Tuesday, June 23, 2015

रावन का अहंकार

यह घटना राम-रावण युद्ध के समय की है। इस युद्ध में एक ऐसा भी वक़्त आया जब बेहद शक्तिशाली एवं बलशाली राजा ‘रावण’ भी खुद को कमज़ोर महसूस करने लगा। युद्ध का आगाज़ हो चुका था और एक के बाद एक लंकेश रावण के राक्षस सैनिक मारे जा रहे थे। दूसरी ओर श्रीराम की वानर सेना का नुकसान भी हो रहा था। लेकिन कोई भी परिणाम सामने नहीं आ रहा था।
रावण के कई महान योद्धा मारे जा चुके थे। अब उसे अपनी हार समीप आते हुई दिखाई दे रही थी। लेकिन तभी उसने मन ही मन अहंकार की भावना व्यक्त करते हुए सोचा, “अरे! मैं तो लोकेश्वर हूं। मुझे कोई कैसे हानि पहुंचा सकता है। सभी देव मुझसे भयभीत होते हैं तथा एक दास की भांति मेरी आज्ञा का पालन करते हैं।“
“फिर मुझे कैसे कोई मार सकता है? किसी भी देवता एवं प्राणी में इतनी शक्ति नहीं जो लंकेश्वर का विनाश करने की क्षमता रखता हो।“ अपना सीना चौड़ा करते हुए रावण के मन से निकले यह विचार उसे कुछ सांत्वना देने में सफल हुए। लेकिन अगले ही पल उसे फिर एक चिंता सताने लगी।
उसने सोचा कि यदि किसी कारण से उसे कोई पराजित करने की हालत में पहुंच जाए, तो वह खुद को बचाने के लिए क्या करेगा। उसने सोचा कि ऐसी अवस्था में तो उसे किसी शक्तिशाली राजा की आवश्यकता पड़ेगी। एक ऐसा राजा जो हर क्षेत्र में मजबूत हो तथा उसे सहारा देने की क्षमता रखता हो।
“लेकिन ऐसा राजा मिलेगा कहां”, परेशान रावण ने खुद से सवाल किया। वह सोचने लगा कि उसे कोई ऐसा राजा ही सहारा दे सकता है जो उससे भी अधिक बलवान हो। लेकिन दूसरे ही पल उसे यह अहसास हुआ कि समस्त संसार में उससे अधिक बलवान कोई भी नहीं है। ना तो देवों में इतनी ताकत है और ना ही किसी अन्य प्राणी में। अब रावण को किसी ऐसे राजा की तलाश थी जो उससे भी अधिक तेजस्वी हो। तभी उसे ‘राजा बलि ’ का ख्याल आया।
वह सोचने लगा कि राजा बलि ही एकमात्र ऐसे महाराज हैं जिनकी शक्तियों के आगे सब व्यर्थ हैं। वह शूरवीर हैं तथा केवल वही हैं जो रावण को सहारा देने की क्षमता रखते हैं। रावण की तरह ही राजा बलि भी एक राक्षस परिवार से सम्बन्धित थे।
इसीलिए रावण का उनसे जाकर मदद मांगना उसे युक्तियुक्त लगा। लेकिन महाराज बलि का नाम मुख पर आते ही रावण को याद आया कि वे तो इस वक्त ‘सुताल ग्रह’ पर निवास कर रहे होंगे। और यदि वह उनसे मिलना चाहता है तो उसे स्वयं वहां जाना होगा। अगले ही पल रावण ने वहां जाने का फैसला कर लिया।
सुताल लोक पहुंचते ही रावण ने प्रवेशद्वार पर भगवान विष्णु के अवतार ‘वामनदेव’ को महाराज बलि के द्वार रक्षक के रूप में पाया। वामनदेव को देख रावण समझ गया कि हो ना हो वामनदेव उसे भीतर जाकर महाराज बलि से मिलने से जरूर रोकेंगे। इसीलिए उसने उन्हें नजरअंदाज करते हुए अंदर दाखिल होने का प्रयास किया, लेकिन वह असफल हुआ।
जैसे ही रावण ने आगे बढ़ने की कोशिश की तो वामनदेव द्वारा दरवाज़े के आगे गदा रखते हुए ‘ना’ का स्वर निकाला गया। जिसका अर्थ था कि उसे भीतर जाने की आज्ञा प्रदान नहीं की जाएगी। अब रावण समझ गया था कि वामनदेव के रहते हुए वह भीतर जाने का प्रयास भी करे तो व्यर्थ जाएगा। इसीलिए उसने एक सूक्ष्म रूप धारण किया, जिस वजह से कोई भी उसे देख नहीं सकता था।
उसने सोचा कि ऐसा करने से वह द्वार के बीचो-बीच बने छोटे से मार्ग से भीतर चला जाएगा। लेकिन रावण इस बात से अनजान था कि वह कितना भी प्रयास कर ले, वामनदेव की दृष्टि से नहीं बच सकता। वामनदेव ने रावण के सामने उसकी सूक्ष्म अवस्था से खुद को अनजान होने का नाटक किया, जिसका फायदा उठाकर रावण करीब-करीब द्वार के निकट आ गया था कि तभी वामनदेव का पांव रावण के ऊपर पड़ गया। रावण चिल्ला रहा था, उसे कहीं से भी सांस नहीं मिल रही थी। उसके श्वास खत्म हो रहे थे।
लेकिन यहां पर रावण चिल्ला रहा था और किसी प्रकार से बाहर निकलना चाहता था। अब वामनदेव समझ गए थे कि रावण का दंड पूरा हो चुका है इसीलिए उन्होंने रावण को छोड़ दिया और भीतर जाने दिया। भीतर पहुंचते ही रावण अपने पूर्ण स्वरूप में आ गया और बाहर जो कुछ ही हुआ उसे भुलाते हुए महाराज बलि को प्रणाम किया और बोला, “महाराज की जय हो! मैं यहां आपके समक्ष एक निवेदन लेकर आया हूं।“
रावण को देख राजा बलि कुछ चकित हुए लेकिन फिर उससे उसके आने का कारण पूछा तो वह बोला, “महाराज। इस पूरे विश्व में ऐसा कोई नहीं जो त्रिलोकेश्वर रावण की रक्षा कर सके। केवल आप ही मेरी सहायता कर सकते हैं।“ राजा बलि रावण की बात ध्यान से सुन ही रहे थे कि बीच में बोले, “एक बात बताओ। तुम भीतर कैसे आए? क्या तुम्हे द्वार पर वामनदेव ने नहीं रोका?
“नहीं, वामनदेव में इतना साहस कहां कि वो मुझे रोक सके”, अहंकारी रावण ने जवाब दिया। लेकिन राजा बलि बोले, “नहीं लंकेश्वर! वामनदेव ने तुम्हें रोका था लेकिन फिर तुम्हारी कराह सुनकर दयावान होकर उसने तुम्हें भीतर आने दिया।“
यह सुन रावन अपना क्रोध रोक ना सका और बोला, “दया? वो भी मुझ पर महाराज? समस्त संसार में ऐसा कोई नहीं है जो मुझ जैसे सर्वोच्च देव पर दयावान होने का साहस कर सके।“ रावण के मुख से सर्वोच्च देव नामावली सुनते ही राजा उठ खड़े हुए और बोले, “क्या कहा तुमने? सर्वोच्च देव! किसने कहां तुमसे कि तुम सर्वोच्च देवता हो। और ऐसा कौन सा सर्वोच्च देवता है जो मुझसे मदद मांगने आया है। यदि तुम मुझसे मदद चाहते हो तो सर्वोच्च देव तो मैं ही हुआ।“
रावण अब कुछ लज्जित महसूस करने लगा लेकिन उसने राजा बलि से अनुरोध किया कि कृपा करके वे उसकी मदद करें। तब राजा बलि ने आंखें बंद की और ध्यान लगाया। उन्होंने बंद आंखों से देखा कि दशरथ पुत्र श्रीराम अपनी पत्नी सीता को रावण के चंगुल से आज़ाद करने के लिए उससे युद्ध लड़ने आए हैं। और इसी वजह से रावण उनके पास मदद की गुहार लेकर आया है। राजा ने आंखें खोली और रावण से कहा, “रावण! तुम श्रीराम की पत्नी सीता को छोड़ दो। यही तुम्हारे लिए उचित होगा।“
इस पर रावण को क्रोध आया और वह बोला, “नहीं! मैं नहीं छोड़ूंगा। कोई मेरा क्या नुकसान कर लेगा। और मैं क्यों सीता को छोड़ दूं? उसे आज़ाद कराने के लिए कुछ वानर ही तो आए हैं। मैं उन सबका विनाश कर दूंगा।“ रावण की मूर्खता पर हंसते हुए राजा बलि बोले, “कुछ वानर? यह वही वानर हैं जिसमें से केवल एक ने ही तुम्हारी लंका नगरी अपनी पूंछ के सहारे भस्म कर दी। दूसरे वानर का तुम पांव का अंगूठा तक ना हिला सके। और तीसरा वानर भी तुम्हारा काफी नुकसान कर गया। और तुम कहते हो कुछ वानर? सुनो रावण, यह वानर तो अभी केवल संदेश लेकर तुम्हारे पास आए थे, सोचो अगर ये युद्ध के मकसद से आते तो तुम्हारा क्या हश्र होता!”
“इससे भी बड़ी बात यह है कि तुम्हारा अपना अनुज, विभीषण भी श्रीराम के हित में युद्ध लड़ रहा है। वह तुम्हारे घर का भेदी बनकर तुम्हारे विरुद्ध खड़ा है। इस प्रकार से तुम कभी युद्ध जीत नहीं पाओगे। इसीलिए सीता को श्रीराम को वापस करना ही तुम्हारी भलाई है”। लेकिन रावण मानने के लिए तैयार ही नहीं था जिस पर राजा बलि ने उसकी मदद करने का फैसला किया लेकिन एक शर्त पर।
वह उसे एक खुले मैदान में ले गया जहां एक विशाल पहाड़ था। यह पहाड़ सोने तथा हीरे से भरा था। पहाड़ को देखते ही रावण की आंखें चौंधिया गईं और वह बोला, “अत्यंत सुंदर। महाराज, आपको यह भव्य पर्वत किसने दिया? यह तो सोने से बना हुआ है जिस पर हीरे जड़े हुए हैं।“
रावण के प्रश्न के उत्तर में राजा बलि ने उससे कहा कि यह उन्हें किसने दिया इससे उसे कोई सम्बन्ध नहीं रखना चाहिए। वह बस अपने बल से इस विशाल पहाड़ को उठाकर दिखाए। यदि वह ऐसा कर लेता है तो राजा उसे युद्ध में जीतने के लिए मदद करेंगे। खुद को बेहद शक्तिशाली मानने वाला रावण आगे बढ़ा और उसने पर्वत उठाने का साहस किया लेकिन पर्वत उठा सकना तो दूर रावण उसे हिलाने में भी असमर्थ रहा।
इस पर राजा बलि ने रावण को पर्वत छोड़ पीछे आने को कहा और आग्रह किया कि वह पर्वत को ध्यान से देखकर बताए कि वह कैसा लगता है। तब रावण बोला कि यह तो किसी के कानों की बाली (या झुमका) के प्रकार का लगता है जो सोने से बनी है और उस पर हीरे जड़े हुए हैं।
“बिल्कुल सही कहा तुमने। वास्तव में यह बाली हिरण्यरकश्यप की थी। भगवान नृसिंह से युद्ध करते हुए उनकी यह बाली स्वर्गलोक से धरती पर आ गिरी थी। उस जन्म में तुम ही हिरण्यहकश्यप थे। यह तुम्हारी ही बाली थी जिसे तुम पहनते थे और देखो आज तुम इसे उठा भी नहीं पा रहे हो”, रावण को असलियत से रूबरू कराते हुए राजा बलि बोले।
वे आगे बोले, “इससे तुम अनुमान लगा सकते हो कि तुम्हारी ताकत कितनी कम हो गई है। उस जन्म में नृसिंह भगवान विष्णु के रूप थे और आज भी विष्णुजी के ही रूप श्रीराम तुम्हारा वध करने आए हैं, और उनसे तुम्हें कोई नहीं बचा सकता।“ इस प्रकार से राजा बलि ने रावण को चेतावनी तो दी लेकिन वह कुछ भी समझ ना सका और चुपचाप वहां से वापस चला गया।
।।जय हिंदुत्व।। ।।जय श्रीराम।। ।।जय महाकाल।।

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