मनुष्य और परमात्मा के बीच सेतु की तरह है गुरु। वह सिर्फ सेतु ही नहीं है बल्कि पथ को आलोकित करने वाले सूरज की तरह भी है। लेकिन सूरज का प्रकाश अगर जलाने लगे तो वह चांदनी की तरह शीतल भी है। गुरु के विविध रूप है, और कुल मिलाकर वह मनुष्य के भीतर सोए हुए परमात्मा की अभिव्यक्ति है।
जो अंधेरे से ज्ञान की और ले जाए वह गुरु है। अदि गुरु महादेव हैं। जीवन में गुरु का होना बहुत जरुरी है। जिन्होंने गुरु का चुनाव नहीं किया गया, उनके लिए निगुरा शब्द का इस्तेमाल किया जाता है। निगुरा अर्थात जिसका कोई गुरु न हो। यह संबोधन एक अपशब्द समझा जाता है।
आत्मिक क्षेत्र में गुरु को माता पिता से भी श्रेष्ठ समझा जाता है। माता पिता के संबंध में मानते हैं कि वे ब्रह्मा विष्णु की भूमिका में होते हैं। उनके साथ गुरु शिव के रूप में माने जाते हैं। उन्हीं की तरह असंग और निरपेक्ष, अपने शिष्य को अविद्या के अंधकार से दूर रखने वाली, अनुग्रह करने वाली शक्ति की तरह। तभी तो गुरु को भगवन से ऊपर माना गया है दर्ज़ा मिला है।
आषाढ़ मास की पूर्णिमा गुरु पूर्णिमा के साथ व्यास पूर्णिमा के रूप में भी विख्यात है। व्यास अर्थात ज्ञान को विस्तार देने वाली अभिभावक स्तर का व्यक्तित्व। अपने यहां शुरू में जिस तापस और सिद्ध स्तर की प्रतिभा ने मनुष्य को बेहतर और संस्कारी बनाने के लिए काम किया, उसे व्यास कहा गया। निजी स्तर पर ध्यान देने और विकास की कमान संभालने के कारण उस संबंध को गुरु भी कहा गया।
उन वेदव्यास की जन्म जयंती भी आषाढ़ पूर्णिमा के दिन मनाई जाती है। व्यास अथवा गुरू पूर्णिमा वर्षा ऋतु के आरंभ में आती है। इस दिन से चार महीने तक परिव्राजक साधु-संत एक ही स्थान पर रहकर सत्संग स्वाध्याय का क्रम ज्ञान की गंगा बहाते हैं। ये चार महीने मौसम की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ होते हैं। न अधिक गर्मी और न अधिक सर्दी। इसलिए अध्ययन के लिए उपयुक्त माने गए हैं।
जैसे सूर्य के ताप से तप्त भूमि को वर्षा से शीतलता एवं फसल पैदा करने की शक्ति मिलती है, ऐसे ही गुरुचरण में उपस्थित साधकों को ज्ञान, शांति, भक्ति और योग शक्ति प्राप्त करने की शक्ति मिलती है। अविद्या अंधकार को हटाकर प्रकाश की ओर ले जाने के कारण इस सान्निध्य संबंध को गुरु कहा जाता है।
गुरु वह है जो अज्ञान का निराकरण करता है अथवा गुरु वह है जो धर्म का मार्ग दिखाता है। गुरु के बारे में रहस्यदर्शी चेतना के स्तर तक पहुंचे मनीषियों का यह भी कहना है कि गुरु का अर्थ है- बुद्ध और कृष्ण जैसी मुक्त हो गई चेतनाएं।
गुरु का स्वरूप सचमुच सिद्ध और समर्थ श्रेणी में माना गया है। वे ठीकअअवतारों जैसे हैं, लेकिन शिष्य या साधक के साथ उससे थोड़े ही आगे खड़े हैं। गुरु साधक या शिष्य के पास मौजूद है।
कुछ थोड़ा सा नियति का विधान है, शरीर का कुछ ऋण बाकी है, उसके चुका दिए जाने की प्रतीक्षा है। वह गुरु एक अजीब विरोधाभास है, जो मनुष्य और चैतन्य के बीच खड़ा है, अपने साथ जुड़े साधकों के लिए ठीक उनके पास और उनसे बहुत दूर है।
उसके सान्निध्य का उपयोग कर लेना चाहिए। उससे दूर होने के बाद पछताने और परेशान होने के सिवा कुछ नहीं बचता। गुरु ने जो नियम बताए हैं, अनुशासन नियत किया है, उन नियमों और मर्यादाओं पर श्रद्धा से चलना शिष्य का कर्तव्य है।
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