Thursday, June 25, 2015

देवताओं द्वारा दिए गए 10 प्रमुख वरदान

देवता उसे कहते हैं, जो हर तरह की वस्तु, सुख, समृद्धि और सिद्धियां देने में सक्षम हैं। आओ जानते हैं देवताओं द्वारा दिए गए ऐसे 10 वरदान जिनको जानकर रह जाएंगे आप हैरान... आपको यह तो मालूम ही होगा कि माता जानकीजी ने हनुमानजी को अजर, अमर और गुणनिधि होने का वरदान दिया था।
पौराणिक कथाओं में आपने अकसर यह सुना होगा कि अजर-अमर होने, स्वर्गलोक प्राप्त करने के लिए किसी विशेष वरदान को प्राप्त करने या फिर कोई अचूक शक्ति हासिल करने के लिए ऋषि-मुनि, सुर-असुर आदि सभी किसी देवता या ब्रह्मा, विष्णु और शिव की कठोर तप करते थे। ये देवता वरदान तो देते थे लेकिन वे इस बात को भी जानते थे कि उस वरदान का कितने प्रकार से दुरुपयोग किया जा सकता है इसीलिए वे कोई ऐसी लीला रचते थे कि उनके वरदान पर भी कोई आंच नहीं आती थी और राक्षसी शक्ति का अंत भी हो जाता था। हालांकि कई बार ये वरदान देवता और मनुष्यों के लिए घातक भी सिद्ध हुए हैं।
 
हिन्दू वेद, पुराण और अन्य स्मृति ग्रंथों में देवताओं द्वारा आम मनुष्य, दानव, दैत्य या राक्षसों को वरदान दिए जाने का उल्लेख मिलता है। कहीं-कहीं तो देवता खुद देवताओं को वरदान देते हैं। उनके द्वारा दिए गए वरदान का कुछ तो सदुपयोग करते हैं तो कुछ दुरुपयोग। कुछ ऐसे वरदान हैं जिनका अवसर आने पर दूसरों को लाभ मिलता है।
 

जैसे... इक्ष्वाकु वंशी महाराजा मांधाता के पुत्र राजा मुचुकुंद को कलियुग के अंत तक सोने का वरदान मिला था लेकिन साथ ही यह भी था कि जो भी मुझे जगाएगा वह तत्काल ही भस्म हो जाएगा। द्वापर युग में कालयवन को श्रीकृष्ण उसी गुफा में ले गए, जहां मुचुकुंद गहरी नींद में सो रहे थे। कालयवन ने उन्हें कृष्ण समझकर लात मारकर उठा दिया था।

हिरण्यकश्यप को मिला था ये वरदान : कश्यप ऋषि के दो पुत्र थे। हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष। दोनों में हिरण्यकश्यप (हिरण्यकशिपु) ज्यादा भयंकर था। हिरण्याक्ष को मारने के लिए ‍भगवान विष्णु को वराह अवतार लेना पड़ा था। हिरण्यकश्यप को कोई मार नहीं सकता था, क्योंकि उसने कठिन तपस्या द्वारा ब्रह्मा को प्रसन्न करके यह वरदान प्राप्त कर लिया कि ‘आपके बनाए किसी प्राणी, मनुष्‍य, पशु, देवता, दैत्‍य, नागादि किसी से मेरी मृत्‍यु न हो। मैं समस्‍त प्राणियों पर राज्‍य करूं। मुझे कोई न दिन में मार सके न रात में, न घर के अंदर मार सके न बाहर। यह भी कि कोई न किसी अस्त्र के प्रहार से और न किसी शस्त्र के प्रहार मार सके। न भूमि पर न आकाश में, न पाताल में न स्वर्ग में।'
इस वरदान ने उसके भीतर अजर-अमर होने का भाव उत्पन्न हो गया था। इसके चलते उसने धरती पर अत्याचार शुरू कर दिया था। लोगों को वह ब्रह्मा, विष्णु और शिव की पूजा-प्रार्थना छोड़कर खुद की पूजा करने का कहता था। जो ऐसा नहीं करते थे उन्हें वह मार देता था।
 
हिरण्यकश्यप को मारने के लिए भगवान विष्णु को नृसिंह अवतार लेना पड़ा था। हिरण्यकश्यप के कई पुत्र थे। उनमें प्रहलाद भगवान विष्णु का भक्त था। विष्णु भक्ति के कारण हिरण्यकश्यप प्रहलाद से इतना नाराज था कि उसने प्रहलाद को मारने का आदेश दे दिया था, लेकिन विष्णु भक्ति के कारण प्रहलाद को कोई मार नहीं सकता था। प्रहलाद को जल में डुबोया गया, पहाड़ से नीचे गिराया गया, अस्त्र-शस्त्र से काटने का प्रयास किया गया, लेकिन हर उपाय असफल रहे। इससे हिरण्यकश्यप चिंतित हो गया।
 
हिरण्यकश्यप को चिंति‍त देख उसकी बहन होलिका ने प्रहलाद को लेकर अग्नि में प्रवेश करने का प्रस्‍ताव रखा। होलिका को वर प्राप्‍त था कि वह स्‍वयं अग्नि में न जलेगी। पर जब होलिका प्रहलाद को गोद में ले चिता पर बैठी तो एक चमत्‍कार हुआ। होलिका जल गई और प्रहलाद बच गए। क्यों? क्योंकि होलिका के मन में पाप था। दूसरे के साथ, हृदय में पाप लेकर बैठने की उसने गलती की थी। वरदान सिर्फ इसलिए था कि अग्नि से उसकी रक्षा होगी तभी रक्षा होगी जबकि कोई उसे जलाने का प्रयास करेगा।
 
इस घटना के बाद हिरण्‍यकश्यप ने प्रहलाद को एक खंभे से बांध दिया। फिर भरी सभा में प्रहलाद से पूछा, ‘किसके बलबूते पर तू मेरी आज्ञा के विरुद्ध कार्य करता है?’ 
 
प्रहलाद ने कहा, ‘आप अपना असुर स्वभाव छोड़ दें। सबके प्रति समता का भाव लाना ही भगवान की पूजा है।'
 
हिरण्‍यकश्यप ने क्रोध में कहा, ‘तू मेरे सिवा किसी और को जगत का स्‍वामी बताता है। कहां है वह तेरा जगदीश्‍वर? क्‍या इस खंभे में है जिससे तू बंधा है?’
 
यह कहकर हिरण्यकश्यप ने खंभे में घूंसा मारा। तभी खंभा भयंकर आवाज करते हुए फट गया और उसमें से एक भयंकर डरावना रूप प्रकट हुआ जिसका सिर सिंह का और धड़ मनुष्‍य का था। पीली आंखें, बड़े-बड़े नाखून, विकराल चेहरा और तलवार-सी लपलपाती जीभ। यही ‘नृसिंह अवतार’ थे। उन्होंने तेजी से हिरण्‍यकश्यप को पकड़ लिया और संध्या की वेला में (न दिन में, न रात में), सभा की देहली पर (न बाहर, न भीतर), अपनी जांघों पर रखकर (न भूमि पर, न आकाश में), अपने नखों से (न अस्‍त्र से, न शास्‍त्र से) उसका कलेजा फाड़ डाला। हजारों सैनिक जो प्रहार करने आए, उन्‍हें भगवान नृसिंह ने हजारों भुजाओं और नखरूपी शस्‍त्रों से खदेड़कर मार डाला।
 
फिर क्रोध से भरे नृसिंह भगवान सिंहासन पर जा बैठे। तब प्रहलाद ने दंडवत होकर उनकी प्रार्थना-पूजा की। प्रहलाद का राजतिलक करने के बाद नृसिंह भगवान चले गए।


भस्मासुर : भस्मासुर एक महापापी असुर था। उसने अपनी शक्ति बढ़ाने के लिए भगवान शंकर की घोर तपस्या की और उनसे अमर होने का वरदान मांगा, लेकिन भगवान शंकर ने कहा कि तुम कुछ और मांग लो तब भस्मासुर ने वरदान मांगा कि मैं जिसके भी सिर पर हाथ रखूं वह भस्म हो जाए। भगवान शंकर ने कहा- तथास्तु। 
भस्मासुर ने इस वरदान के मिलते ही कहा, भगवन् क्यों न इस वरदान की शक्ति को परख लिया जाए। तब वह स्वयं शिवजी के सिर पर हाथ रखने के लिए दौड़ा। शिवजी भी वहां से भागे और विष्णुजी की शरण में छुप गए।
 
तब विष्णुजी ने एक सुन्दर स्त्री का रूप धारण कर भस्मासुर को आकर्षित किया। भस्मासुर शिव को भूलकर उस सुंदर स्त्री के मोहपाश में बंध गया। मोहिनी स्त्रीरूपी विष्णु ने भस्मासुर को खुद के साथ नृत्य करने के लिए प्रेरित किया। भस्मासुर तुरंत ही मान गया।
 
नृत्य करते समय भस्मासुर मोहिनी की ही तरह नृत्य करने लगा और उचित मौका देखकर विष्णुजी ने अपने सिर पर हाथ रखा। शक्ति और काम के नशे में चूर भस्मासुर ने जिसकी नकल की और भस्मासुर अपने ही प्राप्त वरदान से भस्म हो गया।


त्रिपुरासुर : असुर बालि की कृपा प्राप्त ‍त्रिपुरासुर भयंकर असुर थे। महाभारत के कर्ण पर्व में त्रिपुरासुर के वध की कथा बड़े विस्तार से मिलती है। भगवान कार्तिकेय द्वारा तारकासुर का वध करने के बाद उसके तीनों पुत्रों ने देवताओं से बदला लेने का प्रण कर लिया। तीनों पुत्र तपस्या करने के लिए जंगल में चले गए और हजारों वर्ष तक अत्यंत दुष्कर तप करके ब्रह्माजी को प्रसन्न किया। तीनों ने ब्रह्माजी से अमरता का वरदान मांगा। ब्रह्माजी ने उन्हें मना कर दिया और कहने लगे कि कोई ऐसी शर्त रख लो, जो अत्यंत कठिन हो। उस शर्त के पूरा होने पर ही तुम्हारी मृत्यु हो।
 
तीनों ने खूब विचार कर ब्रह्माजी से वरदान मांगा- हे प्रभु! आप हमारे लिए तीन पुरियों का निर्माण कर दें और वे तीनों पुरियां जब अभिजित नक्षत्र में एक पंक्ति में खड़ी हों और कोई क्रोधजित अत्यंत शांत अवस्था में असंभव रथ और असंभव बाण का सहारा लेकर हमें मारना चाहे, तब हमारी मृत्यु हो। ब्रह्माजी ने कहा- तथास्तु!
 
शर्त के अनुसार उन्हें तीन पुरियां (नगर) प्रदान की गईं। तारकाक्ष के लिए स्वर्णपुरी, कमलाक्ष के लिए रजतपुरी और विद्युन्माली के लिए लौहपुरी का निर्माण विश्वकर्मा ने कर दिया। इन तीनों असुरों को ही त्रिपुरासुर कहा जाता था। इन तीनों भाइयों ने इन पुरियों में रहते हुए सातों लोकों को आतंकित कर दिया। वे जहां भी जाते समस्त सत्पुरुषों को सताते रहते। यहां तक कि उन्होंने देवताओं को भी, उनके लोकों से बाहर निकाल दिया। 
 
सभी देवताओं ने मिलकर अपना सारा बल लगाया, लेकिन त्रिपुरासुर का प्रतिकार नहीं कर सके और अंत में सभी देवताओं को तीनों से छुप-छुपकर रहना पड़ा। अंत में सभी को शिव की शरण में जाना पड़ा। भगवान शंकर ने कहा- सब मिलकर के प्रयास क्यों नहीं करते? 
 
देवताओं ने कहा- यह हम करके देख चुके हैं। तब शिव ने कहा- मैं अपना आधा बल तुम्हें देता हूं और तुम फिर प्रयास करके देखो, लेकिन संपूर्ण देवता सदाशिव के आधे बल को सम्हालने में असमर्थ रहे। तब शिव ने स्वयं त्रिपुरासुर का संहार करने का संकल्प लिया। 
 
सभी देवताओं ने शिव को अपना-अपना आधा बल समर्पित कर दिया। अब उनके लिए रथ और धनुष- बाण की तैयारी होने लगी जिससे रणस्थल पर पहुंचकर तीनों असुरों का संहार किया जा सके। इस असंभव रथ का पुराणों में विस्तार से वर्णन मिलता है।
 
पृथ्वी को ही भगवान ने रथ बनाया, सूर्य और चन्द्रमा पहिए बन गए, सृष्टा सारथी बने, विष्णु बाण, मेरू पर्वत धनुष और वासुकि बने उस धनुष की डोर। इस प्रकार असंभव रथ तैयार हुआ और संहार की सारी लीला रची गई। जिस समय भगवान उस रथ पर सवार हुए, तब सकल देवताओं द्वारा सम्हाला हुआ वह रथ भी डगमगाने लगा। तभी विष्णु भगवान वृषभ बनकर उस रथ में जा जुड़े। उन घोड़ों और वृषभ की पीठ पर सवार होकर महादेव ने उस असुर नगर को देखा और पाशुपत अस्त्र का संधान कर तीनों पुरों को एकत्र होने का संकल्प करने लगे।
 
उस अमोघ बाण में विष्णु, वायु, अग्नि और यम चारों ही समाहित थे। अभिजित नक्षत्र में उन तीनों पुरियों के एकत्रित होते ही भगवान शंकर ने अपने बाण से पुरियों को जलाकर भस्म कर दिया और तब से ही भगवान शंकर त्रिपुरांतक बन गए।
 
त्रिपुरासुर को जलाकर भस्म करने के बाद भोले रुद्र का हृदय द्रवित हो उठा और उनकी आंख से आंसू टपक गए। आंसू जहां गिरे वहां 'रुद्राक्ष' का वृक्ष उग आया। 'रुद्र' का अर्थ शिव और 'अक्ष' का आंख अथवा आत्मा है।


महिषासुर : असुर सम्राट रंभ और उसके भाई करंभ ने अग्नि और वरुण देव को प्रसन्न कर उनसे वरदान प्राप्त किया था। जहां अग्नि देव को प्रसन्न करने के लिए असुर रंभ ने आग के छल्ले में बैठकर कठोर तप किया था वहीं करंभ ने जल के भीतर रहकर वरुण देव के लिए तपस्या की थी। अंत में इन्द्र देव ने मगरमच्छ का रूप लेकर करंभ का वध किया था और बाद में इन्द्र के वज्र के वार से रंभ की मृत्यु हुई थी। पानी में रहने वाली भैंस और असुर सम्राट रंभ की संतान महिषासुर ने भी घोर तपस्या की।
 
रंभासुर का पुत्र था महिषासुर, जो अत्यंत शक्तिशाली था। उसने अमर होने की इच्छा से ब्रह्मा को प्रसन्न करने के लिए बड़ी कठिन तपस्या की। ब्रह्माजी उसके तप से प्रसन्न हुए। वे हंस पर बैठकर महिषासुर के निकट आए और बोले- 'वत्स! उठो, इच्छानुसार वर मांगो।' महिषासुर ने उनसे अमर होने का वर मांगा। 
 
ब्रह्माजी ने कहा- 'वत्स! एक मृत्यु को छोड़कर, जो कुछ भी चाहो, मैं तुम्हें प्रदान कर सकता हूं, क्योंकि जन्मे हुए प्राणी का मरना तय होता है। महिषासुर ने बहुत सोचा और फिर कहा- 'ठीक है प्रभो। देवता, असुर और मानव किसी से मेरी मृत्यु न हो। किसी स्त्री के हाथ से मेरी मृत्यु निश्चित करने की कृपा करें।' ब्रह्माजी 'एवमस्तु' कहकर अपने लोक चले गए। 
 
वर प्राप्त करके लौटने के बाद महिषासुर समस्त दैत्यों का राजा बन गया। उसने दैत्यों की विशाल सेना का गठन कर पाताल लोक और मृत्युलोक पर आक्रमण कर समस्त को अपने अधीन कर लिया। फिर उसने देवताओं के इन्द्रलोक पर आक्रमण किया। इस युद्ध में भगवान विष्णु और शिव ने भी देवताओं का साथ दिया लेकिन महिषासुर के हाथों सभी को पराजय का सामना करना पड़ा और देवलोक पर भी महिषासुर का अधिकार हो गया। वह त्रिलोकाधिपति बन गया।
 
भगवान विष्णु ने सभी देवताओं के साथ मिलकर सबकी आदि कारण भगवती महाशक्ति की आराधना की। सभी देवताओं के शरीर से एक दिव्य तेज निकलकर एक परम सुन्दरी स्त्री के रूप में प्रकट हुआ। हिमवान ने भगवती की सवारी के लिए सिंह दिया तथा सभी देवताओं ने अपने-अपने अस्त्र-शस्त्र महामाया की सेवा में प्रस्तुत किए। भगवती ने देवताओं पर प्रसन्न होकर उन्हें शीघ्र ही महिषासुर के भय से मुक्त करने का आश्वासन दिया।
 
भगवती दुर्गा हिमालय पर पहुंचीं और अट्टहासपूर्वक घोर गर्जना की। महिषासुर के असुरों के साथ उनका भयंकर युद्ध छिड़ गया। एक-एक करके महिषासुर के सभी सेनानी मारे गए। फिर विवश होकर महिषासुर को भी देवी के साथ युद्ध करना पड़ा। महिषासुर ने नाना प्रकार के मायिक रूप बनाकर देवी को छल से मारने का प्रयास किया लेकिन अंत में भगवती ने अपने चक्र से महिषासुर का मस्तक काट दिया।


एक दिन कुबेर अपने पिता ऋषि विश्वेश्रवा से मिलने आश्रम पहुंचे तब कैकसी ने कुबेर के वैभव को देखकर अपने पुत्रों रावण, कुंभकर्ण और विभीषण से कहा कि तुम्हें भी अपने भाई के समान वैभवशाली बनना चाहिए। इसके लिए तुम भगवान ब्रह्मा की तपस्या करो। माता की आज्ञा मान तीनों पुत्र भगवान ब्रह्मा के तप के लिए निकल गए।
 
विभीषण पहले से ही धर्मात्मा थे, उन्होंने 5 हजार वर्ष एक पैर पर खड़े होकर कठोर तप करके देवताओं से प्राप्त किया। इसके बाद 5 हजार वर्ष अपना मस्तक और हाथ ऊपर रखकर तप किया जिससे भगवान ब्रह्मा प्रसन्न हुए। विभीषण ने भगवान से असीम भक्ति का वर मांग लिया। विभीषण श्रीराम के भक्त बने और आज भी वे अजर-अमर हैं।
 
कुंभकर्ण ने इंद्रपद की अभिलाषा से अपनी इंद्रियों को वश में रखकर 10 हजार वर्षों तक कठोर तप किया। उसके कठोर तप से भयभीत होकर इंद्रादि देवताओं ने देवी सरस्वती से प्रार्थना कि कुंभकर्ण के वर मांगते समय आप उनकी जिह्वा पर विराजमान होकर देवताओं का साथ देना। तब वर मांगते समय देवी सरस्वती कुंभकर्ण की जिह्वा पर विराजमान हो गईं और कुंभकर्ण ने इंद्रासन की जगह निंद्रासन मांग लिया।


इधर, रावण ने अपने भाइयों से भी अधिक कठोर तप किया। ऋषि विश्वेश्रवा ने रावण को धर्म और पांडित्य की शिक्षा दी। वो प्रत्येक 11वें वर्ष में अपना एक शीश भगवान के चरणों में समर्पित कर देता। इस तरह उसने भी 10 हजार साल में अपने दसों शीश भगवान को समर्पित कर दिए। उसके तप से प्रसन्न हो भगवान ने उसे वर मांगने को कहा।
Ravan

तब रावण ने कहा ‍कि देव, दानव, दैत्य, राक्षस, गंधर्व, किन्नर, यक्ष आदि सभी दिव्य शक्तियां उसका वध न कर सके। रावण मनुष्य और जानवरों को कीड़ों की भांति तुच्छ समझता था इसलिए वरदान में उसने इनको छोड़ दिया। यही कारण था कि भगवान विष्णु को उसके वध के लिए मनुष्य अवतार में आना पड़ा। रावण ने अपनी शक्ति के बल पर शनि और यमराज को भी हरा दिया था।


शुंभ और निशुंभ : शुंभ और निशुंभ नामक दो बड़े ही भयानक दो दैत्य थे जिन्होंने कठोर तप करके भगवान ब्रह्मा से वरदान हासिल किया था। दोनों भाई यह मानते थे कि हमारा अंत कोई स्त्री कैसे कर सकती है? उसकी इतनी सामर्थ्य नहीं हो सकती, तो इसलिए उन्होंने यह वरदान मांगा कि कोई भी पुरुष, देवता, राक्षस, दानव, असुर उनका वध न कर पाए। 
 
बस फिर क्या था। इन दोनों भाइयों के आतंक से तीनों लोकों में हाहाकार मच गया। इन तीनों के आतंक को खत्म करने के लिए ही अंत में मां दुर्गा का अवतार हुआ था।


रक्तबीज : रक्तबीज का नाम तो आपने सुना ही होगा। वह बड़ा ही भयानक असुर था। भूमि पर उसके रक्त की एक भी बूंद गिरती तो उस रक्त से उसी के समान एक और राक्षस पैदा हो जाता। इस तरह युद्ध में उसकी जब हजारों बूंदें गिरीं तो हजारों राक्षस पैदा होकर हाहाकार मचाने लगे। यह भयानक मंजर देखकर देवता भी घबराने लगे। सभी सोच में पड़ गए कि इसे कैसे मारा जाए?
यह रक्तबीज दरअसल अपने पूर्व जन्म में असुर सम्राट रंभ था जिसको इंद्र ने तपस्या करते वक्त धोखे से मार दिया था। रक्तबीज के रूप में उसने फिर से घोर तपस्या की और यह वरदान प्राप्त किया कि उसके शरीर की एक भी बूंद अगर धरती पर गिरती है तो उससे एक और रक्तबीज उत्पन्न होगा। 
 
अंत में महादेव के कहने पर माता काली ने रक्तबीज का वध किया था। शक्ति की अवतार मां काली ने रक्तबीज का सिर काटकर उसके रक्त का पान किया ताकि उसके शरीर की एक भी बूंद धरती का स्पर्श न कर सके।


महिषी : महिषासुर के वध के बाद उसकी बहन महिषी ने प्रतिशोध लेने के लिए ब्रह्माजी की घोर तपस्या की। उसके तप से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी को प्रकट होना ही पड़ा। उसने ब्रह्माजी से वरदान मांगा कि उसका शिव और विष्णु से संयुक्त रूप से उत्पन्न संतान ही उसका वध कर सकती और कोई नहीं।
 
महिषी का अंत करने के लिए बाद में विष्णु के स्त्री अवतार मोहिनी और शिव के संसर्ग से उत्पन्न हुए अयप्पा द्वारा महिषी का अंत हुआ था।
   

राजा बली : सतयुग में असुरों के एक राजा बली हुए, जो महाशक्तिशाली और परम दानवीर थे। असुर वंश में जन्म लेने के बावजूद ये भगवान विष्णु के भक्त थे। इन्होंने अपने बल से इंद्रलोक सहित संपूर्ण पृथ्वी पर आधिपत्य स्थापित कर लिया था।
 
देवताओं की प्रार्थना पर भगवान विष्णु वामन का रूप धारण कर प्रकट हुए और बली से तीन पग भूमि दान में मांगी। दो पग में भगवान ने पृथ्वी व देवलोक को नाप लिया। तीसरा पग रखने के लिए जब कुछ नहीं बचा तब बली ने अपना सिर आगे कर दिया।
 
भगवान राजा बली की उदारता से प्रसन्न हुए और चिरंजीवी होने का वरदान दिया। भगवान विष्णु ने कहा कि चातुर्मास के दौरान वे पाताल लोक में निवास करें और वे पाताल लोक की रक्षा करेंगे।



।।जय हिंदुत्व।। ।।जय श्रीराम।। ।।जय महाकाल।।

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