Sunday, June 28, 2015

परमात्मा की प्राप्ति होने का क्या अर्थ है?

सामवेद के छान्दोग्य उपनिषद् पर विचार करते हुए भगवान् शंकराचार्य हमें बतातें हैं कि परमात्मा की प्राप्ति का तात्पर्य है जीवन में ३ बातें घटित हो जाना –
१. विदेह भाव की प्राप्ति - अर्थात् अपने शरीर से भी ऊपर उठ जाना, यानी अपने शरीर तक में अहंता (मैंपन) और ममता (मेरापन) समाप्त हो जाना। नित्यपरिवर्तनशील पाञ्चभौतिक शरीर कुछ काल के लिये हमें मिलता है, जिसका उद्देश्य है अपने शुभ-अशुभ कर्मों के अनुसार सुख-दुःख का भोग। इसमें हम या तो ममता (मेरापन) कर लेते हैं – “आज मेरा बदन दुःख रहा है, आज मेरा शरीर भारी-भारी सा हो रहा है” आदि आदि, या फिर इसमें अहंता (मैंपना) कर लेते हैं – “मैं मोटा हो गया हूं, मैं बहुत सुन्दर हूं” आदि आदि। अखिल ब्रह्माण्ड व्यापक चैतन्य तत्त्व का साक्षात्कार हो जाने पर इस शरीर के साथ दिख रहा यह तुच्छ तादात्म्य समाप्त हो जाता है, यही परमात्मप्राप्ति का प्रथम लक्षण है। जिसकी शरीर में ही अहंता-ममता समाप्त हो गयी हो, उसकी अन्यत्र अहंता-ममता रह जाय, ये तो असंभव ही है।
२. परम ज्योति की प्राप्ति – प्रत्येक प्राणी के हृदय में ज्ञानस्वरूप चैतन्यतत्त्व विराजमान है, जो हमारे लिये विषय-जगत् को वैसे ही प्रकाशित कर रहा है, जैसे अंधेरे कमरे में रखा हुआ दीपक उस कमरे में रखी वस्तुओं को प्रकाशित करता है। यही प्राणिमात्र के हृदय में विद्यमान परम ज्योति है। सामान्यतः जीवन में हम इस परम ज्योति से प्रकाशित हो रही वस्तुओं की चेतना तो रखते हैं, लेकिन उन वस्तुओं को प्रकाशित करने वाली इस ज्योति की चेतना से वंचित रह जाते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो इस अन्तःप्रकाश से प्रकाशित हो रही वस्तुओं का भान तो हमें सदैव होता रहता है, पर उन्हें प्रकाशित करने वाले इस अन्तःप्रकाश का भान नहीं हो पाता। इस समस्त दृश्यमान जगत् के साक्षीभूत अन्तःप्रकाश की अनुभूति होने लगे, यही परमात्मप्राप्ति का द्वितीय लक्षण है।
३. अपने वास्तविक स्वरूप की प्राप्ति – जब मनुष्य जन्म लेता है, तो अधिकतर उपाधियों से रहित ही जन्म लेता है। पर जैसे-जैसे बड़ा होने लगता है, वैसे-वैसे उपाधियां जुड़ती चली जाती हैं – लड़का, छात्र, स्नातक, डाक्टर-वकील, हिन्दू-मुसलमान इत्यादि। जैसे-जैसे ये उपाधियां जुड़ती चली जाती हैं, व्यक्ति का इनसे गहरा तादात्म्य होने लग जाता है। वह इन्हें ही अपना वास्तविक स्वरूप मानने लगता है। परन्तु जो हमारा वास्तविक स्वरूप है - हृदयस्थ शुद्ध चैतन्य प्रकाश, वह तो इन सभी उपाधियों से अतीत है, अछूता है। जिसको उस वास्तविक स्वरूप की अनुभूति होने लगती है, वह इन उपाधियों से ऊपर उठने लगता है, फिर ये उपाधियां उसके लिये अपने अर्थ को खो देती हैं। उपाधियां सदैव बांटती हैं, विभाजित करती हैं, उसके लिये यह विभाजन समाप्त हो जाता है। वह सभी के साथ एक हो जाता है। पूरा विश्व ही उसका अपना स्वरूप हो जाता है। इसी को आचार्यों की भाषा में “स्वस्थ” अर्थात् स्व = अपने में, स्थ = स्थित कहते हैं।
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उपरिलिखित विचार के शास्त्रीय आधार – “किं तस्य परमात्माधिगमेन - “ (आनन्दगिरि टीका छान्दोग्योपनिषद् ८.७.१) अर्थात् परमात्मा की प्राप्ति होने पर क्या होता है? - “सोऽस्माच्छरीरात्समुत्थाय परं ज्योतिरुपसंपद्य स्वेन रूपेणाभिनिष्पद्यते” (शांकर भाष्य छान्दोग्योपनिषद् ८.७.१) अर्थात् वह ज्ञानी महापुरुष अपने शरीर से ऊपर उठ कर, परम ज्योति को प्राप्त करके अपने स्वरूप को प्राप्त कर लेता है। “शरीरात्समुत्थानं तस्मिन्नहंममाभिमानत्यागः” (आनन्दगिरि टीका छान्दोग्योपनिषद् ८.७.१) अर्थात् शरीर से ऊपर उठना = शरीर में अहंता और ममता के अभिमान का परित्याग। “ज्योतिरुपसंपद्य स्वास्थमुपगम्य” (शांकर भाष्य छान्दोग्योपनिषद् ८.३.४) अर्थात् परम ज्योति को प्राप्त कर लेने का भाव है स्वस्थता प्राप्त कर लेना, स्वस्थ हो जाना॥

।।जय हिंदुत्व।। ।।जय श्रीराम।। ।।जय महाकाल।।

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