद्रू के पुत्र थे नागराज वासु और विनता के
पुत्र थे वैनतेय गरुड़। कद्रू ने अपने नागवंशों को प्रेरित करके उनके कालेपन
से सूर्य के अश्वों को ढंक दिया फलतः विनता हार गई। दासी के रूप में अपने
को असहाय संकट से छुड़ाने के लिए विनता ने अपने पुत्र गरुड़ से कहा, तो
उन्होंने पूछा कि ऐसा कैसे हो सकता है। कद्रू ने शर्त रखी कि नागलोक से
वासुकि-रक्षित अमृत-कुंभ जब भी कोई ला देगा, मैं उसे दासत्व से मुक्ति दे
दूंगी।
विनता ने अपने पुत्र को यह दायित्व सौंपा जिसमें वे सफल हुए। गरुड़ अमृत
कलश को लेकर भू-लोक होते हुए अपने पिता कश्यप मुनि के उत्तराखंड में
गंधमादन पर्वत पर स्थित आश्रम के लिए चल पड़े। उधर, वासुकि ने इन्द्र को
सूचना दे दी। इन्द्र ने गरुड़ पर चार बार आक्रमण किया और चारों प्रसिद्ध
स्थानों पर कुंभ का अमृत छलका जिससे कुंभ पर्व की धारणा उत्पन्न हुई।
देवासुर संग्राम की जगह इस कथा में गरुड़ नाग संघर्ष प्रमुख हो गया। जयन्त
की जगह स्वयं इन्द्र सामने आ गए। यह कहना कठिन है कि कौन- सी कथा अधिक
विश्वसनीय और लोकप्रिय है।
तीसरी कथा :-
समुद्र-मंथन की कथा :-
व्यापक रूप से अमृत- मंथन की उस कथा को अधिक महत्व दिया जाता है जिसमें
स्वयं विष्णु मोहिनी रूप धारण करके असुरों को छल से पराजित करते हैं। गरुड़
का संदर्भ भी स्मरणीय है, परन्तु कुल मिलाकर विशेष प्रसिद्धि समुद्र-मंथन
की कथा को ही मिली।
दुर्वासा की कथा में भी समुद्र-मंथन का प्रसंग समाहित है। इसलिए भी उनका
मूल्य बढ़ जाता है। कश्यप की संततियों का पारम्परिक युद्ध देवासुर-संग्राम
जैसा प्रभावी रूप ग्रहण नहीं कर सका यद्यपि उसकी प्राचीनता संदिग्ध नहीं
है। गरुड़ की महत्ता विष्णु से जुड़ गई और वासुकि रूप में नागों का संबंध शिव
से अधिक माना गया। यहाँ भी शैव-वैष्णव भाव देखा जा सकता है, जो बड़े
द्वन्द्वात्मक संघर्ष के बाद अंततः हरिहरात्मक ऐक्य ग्रहण कर लेता है।
समुद्र-मंथन और अमृत-कुंभ :
समुद्र-मंथन एक ऐसी कथा है जिसके पौराणिक रूप के भीतर जीवन का रहस्य निहित
है। उसे सृष्टि-कथा से भिन्न दार्शनिक स्तर पर तत्व कथा कहा जा सकता है।
सहस्त्र वर्षों के सुदीर्घ अनुभव को अद्भुत प्रतीकात्मक भाषा प्रदान की गई
है, जिसमें द्वन्द्व और संघर्ष की कठोर भूमिका अपनाई गई है।
उसमें मनोगत यथार्थ का शाश्वत रूप भी प्रतिबिम्बित हुआ है। यह कथा महाभारत
के अन्तर्गत अध्याय सत्रह और अठारह में दी गई है तथा अनेक पुराण ग्रंथों
में वर्णित है। पुराणों की तुलना में महाभारत ने इसके निहितार्थ को
आध्यात्मिक रूप दे दिया है।
नागा साधुओं की लोकप्रियता है।
संन्यासी संप्रदाय से जुड़े साधुओं का संसार और गृहस्थ जीवन से कोई
लेना-देना नहीं होता। गृहस्थ जीवन जितना कठिन होता है उससे सौ गुना ज्यादा
कठिन नागाओं का जीवन है।
यहां प्रस्तुत है नागा से जुड़ी महत्वपूर्ण जानकारी।
1. नागा अभिवादन मंत्र : ॐ नमो नारायण।
2. नागा का ईश्वर : शिव के भक्त नागा साधु शिव के अलावा किसी को भी नहीं मानते।
* नागा वस्तुएं : त्रिशूल, डमरू, रुद्राक्ष, तलवार, शंख, कुंडल, कमंडल, कड़ा, चिमटा, कमरबंध या कोपीन, चिलम, धुनी के अलावा भभूत आदि।
3. नागा का कार्य : गुरु की सेवा, आश्रम का कार्य, प्रार्थना, तपस्या और योग क्रियाएं करना।
4. नागा दिनचर्या : नागा साधु सुबह चार बजे बिस्तर छोडऩे के बाद नित्य क्रिया व स्नान के बाद श्रृंगार पहला काम करते हैं। इसके बाद हवन, ध्यान, बज्रोली, प्राणायाम, कपाल क्रिया व नौली क्रिया करते हैं। पूरे दिन में एक बार शाम को भोजन करने के बाद ये फिर से बिस्तर पर चले जाते हैं।
5. सात अखाड़े ही बनाते हैं नागा : संतों के तेरह
अखाड़ों में सात संन्यासी अखाड़े ही नागा साधु बनाते हैं:- ये हैं जूना,
महानिर्वणी, निरंजनी, अटल, अग्नि, आनंद और आवाहन अखाड़ा।
6. नागा इतिहास : सबसे पहले वेद व्यास ने संगठित रूप से
वनवासी संन्यासी परंपरा शुरू की। उनके बाद शुकदेव ने, फिर अनेक ऋषि और
संतों ने इस परंपरा को अपने-अपने तरीके से नया आकार दिया। बाद में
शंकराचार्य ने चार मठ स्थापित कर दसनामी संप्रदाय का गठन किया। बाद में
अखाड़ों की परंपरा शुरू हुई। पहला अखाड़ा अखंड आह्वान अखाड़ा’ सन् 547 ई.
में बना।
7. नाथ परंपरा : माना जाता है कि नाग, नाथ और नागा परंपरा गुरु दत्तात्रेय की परंपरा की शाखाएं है। नवनाथ की परंपरा को सिद्धों की बहुत ही महत्वपूर्ण परंपरा माना जाता है। गुरु मत्स्येंद्र नाथ, गुरु गोरखनाथ साईनाथ बाबा, गजानन महाराज, कनीफनाथ, बाबा रामदेव, तेजाजी महाराज, चौरंगीनाथ, गोपीनाथ, चुणकरनाथ, भर्तृहरि, जालन्ध्रीपाव आदि। घुमक्कड़ी नाथों में ज्यादा रही।
8. नागा उपाधियां : चार जगहों पर होने वाले कुंभ में
नागा साधु बनने पर उन्हें अलग अलग नाम दिए जाते हैं। इलाहाबाद के कुंभ में
उपाधि पाने वाले को 1.नागा, उज्जैन में 2.खूनी नागा, हरिद्वार में
3.बर्फानी नागा तथा नासिक में उपाधि पाने वाले को 4.खिचडिया नागा कहा जाता है। इससे यह पता चल पाता है कि उसे किस कुंभ में नागा बनाया गया है।
9. नागाओं के पद : नागा में दीक्षा लेने के बाद साधुओं
को उनकी वरीयता के आधार पर पद भी दिए जाते हैं। कोतवाल, पुजारी, बड़ा
कोतवाल, भंडारी, कोठारी, बड़ा कोठारी, महंत और सचिव उनके पद होते हैं। सबसे
बड़ा और महत्वपूर्ण पद सचिव का होता है।
10. कठिन परीक्षा : नागा साधु बनने के लिए लग जाते हैं 12 वर्ष। नागा पंथ में शामिल होने के लिए जरूरी जानकारी हासिल करने में छह साल लगते हैं। इस दौरान नए सदस्य एक लंगोट के अलावा कुछ नहीं पहनते। कुंभ मेले में अंतिम प्रण लेने के बाद वे लंगोट भी त्याग देते हैं और जीवन भर यूं ही रहते हैं।
11. नागाओं की शिक्षा और दीक्षा : नागा साधुओं को सबसे
पहले ब्रह्मचारी बनने की शिक्षा दी जाती है। इस परीक्षा को पास करने के बाद
महापुरुष दीक्षा होती है। बाद की परीक्षा खुद के यज्ञोपवीत और पिंडदान की
होती है जिसे बिजवान कहा जाता है।
अंतिम परीक्षा दिगम्बर और फिर श्रीदिगम्बर की होती है। दिगम्बर नागा एक
लंगोटी धारण कर सकता है, लेकिन श्रीदिगम्बर को बिना कपड़े के रहना होता है।
श्रीदिगम्बर नागा की इन्द्री तोड़ दी जाती है।
12. कहां रहते हैं नागा साधु : नाना साधु अखाड़े के
आश्रम और मंदिरों में रहते हैं। कुछ तप के लिए हिमालय या ऊंचे पहाड़ों की
गुफाओं में जीवन बिताते हैं। अखाड़े के आदेशानुसार यह पैदल भ्रमण भी करते
हैं। इसी दौरान किसी गांव की मेर पर झोपड़ी बनाकर धुनी रमाते हैं।
कुम्भ का इतिहास :
कुम्भ मेले का आयोजन प्राचीन काल से हो रहा है, लेकिन मेले का प्रथम लिखित
प्रमाण महान बौद्ध तीर्थयात्री ह्वेनसांग के लेख से मिलता है जिसमें आठवीं
शताब्दी में सम्राट हर्षवर्धन के शासन में होने वाले कुम्भ का प्रसंगवश
वर्णन किया गया है।
।।जय हिंदुत्व।। ।।जय श्रीराम।। ।।जय महाकाल।। ।।जय श्रीकृष्ण।।
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