हमेशा यह भ्रम फैलाने को प्रयत्न किया जाता रहा है कि आर्य भारत में बाहर से आक्रमण करने के लिए आए और उन्होंने यहां के मूल निवासी द्रविड़ों को उत्तर से भगा दिया, जो दक्षिण में चले गए। इस मिथ्या प्रचार का दुष्परिणाम निकला- भारत का उत्तर और दक्षिण के रूप में अनुवांशिक आधार पर विभाजन और परस्पर जातीय वैमन्स्य। ब्रिटिश साम्राज्य को अपनी जड़ें मजबूत करने में इस सिद्धांत से अपेक्षित सहायता भी मिली। हमारे इतिहासकारों और भाषा वैज्ञानिकों ने शिक्षा के क्षेत्र में इसका प्रचार किया। परिणामत: उत्तर और दक्षिण के बीच जातीय आधार पर जो विवाद उत्पन्न हुआ , उसके कठोर परिणाम सामाजिक और राजनैतिक क्षेत्र में भी देखने को मिले। सभी जानते हैं कि एक दो राजनैतिक दलों का गठन भी द्रविड़ शब्द को आधार मानकर किया गया, जिसकी पृष्ठभूमि में स्पष्ट रूप से जातीय पृथकता की बदबू आती है। देखा जाए तो श्रीलंका के लम्बे जातीय संघर्ष के पीछे भी यही विवाद रहा है।
अब जाके हार्वर्ड विश्वविद्यालय और भारतीय शोद्यार्थियों के एक दल ने अपने एक नवीनतम अध्ययन के आधार पर अब यह मत प्रकट किया है कि आर्य और द्रविड़ विभाजन महज एक मूर्खता पूर्ण कल्पना है। इससे सदियों से चली आ रही यह मान्यता कि उत्तर भारतीय लोग आर्य हैं और दक्षिण भारतीय द्रविड़ जाति के हैं, एक कपोल कल्पना (देश को तोड़ने के लिए बनायी गई) के अतिरिक्त कुछ नहीं है।
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.कोशिकीय तथा आणविक जीव विज्ञान केन्द्र (सेंटर फोर सेल्यूलर एंड मॉलिक्यूलर बायॉलजी) अर्थात सीसीएमबी ने इस अध्ययन को हार्वर्ड मेडिकल स्कूल, ऑफ पब्लिक हैल्थ ब्रॉड इन्स्ट्िटयूट ऑफ हार्वर्ड एमआईटी के सहयोग से अंजाम दिया है।
इस अध्ययन के परिणामों ने इतिहास को एक नया मोड़ दे दिया है। इसके अनुसार सभी भारतीय अनुवांशिक रूप में जुड़े हुए हैं। सभी भारतीय एक हैं। उत्तर और दक्षिण भारतीयों के पुरखों का जिनेटिक अंश एक है। सीसीएमबी के वरिष्ठ वैज्ञानिक, के- तंगराज कहते हैं कि ‘आर्य द्रविड़ सिद्धांत’ में जरा भी सच्चाई नहीं है।
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. यह सिद्धांत उत्तर भारतीयों और दक्षिण भारतीयों के अपनी-अपनी जगह जम जाने के सैंकड़ों वर्ष बाद आया। इतिहास की सच्चाई में एक नया मोड़ देने वाले इस अध्ययन के ‘को-ऑथर‘ और सीसीएमबी के पूर्व निदेशक श्री लालजी सिंह का कहना है कि यह शोध-पत्र इतिहास को नए सिरे से लिखेगा। इस अध्ययन के अनुसार 65,000 वर्ष पहले दक्षिण भारत और अंडमान में बस्तियां वजूद में आईं और उसके 25,000 वर्ष बाद उत्तर भारत आबाद होने लगा। धीरे-धीरे उत्तर और दक्षिण भारतीयों का मिलन हुआ और एक मिश्रित पैदाइश ने आकार ले लिया। इस प्रकार दक्षिण और उत्तर भारतीय लोग आनुवांशिकी दृष्टि से परस्पर सम्बद्ध और एक हैं। इससे पूर्व भी विद्वानों ने आर्य और द्रविड़ विभाजन के सिद्धांत का पूर्णत: खंडन किया है। सरस्वती नदी, जो 2,000 ई- पूर्व में सूख गई थी, के अवशेषों की खोज ने भी यह सिद्ध कर दिया है कि सरस्वती घाटी की सभ्यता हजारों वर्ष पूर्व की एक विकसित सभ्यता थी। ऋग्वेद में सरस्वती नदी का बहुलता से गुणगान है, जो हिमालय से निकलकर अरब सागर में मिलती थी। वास्तव में सिंधु और सरस्वती घाटी की सभ्यताएं इसके प्रमाण हैं कि हड़प्पा सभ्यता जो सिंधु से राजस्थान, हरियाणा और उत्तर प्रदेश तक फैली थी, वह एक ही सभ्यता के विभिन्न रूप थे। अब सिंधु घाटी सभ्यता के चिह्न सुदूर केरल के एडक्कल और तमिलनाडु में भी ऐसे अवशेष मिले हैं, जो सिंधु घाटी सभ्यता जैसे हैं। प्रसिद्ध इतिहासकार एमआर राघव वेरियर के अनुसार एडक्कल गुफाओं में प्राप्त ‘घड़ा‘ सिंधु सभ्यता के अवशेषों से बिल्कुल मिलता-जुलता है। सिंधु लिपि के चिह्नों की यहां विद्यमानता सिद्ध करती है कि प्रागैतिहासिक काल में यहां समान सभ्यताएं विकसित थीं। फिर आर्यों का बाहर से आने का सिद्धांत और आर्य द्रविड़ विभाजन पूर्णत: काल्पनिक और साद्देश्य मात्र रह जाता है।
।।जय हिंदुत्व।। ।।जय श्रीराम।। ।।जय महाकाल।। ।।जय श्रीकृष्ण।।
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